मनोचिकित्सा एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति के आन्तरिक चिन्ताओं एवं कठिनाइयों से मुक्ति दिलाने में
सहायता करती है। व्यक्ति में समाहारक व आशावान भावनाओं को उत्पन्न करती है। हेमप्रफी तथा टेक्सलर ने
परिभाषा दी है- उपचार प्रविधि से व्यक्तिगत समस्याओं के लिए सन्तोषजनक समाधान का विकास किया जाता है। प्रार्थी और
परामर्शदाता प्रथम सम्पर्क में ऐसा प्रयास करते हैं।
मनोचिकित्सा का लक्ष्य आत्म-अनुभूति का विकास करना है और उसको अज्ञानता से मुक्त कराना है।
मनोचिकित्सा से स्वयं ज्ञान, आत्म-अनुभूति एवं सूझ का बोध व्यक्ति स्वयं करने लगता है। मनोचिकित्सा की आवश्यकता एवं उपयोग मनोचिकित्सा की आवश्यकता तथा उपयोग तब किया जाता है जब व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य, सन्तुलन तथा
समायोजन अधिक गम्भीर हो जाता है।
इसका उपचार सामान्य प्रविधियों से करना सम्भव नहीं होता है। गम्भीर
कुसमायोजन के व्यक्तियों के लिए मनोचिकित्सा प्रयुक्त की जाती है।
मनोचिकित्सा का उपयोग इन परिस्थितियों में होता है-
- संवेगात्मक विक्षिप्त बालकों हेतु,
- मानसिक रूप से कमजोर बालकों हेतु,
- शारीरिक रूप से अपंग या बाधित बालकों हेतु,
- शैक्षिक मन्दित बालकों हेतु,
- विभिन्न परिस्थितियों में समस्यात्मक बालक हेतु,
- सामान्य बालकों के कुसमायोजन हेतु।
मनोचिकित्सा की प्रविधिया
1. मनोचिकित्सा प्रत्यक्ष प्रविधि - इस प्रविधि में प्रत्यक्ष रूप से जो असमायोजन के लक्षण दिखाई देते हैं उनका सुधार तथा उपचार क्रिया जाता है उससे मनोविज्ञान का ज्ञान भी होता है। यह सुझाव भी है कि उसे चिन्ताओं के कुप्रभाव की जानकारी देने से उसके स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और इससे कुछ भी भला नहीं होना है।2. सामूहिक मनोचिकित्सा - इस प्रविधि का विकास तथा उपयोग एस. आरसलवसन
ने न्यूयार्क में किया था। यह सामाजिक अनुभव प्रदान करती है। उपचारकर्ता व्यक्ति के सम्बन्धों का अध्ययन
करता है तथा साक्षात्कार भी करता है कि आन्तरिक पक्षों को कौन से सामाजिक व्यवहार प्रभावित करते हैं और उनसे
मुक्ति में क्या कठिनाई आती है इससे निदान किया जाता है और उसी के अनुरूप उपचार किया जाता है।
इस प्रविधि
से एक बड़ी संख्या में व्यक्तियों/बालकों का उपचार किया जाता है और वे ठीक हो जाते हैं। समूह का आकार छोटा
होता है जिसमें 5 से 10 तक सदस्य ही रखे जाते हैं। स्टेंग रथ ने इसके चार लाभ बताये हैं-
- व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को स्वीकार करके उनकी पूर्ति की जाती है।
- आवश्यकता की पूर्ति से अहम् की सन्तुष्टि की जाती है।
- आवश्यकता की पूर्ति सर्जनात्मक क्रियाओं से की जाती है तथा
- आवश्यकता की पूर्ति हेतु सामाजिक पुनशिक्षा भी दी जाती है।
4. सामूहिक कार्य मनोचिकित्सा - इस प्रविधि में व्यक्ति को सामूहिक कार्य
में लगाया जाता है जैसे-चित्रकारी, लकड़ी का कार्य, कुटीर-उद्योग, मिट्टी से मॉडल बनाना तथा धातु सम्बधी कार्य,
