जापान में मेजी पुनर्स्थापना के कारण, महत्व एवं परिणाम

19 वीं शताब्दी के मध्य चरण में, जापान में विदेशियों के प्रवेश और उनके साथ जापान की सत्ता के केन्द्र शोगून द्वारा सन्धि करने से व्यापक प्रतिक्रिया हुई। इस काल में चीन और जापान दोनों देशों का एक ही प्रकार की स्थिति का सामना करना पड़ा था। दोनों देशों ने अपने-अपने तरीके से पश्चिमी साम्राज्य विस्तार के विरूद्ध प्रतिक्रिया की। चीन ने पश्चिमी साम्राज्यवाद को रोकने के लिए युद्ध का सहारा लिया और पराजित हुआ। जबकि जापान ने तर्कसंगत तरीके से प्राचीन और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिये जापान को तैयार करने का निश्चय किया और जापान अपने लक्ष्य में विजयी हुआ।

जापान में मेजी पुनर्स्थापना के कारण

जापान के विभिन्न सत्ता केन्द्रों को समझ लें तो मेईजी पुर्नस्थापना को समझना अधिक सरल हो जाएगा। बारहवीं सदी में जापान में शोगून व्यवस्था का प्रारंभ हुआ था। जापान का सम्राट क्योटो में एकान्तवास करता था। उसका प्रशासनिक कार्यो में कोई भूमिका नहीं थी। वह पवित्र, देवतुल्य एवं पूज्यनीय मात्र था। सम्राट शक्तिशाली सामन्तों को शोगून की उपाधि प्रदान करता था जिसका अभिप्राय ‘बर्बरों का दमन करने वाला’ सर्वोच्च सैनिक अधिकारी होता था। सबसे अधिक शक्तिशाली ‘शोगून’ परिवार को शासन सत्ता सौंपी जाती थी और उसकी राजधानी येडो में थी। उसके अधीन दाइम्यों (सामन्त) होते थे, उनके अधीन समुराई वर्ग होता था जो सैनिक अधिकारी होते थे और राष्ट्र पर मर मिटने के लिये सदैव तैयार रहते थे। इनके अतिरिक्त सामान्य जनता का राज्य अथवा प्रशासन कार्य में कोई भूमिका नहीं थी। 1603 ई. से तोकुगावा वंश का शोगून व्यवस्था पर वर्चस्व चला आ रहा था।

सम्राट राष्ट्र की एकता का प्रतीक था और जनता की श्रद्धा और भक्ति का केन्द्र था। राज्य के प्रशासनिक कार्यों की समस्त जिम्मेदारी शोगून पर थी। वह युद्ध करने, सन्धि करने, अधिकारियों की नियुक्ति करने, कर लगाने, वसूल करने, दण्ड देने आदि का कार्य उसी के द्वारा सम्पन्न होता था। सम्राट से नाममात्र के लिये स्वीकृति प्राप्त कर ली जाती थी। इस द्वैध शासन -प्रणाली में अनेक दुर्बलताएं आ गई थी जिनका विरोध अन्य शोगून, सामन्त तथा सामान्य जन कर रहे थे।

1. जापान में पाश्चात्य प्रवेश से उत्पन्न परिस्थिति- अमेरिका के साथ सन्धि करके जापान ने पाश्चात्य देशों के लिए अपने द्वार तो खोल दिए थे, मगर समस्या यह थी कि इन विदेशी शक्तियों के साथ जापान का व्यवहार किस प्रकार का हो। जापान के पुरातनपंथी और रूढ़िवादी विदेशियों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन उनकी संख्या बहुत सीमित थी इसलिए उनकी आवाज पर ध्यान नहीं दिया गया। जापान में एक ऐसा वर्ग भी था जो समझौतावादी प्रवृत्ति का था और ‘प्राच्य नैतिकता और पाश्चात्य विज्ञान’ के समन्वय पर जोर दे रहा था। इस वर्ग का कहना था कि पश्चिम का मुकाबला करने के लिए, परिवर्तनों के साथ पाश्चात्य भाषा सीखनी चाहिए, उनके ज्ञान-विज्ञान और तकनीक को अपनाना चाहिए। यह वर्ग पश्चिमी विज्ञान और युद्ध कला को अपनाये जाने का प्रबल समर्थक था।

