शुम्पीटर का विकास प्रारूप / मॉडल

शुम्पीटर का विकास प्रारूप / मॉडल

शुम्पीटर ऑस्टे्रलिया के मोराविया प्रान्त (जो आजकल जैकोस्लोवेकिया में है ) उम पैदा हुये थे उन्होने रूस ऑस्टे्रलिया, जर्मनी, कोलाम्बिया व अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालयों में पढ़ाया उनके विकास के सिद्वान्तों को हम तीन पुस्तको से लेते है। :-
  1. The Theory of economic development - 1912
  2. Business cycles (2 Volumes, 1939)
  3. Capitalism, socialism and democracy
बेन्जामिन हिगिन्स के अनुसार शुम्पीटर 20वीं सदी में विकास मॉडल देने वाले प्रथम अर्थशास्त्री थे। आर्थिक विकास के ऐतिहासिक क्रम में शुम्पीटर का महत्वपूर्ण स्थान हैं। परम्परावादी विचार-धारा तथा कार्ल माक्र्स का विचार विकास सिद्वान्त को निराशावादिता की ओर ले जाता है। यदि एक ओर हासमान नियम तथा जनसंख्या की वृद्धि स्थिर अवस्था पर पहुंचाती है तो दूसरी तरफ अन्तर्निहित विरोधाभासों के कारण पूंजीवाद का विकास एक स्थिति पर आने के बाद ठप्प हो जाता है। शुम्पीटर का विश्लेषण इन निराशावादी चिन्ताओं से मुक्त हैं। 

इस प्रकार शुम्पीटर मॉडल के अध्ययन से समझ सकेंगे कि इसमें सहज रूप से एक आशावादी झलक मिलती है।

शुम्पीटर के अनुसार - ‘‘आर्थिक विकास वृत्तीय प्रवाह में होने वाला एक आकास्मिक तथा असतत् परिवर्तन हैं। अर्थात् संतुलन की एक ऐसी हलचल है जो पूर्व स्थापित साम्य की स्थिति को सदा के लिए बदल देती है।’’

शुम्पीटर के विकास प्रारूप का इतिहास

जोसेफ एलोइ शुम्पीटर (Josepn Alois Schumpiter) ने पहली बार 1911 में जर्मनी भाषा में प्रकाशित The Throry of Economic Development में अपना सिन्द्वात प्रस्तुत किया। इसका अग्रेंजी संस्करण 1934 में प्रकाशित हुआ। बाद में Business cycle (1939) और Capitalism, Socialism and democracy (1942) में इस सिद्धान्त को परिष्कृत एवं परिवर्धित किया गया। इन्होंने विकास के सम्बन्ध में पूर्ण विचार प्रस्तुत किये है।

शुम्पीटर के विकास प्रारूप का आर्थिक जगत में महत्वपूर्ण स्थान है। शुम्पीटर के मॉडल में प्रतिष्ठित मॉडलो से भिन्नता हैं परन्तु यह प्रतिष्ठित माडलों से ज्यादा प्रभावपूर्ण है। इन्होंने साहसी को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है।

शुम्पीटर के विकास प्रारूप की मान्यताएं

  1. शुम्पीटर ने ऐसी अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की है जहां पूर्ण प्रतियोगिता हैं जो स्थिर साम्य की अवस्था है।
  2. स्थिरावस्था साम्य जहां, जहां न तो अधिक लाभ की स्थिति है और न तो हानि की स्थिति हैं न बचत है न निवेश है और न ही बेरोजगारी की स्थिति है। इन सारी चीजो को शुम्पीटर ने एक आर्थिक चक्र से बताया है। जो कृमिक रूप से चलता रहता है। चक्रीय प्रक्रिया में एक समान उत्पादन होता रहता है।
  3. शुम्पीटर के अनुसार अर्थ व्यवस्था का विकास नवप्रवर्तनों पर निर्भर करता है। और नवप्रर्वतन का कार्य उद्यमी के ऊपर निर्भर करता है।
  4. शुम्पीटर ने आर्थिक विकास को एक असतत चलने वाली प्रक्रिया माना है।