टोकरी बनाना, सिलाई, बुनाई आदि। सामूहिक खेल का भी आयोजन क्रिया जाता है। बालकों को स्वतन्त्र रूप से कार्य
करने तथा खेलने का अवसर दिया जाता है जिससे समायोजन प्रवृत्ति विकसित होती है और कुसमायोजन से छुटकारा
मिलता है। मानसिक एवं शारीरिक रूप से क्रियाशील रहते हैं।
5. रोजगार मनोचिकित्सा - इस प्रविधि के अन्तर्गत रोगी को किसी शारीरिक
कार्य में लगाया जाता है और खेलने का भी अवसर दिया जाता है। कोई बंधन नहीं होता है कार्य करने तथा खेलने
की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है। जिससे अचेतन दबी हुई इच्छाओं की पूर्ति होती है।
6. खेल मनोचिकित्सा - इस प्रविधि में प्रक्षेपण प्रविधियों की सहायता ली जाती है। जिससे
उनके अचेतन मस्तिष्क की जानकारी होती है और उसी के अनुरूप उपचार क्रिया जाता है।
क्लार्वफ ई. मौस ने खेल मनोचिकित्सा को अधिक प्रभावशाली बताया है क्योंकि बालक को अपनी अभिव्यक्ति
करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है। उसे सुरक्षा का अनुभव होता है। जिसके परिणाम स्वरूप अपने संवेगों के प्रति
सूझ होने लगती है। वे अपनी अभिवृनियों का सम्प्रेषण भी करते हैं। यह सब छ उन्हें पढ़ाया नहीं जा सकता अपितु
वे स्वयं सीखते हैं।
जब बाल-अपराधी की दबी हुई मानसिक ग्रन्थियों को अथवा अतृप्त इच्छाओं एवं वासनाओं को मनोविश्लेषक जाना लेता है एवं वह उसे बालक के चेतना के स्तर पर लाने में समर्थ हो जाता है, तब वह बालक को यह समझाने का प्रयत्न करता है कि उसके अपराधों के अज्ञात कारण के रूप में ये दबी हुई अतृप्त इच्छाए एवं वासनाए थीं। बालक अपनी इन दबी हुई इच्छाओं को जान लेने के पश्चात् प्राय: इनसे मुक्त हो जाता है। यदि बालक को अपनी ग्रन्थियों का सही कारण मालूम हो जाता है तो प्राय: यह मानसिक गाठ खुल जाती है। ग्रन्थि का निवास अचेतन मस्तिष्क में ही रहता है, चेतन स्तर पर आते ही वह अदृश्य हो जाती है, किन्तु इतने से ही मनोविश्लेषण की क्रिया की इतिश्री नहीं होती है। अचेतन मन में बैठकर कारणों को खोजना ही सब छ नहीं है। कभी-कभी केवल इतनी प्रक्रिया से ही बालक में वाछित सुधार भी नहीं हो पाता। बाल-अपराधी में वाछित सुधार लाने के लिए बालक को उपर्युक्त प्रक्रिया के पश्चात् छ प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पड़ती है। मानसिक चिकित्सा में इसे पुन: शिक्षा कहा जाता है।
पुन: शिक्षा केवल व्याख्यान देना नहीं है। इसमें बालक को केवल सूचना देने से ही काम नहीं चलता है। कभी-कभी हम शिक्षा के नाम पर बालक को आवश्यक बातें याद करवा देते हैं। बालक को किसी बात को मौखिक रूप से कह देना या किसी पुस्तक के किसी अंश को रटवा देना अथवा किसी दुरूह विचार को सरल भाषा में समझा देना ही शिक्षा नहीं है पुन: शिक्षा का स्वरूप व्यावहारिक है। बाल-अपराधी के समक्ष ऐसा अवसर प्रस्तुत क्रिया जाता है जिसमें वह सही सिधान्त का प्रयोग कर सके। जो बालक चोरी करने का आदी हो गया है, उसकी चोरी की प्रवृनि का संबंमा संभव है अचेतन मन से हो। यह मालूम हो जाने पर कि बालक विशेष की चोरी की आदत जीवन में घटी किसी घटना विशेष के कारण है, मनोविश्लेषक बालक को इस कारण से अवगत करा देता है। साथ ही वह बालापराधी को चोरी न करने का परामर्श देता है।