जापान का पूर्ण पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण पर जोर देने वाला वर्ग अधिक सशक्त था। इस वर्ग का कहना था कि जापान में अपने-आपको समय के अनुकूल ढालने और पाश्चात्य देशों के बराबर आ जाने के गुण हैं। वे विरोधाभासी स्थिति से निकलकर एक तरफा खेल खेलना चाहते थे। अन्त में, इसी वर्ग की विचारधारा के पक्ष में जापान होता गया जिसमें शोगून व्यवस्था के अन्त और सम्राट की पुर्नस्थापना के बीज छिपे थे।

2. शोगून शासन- व्यवस्था के प्रति असन्तोष- जापान में विदेशियों के आगमन के समय, अनेक प्रकार का असन्तोष व्याप्त था। तोकुगावा ( प्रमुख शोगून परिवार) से अन्य सामन्त नाराज थे। शोगून उनको अपने अधीन रखने के लिए षड़यन्त्र रचता रहता था। शोगून की इजाजत के बगैर अन्य सामन्तो को किले बनाने, उनकी मरम्मत करने, लड़ाकू जहाज बनाने, सिक्का ढालने आदि के अधिकार नहीं थे। उन्हें कुछ समय शोगून की राजधानी येदों में रहना पड़ता था अन्यथा अपने बीबी-बच्चों को बन्धक रूप में वहीं छोड़ना पड़ता था। वर्तमान परिस्थितियों में सभी सामन्त शोगून के विरूद्ध संगठित होने लगे।

राज्य के उच्च एवं महत्वपूर्ण पदों पर भी तोकुगावा परिवार के लोगो को ही नियुक्त किया जाता था। प्रमुख सामन्त परिवार चोशू, सातसूमा और तोसा प्रमुख शोगून की इस व्यवस्था से खासे नाराज थे। प्रमुख शोगून की सामन्त विरोधी नीति के कारण सामन्तों को अपने खर्चो में कटोती करनी पड़ी, उन्हें अपने सैनिकों की संख्या कम करनी पड़ी, जिससे सामुराई वर्ग में भी असन्तोष फैल गया। वे अपनी इस स्थिति के लिए तोकुगावा परिवार को जिम्मेदार मान रहे थे।

19 वीं शताब्दी में व्यापारिक उन्नति के कारण समाज में एक उन्नत धनी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग पर्याप्त रूप में धन सम्पन्न था। सामन्त अपनी आवश्यकताओं के लिए इनसे कर्ज लेते थे तथापि समाज में व्यापारियों का स्थान सामन्तों से निम्न था। परिवर्तित परिस्थितियों में व्यापारी वर्ग सामाजिक परिवर्तन के लिए जोर लगा रहा था।

सामन्ती व्यवस्था का समस्त बोझ किसानों के कन्धों पर था। वे करो के भार से दबे जा रहे थे, उनमें भी राजनीतिक- सामाजिक जागरण आ रहा था और वे सामन्त एवं शोगून व्यवस्था के स्थान पर सम्राट की व्यवस्था के पक्षधर थे।

जापान में सैनिक कार्य केवल समुराई वर्ग के लोग ही कर सकते थे, सामान्य जन को सैनिक कार्यों से दूर रखा जाता था। समाज का प्रत्येक वर्ग किसी न किसी कारण से शोगून व्यवस्था से नाराज था और विदेशियों के आगमन ने उनके असन्तोष में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि कर दी।

3. जापानी साहित्य, शिक्षा एवं अतीत का चिंतन- 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में तोकुगावा परिवार ने जापान को संगठित किया और अन्य छोटे सामन्तों की शक्ति को कम करके शान्ति स्थापित की। शान्ति काल में जापान के प्राचीन साहित्य एवं शिक्षा पर जोर दिया गया। चिन्तन की नवीन धारा विकसित हुई। राज्य की ओर से पुस्तकों के सग्रंह के कार्य को प्रोत्साहित किया गया, इतिहासकारों ने राष्ट्र के अतीत का विस्तृत अध्ययन किया। धर्म का पुनरूद्वार किया गया, जिसके फलस्वरूप जापान के अधिपति सम्राट को और अधिक आदर प्राप्त होने लगा। इतिहासकारों की अधिक महत्वपूर्ण खोज यह थी कि राष्ट्र का न्यायसम्मत एवं उचित शासक सम्राट है और शोगून-तन्त अपेक्षाकृत बाद की चीज है। विद्वानों के बीच यह विचार जोर पकड़ने लगा कि शोगून को अपने पद से त्याग पत्र दे देना चािहए और सम्राट को उसके वास्तविक अधिकार मिलने चाहिए

