“गुटनिरपेक्ष आंदोलन” का नाम 1961 में शीतयुद्ध काल में हुआ था। शीतयुद्ध से बचने के लिए ऐसे देशों ने एक संगठन बनाया, जो न तो अमरीका के साथ रहना चाहते थे और न ही तत्कालीन सोवियत संघ के साथ। सन् 1961 में बेलग्रेड में 25 विकासशील देशों की शुरूआती सदस्यता के साथ इस संगठन का गठन किया गया। भारत इसका संस्थापक सदस्य रहा है। यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप टीटो, तात्कालिन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु, मिस्त्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमाल अब्दूर नासिर, इण्डोनेसिया के तत्कालीन राष्ट्रपति, सुकर्णों, एवं घाना के तात्कालीन राष्ट्रपति क्वामी कुमाह ने अपनी अग्रणी भूमिका निभाई थी। सन् 1945 में, केवल 51 देशों के साथ अस्तित्व में आए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो महाशक्तियों के अलावा एक नई शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे तीसरी दुनिया के नाम से जाना जाने लगा। तीसरी दुनिया का अर्थ है एशिया, लैटिन अमरीका व अफ्रीका महाद्वीप के नवोदित राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना। विश्व शांति, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय, सुरक्षा के लिए निरंतर प्रयासरत् रहना एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शीतयुद्ध की भूमिका पर नियंत्रण करना भी इस संगठन का उद्देश्य है। स्वतंत्र विदेश नीति को अपनाना, जिससे गुटनिरपेक्ष राजनीति से दूर रहा जा सके। इसके अलावा, शांतिपूर्व सह-अस्तित्व और सहयोग को बढ़ावा देना। सभी देशों गैर साम्यवाद एवं साम्यवादी, के साथ मित्रता का भाव रखते हुए विकास के लिए सहयोग करना।
इस संगठन के माध्यम से साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध करना तथा स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत् देशों का समर्थन देना। तीसरी दुनिया के नवोदित राष्ट्रों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वतंत्रता रीति-नीति पर चलने के लिए प्रेरित करना। इस संगठन के माध्यम से निशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियंत्रण को बढ़ावा देने की नीति थी। जातिवाद, रंगभेद, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर हो रहे भेद-भाव का विरोध करना। द्विध्रुवीय व्यवस्था के स्थान पर बहुधु्रवीय व्यवस्था स्थापित करके, उसके स्थान पर स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय और सर्व-कल्याण के सिद्धान्तों पर आधारित नई विश्व-स्थापना करना भी इस संगठन का उद्देश्य रहा। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका और प्रभाव में मजबूती लाने के लिए सहयोग देना, वगैरह कार्य रहा।
भारत गुटनिरक्षेप आंदोलन के संस्थापक राष्ट्रों में प्रमुख रहा। आजादी के बाद, यह आंदोलन भारत की विदेश नीति का प्रमुख आधार-स्तंभ रहा एवं शीत युद्ध के दौरान, भारत ने अपने कई राष्ट्रीय हित को प्राप्त किया।
अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर गंभीर रूप से विचार विमर्श करने हेतु तथा उनके समाधान के लिए महत्वपूर्ण सुझाव गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों द्वारा विभिन्न शिखर सम्मेलनों में दिये गए जिसमें इन सुझावों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा । सम्मेलनों का प्रारंभ बेलग्रेड सम्मेलन 1961 ई. से हुआ।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन
1. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रथम शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रथम शिखर सम्मेलन 1961 ई. में चेकोस्लाविया की राजधानी वेलग्रेड में प्रथम शिखर सम्मेलन राष्ट्रपति मार्शल टीटो के सुझावों से आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन में किन देशों को आमंत्रित किया जाए तथा किन देशों को नहीं यह एक बड़ी विडम्बना थी। देशों को आमंत्रित करने के लिए पांच सूत्रीय शर्ते थी -- जो देश शांतिपूर्ण-सह अस्तित्व के आधार पर स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण करता हो।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चल रहे आंदोलनों का सर्मथन करने वाले देश
- ऐसे देश जो सैनिक गुटों के सदस्य न हो
- ऐसे देश जिन्होंने किसी महाशक्ति के साथ संधि न की हो
- ऐसे देश जिनकी भूमि पर सैनिक अड्डे न हो।
- इस सम्मेलन में दुनिया का ध्यान ऐसी समस्याओं की ओर खींचा गया जिनसे विश्वयुद्ध संभव था वे जिनमें बर्लिन की समस्या, संयुक्त राष्ट्र में साम्यवादी चीन की सदस्यता का प्रश्न तथा कांगों की समस्या।
- प्रत्येक देश को अपनी इच्छानुसार शासन का स्वरूप निर्धारण करने और संचार करने की स्वतंत्रता हो।
- विश्व शान्ति स्थापित करने के लिए साम्राज्यवाद को हानिकारक सिद्ध किया जाए।
- बिना किसी भेदभाव के किसी भी देश की प्रभुसत्ता का सम्मान किया जाना चाहिए साथ ही किसी भी देश के आंतरिक मामलों के संबंध में हस्तक्षेप की नीति का समर्थन करना चाहिए।
- सम्मेलन में यह भी कहा गया कि शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए विकासशील देश आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाकर उनकी सामाजिक व्यवस्था को उन्नत बनाया जाना चाहिए।
- इस सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति की आलोचना की गई।
- शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के सिद्धान्त में आस्था व्यक्त की गई। इस सम्मेलन से शीत-युद्ध को कम किया जा सका और अन्र्तराष्ट्रीय राजनीति पर इसका बड़ा ही हितकारी प्रभाव पड़ा। इसके कारण 1963 में अणु परीक्षण निषेध संधि सफलता पूर्वक की गई।
2. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के द्वितीय शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के द्वितीय शिखर सम्मेलन 5 अक्टूबर से 11 अक्टूबर तक 1964 ई. में काहिरा में किया गया। जिसमें 48 देशों के प्रतिनिधि शामिल थे तथा 11 पर्यवेक्षक देश थे। इस सम्मेलन का उद्देश्य गुटनिरपेक्षता के क्षेत्र को विस्तृत करना था। तथा उसके माध्यम से तनाव को कम करना था। काहिरा सम्मेलन में प्रतिनिधि राष्ट्रों के बीच मतभेद की स्थिति उत्पन्न हो गई और ऐसा लगने लगा कि सम्मेलन विफल हो जायेगा। इस सम्मेलन में आर्थिक सहयोग की बात कही गई। इस सम्मेलन में निम्नलिखित बिन्दुओं पर चर्चा की गई।- शांतिपूर्ण वार्ता के माध्यम से अन्र्तराष्ट्रीय विवादों का निपटारा किया जाए।
- परमाणु परीक्षण पर रोक लगाई जाए साथ ही नि:शस्त्रीकरण की नीति अपनाई जाए।
- दक्षिण रोडेशिया की अल्पमत गोरी सरकार को मान्यता नही दी जानी चाहिए।
- उपनिवेशवाद का अंत किया जाय। कम्बोडिया तथा वियतनाम में विदेशी हस्तक्षेप का अंत हो
- चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाया जाए।
- सभी राष्ट्रों से आºवान किया गया कि दक्षिण अफ्रीका से कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छेद कर ले। साथ ही दक्षिण अफ्रीका की रंग भेद की नीति की कड़ी आलोचना की गई। काहिरा सम्मेलन को शान्तिपूर्ण वार्ता द्वारा विवादों का निपटारा, उपनिवेशवाद का अंत, रंगभेद की नीति के विरोध आदि के लिए महत्वूपर्ण है।
