जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार

लोकनायक जयप्रकाश नारायण एक राजनीतिक दार्शनिक की अपेक्षा एक सामाजिक दार्शनिक अधिक थे। उन्होंने जीवन भर साधारण जनता के कल्याण के लिए अपना संघर्ष किया। उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार को सभी सामाजिक समस्याओं की जड़ माना और समय-समय पर राजनीति में सुधारों के बारे में अपने मूल्यवान सुझाव दिए ताकि राजनीति में नैतिक साधनों का उचित प्रयोग किया जा सके। उन्होंने व्यवहारिक समस्याओं के अनुरूप ही राजनीतिक विचारों का प्रतिपादन करके भारतीय राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अपना अमूल्य योगदान दिया। 

जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार 

1. समाजवाद की अवधारणा

अपने अमेरिकी प्रवास के दौरान जयप्रकाश नारायण ने लेनिन तथा मार्क्स के साम्यवादी साहित्य का अध्ययन किया और भारत आने पर उनकी सोच मार्क्सवादी बन गई। उन्होंने 1936 में ‘Why Sociaism’ पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने समाजवाद की भारतीय सन्दर्भ में व्याख्या की तथा भारत में इसकी उपयोगिता पर बल दिया। उन्होंने समाजवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। उनका मानना था कि आर्थिक असमानता और उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व ही सब समस्याओं की जड़ है। यदि ये साधन प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध करा दिए जाएं तो वर्तमान आर्थिक विषमताएं स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। 

उन्होंने समाजवादी समाज की स्थापना पर अपनी पुस्तक ‘Why Socialism’ में विस्तारपूर्वक वर्णन किया और उद्योग एवं कृषि के क्षेत्र में उन उपायों का सुझाव दिया, जिनसे उत्पादन के साधनों का पुन: वितरण कर आर्थिक समानता स्थापित की जा सके। उनका विचार था कि उद्योगों के राष्ट्रीयकरण मात्र से ही समाजवाद की स्थापना सम्भव नहीं है। 

इससे नौकरशाही के हाथ मजबूत होते हैं तथा केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी तरह बड़े स्तर के उद्योग की आर्थिक विषमता को बढ़ावा देते हैं, कम नहीं करते। इसलिए उन्होंने विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया और छोटे-छोटे उद्योगों की आर्थिक विषमता दूर करने में सहायक बताया, उन्होंने कृषि के क्षेत्र में भी समाजवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया कि भूमि का स्वामित्व जोतने वालों के हाथ में में हो, जमींदारी प्रथा को समाप्त किया जाए तथा सहकारी कृषि को बढ़ावा दिया जाए। इसके अतिरिक्त सहकारी ऋण तथा बाजार व्यवस्था आदि के माध्यम से किसानों को साहूकारों व व्यापारियों के शोषण से मुक्त किया जाए।

इस तरह उन्होंने कृषि तथा उद्योग दोनों में ही उत्पादन के साधनों के विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया। उन्होंने कृषि उद्योगों के समाजीकरण के लिए नैतिक व लोकतांत्रिक साधनों का सुझाव दिया। उनका मानना था कि समाजवाद जैसे उच्च आदर्श की स्थापना उचित साधनों के द्वारा ही होनी चाहिए। लेकिन सच्चे समाजवाद की स्थापना भारत को तब तक नहीं हो सकती, जब तक भारत विदेशी दासता का शिकार रहेगा। विदेशी दासता को समाप्त करने के लिए श्रमिकों, किसानों और गरीब मध्यम वर्गों में राजनीतिक चेतना का विकास किया जाए। 

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Why Socialism’ में लिखा है-’’कोई भी दल समाजवाद की स्थापना तब तक नहीं कर सकता, जब तक वह राज्य की शक्ति अपने हाथ में न ले लें। चाहे वह से जनता के समर्थन से प्राप्त करें या सरकार गिरा कर। यदि सम्भव हो तो इस ध्येय को जन समर्थन द्वारा ही प्राप्त किया जाना चाहिए।’ 

उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि जब किसान, दलित, गरीब सभी कमजोर वर्गों में वर्ग-चेतना का उदय होगा तो समाजवाद की स्थापना हो जाएगी, उन्होंने यह भी कहा कि वर्ग चेतना के साथ-साथ व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं पर भी नियन्त्रण करना होगा। इसके बिना समाजवादी समाज की स्थापना सम्भव नहीं है। उन्होंने कहा कि समाजवाद भारतीय संस्कृति का विरोधी नहीं है। यह उसके अनुरूप ही है। 

माक्र्स का समाजवाद भारतीय संस्कृति के ही मूल आदर्शों-सदा मिल-जुलकर बांटना व उपभोग करना, निम्न कोटि की वासनाओं तथा परिग्रह की वृत्ति से मुक्ति के अनुरूप ही विकसित हुआ है। इसलिए समाजवाद भारतीय संस्कृति को विरोधी कहना भ्रामक है।

2. जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय संबंधी विचार

जयप्रकाश नारायण भी महात्मा गांधी और बिनोबा भावे की तरह सर्वोदय चरम लक्ष्य में विश्वास करते थे। सर्वोदय से उनका अभिप्राय सभी लोगों के जीवन के सभी क्षेत्रों में कल्याण से था। सर्वोदय शब्द जॉन रस्किन की पुस्तक ‘Unto The Last’ से महात्मा गांधी ने किया। इस पुस्तक का सार है-’’सबकी भलाई में ही अपनी भलाई है।’’ महात्मा गांधी और बिनोबा भावे के सर्वोदय से सम्बन्धित विचारों को स्वीकारते हुए जयप्रकाश नारायण ने भी सबके कल्याण पर बल दिया। वे समाज के हर वर्ग का जीवन स्तर अच्छा बनाना चाहते हैं वे भारतीय समाज में समग्र क्रान्ति लाना चाहते थे ताकि भारतीय समाज का आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास हो सके। 

जयप्रकाश नारायण ने कहा है-’’सर्वोदय योजना कोई भावुकता प्रधान योजना न होकर सामाजिक क्रान्ति का एक सुझाव है। मूलरूप से सर्वोदय समाजवादी दल के 80: कार्यक्रमों को लिए हुए है। साथ-साथ वर्ग-विहीन एवं जाति-विहीन समाजवाद का आदर्श भी सर्वोदय की धारणा में शामिल है।’’ जैसे-जैसे जयप्रकाश नारायण गांधीवाद की तरह झुकते गए, वैसे वैसे उनकी समाजवादी आस्थाएं सर्वोदय समाज की ओर झुकती चली गई। 

उन्होंने लिखा है-’’यदि हमें हितों में विरोध प्रतीत होता है तो इसका कारण धारणाएं और हमारा गलत आचरण है। यदि हम मानव-हितों की एकता में विश्वास पैदा करें तो हम सर्वोदय की वास्तविकता के अधिक निकट पहुंच सकेंगे। सर्वोदय में यह मान्यता निहित है कि मानव-आत्मा पवित्र है और स्वतन्त्रता, न्याय तथा बन्धुत्व के आदर्शों को हमें अधिक महत्व देना चाहिए। सर्वेदय एक जीवन-व्यापी क्रान्ति है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के सभी पहलूओं में आमूल क्रान्ति लाना सर्वोदय का अन्तिम लक्ष्य है।’’ लोकनायक जयप्रकाश नारायण का मानना था कि शांतिपूर्ण व नैतिक साधनों द्वारा देश में सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति लाई जा सकती है। इसलिए उन्होंने लोगों को भू-दान, ग्राम दान और सम्पत्ति दान के लिए प्रेरित किया, उनका ध्येय सर्वोदय समाज की स्थाना करना था, उन्होंने सर्वोदय समाज में दलीय राजनीति को कोई महत्व नहीं दिया। सर्वोदय आन्दोलन की सफलता के लिए उन्होंने नैतिक साधनों पर जोर दिया। 