4. ताकेगावा शोगून का विरोध- 1853 ई में शोगून द्वारा अमेरिका एवं अन्य राष्ट्रों के साथ सन्धि का विरोध अन्य प्रतिद्विन्द्व सामन्तों ने किया। जापान के शक्तिशाली सामन्त परिवार, जो तोकुगावा शोगून से नाराज थे, तोकूगावा शोगून को सत्ता से हटाना चाहते थे। जापान में यूरोपीय राष्ट्रों के प्रवेश से इन विरोधी सामन्तों को तोकुगावा शोगून को अपदस्त करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। वे विदेश विरोधी लहर को वे हवा देने लगे। विदेश विरोधी आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया जिसका उद्देश्य शोगून की सत्ता को समाप्त करके सम्राट के अधिकारों को बहाल करना था।

5. सामन्तों द्वारा सम्राट की बहाली के लिए आवाज उठाना- तोकुगावा शोगून द्वारा छोटे- बड़े सभी सामन्तों की शक्ति और अधिकारों को संकुचित कर दिया गया था। अब जबकि विदेशी प्रभाव जापान में बड़ा तो इन सामन्तों का कहना था कि तोकुगावा ने विदेशों के साथ सन्धि की है इसलिए शोगून व्यवस्था समाप्त की जानी चाहिए। शोगून की कमजोरी और अदूरदर्शिता के कारण जापान का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। ये सामन्त शोगून से प्रत्यक्ष तो टक्कर ले नहीं सकते थे। इसलिए उन्होंने ‘बर्बरों को निकालो, शोगून को हटाओ तथा सम्राट की शक्ति में वृद्धि करो का नारा लगाया, इस प्रकार 1854 ई. के बाद से शोगून व्यवस्था की समाप्ति की मांग जोर पकड़ने लगी।

6. विदेशियों के विरूद्ध भावना- जापान में इस समय विदेशियों के विरूद्ध भावनाएँं तेजी से बढ़ रहीं थी। जापान के लोग विदेशियों को बाहर निकालों के नारे लगा रहे थे। सामन्त तो आमजन की भावनाओं को भड़का ही रहे थे, स्वयं सम्राट कोमेई भी विदेशियों के विरूद्ध हो गया। चोशू के सामनतों ने सम्राट से मुलाकात की और देश की परिस्थितियों पर वार्ता की। तत्पश्चात 25 जून 1863 ई. को सम्राट ने शोगून को आदेश दिया कि वह विदेशियों को देश से बाहर निकाले। शोगून, वर्तमान परिस्थितियों में इस कार्य को असम्भव मान कर चल रहा था। तब, चोशू के सामन्तो ने विदेशियों को निकालने का कार्य अपने हाथ में ले लिया। फलत: एक अमेरिकी जहाज पर गोलीबारी करके, उसे नष्ट कर दिया गया। अमेरिकी युद्धपोत ने भी जापान के दो युद्धपोत नष्ट कर दिए।

एक अन्य घटना ने भी जापान विदेशी संर्घर्ष में वृद्धि की। सातसूमा के सामन्त का एक जुलूस निकला रहा था। जापान में नियम था कि जब किसी सामन्त का जुलूस निकले तो लोग रास्ते से हट जाएँ और सम्मान प्रकट करें। रिचर्डसन नामक अग्रेंज अपने तीन घुड़सवारों के साथ उसी रास्ते से निकल रहा था। उसने सातसूमा के सामन्त के लिए न तो रास्ता छोड़ा और न ही उसके प्रति सम्मान प्रकट किया जिसके कारण सामन्त के साथ चल रहे सामूराई क्रोद्धिात हो उठे और रिचर्डसन की हत्या कर दी। ब्रिटिश सरकार ने जापान सरकार तथा सातसूमा के सामन्त को हर्जाना देने के लिए कहा। सात अग्रेजी जहाज हर्जाना वसूल करने के लिए कागोशीमा पहुँचे और गोलीबारी करके एक जहाज डूबों दिया। इस घटना से जापान में विदेश विरोधी घृणा और तीव्र हो गई जिसका अन्त सम्राट की बहाली से ही सम्भव था।