3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के तृतीय शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के तृतीय शिखर सम्मेलन सितम्बर 1970 में जाम्बिया की राजधानी लुसाका में तृतीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में 65 राज्यों ने भाग लिया जिनमें 53 पूर्ण सदस्य तथा 12 प्रेक्षक देश थे। इस सम्मेलन में पश्चिमी एशिया के बारे में एक निश्चित मत प्रकट किया गया। पश्चिमी एशिया के बारे में रखे गये प्रस्ताव में केवल अरबों के पक्ष का सर्मथन ही नही अपितु हमलावर इजराइल की आवश्यकता पड़ने पर बायकाट करने तथा नाकेबंदी तक करने की बात कही गर्इं अमरीकी फौजों तथा अन्य फौजों को वियतनाम से हटाने की सिफारिस की गई। दक्षिण अफ्रीका से उपनिवेश के सन्दर्भ में बात की गई और दक्षिण अफ्रीका से अनुरोध किया गया कि वह अपने ऊपर से हवाई जहाज जाने दे।सन् 1970 के दशक के लिए गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच एक योजना स्वीकार की गई इस सम्मेलन में यह सुझाव आया था कि गुटनिरपेक्ष देशों का एक स्थायी संगठन बनाया जाए जिसका एक सचिवालय भी हो। इस सुझाव को नामंजूर कर दिया गया। क्योंकि गुटनिरपेक्ष देश गुटबंदी के खिलाफ थे और इस प्रकार संगठित होने का अर्थ होता है - तृतीय विश्व गुट का गठन।
(अ) अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार को इस तरह पुर्नगठित किया जाए कि विकासशील देशों को बेहतर शर्तो पर व्यापार का मौका मिले और उनको अपने निर्यात का उचित मूल्य प्राप्त हो।
इस सम्मेलन में विचित्र भाषण डॉ फिदेल द्वारा दिया गया जो अन्र्तविरोधी से भरा हुआ था। उन्होंने कहा हमारा देश मार्क्सवादी सिद्धान्तों में विश्वास करता है पर कभी भी अपने विचार और नीतियां गुटनिरपेक्ष देशों पर थोपने का प्रयत्न नही करेगा। उन्होंने फूट डालने और शासन करने वाली नीतियों से दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने इस बात पर प्रसन्ता व्यक्त की कि पाकिस्तान भी गुटनिरपेक्ष देशों की लाइन में आ गया।
4. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के चतुर्थ शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के चतुर्थ शिखर सम्मेलन 1973 में अल्जीरिया की राजधानी अल्जीयर्स में 9-10 सितम्बर में हुआ इस सम्मेलन में 75 देशों के पूर्ण सदस्य और 9 देशों ने पर्यवेक्षक के रूप में भाग लिया। निर्गुट देशों में व्याप्त मत भेदों का खुला प्रदर्शन हुआ साथ ही अभूतपूर्व आत्मविश्वास और एकता का दर्शन भी हुआ। इस सम्मेलन में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया गया।- महाशक्तियेां के बीच तनाव-शैथिल्य का स्वागत किया गया।
- गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को अपनी असंलग्नता की परिभाषा बदल कर अन्र्तराष्ट्रीय स्थिति के संदर्भ में करने पर जोर दिया गया।
- निर्गुट देशों के बीच आर्थिक, व्यापारिक और तकनीकी तालमेल होना चाहिए।
- जातीय विद्वेश, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद के उन्मूलन पर जोर दिया जाए।
- आर्थिक दृष्टि से यह निश्चित किया गया कि गुटनिरपेक्ष देशों को अपने आर्थिक साधनों का पूर्ण उपयोग करने का अधिकार है।
- इस सम्मेलन के अपने घोषणा पत्र में यह कहा गया कि राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के गठन में विकासशील देशों की आवाज सुनी जाए तथा निर्गुट राष्ट्र सम्मलित रूप से विकसित देशों पर दबाव डालें।
5. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 5वां शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 5वां शिखर सम्मेलन 16 से 20 अगस्त 1976 ई. में कोलम्बों में हुआ। इस सम्मेलन में कुल 116 देशों ने भाग लिया जिनमें 86 देश पूर्ण सदस्य, 13 पर्यवेक्षक गैर-राज्य तथा 7 ने अतिथि सदस्य के रूप में भाग लिया। पुर्तगाल, रूमानिया, पाकिस्तान, टर्की और ईरान, फिलिपीन्स आदि प्रमुख थे जो सदस्यता ग्रहण करने के इच्छुक थे। इस सम्मेलन में नयी अन्र्तराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था विकसित करने का आग्रह किया गया, तथा एक आर्थिक घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें निम्नलिखित बातों पर चर्चा की गई।(अ) अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार को इस तरह पुर्नगठित किया जाए कि विकासशील देशों को बेहतर शर्तो पर व्यापार का मौका मिले और उनको अपने निर्यात का उचित मूल्य प्राप्त हो।
- अन्र्तराष्ट्रीय विभाजन के आधार पर उत्पादन को नये सिरे से पुर्नगठित किया जाए।
- मुद्रा संबंधी सुधारों में विकासशील देशों की राय को वही आदर मिलना चाहिए जो विकसित राष्ट्रों को मिलता है साथ ही मुद्रा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन होना चाहिए।
- अनाज उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रबल साधन तथा तकनीकी का प्रयोग किया जाए।
- विकासशील देशों को यथेष्ट मात्रा में नियमित रूप से आर्थिक साधन हस्तान्तरित किये जाए और उनकी स्वाधीनता का सम्मान किया जाए।
- समता के आधार पर नयी राजनीतिक व्यवस्था बनायी जाए और ‘प्रभाव क्षेत्र‘ जैसे सिद्धान्तों को शांति विरोधी बताया गया।
- सम्मेलन में मुक्त आंदोलनों का समर्थन किया गया साथ ही पश्चिमी एशिया, साइप्रस, फिलीस्तीन समस्या, दोनों कोरियाओं (उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया) का एकीकरण आदि की समस्याओं पर विचार किया गया।
- सम्मेलन में हिन्द महासागर में विदेशी अड्डों के प्रश्न को भी उठाया गया और इसे तनाव मुक्त क्षेत्र बनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
6. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 6वां शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 6वां शिखर सम्मेलन हवाना (क्यूवा) में 3 सितम्बर 1979 में क्यूबा के राष्ट्रपति डॉ. फिदेल कास्त्रों ने अमरीकी विरोधी भाषण के साथ प्रारंभ किया। लगभग इसमें 95 देशों ने भाग लिया। यह प्रथम सम्मेलन था जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री का स्थान रिक्त रहा।इस सम्मेलन में विचित्र भाषण डॉ फिदेल द्वारा दिया गया जो अन्र्तविरोधी से भरा हुआ था। उन्होंने कहा हमारा देश मार्क्सवादी सिद्धान्तों में विश्वास करता है पर कभी भी अपने विचार और नीतियां गुटनिरपेक्ष देशों पर थोपने का प्रयत्न नही करेगा। उन्होंने फूट डालने और शासन करने वाली नीतियों से दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने इस बात पर प्रसन्ता व्यक्त की कि पाकिस्तान भी गुटनिरपेक्ष देशों की लाइन में आ गया।