खेल मनोचिकित्सा सामान्य बालकों समस्याओं के उपचार हेतु भी प्रयुक्त की जाती है।
खेल-प्रविधि में अपनी अभिवृनियों की अभिव्यक्ति करते जिन्हें कक्षा-शिक्षण में नहीं कर पाते हैं। जिससे उनके उपचार
तथा निदान में सहायता मिलती है।
7. पर्यावरण मनोचिकित्सा - किसी भी उपचार को अधिक प्रभावशाली
बनाने के लिए पर्यावरण परिस्थितियों में सुधार की आवश्यकता होती है। कभी-कभी घर बदलने से, विद्यालय बदलने
से समुचित समायोजन परिस्थितियों को उत्पन्न करने से समस्या का समाधान हो जाता है। माता-पिता का व्यवहार भी
कुसमायोजन के लिए उनरदायी होता है। घर के वातावरण की भूमिका अहम् होती है। उपचार विशेषज्ञ को माता-पिता
का सहयोग लेना नितान्त आवश्यक होता है तभी उसे निदान एवं उपचार में सफलता मिल सकती है।
मानसिक चिकित्सा में कई प्रविधियों का आश्रय लिया जाता है। सम्मोहन द्वारा मानसिक अन्तर्द्वन्द्व को चेतना के पटल
से हटाया जाता है। बालापराधी में कभी-कभी कोई संवेग बड़ा प्रबल हो जाता है और वह बालक के मन में अन्तर्द्वन्द्व
की उत्पत्ति कर देता है।
इस अन्तर्द्वन्द्व के कष्ट से मुक्ति प्रदान करने के लिए मानसिक चिकित्सक सम्मोहन का आश्रय
लेता है। कभी-कभी किसी औषधि द्वारा भी बाल-अपराधी को अचेत कर दिया जाता है। सम्मोहन की अवस्था में बालक
को अनेकों संकेत प्रदान किए जाते हैं जिससे वह अपने मानसिक विकास से छुटकारा पा लिया जाय। संकेत प्रदान करने
का उद्धेश्य यह होता है कि बालापराधी का ‘अहम’ जाग्रत हो जाय और उसमें दृढ़ता आ जाय। अहम की दृढ़ता से
रोग या अपराध के लक्षण धीरे-धीरे मिटने लगते हैं।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कुछ बालापराधी संवेगात्मक प्रबलता के ही कारण अपराध करने लगते हैं। अत्यधिक चिन्ता, वेdh, भय आदि कभी-कभी अपराध को जन्म दे देते हैं। कभी-कभी बालकों में काम-ग्रन्थि, अधिकार-ग्रन्थि, उच्चता-ग्रन्थि, हीनता-ग्रन्थि आदि भावना-ग्रन्थिया उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी बालकों में स्नायु विकृति का मानसिक रोग हो जाता है। ऐसी अवस्था में अपराधियों का सुधार प्रोबेशन पर रिहा कर देने से अथवा सुधारगृह में भेज देने से नहीं होता है। इनके लिए मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता होती है। अत: मानसिक चिकित्सा की प्रक्रिया को भी संक्षेप में समझ लेना आवश्यक समझ पड़ता है।