शुम्पीटर का विकास प्रारूप की विवेचना

आर्थिक विकास से अर्थ

आपकों शुम्पीटर के विकास प्रारूप का अध्ययन करने के लिए आर्थिक विकास के अर्थ को जानना आवश्यक शुम्पीटर के अनुसार आर्थिक विकास से हमारा अभिप्राय आर्थिक जीवन में घटित होने वाले केवल उन्ही परिवर्तनों से हैं जिनको उपर से लादा नहीं जाता हैं। बल्कि वे स्वयंभूत प्रेरणाओं से भीतर से ही प्रकट होते है।

आर्थिक जीवन का चक्रीय उच्चावचन

शुम्पीटर आर्थिक विकास की प्रक्रिया की ब्याख्या चक्रीय प्रवाह ;ब्पतबनसंत सिवूद्ध से प्रारम्भ करते है। जो बिना विनाश के निरंतर चलती रहती हैं। अर्थात जो प्रति वर्ण एक ही तरह से उसी प्रकार अपनी पुनरावृत्ति करता रहता है। जिस प्रकार जीवों में रक्त का संचरण होता है। इस वृत्तीय प्रवाह में प्रत्येक वर्श उसी ढंग से वहीं वस्तुये उत्पादित होती है। आर्थिक प्रणाली में कहीं प्रत्येक पूर्ति के समान मांग प्रतीक्षा करती हैं तथा प्रत्येक मांग के लिए समान पूर्ति/दूसरे शब्दों में, समस्त आर्थिक क्रियाएं एक समय समस्त अर्थव्यवस्था में पुनरावृत्ति करती है।

शुम्पीटर के लिए - वृत्तीय प्रवाह एक सरिता है। जो कि श्रम शक्ति और भूमि पर निरन्तर प्रवाह हो रहे झरनों की संतुष्टि में रूपान्तरण किया जाये। उनके अनुसार विकास वृत्तीय प्रवाह की दिशाओं में आकस्मिक तथा अनिरन्तर परिर्वतन संतुलन की फलन है जो पहले की विद्यमान संतुलन स्थिति को सदा के लिए परिवर्तित तथा विस्थापित कर देती है। शुम्पीटर के अनुसार - अर्थव्यवस्था स्थिर संतुलन में रहती है तथा स्थिर संतुलन में अर्थव्यवस्था पूर्ण प्रतियोगिता मूलक संतुलन में रहती है। अर्थात् निम्नलिखित स्थितियां पायी जाती है।
  1. उत्पादन की मांग उत्पादन की पूर्ति  D=S
  2. कीमत = औसत लागत,   P=AC
  3. लाभ = शून्य, P=O
  4. ब्याज की दर = लगभग शून्य, Ri=Just O
  5. बेरोजगारी = नही के बराबर, D = Demand, S= Suppy, P= Profit, R= Rate of interest, N= unemployed

आर्थिक विकास एक असतत प्रक्रिया

ऊपर के अध्ययन से आप समझ गए होंगें कि आर्थिक विकास एक चक्रिय प्रक्रिया है । शुम्पीटर ने आर्थिक विकास को वृत्तीय प्रवाह का असतत् विचलन माना है। उनका विकास प्रारूप यह है कि - आर्थिक विकास इस वृत्तीय प्रवाह में होने वाला एक आकास्मिक तथा असत्त परिवर्तन है अर्थात् सन्तुलन की एक ऐसी हलचल है जो पूर्व स्थापित साम्य की स्थिति को सदा के लिए बदल देती है। तो वृत्तीय प्रवाह में बाधा या विचलन किस रूप में होता है शुम्पीटर के अनुसार यह बाधा या विचलन नव प्रवर्तनों के रूप में आती है।

नवप्रवर्तनों की भूमिका

अब आप यह समझ चुके हैं कि शुम्पीटर ने अपने मॉडल में आर्थिक विकास को अससत् प्रक्रिया माना है, अब हम नवप्रवर्तनों की भूमिका का अध्ययन करेंगें-

नव प्रवर्तनों के रूप - शुम्पीटर के अनुसार नवप्रवर्तन निम्न प्रकार हो सकता है।
  1. किसी नवीन वस्तु का उत्पादन करना ।
  2. उत्पादन की किसी नवीन प्रविधि का प्रचलन होना नये बाजारों की खोज होना।
  3. कच्चे माल के लिए नये पूर्ति श्रोतों का पता लगाना ।
  4. एकाधिकार स्थापित करने की तरह किसी उद्योग के नये संगठन को कार्यान्वित करना ।
नवप्रवर्तनों के कार्य - शुम्पीटर के अनुसार आर्थिक विकास का कार्य स्वत: नहीं होता बल्कि इस कार्य को विशेश प्रयास व जोखिम के साथ शुरू करना होता है। यह कार्य नवप्रवर्तक अर्थात् उद्यमी करता है। पूंजीपति नहीं। पूंजीपति केवल पूंजी प्रदान करता है जबकि उद्यमी उसके प्रयोग का निदेशन करता है। शुम्पीटर का कहना है कि साहसी के सम्बन्ध में स्वामित्व नहीं बल्कि नेतृत्व अधिक महत्वपूर्ण होता है।