उनका कहना था कि ‘‘सर्वोदयी समाज में न केवल न्याय व समता के अवसर प्राप्त होंगे बल्कि एक ऐसी जनतन्त्रीय व्यवस्था भी होगी जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर आधारित होगी और व्यक्ति अपनी शासन व्यवस्था का स्वयं निर्माण करेगा। यह व्यवस्था विकेन्द्रीकृत होगी, जिसमें ज्यादा सत्ता व संसाधन ग्राम सभा के पास होंगे।’’ 

जयप्रकाश नारायण का स्पष्ट संकेत पंचायती राज संस्थाओं की तरफ था। उन्होंने आगे कहा है कि यह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था होगी जिसमें सभी का कल्याण निहित होगा। इस प्रकार अपने अन्तिम लक्ष्य के रूप में जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक व आर्थिक विकेन्द्रीकरण द्वारा सर्वोदय आन्दोलन को सफल बनाने का सुझाव दिया है। उनके सर्वोदय सम्बन्धी विचार ग्रामीण उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

3. जयप्रकाश नारायण के राष्ट्रवादी सम्बन्धी विचार

लोकनायक जयप्रकाश नारायण सच्चे देश भक्त थे। उन्हें भारत की पराधीनता को दूर करने की बहुत अधिक चिन्ता थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवाद के महत्व को प्रतिपादित किया है। उन्होंने लिखा है कि रजनीतिक स्वतन्त्रता के बिना सामाजिक व आर्थिक कल्याण की योजनाओं का कोई महत्व नहीं है। वे एक राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी थे और कई बार जेल भी गए। उन्होंने राष्ट्रवाद के महत्व के बारे में कहा है कि ‘‘जब तक प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना का विकास नहीं होगा तब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। भारत में सांस्कृतिक एकता होते हुए भी राजनीतिक एकता का अभाव है। 

भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा सम्पूर्ण भारतीय प्रदेश पर अधिकार करने के बाद ही एक सरकार के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता का उदय हुआ है।’’ लेकिन यह राजनीतिक एकता ऊपर से थोपी हुई है। इसके द्वारा राष्ट्रवाद की स्थपना नहीं हो सकती। ब्रिटिश शासन के खिलाफ जब तक सारी जानता एकजुट नहीं होगी, तब तक राष्ट्रीयता का विकास नहीं हो सकता।

उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव दिया है। यह दृष्टिकोण राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी लागू किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे की धार्मिक भावना का आदर करना चाहिए। धार्मिक अन्धविश्वासों व कुरीतियों से दूर रहना चाहिए तथा धर्म के प्रति विवेकपूर्ण, मानवीय तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 

उन्होंने कहा है-’’राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति धार्मिक अन्धविश्वासों से बाहर निकलकर अपने अन्दर एक बौद्धिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करें।’’ उनका मानना था कि भारत एकता की प्रक्रिया मूल रूप से बौद्धिक एवं आध्यात्मिक चेतना की प्रक्रिया है। इसलिए समस्त जनता को न्यायपूर्ण साधनों के साथ इसमें अपना योगदान देना चाहिए।

इस तरह जयप्रकाश नारायण की राष्ट्रवाद की अवधारणा संकीर्ण न होकर एक व्यापक धारणा है। उनका राष्ट्ररवाद समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए है। उनका राष्ट्रवाद भारतीय सभ्यता व संस्कृति के सर्वथा अनुरूप ही है। उनका राष्ट्रवाद महात्मा गांधी व रविन्द्र नाथ ठाकुर के मानवतावादी दृष्टिकोण पर आधारित है जो समस्त मानव जाति को अपने में अंगीकार कर लेता है।

4. आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा

जयप्रकाश नारायण का मानना था कि आधुनिक युग संसदीय लोकतन्त्र का युग है। इस लोकतन्त्र में संविधान, दलों और चुनावों का बहुत महत्व है। लेकिन ये बातें तब तक अर्थहीन है, जब तक जनता में नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक गुणों का विकास न हो जाए। इसलिए उन्होंने लोकतन्त्र को दलीय-विहीन लोकतन्त्र बनाने पर जोर दिया, उन्होंने लोकतन्त्र की चुनाव-प्रणाली को अस्वीकार किया है। उनका मानना है कि हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों की संख्या अधिक होने पर मतों का बंटवारा हो जता है। साधारण बहुमत वाला उम्मीदार भी िवेजेता घोषित कर दिया जाता है। इसलिए अल्पमतों से विजयी उम्मीदवार बहुमत का प्रतिनिधि नहीं हो सकता। अल्पमत के आधार पर बनी सरकार कभी भी लोकतन्त्रीय सरकार नहीं बन सकती। 

इस तरह संसदीय लोकतन्त्र का आधार बड़ा ही संकुचित होता है। इसी तरह संसदीय लोकतन्त्र में दलों की भूमिका भी नकारात्मक होती है। वे जनता से झूठे वायदे करके वोट बटोरते हैं। बाद में राजनीतिक सत्ता पर काबिज होकर अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करते हैं। उन्हें सार्वजनिक हितों से कोई सरोकार नहीं होता। 

जयप्रकाश नारायण ने लिखा है-’’राजनीतिक दलीय प्रणाली में जनता की स्थिति उन भेड़ों की तरह होती है जो निश्चित अवधि के पश्चात् अपने लिए ग्वाला चुन लेती है। ऐसी लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में मैं उस स्वतन्त्रता के दर्शन कर नहीं पाता जिसके लिए मैंने तथा जनता ने संघर्ष किया था।’’ आधुनिक राजनीतिक दल जो वास्तव में राजनीतिज्ञों का एक छोटा-सा शक्तिशाली समूह है जो जनता के नाम पर शासन करता है और लोकतन्त्र एवं स्वशासन का भ्रम फैलाकर स्वार्थपूर्ण कार्यों को पूरा करता है। 

इसके कारण व्यक्ति की स्वतन्त्रता का ह्रास होता है। इसलिए आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका एक अभिशाप है। ये दल समाज के नैतिक पतन का मुख्य कारण है। ये लोगों को राजनीतिक शिक्षा देने की बजाय अनैतिक साधनों का प्रसार करते हैं और जनता को पथभ्रष्ट करते हैं। आधुनिक लोकतन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दल ही उत्तरदायी हैं। ये राष्ट्रीय हितों का बलिदान देने से भी नहीं चूकते। ये धन, संगठन और भ्रामक प्रचार के माध्यम से वोट बटोरते हैं और सार्वजनिक कहतों की आड़ में अपनी स्वार्थ सिद्धि करते हैं।

इस तरह जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक दलों की प्रजातन्त्र में नकारात्मक भूमिका पर व्यापक प्रकाश डाला है। उन्होंने संसदीय लोकतन्त्र की चुनाव-पद्धति की भी आलोचना की है। उन्होंने इस पद्धति को खचरीली पद्धति मानकर लोकतन्त्र को दल-विहीन बनाने पर जोर दिया है।