हवाना सम्मेलन के घोषणा-पत्र में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया गया। ‘ निर्गुट राष्ट्रों से अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति एवं एकता के लिए एकजुट रहने को कहा। ‘ तेल निर्यातक देशों से अपील की गई की वे दक्षिण अफ्रीका को तेल निर्यात न करें। ‘ सभी गुटनिरपेक्ष देशों से अपील की गई की वे दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत छापामार युद्ध का समर्थन करें ‘ मिश्र को निलंबित करने के लिए कई घंटो बहस चली साथ ही मिश्र और इजराइल के बीच हुए कैम्प डेविड समझौते की निंदा की गई। ‘ नस्लवाद, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, विदेशी प्रभुत्व, विदेशी कब्जे और हस्तक्षेप एवं चौधराहट के विरूद्ध संघर्ष से स्वाभाविक सम्बन्ध है।
इस सम्मेलन में विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को लेकर भी विचार विमर्श हुआ। विशेषकर तेल निर्यात करने वाले विकासशील देशों की ऊर्जा सम्बन्धी समस्याओं पर बहुत गंम्भीरता पूर्वक विचार हुआ।
हवाना सम्मेलन 1979 में सम्पन्न हुआ तीन माह बाद सोवियत फौजें अफगानिस्तान में घुस आई इससे पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान आदि के सम्बन्ध बिगड़ गए और विश्व राजनीति में फिर एक बार विश्वयुद्ध जैसी स्थिति बन गई। दोनों महाशक्तियों के बीच चल रही शस्त्राअस्त्र परीसीमन की वार्ता असफल हो गई, पश्चिमी राष्ट्रों ने सोवियत संघ पर अनेक आर्थिक और राजनैतिक प्रतिबंध लगाने की कोशिश की और खाड़ी देशों, हिन्दमहासागर तथा पाकिस्तान आदि में अपनी सैनिक उपस्थिति बढ़ाना शुरू कर दिया।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन में फूट का प्रमुख कारण था अफगानिस्तान का मामला, जहाँ एक ओर वियतनाम, सीरिया, यमन, इथोपिया आदि देशों ने रूसी कार्यवाही का दमन किया वहीं दूसरी ओर सिंगापुर, जायरे, मोरक्को, पाक आदि देशों ने इसका विरोध किया। तथा भारत जैसे राष्ट्र ने सोवियत संघ की भत्र्सना करने के वजाय यह माना कि अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी तथा बाहरी हस्तक्षेप की समाप्ति एक साथ होनी चाहिए। इस प्रकार सप्तम सम्मेलन बहुत ही नाजुक परिस्थितियों में हुआ था।
7. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 7वां शिखर सम्मेलन
क्यूवा के राष्ट्रपति डॉ. फिदेल कास्त्रों द्वारा 31 अगस्त 1982 को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 7वां शिखर सम्मेलन की अनुमति प्राप्त हो गयी । राष्टाध्यक्षों को सूचित किया गया कि ईरान तथा ईराक युद्ध के कारण ईराक में सम्मेलन स्थिगित करना पड़ा। गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलनों का सातवां शिखर सम्मेलन भारत की राजधानी नई दिल्ली में 6 से 12 मार्च 1983 में किया गया। इस सम्मेलन ने अन्य छ: सम्मेलनों से अलग अपने नये कीर्तिमान स्थापित किये। इस समय विश्व राजनीति का जो माहौल बना हुआ था वह 1959-60 के माहौल से कम खतरनाक नहीं था। गम्भीर चुनौतियाँ, तनाव, अविश्वास, और संघर्ष का जहर घोलने वाली इन सभी समस्याओं का सूत्रपात हवाना, अल्जीयर्म कोलम्बो, आदि सम्मेलन के समय से दिखना प्रारंभ हो गया था।हवाना सम्मेलन 1979 में सम्पन्न हुआ तीन माह बाद सोवियत फौजें अफगानिस्तान में घुस आई इससे पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान आदि के सम्बन्ध बिगड़ गए और विश्व राजनीति में फिर एक बार विश्वयुद्ध जैसी स्थिति बन गई। दोनों महाशक्तियों के बीच चल रही शस्त्राअस्त्र परीसीमन की वार्ता असफल हो गई, पश्चिमी राष्ट्रों ने सोवियत संघ पर अनेक आर्थिक और राजनैतिक प्रतिबंध लगाने की कोशिश की और खाड़ी देशों, हिन्दमहासागर तथा पाकिस्तान आदि में अपनी सैनिक उपस्थिति बढ़ाना शुरू कर दिया।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन में फूट का प्रमुख कारण था अफगानिस्तान का मामला, जहाँ एक ओर वियतनाम, सीरिया, यमन, इथोपिया आदि देशों ने रूसी कार्यवाही का दमन किया वहीं दूसरी ओर सिंगापुर, जायरे, मोरक्को, पाक आदि देशों ने इसका विरोध किया। तथा भारत जैसे राष्ट्र ने सोवियत संघ की भत्र्सना करने के वजाय यह माना कि अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी तथा बाहरी हस्तक्षेप की समाप्ति एक साथ होनी चाहिए। इस प्रकार सप्तम सम्मेलन बहुत ही नाजुक परिस्थितियों में हुआ था।