मानसिक चिकित्सा का सबसे पहला कदम ग्रन्थियों तथा मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों को खोजना है। बालापराधी की उन प्रवृनियों को जानने का प्रयत्न क्रिया जाता है जिनके वश में आकर बालक विशेष ने अपराध क्रिया है। इसी समय यह देखने का प्रयत्न क्रिया जाता है कि अपराध के कारण का बालक की किसी ग्रन्थि से संबंमा तो नहीं है। यदि यह निश्चय हो जाता है कि बालापराधी के अपराध का कारण उसके संवेग में अथवा अचेतन मस्तिष्क में है तो मनोविश्लेषण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कुछ बालापराधी संवेगात्मक प्रबलता के ही कारण अपराध करने लगते हैं। अत्यधिक चिन्ता, वेdh, भय आदि कभी-कभी अपराध को जन्म दे देते हैं। कभी-कभी बालकों में काम-ग्रन्थि, अधिकार-ग्रन्थि, उच्चता-ग्रन्थि, हीनता-ग्रन्थि आदि भावना-ग्रन्थिया उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी बालकों में स्नायु विकृति का मानसिक रोग हो जाता है। ऐसी अवस्था में अपराधियों का सुधार प्रोबेशन पर रिहा कर देने से अथवा सुधारगृह में भेज देने से नहीं होता है। इनके लिए मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता होती है। अत: मानसिक चिकित्सा की प्रक्रिया को भी संक्षेप में समझ लेना आवश्यक समझ पड़ता है।
मानसिक चिकित्सा का सबसे पहला कदम ग्रन्थियों तथा मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों को खोजना है। बालापराधी की उन प्रवृनियों को जानने का प्रयत्न क्रिया जाता है जिनके वश में आकर बालक विशेष ने अपराध क्रिया है। इसी समय यह देखने का प्रयत्न क्रिया जाता है कि अपराध के कारण का बालक की किसी ग्रन्थि से संबंमा तो नहीं है। यदि यह निश्चय हो जाता है कि बालापराधी के अपराध का कारण उसके संवेग में अथवा अचेतन मस्तिष्क में है तो मनोविश्लेषण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।
मनोचिकित्सा की प्रक्रिया
मनोविश्लेषक मनोविश्लेषण की प्रक्रिया में बाल-अपराधी की जीवनी मालूम करता है। मनोविश्लेषक की कुशलता इसी में है कि वह बालक के सही इतिवृन को मालूम कर ले। उसे सदैव बालक को यह बतला देना चाहिए कि वह कोई वकील या अफसर नहीं है, वह बालक के कारनामों पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करेगा तथा वह बालक की समस्याओं को जानने के लिए ही उसकी जीवनी जानना चाहता है। उसे सदैव बालक को यह आभास करा देना चाहिए कि वह उसका सहायक तथा मित्र है। बालक में मनोविश्लेषक के सामने निर्भयता लाना एक कला है। मनोविश्लेषक अपनी चतुरता से बालक की लज्जा को दूर कर सकता है। कभी-कभी बालक अपनी पुरानी घटनाओं को बतलाने में भय या लज्जा करते हैं। विशेषत: काम संबंमाी घटनाओं को तो बालक छिपाने का ही प्रयत्न करते हैं। इन सब बातों का मनोविश्लेषक को ध्यान रखना है।मनोविश्लेषक बालक से पूछ सकता है, तुमने सबसे
पहले कौन-सा अपराध क्रिया? पहले अपराध का जानना बड़ा आवश्यक है। बालक को यह बतला देना है कि
वह अपनी स्मृति में पीछे की ओर जितना लौट सके लौटे और सबसे पहले की घटना को याद करें। वह पहला
अपराध किन परिस्थितियों में हुआ? उस समय बालक के माता-पिता की आर्थिक दशा केसी थी? उस समय बालक
के मन में क्या विचार मडरा रहे थे? उसकी कल्पना का क्या हाल था? उनकी आशाएं एवं निराशाएं क्या थीं?