5. दल-विहीन लोकतंत्र की अवधारणा

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने संसदीय लोकतन्त्र की आलोचना को अपनी दल-विहीन प्रजातन्त्र की अवधारणा का आधार बनाया। उनका विचार था कि आधुनिक लोकतन्त्र में दलीय व्यवस्था इतनी प्रभावी हो गई है कि लोकतन्त्र दलतन्त्र बन गया है। यह दलतन्त्र राजनीतिक भ्रष्टाचार को फैलाता है और लोगों में फूट डालता है। इसकी औचित्यता शक्तिपूर्ण साधनों में है। यह अनैतिक साधनों का प्रयोग करके जनतन्त्र के वास्तविक अर्थ को दूषित कर रहा है। इसलिए जय प्रकाश नारायण के दल-विहीन लोकतन्त्र की अपधारणा का प्रतिपादन किया ताकि दलों की गैर जिम्मेदाराना भूमिका पर अंकुश लग सके। दल विहीन प्रजातन्त्र को लागू करने के बारे में जयप्रकाश नारायण ने चार प्रमुख सुझाव दिए हैं-
  1. सबसे पहले लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों को समाप्त किया जाए। चुनाव प्रणाली समाप्त करके जनता द्वारा ग्राम स्तर से केन्द्रीय स्तर तक के उम्मीदवारों का प्रत्यक्ष चुनाव किया जाए। प्रत्येक गांव में से ग्राम सभा दो सदस्य निर्वाचित करके उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता परिषद के पास भेजे इसके बाद मतदाता परिषद की खुली बैठक में राज्य विधानपालिका या केन्द्रीय संसद के लिए उम्मीदवारों के नाम प्रस्तावित तथा समर्थित किए जाएं। इसके बारे में सबकी राय एक बनाने का प्रयास किया जाए। यदि आम राज्य न बन पाए तो 30% से अधिक मत प्राप्त व्यक्ति को संसद या विधानपरिषद का प्रतिनिधि घोषित कर दिया जाए।
  2. दलगत राजनीति से मुक्त सर्वोदय समाज की स्थापना की जाए।
  3. सभी दलों को सर्वोदय के कार्य में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया जाए ताकि दलगत भावना का अन्त हो।
  4. निर्वाचित होने केबाद सभी उम्मीदवारों को अपने दल से नाता तोड़ लेना चािहए ताकि वह स्वतन्त्र आत्मा की आवाज द्वारा मताधिकार का प्रयोग कर सके और दल के कठोर सिद्धान्तों के पाश से मुक्ति पा सके।
इस प्रकार जयप्रकाश नारायण ने दल-विहीन प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए अपना व्यावहारिक कार्यक्रम सुझाया है। इससे उनकी राजनीति के प्रति गहरी व दूरदर्शी सोच का पता चलता है। उनका यह कथन सत्य है कि राजनीतिक दल ही सभी तरह की राजनैतिक समस्याओं की जड़ है।

6. समग्र-क्रांति की अवधारणा

जय प्रकाश नारायण की राजनीतिक विचारधार के विकास का अन्तिम चरण उनकी समग्र या सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा है। 1974 में उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का उद्घोष किया था। उन्होंने पटना के गांधी मैदान में सम्पूर्ण क्रान्ति को अपना चरम लक्ष्य घोषित किया। वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहत थे जो शोषण व अत्याचार से मुक्त हो। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति के उद्घोष द्वारा भारतीय समाज की सुप्त आत्मा को जगाने तथा सामाजिक ढांचे को बदलने का प्रयास किया। वे सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में मानवीय चेतना का महत्व समझते थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में मूलभूत आध्यात्मिक मूल्यों की पुन:स्र्थापना पर जोर दिया। 

वे भारत में एक ऐसे लोकतन्त्र की स्थापना करना चाहते थे जो पूरी तरह धर्म-निरपेक्ष हो। वे एक स्वच्छ व कुशल प्रशासन के पक्षधर थे जिसमें भ्रष्टाचार का कोई स्थान न हो। वे शोषण रहित समाजवादी समाज की स्थापना के आतुर थे। उनकी समग्र क्रान्ति का तात्कालिक लक्ष्य बढ़ती हुई महंगाई को रोकना था। 

उन्होंने इस क्रान्ति द्वारा सामाजिक भेदभाव समाप्त करके सच्चे समाज की स्थापना करने का प्रयास किया। उनकी सम्पूर्ण का सम्बन्ध राजनीतिक क्षेत्र से न होकर जीवन के अन्य क्षेत्रों से भी था। उनकी सम्पूर्ण क्रान्ति-सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सैद्धान्तिक, वैचारिक, शैक्षिक एवं आध्यात्मिक, सात क्रान्तियों का मिश्रण है। यह अवधारणा उनके सर्वोदय समाजवाद, लोकतन्त्रीय समाजवाद तथा दल-विहीन प्रजातन्त्र की धारणाओं का विस्तार है। उनका विश्वास था कि सम्पूर्ण क्रान्ति ही जनता के नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों पर बल देगी और सच्चे समाजवाद की स्थापना में सहायक सिद्ध होगी।