अत: साधारण प्रबन्धकीय योग्यता वाले व्यक्ति में जोखिम उठाने व अनिष्चतता वहन करने की योग्यता नहीं होती। यह कार्य उद्यमी द्वारा किया जाता हैं इस प्रकार उद्यमी शुम्पीटर के विकास सिद्वान्त की केन्द्रीय शक्ति है। साहसी विकास का मुख्य प्रेरक श्रोत हैं। वह नवीनताओं का सृजनकर्ता है उत्पादन की तकनीक में क्रान्ति का अधिष्ठाता है और बाजारों के विस्तार का श्रेय भी उसे ही दिया जाता है। ‘‘साहसी अथवा उद्यमी की तुलना युद्व की व्यूह रचना करने वाले उस निडर व कुशाग्र बुद्वि वाले कमाण्डर से की जा सकती है, जो लड़ाकू फौज में प्रतिक्षण साहस, रणकौशल व उत्साह की भावना भरता रहता है। 

शुम्पीटर के शब्दों में- ‘‘स्थिर अर्थव्यवस्था में साहसी बहाव के साथ तैरता हैं, गतिशील अर्थव्यवस्था में उसे बहाव के विपरीत तैरना होता है। साहसी विकास मंच का नेता है अन्य उसके अनुगामी होते है। वह स्वाभिमानी तथा विवकेशील होता है। उसमें जूझने की प्रवृत्ति होती है। वह जीतने का संकल्प रखता है। और उसमें अपने आपको जीतने दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रबल इच्छा होती है। वह केवल लाभ के लिए ही जोखिम नहीं उठाता बल्कि सफलता प्राप्त करना भी उसका एक लक्ष्य होता है।

उद्यमी की भूमिका, तथा प्रेरित करने वाले तत्व - अब तक के अध्ययन से आप उद्यमी के भूमिका तथा कार्यों से परिचित हो गए है... अब आप उद्यमी की भूमिका को प्रेरित करने वाले तत्व के विशय में अध्ययन करेंगें। उद्यमी को मुख्य रूप से तीन बातें प्रेरित करती है :-
  1. नवीन वाणिज्य साम्राज्य की स्थापना करने की लालसा।
  2. अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की इच्छा
  3. अपनी शक्ति तथा प्रवीणता के प्रयोग करने की प्रसन्नता।
उद्यगी को अपना आर्थिक कार्य करने के लिए दो चीजों की आवश्यकता है।
प्रथम - नई वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए आवष्यक तकनीकी ज्ञान की उपलब्धता। द्वितीय - ऋण के रूप में उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण की शक्ति अर्थात बैंक साख की सुविधा।

शुम्पीटर की धारणा थी की समाज में तकनीकी ज्ञान का एक ऐसा भंडार विद्यमान रहता है। जिसे अभी तक खोला नहीं गया है। और इसका प्रयोग पहले उद्यमी द्वारा किया जाता है। इस तरह, संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विकास की दर समाज में तकनीकी ज्ञान भण्डार में परिवर्तन का फलन है। तकनीकी परिर्वतन की दर उद्यमियों के सक्रिय होने के स्तर पर निर्भर करती है और यह सक्रियता स्तर नये उद्यमियों के प्रकट होने तथा शाखा निर्माण की मात्रा द्वारा निर्धारित होता है।

पूंजी, लाभ एवं व्याज 

शुम्पीटर के अनुसार पूंजी केवल वह स्तर है जिसके द्वारा उद्यमी जिन वस्तुओं को चाहता है। उनको अपने नियंत्रण में रखता है। अन्य शब्दों में पूंजी उत्पादन के साधनों को नये प्रयोगो की ओर ले जाने अर्थात् उत्पादन को नया मोड़ देने का साधन हैं। उनके अनुसार लाभ लागतों का अन्तर है।