उस समय उसकी आवश्यकताएं, इच्छाएं एवं रुचियां केसी थीं? इन सब प्रश्नों का उनर मनोविश्लेषक ढूढने का
प्रयत्न करता है। वह बालक की गाथा को शान्ति-पूर्वक एवं मौर्यवान श्रोता की भाति सुनता जाता है।
मनोविश्लेषक अवसर पाकर बालक के स्वप्नों के विषय में भी पूछताछ करता है। कभी-कभी बालक के साथ
अनौपचारिक रीति से वार्तालाप करने लगता है। जिस समय बालक अपनी घटनाओं का वर्णन करता रहता है उस
समय मनोविश्लेषक बड़े ध्यान से मन में ही बालक के वर्णन की शैली को नोट करता रहता है। वह बालक के
हावभाव को तथा उसके अंगों के संचालन को भी देखता रहता है। बालक की आवाज के उतार-चढ़ाव का भी
ध्यान रखता है। बालक किन-किन जगहों पर अपने वर्णन में रुकता है? उसके वर्णन की गति केसी है? इन बातों
को भी मनोविश्लेषक चुपचाप देखता रहता है। बालक के चेहरे पर लाली का दौड़ना, लज्जाशील होना, घृणा का
भाव, भौहें टेढ़ी होना आदि पर भी वह अपनी नजर रखता है।
मानसिक चिकित्सा में इन सबका महत्व है।
कभी-कभी बालक अपनी घटनाओं में नमक-मिर्च लगा देते हैं। कभी-कभी वे झूठ बोलते हैं। कभी-कभी वे
चिकित्सक को भी बेववूफ बनाने का प्रयत्न करते हैं। कभी-कभी वे कल्पना-लोक में उड़ जाते हैं। कभी-कभी
वे रोने या हसने लगते हैं। मनोविश्लेषक को ऐसे समय में बहुत सतर्वफ रहने की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए
तो सभी व्यक्ति मनोविश्लेषण का कार्य नहीं कर सकते हैं। इसके लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित व्यक्ति की
आवश्यकता होती है।
जब बाल-अपराधी की दबी हुई मानसिक ग्रन्थियों को अथवा अतृप्त इच्छाओं एवं वासनाओं को मनोविश्लेषक जाना लेता है एवं वह उसे बालक के चेतना के स्तर पर लाने में समर्थ हो जाता है, तब वह बालक को यह समझाने का प्रयत्न करता है कि उसके अपराधों के अज्ञात कारण के रूप में ये दबी हुई अतृप्त इच्छाए एवं वासनाए थीं। बालक अपनी इन दबी हुई इच्छाओं को जान लेने के पश्चात् प्राय: इनसे मुक्त हो जाता है। यदि बालक को अपनी ग्रन्थियों का सही कारण मालूम हो जाता है तो प्राय: यह मानसिक गाठ खुल जाती है। ग्रन्थि का निवास अचेतन मस्तिष्क में ही रहता है, चेतन स्तर पर आते ही वह अदृश्य हो जाती है, किन्तु इतने से ही मनोविश्लेषण की क्रिया की इतिश्री नहीं होती है। अचेतन मन में बैठकर कारणों को खोजना ही सब छ नहीं है। कभी-कभी केवल इतनी प्रक्रिया से ही बालक में वाछित सुधार भी नहीं हो पाता। बाल-अपराधी में वाछित सुधार लाने के लिए बालक को उपर्युक्त प्रक्रिया के पश्चात् छ प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पड़ती है। मानसिक चिकित्सा में इसे पुन: शिक्षा कहा जाता है।
पुन: शिक्षा केवल व्याख्यान देना नहीं है। इसमें बालक को केवल सूचना देने से ही काम नहीं चलता है। कभी-कभी हम शिक्षा के नाम पर बालक को आवश्यक बातें याद करवा देते हैं। बालक को किसी बात को मौखिक रूप से कह देना या किसी पुस्तक के किसी अंश को रटवा देना अथवा किसी दुरूह विचार को सरल भाषा में समझा देना ही शिक्षा नहीं है पुन: शिक्षा का स्वरूप व्यावहारिक है। बाल-अपराधी के समक्ष ऐसा अवसर प्रस्तुत क्रिया जाता है जिसमें वह सही सिधान्त का प्रयोग कर सके। जो बालक चोरी करने का आदी हो गया है, उसकी चोरी की प्रवृनि का संबंमा संभव है अचेतन मन से हो। यह मालूम हो जाने पर कि बालक विशेष की चोरी की आदत जीवन में घटी किसी घटना विशेष के कारण है, मनोविश्लेषक बालक को इस कारण से अवगत करा देता है। साथ ही वह बालापराधी को चोरी न करने का परामर्श देता है।