7वां शिखर सम्मेलन का प्रारंभिक स्वरूप - गुटनिरपेक्ष देशों का यह सातवां शिखर सम्मेलन राष्ट्राध्यक्षों तथा शासनाध्यक्षों की उपस्थ्ति में श्रीमती इन्दिरागांधी की अपील के साथ प्रारंभ हुआ। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा कि विश्व की महाशक्तियां आणविक हथियारों के इस्तेमाल की धमकी न दे वे अपने स्वार्थ की चिंता छोड़कर मानवता की भलाई के कार्य करें। सम्मेलन में 101 सदस्य देशों में से 93 देशों ने इसमें भाग लिया जिनमें 68 राष्ट्राध्यक्ष 26 प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति शामिल थे।
डॉ फिदेल कास्त्रो ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के हाथों में अध्यक्ष पद की कमान सौपी, तथा महासचिव नटवरसिंह को चुना गया। यह सम्मेलन पांच दिन तक चलना था परन्तु ईरान-ईराक युद्ध के कारण यह दो दिन तक चला। राष्ट्राध्यक्षों ने अपने-अपने भाषण दिये परन्तु पाक राष्ट्रपति का भाषण उल्लेखनीय रहा उसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी को मुबारकबाद दी गई और पांच सूत्रीय कार्यक्रम भी पेश किया। सातवें शिखर सम्मेलन के प्रमुख बिन्दुओं पर चर्चा की गई -
- विश्वशक्तियों से परमाणु हथियार प्रयोग न करने की अपील की गई।
- अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा एवं वित्तीय प्रणाली के व्यापक पुनर्गठन की आवश्यकता पर भी बल दिया गया।
- दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोगों के शोषण उनके प्रति असमानता के व्यवहार व उनके अधिकारों के हनन की भत्र्सना करते हुए उनके संघर्ष में गुटनिरपेक्ष आंदोलन द्वारा पूरा सहयोग दिये जाने की बात कही गई।
- यूरोप में बढ़ती हथियारों की होड तनाव व विभिन्न गुटों के बीच टकराव की नीति पर चिंता व्यक्त की गई।
- आर्थिक घोषणा-पत्र में विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील राष्ट्रों पर लगाये गये व्यापारिक प्रतिबंध को समाप्त करने के लिए तथा संरक्षणावादी रवैया अपनाने को कहा गया।
- सम्मेलन में खाद्य, ऊर्जा एवं परमाणु शक्ति के बारे में भी विचार किया गया और इनका हल ढ़ूढ़ना नितांत आवश्यक था।
- सम्मेलन में कम्पूचिया के भाग न लेने का विवाद प्रमुख था इस प्रश्न पर सदस्य देश एकमत नहीं है। कुछ देश राजकुमार सिंहनुक को आमंत्रित करने के पक्ष में थे तो कुछ हेंग सैमरिन की सरकार को आमंत्रित करने के, तो कुछ उसका स्थान खाली छोड़ने के पछ में थे। हवाना सम्मेलन की तरह भारत जैसी स्थिति बनी हुई थी अतत: उसका स्थान खाली छोड़ दिया गया।
- ईरान-ईराक के युद्ध के बारे में सम्मेलन की अवधि बढ़ाये जाने का कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सका।
- आठवें शिखर सम्मेलन कहां बुलाया जाए ईराक चाहता था कि बगदाद में बुलाया जाए ईरान, चाहता था कि, लीबिया में यह सम्मेलन बुलाया जाए इस आदि विरोध के कारण इसका कोई हल नहीं निकाला जा सका।