शुम्पीटर के अनुसार - प्रतियोगी संतुलन में प्रत्येक वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत के बराबर होती है। अत: लाभ नहीं उत्पन्न होते। नवप्रर्वतन से होने वाले गत्यात्मक परिवर्तनों के कारण लाभ उत्पन्न होते है। वे उतनी देर तक बने रहते है। जब तक कि नवप्रर्वतन सामान्य नहीं हो जाते। पूंजी और लाभ की तरह शुम्पीटर ब्याज को भी विकास की देन मानता है। यह वर्तमान उपभोग का भविष्य के उपभोग पर अधिमान हैं। परन्तु लाभ की तरह यह विकास की सफलताओं का प्रतिफल नहीं है अर्थात् यह विकास की सफलताओं का प्रतिफल नहीं है बल्कि यह विकास पर रूकावट की तरह है। यह उद्यमीय लाभ पर एक कर की तरह हैं।

वृत्तीय प्रवाह को तोड़ना - शुम्पीटर का मॉडल वृत्तीय प्रवाह को एक नवप्रवर्तन से भंग करने से प्रारम्भ होता है। जो एक उद्यमी लाभ कमाने के लिए एक नई वस्तु के रूप में करता है। शुम्पीटर की धारणा के अनुसार चूकि एक पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों के नये व अच्छे संयोग की सम्भवनायें सदा विद्यमान रहती है। अत: साहसी इन लाभ सम्भावनाओं का फायदा उठाने के लिए नये प्रयोग अर्थात् नवप्रवर्तन करते है जिनके लिए बैंको से ऋण लिया जाता है। चूंकि नवप्रवर्तनों में निवेश में जोखिम होती है। अत: उन्हे ऋण पर ब्याज देना होगा। नवप्रवर्तन जब एक बार सफल हो जाता है। और लाभ देने लगता है तब अधिक संख्या में अन्य उद्यमी उसका अनुकरण करने लगते है। एक क्षेत्र में नवप्रवर्तन सम्बन्ध क्षेत्रों में नवप्रवर्तनों को प्रोत्साहन दे सकता है। मोटरकार उद्यमी प्रारम्भ होने के परिणाम स्वरूप सड़कों रबर टायरों तथा पेट्रोल इत्यादि के उत्पादन में नये निवेशों की लहर फैला सकता है। परन्तु एक नव प्रवर्तन कभी शत-प्रतिशत नहीं होता है।

पूंजीवादी विकास की चक्रीय प्रक्रिया

शुम्पीटर का विचार था कि नवप्रवर्तन हेतु जब बैंको से ऋण लिया जाता है। तो साख का विस्तार होता है। नवप्रवर्तन हेतु किये गये निवेश में वृद्धि से मौद्रिक आय और कीमतें बढ़ने लगती है। जो आगे चलकर समस्त अर्थ समस्याओं के संचयी विस्तार की दशाये उत्पन्न कर देती है। शुम्पीटर ने इस आर्थिक चेतना को उद्यमी ने नवप्रवर्तन की प्राथमिक लहर की संज्ञा दी है। बढ़ती हुई कीमतें लाभ को बढा़ती है इससे उत्साहित होकर उद्यमी बैंको से ऋण लेकर निवेश को बढ़ाते है इससे उत्पादन का और अधिक विस्तार होता है लाभ की प्रवृत्तिया जहां से फर्म को प्रोत्साहन देती हे वहां आय व लाभ की सम्भावना नये विनियोगी को जम्न देने लगती है। फलस्वरूप बैंको से अधिक मात्रा में ऋण लिये जाते है। इससे साख- स्फीति की द्वितीयक लहर प्रेरित होती है। जो नवप्रवर्तन की प्राथमिक लहर पर अध्यारोपित हो जाती है। 