7. चोशू के सामन्त और शोगून में संघर्ष- चोशू और सातसूमा के सामन्त विदेशियों से संघर्ष कर चुके थे जिसमें नुकसान चोशू और सातसूमा सामन्तों का ही हुआ था। उन्होंने विदेशियों के विरूद्ध शक्ति संगठित करने का निश्चय किया उन्होंने सामूराई तथा सामान्य जनता को मिली जुली स्थाई सेनाएं संगठित कर लीं। सामान्य जनता को सैनिक के रूप में पहली बार स्थान मिला था इससे सामान्य जनता ने सामन्तों के साथ बढ़ चढ़कर भाग लिया। उधर चोशू और सातसूमा की कार्यवाही से नाराज शोगून ने चोशू सामन्तों के दमन के लिए एक विशाल सेना भेज दी। इससे पूर्व की चोशू सामन्त सेना को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाता सातसूमा ने हस्तक्षेप किया और चोशू सामन्त को नष्ट होने से बचा लिया। उधर चोशू सामन्तों के सैनिकों ने हथियार डालने से इन्कार कर दिया और जनवरी-मार्च 1865 में क्रान्ति का नारा बुलन्द कर दिया, सरकारी दफ्तरों और राजधानी को अपने अधिकार में ले लिया। 7 मार्च 1866 ई. को चोशू और सातसूमा सामन्तों के मध्य एक गुप्त समझौता हुआ जिसमें शोगून व्यवस्था को समाप्त करने का निर्णय लिया गया।

8. शोगून का अन्त और मेईजी की पुर्नस्थापना- जनवरी 1867 ई. में तोकुगावा केईकी नया शोगून बना। वह प्रगतिशील विचारों का था और संघर्ष को टाल कर मिलजुलकर कार्य करना चाहता था। मगर चोशू, सातसूमा, तोशा और हिजेन सामन्त, परिवार किसी भी मूल्य पर शोगून को बर्दाश्त नहीं करना चाहते थे। उधर फरवरी 1867 में सम्राट कोमेई का निधन हो गया। नया सम्राट मूतसुहितो गद्दी पर बैठा। जिसकी उम्र लगभग 15 वर्ष थी। 3 जनवरी 1868 को चोशू, सातसूमा तथा उनके सहयोगी सामन्तों की फौजों ने महल को अपने अधिकार में ले लिया और सम्राट की पुर्नस्थापना की घोषणा कर दी। सम्राट द्वारा ‘मेईजी’ (शानदार) उपनाम धारण किया गया। इस घटना को मेईजी ईशीन’ (मेईजी की पुर्नस्थापना) कहा गया।

9. शोगून का अन्त- तोकुगावा केईकी ने इस परिवतर्न को स्वीकार कर लिया और अपना त्याग पत्र सम्राट के पास भेज दिया, यद्यपि अन्य तोकुगावा सामन्त नवीन व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे मगर उनकी शक्ति को पूरी तरह कुचल दिया गया। और 12 वीं शताब्दी से चली आ रही शोगून व्यवस्था का अन्त 1868 ई. में हुआ जबकि सम्राट (मेईजी) की पुर्नस्थापना हुई।

10. नवीन शपथ पत्र - शोगून व्यवस्था के अन्त एवं सम्राट की पुर्नस्थापना 6 अप्रेल 1868 को एक शपथ-पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें कहा गया था-
  1. साम्राज्य के संगठन एवं उसको सुदृढ़ बनाने के लिए किसी भी देश के ज्ञान- विज्ञान, बुद्धि, विवेक को स्वीकार किया जाएगा।
  2. जनता के सभी वर्गो को चाहे वह किसी भी स्थिति के हों, राष्ट्र की प्रगति में भागीदार बनाया जाएगा।
  3. सभी को स्वेच्छा एवं स्वतन्त्रता से अपने व्यवसाय अपनाने का अधिकार होगा।
  4. निरर्थक रीति रिवाज और रूढ़ियों को समाप्त किया जाएगा। सभी के साथ समान न्याय एवं निष्पक्षता का व्यवहार किया जाएगा।
  5. एक परामर्श दात्री नियुक्त की जाएगी। सभी निर्णय परामर्श से ही किए जाएगे। अप्रेल 1868 ई. में सभी सामन्तों ने इस पर अपनी स्वीकृति की मोहरें लगा दी।

जापान में मेईजी पुनर्स्थापना का महत्व एवं परिणाम

जापान के इतिहास में मेईजी पुन: स्थापना का महत्व व्यापक अर्थो में लिया जाता है। लगभग 650 वर्षो से चली आ रही शोगून व्यवस्था का अन्त करके सम्राट के पद की पुर्नस्थापना आसान कार्य नहीं था। किन्तु यह सत्य है कि एक क्रान्ति हुई और वह भी रक्तहीन, जिसमें सामन्तों ने अपने अधिकार छोड़े और सम्राट के प्रति अपनी सद्भावना प्रकट की। 1789 की फ्रांस की क्रान्ति के बाद सामन्तों और कुलीनों ने अपने अधिकार आमजन के पक्ष में छोड़े थे। मगर यहाँ सम्राट की पुर्नस्थापना के लिए सामन्त एकजुट हुए थे।