साथ ही इस सम्मेलन में कई सवालों पर चर्चा की गई, जैसे हैंग सैमरिन सरकार को प्रजातांत्रिक रूप से परिवर्तित करना, दक्षिण अफ्रीका द्वारा नामीविया का शोषण कम करने आदि महत्वपूर्ण, सवालों पर सम्मेलन में जो कुछ भी हुआ वह नया नहीं था। ऐसे मुद्दों पर बहस आदि के सिवाय कुछ भी नहीं किया जा सकता।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 7वे शिखर सम्मेलन की उपलब्धियां - यह बात तो मानना ही पड़ेगी कि इस शिखर सम्मेलन ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को एक नई शक्ति और दिशा दी है। कुछ लोगों का मानना है कि यह सम्मेलन एक तरह के शिविर के रूप में सामने आया। जो एक तरह से नये सघर्ष की शुरूआत का मार्ग दिखाता है। इस सम्मेलन में नये शिरे से सदस्य राष्ट्रों की एकता का बोध कराया गया। सशस्त्र संघर्ष की निरर्थकता का अहसास और मतभेदों को शान्तिपूर्ण तरीके से हल करने की उपयुक्तता अधिक अर्थपूर्ण लगी। अन्र्तराष्ट्रीय व्यवस्था पर औद्योगिक देशों से बातचीत चलाने के प्रस्ताव का एक परिणाम यह हुआ कि सदस्य देशों ने विकास कार्यक्रमों में सहयोग की आवश्यकता का महत्व समझा। उन्हें यह भी लगा कि वे अपने संसाधनों और क्षमताओं का विकास कार्यक्रमों में उपयोग अपने प्रयत्न से कर सकते है। इस सम्मेलन का दृष्टिकोण ज्यादातर समस्याओं को हल न करके उन्हें टाल देने का था।
8. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 8वां शिखर सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 8वां शिखर सम्मेलन 1 से 7 सितम्बर 1986 ई. में जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे में आठवां शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ। जिम्बाब्बे के प्रधानमंत्री रार्बट मुगावे को अध्यक्ष चुना गया। इस सम्मेलन में 101 देशों ने भाग लिया। यूनान, आस्ट्रेलिया, मंगोलिया आदि देशों को पर्यवेक्षक का विशेष दर्जा दिया गया। हरारे सम्मेलन में निम्नलिखित बिन्दुओं पर चर्चा की गई -- दक्षिण अफ्रीका की रंग भेद की नीति के विरूद्ध कुछ उपाय अपनाये जाए जिससे वह यह नीति समाप्त करने के लिए बाध्य हो। जिनमें अफ्रीका को प्रोद्योगिकी के हस्तांतरण पर प्रतिबंध, निर्यात की समाप्ति, तेल की बिक्री पर रोक, तथा हवाई संपर्क आदि भी शामिल हो।
- सम्मेलन में तय किया गया कि एक कोष स्थापित किया जाए।
- इस कोष से दक्षिण अफ्रीका पर आर्थिक निर्भरता को कम करने के लिए सहायता की जाए।
- इस सम्मेलन में नामीबिया की आजादी सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा का एक विशेष अधिवेशन बुलाये जाने की मांग की ।
- साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद की कड़ी आलोचना की गई। निर्गुट राष्ट्र तथा विकासशील देश एक दूसरे का आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए तत्पर हो गये यह इस सम्मेलन की एक महान उपलब्धि थी। साथ ही एक आयोग गठित करने का निर्णय लिया गया, यह आयोग दोनों गुटनिरपेक्ष तथा विकासशील देशों में ही सहयोग बढ़ाने का कार्य करेगा, साथ ही निरक्षरता का उन्मूलन, निर्धनता, भुखमरी तथा अन्य आर्थिक समस्याओं के निराकरण के उपाय तथा सुझाव देगा।
संदर्भ -
- Schuman, International Politics, New York, 1948
- Narman A. Grabner, Cold war Diplomacy, 1962.
- Libson, Europe in the 19th and 20th Centuries, London, 1949
- D.F. Fleming, The Coldwar and its origins, 2 vol, 1961
- J.W. Spenier, American Foreign Policy since world War II, 1960
- Robert, D. Worth, Soviet Russia in World Politics, 1965
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