शुम्पीटर ने इसे समृद्वि की आवश्यक दर कहा है। कुछ समय पश्चात नई वस्तुयें बाजार में आना शुरू हो जाती है जो पुरानी वस्तुओं को विस्थापित करती है। और दिवालियापन पुन: समायोजन तथा खपत की प्रक्रिया शुरू होती है। बाजार में नई वस्तुओं तथा फर्म के प्रवेश से उत्पादन इकाईयों में परस्पर प्रतिस्पर्धा होती है। शुम्पीटर ने इसे सृजनात्मक विनाश की प्रक्रिया का प्रथम चरण कहा है। पुरानी वस्तुओं की मांग घट जाती है। उनकी कीमते घट जाती है। लाभ के कम होने से पुरानी फर्मे जमा उद्यमी घटाती है और कुछ का तो दीवाला भी निकल जाता है। इस तरह नई फर्मो के सामने पुरानी फमेर्ं बाजार में ठहर नहीं पाती। जब नवप्रवर्तक लाभों में से बैंक ऋण वापस करना शुरू कर देते है तो मुद्रा की मात्रा घट जाती है। और कीमतें गिरने लगती है। लाभ कम हो जाते है अनिश्चितता तथा जोखिम बढ़ जाती हैं नवप्रवर्तक की प्रेरणा घटती है। और अन्त में समाप्त हो जाती है। असंतुलन एवं असामान्य की प्रक्रिया के फलस्वरूप बैंक अपना रूपया वापस लेने लगते है। जिससे मुद्रा विस्फीति की दशा उत्पन्न होती है। प्रवर्तन क्रियाओं से शिथिलता आती है। फलस्वरूप कीमतों व मौद्रिक आय में ह्रास होना शुरू हो जाता है। शुम्पीटर ने इस समस्या को प्रतिसार अवस्था कहा है। इस अवस्था के पश्चात नये सिरे से तथा नये ढ़ंग से नवप्रवर्तन किये जाते है। इससे नई तेजी प्रारम्भ हो जाती है। शुम्पीटर ने इसे पुनरूत्थान की अवस्था कहा है। इस तरह विकास की यह पूरी प्रक्रिया अपने को पूर्व की भॉति दोहराती है। और अंतत: देश की आर्थिक प्रणाली पुन: साम्य की स्थिति प्राप्त कर लेती है मन्दी के बाद का यह संतुलन बिन्दु पुराने संतुलन बिन्दु से ऊॅंचा होता है। 

शुम्पीटर के अनुसार - इस चक्रों की निश्चित अवधि नहीं होती और इन चक्रो को गम-खुशी के चक्र कहतें है।

पूंजीवाद के विनाश की प्रक्रिया

शुम्पीटर के विश्लेशण में उद्यमी ही प्रमुख व्यक्ति है। वह आकास्मिक तथा असतत ढ़ग से आर्थिक विकास करते है। ‘‘चक्रीय उतार-चढ़ाव पूंजीवाद के अन्तर्गत आर्थिक विकास की कीमत है। ‘‘जो उसके गत्यात्मक समय मार्ग की स्थायी विशेशता है। दीर्घकाल में निरंतर प्रोद्योगिकीय प्रगति का परिणाम होगा कि कुल तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन में असीम वृद्धि हो जायेगी क्योंकि ऐतिहासिकता से प्रौद्योगिकीय प्रगति के घटते प्रतिफल नही होते। जब तक प्रौद्योगिकीय प्रगति होती रहेगी तब तक लाभों दर की धनात्मक रहेगी इसलिए न तो निवेश योग्य कोणों के श्रोत ही सूख सकते है। और न ही निवेश के अवसर ही समाप्त हो सकते है। परन्तु पूंजीवाद पद्धति के इस गुणगान का यह कदायि अर्थ नही है कि पूंजीवाद पद्धति को रहने दिया जाये, यह पद्धति मानव जाति के कन्धे से गरीबी का बोझ दूर नहीं कर सकती। इसलिए पूंजीवादी समाज में प्रति व्यक्ति आय के स्तर पर कोई ऊंची सीमा नहीं होती है। फिर भी पूंजीवाद की आर्थिक सफलता का परिणाम अंत में उसकी तबाही होगी। 

पूंजीवाद के भविष्य पर अंतिम टिप्पणी देते हुये शुम्पीटर न लिखा था- ‘‘क्या पूंजीवाद क्या रहेगा? नहीं, मै समझता हॅू कि वह बच नहीं पायेगा। उनके अनुसार- पूंजीवाद की सफलता ही , इन सामाजिक संस्थाओं की जड़ खोदती है। और उसकी रक्षा करती है, और अनिवार्य रूप से ऐसी परिस्थितिया उत्पन्न करती है, जिसमें पूंजीवाद नहीं जी सकता, और प्रबलता से समाजवाद के स्पष्ट वारिस होने का संकेत करता हैं’’ कार्ल माक्र्स की ही भांति शुम्पीटर भी इस धारणा के समर्थक थे कि पूंजीवाद का अन्त सुनिश्चित है। अन्य शब्दों को पूंजीवाद व्यवस्था अपने विनाश की दशाये स्वयं उत्पन्न करती है। शुम्पीटर ने पूंजीवाद के पतन के लिए तीन प्रमुख कारणों को उत्तरदायी बताया है।