इसके पश्चात् विभिन्न परिस्थितियों में उसकी चोरी न करने
की प्रवृनि को दृढ़ दिया जाता है। हो सकता है बालक कापी, पेंसिल, कलम आदि का चुराना बन्द कर दे, किन्तु
मिठाई देखकर वह अपने पर नियन्त्रण न कर सके। मनोविश्लेषक बारम्बार बाल अपराधी को परामर्श देता है। उसे
अनेकों प्रकार के वह संकेत देता है। वह विभिन्न परिस्थितियों में उसका निरीक्षण करता रहता है। अचेतन अवस्था
में भी वह संकेत देता है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि कभी-कभी मनोविश्लेषक बालक के सुधार
के लिए सम्मोहन की प्रविधि का सहारा लेता है।
इन सब संकेतों में एवं बाल-अपरािमायों को सुधारने के अन्य मानसिक, चिकित्सात्मक उपायों में बालक की इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का प्रयत्न क्रिया जाता है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मानसिक चिकित्सा में बालापराधी के ‘अहम्’ को जाग्रत करने का बहुत प्रयत्न क्रिया जाता है। बालक को इस बात की टें ̄नग दी जाती है कि वह अपने ‘स्व’ से परिचित हो जाये। कभी-कभी हम अपने ‘स्व’ को अपने दृष्टिकोण से ही देखते हैं। यहा इस बात को स्पष्ट कर देना उचित समझ पड़ता है कि हम अपने स्वरूप को स्वयं जिस प्रकार देखते हैं, दूसरे उसे वैसा ही नहीं देखते। हमें अपनी आवाज, अपने चेहरे, अपनी मुस्कान आदि का जैसा अभ्यास होता है, दूसरों को भी वैसा ही आभास नहीं होता है। दूसरे व्यक्ति हमें किस प्रकार का समझते हैं, इसकी भी जानकारी आवश्यक है।
जब बाल-अपराधी का ‘अहम्’ जाग्रत हो उठता है तो वह मानापमान पर बहुत मयान देने लगता है। समाज में सम्मान प्राप्त करने की उसकी इच्छा तीव्र हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में उसे समाज के अनुवूफल कार्यो की झाकी दिखा देनी चाहिए। बालक समाज के अनुवूफल कार्यो में रुचि लेने लगेगा। वह सोचेगा कि समाज के विरुण् कार्य करने से समाज में निन्दा होती है। यदि समाज की मान्यताओं के अनुरूप कार्य होते हैं, तो समाज में सम्मान प्राप्त होता है। समाज के नियमों का पालन करने की आवश्यकता का शनै:-शनै: वह इसी प्रकार अनुभव करने लगता है।
बाल-अपराधी में ‘अहम्’ की जागृति के साथ ही साथ उसकी इच्छा-शक्ति में दृढ़ता आने लगती है। जिस व्यक्ति की इच्छा-शक्ति निर्बल होती है वह मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का बहुत शीघ्र शिकार बन जाता है। निर्बल इच्छा-शक्ति से बालक में निर्णय शक्ति का ह्रास हो जाता है। मानसिक चिकित्सा में इच्छा-शक्ति की दृढ़ता पर भी मयान दिया जाता है। विभिन्न प्रकार के संकेतों को प्रदान कर बाल-अपराधी की इच्छा-शक्ति में सबलता लाने का प्रयास क्रिया जाता है। बालक को बीच-बीच में प्रोत्साहित भी क्रिया जाता