सम्राट की पुर्नस्थापना से सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त हुआ। 650 वर्षो से एकान्तवास में रहा सम्राट का पद जनता के सम्मुख जीवन्त हो उठा। सामान्य जन ने अपने सम्राट के प्रति भक्ति भावना एवं आस्था प्रकट की।
सामन्ती सोच के पतन के साथ ही नवीन सम्राट, युवा सम्राट, युवा नेतृत्व और नवीन सोच, जापान के लिए एक नये युग का सन्देश लेकर आई।

नये ‘‘सम्राट मूतसुहीतो (मेईजी) ने क्योता के स्थान पर येदों को राजधानी बनाया जिसका नया नाम टोकियो रखा गया। यहाँ स्थित शोगून का दुर्ग सम्राट का महल बन गया। नयी राजधानी भौगोलिक दृष्टि से देश के केन्द्र में थी। सम्राट द्वारा केन्द्र में रहने से उसका एकान्तिक, पृथक और अधिकार विहीन जीवन समाप्त हुआ। अब वह आमजन की पहुँच में था। मेईजी पुन: स्थापना के कारण जापान साम्राज्यपाद के चँगुल में फँसने से बच गया।
यदि सामन्त रहते तो वे विदेशियों के आगे घुटने टेकने को विवश हो जाते मगर अब सभी सामन्त विदेशी विरोधी भावना को लेकर समा्रट के साथ थे, जापान में अभूतपूर्व राष्ट्रीयता का उदय हुआ और देश साम्राज्यवादियों के हाथों में जाने से बच गया।

मेईजी पुर्नस्थापना के कारण और जापान से विदेशी छाप हटाने के लिए आमजन संगठित हुए। देश के सैन्यबल को पुन राष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया गया। आर्थिक क्षेत्र में औधोगिकरण के तीव्र विकास को अपनाया गया। शासन-प्रशासन को व्यवस्थित किया गया। ससंद की स्थापना की गई।

पुर्नस्थापना ने जापान की चहुँमुखी विकास की प्रगति का मार्ग प्रशास्त कर दिया। विदेशियों के ज्ञान- विज्ञान को अपनाकर उसका उपयोग जापानी संस्कृति के अनुरूप किया गया। पश्चिमी देशों के समकक्ष पहुँचने के लिए पाश्चात्य ढंग के कल-कारखाने, उद्योग, शिक्षा, उच्चशिक्षा, सेना आदि में सुधार किए गए।

विनाके ने लिखा, ‘‘पुनर्स्थापना आन्दाले न की सफलता ने र्परम्पराओ  एवं सस्थाओं को स्थापित किया तथा यूरोपिय नवीन विचारों के आधार पर देश का पुन: संगठन किया गया।’’

सामन्तवादी व्यवस्था में आम जनता की कोई भूमिका नहीं थी मगर सम्राट की पुर्नस्थापना ने आम नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए।

1869ई. में दक्षिण-पश्चिम के चार बड़े दाइम्यों (सामन्तों)ने स्थानीय प्रशासन को सम्राट के हाथों में सौंप दिया। तीन सौ के लगभग सामन्तों में से अधिकांश ने स्वेच्छा से अपनी जागीरें सम्राट को सौंप दी। इस प्रकार, पश्चिमी देशों के सम्पर्क ने एक बार फिर देश भक्ति की उस भावना को उद्बोधित किया जिसका निर्माण तोकुगावा प्रशासन के अन्तर्गत शताब्दियों तक स्थिर एकता तथा बूशीदों द्वारा विकसित राज्य निष्ठा ने किया था। राष्ट्र पे्रम की इस भावना के कारण ही सम्राट के अधीन एक सुसंगन्ति प्रशासन सम्भव हुआ। मेईजी पुर्नस्थापना के कारण जापान के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। नवीन जापान का जन्म हुआ जिसने विकास के पथ पर तेजी से कदम बढ़ाए। द्रुतगति से औद्योगिकीकरण हुआ एवं सैन्यवाल में पर्याप्त वृद्धि की गई जिसके परिणामस्वरूप जापान शीघ्र ही साम्राज्यवाद की राह पर चल निकला।

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