1. उद्यमी कार्य का महत्व समाप्त होना - प्रारम्भ में उद्यमी चक्रीय प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करके विकास क्रम को चालू करता है लेकिन धीरे-धीरे चक्र एक प्रकार से दैनिक कार्य हो जाता है। बड़े-बड़े उद्योगों में यह उनकी कार्य प्रणाली का ही एक आवष्यक अंग हो जाता है और इस प्रकार के उद्यमियों को अलग से कोई विशिष्ट महत्व नहीं रह जाता है। शुम्पीटर के शब्दों में - उद्यमियों के लिए कुछ भी करने को नहीं रह जाता लाभ गिरने लगता है। ब्याज शून्य हो जाता है उद्योग और व्यापार का प्रबन्ध एक सामान्य प्रशासन का रूप ले लेता है। और प्रबन्धक अन्ततोगत्वा नौकरशाही (मैनेजर) का रूप धारण कर लेते है।

2. बुर्जुआ परिवार का बिखरना - धीरे-धीरे बुर्जुआ परिवार बिखरने लगता है। तर्क और बुद्धिमान पारिवारिक जीवन में प्रवेश कर जाते है। परिवार का भी लाभ, लागत के अनुसार लोग विचार करते है। फलस्वरूप घर का विचार ध्वस्त हो जाता है। और इसमें संग्रह की प्रवृति नष्ट हो जाती है जो कि पूंजीवाद की प्रेरक शक्ति है।

3. पूंजीवादी समाज के संस्थानिक ढांचे का विघटन :- उद्यमी के न केवल आर्थिक तथा समाजिक कार्य समाप्त हो जाते है वरन् धन के एकत्रीकरण तथा बड़े-बड़े औद्योगिक संस्याओं के स्थापित हो जाने से निजी सम्पति तथा प्रसंविदा की स्वंतन्त्रता आदि महत्वहीन होने हो जाती है जो पूंजीवादी की प्रमुख संस्थायें है। 

शुम्पीटर का कहना है- ‘‘कि पूंजीवाद की मौत का घंटा बजाने के लिए उपर्युक्त शक्तिया ही काफी नहीं है पूंजीवाद एक ऐसे असंतुष्ट बुद्धिजीवी वर्ग को जन्म देता है। जो बेरोजगार हैं तथा जिसके पास विचार स्वतंन्त्रता जीवन के प्रति साहसी रहा है (नवप्रवर्तन) ये बुद्धिजीवी वर्तमान सामाजिक ढांचे के प्रति असंतोश को संगठित करके उसे नेतृत्व प्रदान करता है। जो पूंजीवाद की धारणा का विरोध करते है चूंकि बुद्धिजीवी स्वत: के संगठन द्वारा पूंजीवाद को समाप्त नहीं कर सकता अत: वह श्रमिको को संगठित करके इसका सहारा लेता है। धीरे-धीरे पूंजीवाद रूपी किला रक्षाहीन हो जाता है।

शुम्पीटर के विकास मॉडल का अर्थव्यवस्था में महत्व

शुम्पीटर का सिद्धान्त आर्थिक विकास के मुख्य साधन के रूप में स्फीतिकारी वित्त एंव नवप्रवर्तनों के महत्व को रेखाकित करता है। स्फीतिकारक वित्त व्यवस्था उन शाक्तिशाली ढ़गो में से एक मानी पाती है जिसे प्रत्येक अल्पविकसित देश किसी न किसी समय अपनाने का अवश्य प्रयास करता है। नवप्रवर्तनों से एक ओर उत्पादकता व दूसरी ओर से रोजगार में वृद्धि में होती है। यद्यपि यह पाश्चात्य पूंजीवाद की समस्याओं में सम्बन्ध रखता है। फिर भी जब एक बार औद्योगिकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाये तो यह निश्चित रूप से उन समस्याओं की ओर संकेत दे सकता है कि व्यर्थ तथा अतिरिक्त कठिनाईयों से कैसे बचा पाये जो आयोजनाओं तथा असमन्वित विकास में रहती है।