है। बालक के मन की हीनता की भावना को निकालने का प्रयत्न क्रिया जाता है। मानसिक चिकित्सक इस बात की कोशिश करता है कि बालक अपने ‘स्व’ को दूसरों के दृष्टिकोण से देखे। उसे इस बात को भी समझा दिया जाता है कि वह एक अच्छा एवं सुयोग्य नागरिक बन सकता है। उसे अपने अनुचित विचारों के शोमा की भी शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार बाल-अपराधी को कर्नव्य-परायणता, नियमपालिता, आज्ञाकारिता, सहयोग आदि सद्गुणों का भी ज्ञान कराया जाता है। विभिन्न परिस्थितियों में इन सद्गुणों के प्रयोग पर भी बल दिया जाता है।
द्वितीय महायुण् के मध्य में एवं उसके कुछ समय पूर्व मानसिक चिकित्सा की एक नई प्रविधि निकाली। यह प्रविधि वैयक्तिक सम्मोहन, संकेत आदि से भिन्न है। इस नई प्रविधि को सामूहिक चिकित्सा के नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में यदि देखा जाये तो यह कोई नई प्रविधि नहीं है वरन् एक पुरानी प्रविधि को वैज्ञानिक रीति से व्मबण् क्रिया गया है। इसमें कई व्यक्तियों की एक साथ ही चिकित्सा की जाती है। समूह निर्माण की परिस्थिति में बालक की नैतिक भावनाओं में परिवर्तन करना ही इस प्रविधि का उद्धेश्य है।
मानसिक चिकित्सा की विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस विधि से बाल-अपराधी का सुधार शीघ्र होता है। यह विधि संक्षिप्त भी है, किन्तु इस विधि से सभी बाल-अपरािमायों का सुधार नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त इस विधि में एक दोष यह भी है कि बाल-अपराधी छ समय के लिए अपराध की प्रवृनि से मुक्त दिखाई पड़ता है, किन्तु उसकी प्रवृनि जड़ से समाप्त नहीं होती। वस्तुत: होता यह है कि अपराध के लक्षण चेतन से अचेतन मस्तिष्क में चले जाते हैं और हम कह उठते हैं कि अपराध के लक्षण समाप्त हो गए। अचेतन मस्तिष्क में पहुच कर ये लक्षण अपराध के अन्य लक्षणों को किसी भी समय जन्म दे सकते हैं, तथापि मानसिक चिकित्सा के उपयोग से हम आख नहीं बन्द कर सकते और यह कहना उपयुक्त ही है कि वर्तमान समय में छ बाल-अपरािमायों के लिए यह विधि सर्वश्रेष्ट विधि है। मानसिक चिकित्सा वास्तव में मानसिक रोगों को दूर करने का उपाय है। हम मानसिक आरोग्य एवं मानसिक रोग निरोध के अध्यायों में इसका उल्लेख कर चुके हैं। यहा पर मानसिक चिकित्सा का बालापराध को दूर करने के उपाय के रूप में ही उल्लेख क्रिया गया है।
इस प्रकार बालापराधी को सुधारने का प्रयत्न क्रिया जाता है एवं उसे एक सुयोग्य नागरिक बनाने का सदा उद्धेश्य रखा जाता है। पहले अपराधी को बन्दीगृह में ही भेज कर अपराध से छुट्टी लेने की कोशिश की जाती थी, किन्तु उससे समस्या का समाधान नहीं हुआ। अब अपराधी को सुधारने पर बल दिया जाता है।