इस प्रकार जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रान्ति की अवधारणा एक व्यापक अवधारणा है जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के द्वारा सच्चे समाजवाद व सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना को अपना लक्ष्य स्वीकार करती है। उनकी समग्र क्रान्ति की अवधारणा उस समय भारतीय जनता में इतनी लोकप्रिय हुई कि श्रीमती इन्दिरा गांधी को आपात काल लागू करके समग्र क्रान्ति के रूप में व्यापक जन आन्दोलन को दबाने के लिए शक्ति का सहारा लेना पड़ा।

7. जयप्रकाश नारायण के राज्य सम्बन्धी विचार

जयप्रकाश नारायण भी गांधीवाद तथा माक्र्सवादी विचारधारा की ही तरह राज्य को एक आत्मा रहित मशीन मानते थे, यह एक ऐसा यन्त्र है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा पहुंचाता है। इसलिए उन्होंने राज्य को कम शक्तियां देने की बात कही है। उन्होंने कल्याणकारी राज्य की धारणा को भी नौकरशाही के हितों का पोषक बताया है। उनका कहना है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर नौकरशही जनता के कल्याण की योजनाओं का अधिकतम हिस्सा डकार जाती है। उन्होंने माक्र्स के राज्य के लुप्त होने के विचार का भी खण्डन किया है। इसलिए इसका अस्तित्व में रहना नितान्त आवश्यक है।

 गांधी जी की तरह वे भी राज्य को कम से कम शक्तियां सौंपने के पक्ष में थे। उन्होंने कहा है-’’मुझे न तो पहले विश्वास था और न अब है कि राज्य पूर्ण रूप से कभी लुप्त हो जाएगा। परन्तु मुझे यह विश्वास है कि राज्य के कार्यक्षेत्र को जहां तक सम्भव हो घटाने के प्रयास करना सबसे अच्छा उद्देश्य है।

8. जयप्रकाश नारायण के केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण पर विचार

जयप्रकाश नारायण ने केन्द्रीयकरण की खुलकर आलोचना की है। उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में केन्द्रीयकरण को गलत बताया है। राजनीतिक शक्ति के किसी एक भी या गिने-चुने लोगों के पास एकत्रित हो जाने से जनता के हितों की अनदेखी होती है। नौकरशाही का व्यवहार ठाकुरों जैसा हो जाता है। इसी तरह उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण होने पर भी पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। इसलिए उन्होंने राजनीतिक सत्ता व आर्थिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया। उनका मानना था कि राजनीतिक सत्ता जनता के पास होनी चाहिए। राजनीतिक शक्ति का विभाजन निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर होना चाहिए। 

ग्राम पंचायतों को अधिक अधिकार देने से सत्ता का केन्द्रीयकरण रूक जाएगा और जनता स्वयं अपनी शासक होगी। उनका विश्वास था कि यह विकेन्द्रीकरण स्वराज्य को सच्चे अर्थों में प्राप्त कर सकेगा। इसी तरह उन्होंने आर्थिक विकेन्द्रीकरण का भी समर्थन किया। उन्होंने बड़े पैमाने के उद्योगों की बजाय कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल दिया। इससे ग्रामीण जीवन स्वावलम्बी बनेगा और सर्वोदय का लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा। इस तरह जयप्रकाश नारायण ने केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति का विरोध करते हुए आर्थिक व राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण का समर्थन किया है।