शुम्पीटर के विकास प्रारूप की आलोचना

मॉयर तथा वाल्डविन के अनुसार-शुम्पीटर के सिद्धान्त को एक ऐसा प्रमुख कार्य कहना चाहिये जिसे निश्चय से स्मिथ, रिकार्डो मिल, माक्र्स, मार्शल तथा कीन्स जैसे अर्थशास्त्रियों के योग्य तथा समकक्ष माना जा सकता है। यह शानदार तर्क एक बड़े सैद्वान्तिक की अंतर्दृष्टि से आपूर्ति है। फिर भी वे इस सिद्वान्त की कटु आलोचनायें करते है।

1. नवप्रवर्तन उद्यमी का कार्य नहीं - शुम्पीटर के सिद्वान्त की समाप्त प्रक्रिया उद्यमी व नवप्रर्वतन पर आधारित है जिसे वह एक आर्दश व्यक्ति मानता है। यह भी 18वीं तथा 18वीं शताब्दी में सम्भवस्त: जब नवप्रर्वतक उद्यमी या अविश्कारों द्वारा किये जाते है। परन्तु वर्तमान में सभी प्रकार के नवप्रर्वतन कम्पनियों के कार्य क्रम का एक आय है। इनके लिए किसी विशेश प्रकार की व्यक्ति आवश्यकता नहीं समझा गया है। 

2. आर्थिक विकास के लिए चक्रीय प्रक्रिया आवश्यक नहीं - शुम्पीटर के अनुसार - नवप्रवर्तनों से आर्थिंक विकास चक्रीय प्रक्रिया में होता है। परतुुं यह सही नही। आर्थिक विकास के लिए मंदी वेतन का चक्र आवष्यकता नहीं। इसका सम्बन्ध निंरतर परिवर्तनों से होता है। जैसा कि नर्कसे में कहा है।

3. नवप्रवर्तन ही विकास का मुख्य कारण नही - शुम्पीटर नवप्रवर्तन को ही विकास का मुख्य कारण मानता है पंरतु यह वास्तविकता से दूर है, क्योंकि आर्थिक विकास केवल नवप्रवर्तनों पर निर्भर नहीं करता बल्कि कई अन्य आर्थिक एवं सामाजिक तत्वों पर निर्भर करता है। 

4. चकर््रीय परिवर्तन नवप्रवर्तनों के कारण नहीं :- फिर मंदी व तेजी नवप्रवर्तनों के ही कारण नहीं होती इसके कई मनोविज्ञानिक, प्राकृतिक, वित्तिय आदि कारण भी होते है। 

5. बैंंक साख को अधिक महत्व :- शुम्पीटर पूंजी निर्माण में बैंक साख को आवष्यकता से अधिक महत्व देता है। बड़े-बडे़ औद्योगिक संस्थान अल्पकाल में तो बैंक से साख ऋण प्राप्त कर सकते है। परन्तु दीर्घकालीन नवप्रवर्तनों के लिए जिसमें पूंजी की अधिक आवश्यकता होती है। बैंक ऋण अपर्याप्त होते है। इसके लिए ऋण पत्र तथा नये शेयरो को बेचकर ही पूंजी प्राप्त की जा सकती है। 

6. पूंजीवाद से समाजवाद की प्रक्रिया सही नहीं - शुम्पीटर का पूंजीवादी से समाजवादी की ओर जाने का विश्लेशण सही नहीं, वह इस बात का विश्लेशण नहीं करता कि पूंजीवाद समाज समाजवाद की ओर कैसे अग्रसर होता है। वह केवल यह बताता है कि उद्यमी के कार्यो में परिवर्तन होने से पूंजीवादी समाज का संस्थानिक ढांचा परिवर्तित हो रहा है। उसका पूंजीवाद के नाश का विश्लेशण भावुक है। न कि वास्तवकि। 
अन्त में, मायर तथा बाल्डविन के शब्दों में- ‘‘शुम्पीटर विकास का बृहत सामाजिक आर्थिक विश्लेषण किया हैं उसकी सर्वत्र प्रशंसा की जाती है परंतु बहुत कम लोग उसके निष्कर्णो को स्वीकार करने के लिए तैयार है। उसका तर्क उत्तेजक है उसका विश्लेशण उछयिक है पर वह पूर्ण रूपेण विश्वनीय नहीं है। उसका विश्लेशण एकतरफा है तथा उसने कई बातों पर आवष्यकता से अधिक जोर दिया। ‘‘

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