9. जयप्रकाश नारायण के पंचायती राज सम्बन्धी विचार

जयप्रकाश नारायण की विकेन्द्रीकरण की अवधारणा का सीधा लक्ष्य पंचायती राज की स्थापना करना था। उन्होंने राजनीतिक विकेन्द्रीकरण को व्यावहारिक रूप देने के लिए स्थानीय संस्थाओं को अधिक शक्तियां प्रदान करने पर बल दिया। उनका मानना था कि भारत को आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का हल केवल पंचायती राज में ही संभव है। उन्होंने कहा है कि ग्राम पंचायत में सभी व्यस्क नर-नारी मिलकर अपनी कार्यपालिका का निर्माण करेंगे और ग्राम सभा के ऊपर एक ब्लाक समिति होगी जो कई गांवों को मिलाकर बनाई जाएगी। सबसे ऊपर जिला परिषद होगी। लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ बाधाएं भी आएंगी। उन्हें शिक्षा के माध्यम से दूर करने के प्रयास किए जाएंगे। ग्राम पंचायतों की नौकरशाही पर नियन्त्रणरखने का अधिकार होगा। 

आर्थिक क्षेत्र में भी पंचायतें स्वावलम्बी होंगी। इस तरह पंचायती राज संस्थाएं देश के आर्थिक व सामाजिक विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देंगी।

10. जयप्रकाश नारायण के स्वतंत्रता संबंधी विचार

जयप्रकाश नारायण का मानवीय स्वतन्त्रता में गहरा विश्वास था। उनका मत था कि वही शासन प्रणाली सर्वोत्तम है, जिसमें व्यक्ति की स्वतन्त्रता को महत्व दिया जाता हो और उसकी गरिमा का ध्यान रखा जाता हो। जिस शासन प्रणाली में व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगाई जाती हो, वह शासन प्रणाली कभी भी अच्छी नहीं हो सकती। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ-साथ राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व नैतिक स्वतन्त्रता पर भी जोर देकर कहा है किये सभी स्वतन्त्रताएं परस्पर सम्बन्धित है। उनका मानना था कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक या सामाजिक स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। स्वतन्त्रता के सभी रूप व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।

11. जयप्रकाश नारायण के अन्य राजनीतिक विचार 

जयप्रकाश नारायण ने कुछ अन्य राजनीतिक विचारों का भी प्रतिपादन किया है। उन्होंने राजनीति को नैतिकता के सथ जोड़कर उसका आध्यात्मिकरण करने पर बल दिया है। उसका मानना है कि नैतिकता विहीन राजनीति जनकल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती। इसी तरह उन्होंने साध्य व साधन की पवित्रता पर भी बल दिया है। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा देते हुए कहा था कि भारतीय समाज का नैतिक पतन इसलिए हुआ है कि भारतीय राजनीति नैतिकता पर आधारित नहीं है, जैसे-जैसे राजनीति नैतिकता से दूर होती जाती है, वैसे-वैसे समाज में भी भ्रष्टाचार जैसी बुराईयां बढ़ती जाती हैं और समाज का बहुमुचखी पतन होना शुरू हो जाता है। इसलिए उन्होंने राजनीति के आध्यात्मिकरण पर बल दिया और अच्छे साधनों को अपनाने का सुझाव दिया।

उपरोक्त राजनीतिक विचारों का अध्ययन करने के बाद कहा जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण एक राजनीतिक दार्शनिक होने के साथ-साथ एक सामाजिक दार्शनिक भी थे। उनका आदर्श भारतीय समाज का पुनर्निर्माण करना था। उन्होंने जीवनभर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा देकर समाज के सर्वांगीण विकास का रास्ता तैयार किया। लेकिन फिर भी अनेक विद्वानों ने उनके राजनीतिक विचारों को आदर्शवाद की संज्ञा देकर पल्ला झाड़ लिया है। यदि निष्पक्ष तौर पर उनके विचारों का मूल्यांकन किया जाए तो यह बात सत्य है कि उनके विचार एक सच्चे देशभक्त व राष्टवादी विचारक के विचार हैं। 

यदि महात्मा गांधी का राजनीति चिन्तन में कोई महत्व है तो उनका महत्व भी स्वीकार करना पड़ेगा। उनकी समग्र क्रान्ति (Total Revolution) की अवधारणा राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में उनका अमूल्य योगदान है। 

प्रो0 विमल प्रसाद ने उन्हें भारतीय राजनीतिक चिन्तकों में सबसे महान माना है। इसी से उनके राजनैतिक विचारों का महत्व प्रितादित हो जाता है।

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