इन सब संकेतों में एवं बाल-अपरािमायों को सुधारने के अन्य मानसिक, चिकित्सात्मक उपायों में बालक की इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का प्रयत्न क्रिया जाता है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मानसिक चिकित्सा में बालापराधी के ‘अहम्’ को जाग्रत करने का बहुत प्रयत्न क्रिया जाता है। बालक को इस बात की टें ̄नग दी जाती है कि वह अपने ‘स्व’ से परिचित हो जाये। कभी-कभी हम अपने ‘स्व’ को अपने दृष्टिकोण से ही देखते हैं। यहा इस बात को स्पष्ट कर देना उचित समझ पड़ता है कि हम अपने स्वरूप को स्वयं जिस प्रकार देखते हैं, दूसरे उसे वैसा ही नहीं देखते। हमें अपनी आवाज, अपने चेहरे, अपनी मुस्कान आदि का जैसा अभ्यास होता है, दूसरों को भी वैसा ही आभास नहीं होता है। दूसरे व्यक्ति हमें किस प्रकार का समझते हैं, इसकी भी जानकारी आवश्यक है।
जब बाल-अपराधी का ‘अहम्’ जाग्रत हो उठता है तो वह मानापमान पर बहुत मयान देने लगता है। समाज में सम्मान प्राप्त करने की उसकी इच्छा तीव्र हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में उसे समाज के अनुवूफल कार्यो की झाकी दिखा देनी चाहिए। बालक समाज के अनुवूफल कार्यो में रुचि लेने लगेगा। वह सोचेगा कि समाज के विरुण् कार्य करने से समाज में निन्दा होती है। यदि समाज की मान्यताओं के अनुरूप कार्य होते हैं, तो समाज में सम्मान प्राप्त होता है। समाज के नियमों का पालन करने की आवश्यकता का शनै:-शनै: वह इसी प्रकार अनुभव करने लगता है।
बाल-अपराधी में ‘अहम्’ की जागृति के साथ ही साथ उसकी इच्छा-शक्ति में दृढ़ता आने लगती है। जिस व्यक्ति की इच्छा-शक्ति निर्बल होती है वह मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का बहुत शीघ्र शिकार बन जाता है। निर्बल इच्छा-शक्ति से बालक में निर्णय शक्ति का ह्रास हो जाता है। मानसिक चिकित्सा में इच्छा-शक्ति की दृढ़ता पर भी मयान दिया जाता है। विभिन्न प्रकार के संकेतों को प्रदान कर बाल-अपराधी की इच्छा-शक्ति में सबलता लाने का प्रयास क्रिया जाता है। बालक को बीच-बीच में प्रोत्साहित भी क्रिया जाता है। बालक के मन की हीनता की भावना को निकालने का प्रयत्न क्रिया जाता है। मानसिक चिकित्सक इस बात की कोशिश करता है कि बालक अपने ‘स्व’ को दूसरों के दृष्टिकोण से देखे। उसे इस बात को भी समझा दिया जाता है कि वह एक अच्छा एवं सुयोग्य नागरिक बन सकता है। उसे अपने अनुचित विचारों के शोमा की भी शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार बाल-अपराधी को कर्नव्य-परायणता, नियमपालिता, आज्ञाकारिता, सहयोग आदि सद्गुणों का भी ज्ञान कराया जाता है। विभिन्न परिस्थितियों में इन सद्गुणों के प्रयोग पर भी बल दिया जाता है।
द्वितीय महायुण् के मध्य में एवं उसके कुछ समय पूर्व मानसिक चिकित्सा की एक नई प्रविधि निकाली। यह प्रविधि वैयक्तिक सम्मोहन, संकेत आदि से भिन्न है। इस नई प्रविधि को सामूहिक चिकित्सा के नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में यदि देखा जाये तो यह कोई नई प्रविधि नहीं है वरन् एक पुरानी प्रविधि को वैज्ञानिक रीति से व्मबण् क्रिया गया है। इसमें कई व्यक्तियों की एक साथ ही चिकित्सा की जाती है। समूह निर्माण की परिस्थिति में बालक की नैतिक भावनाओं में परिवर्तन करना ही इस प्रविधि का उद्धेश्य है।
मानसिक चिकित्सा की विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस विधि से बाल-अपराधी का सुधार शीघ्र होता है। यह विधि संक्षिप्त भी है, किन्तु इस विधि से सभी बाल-अपरािमायों का सुधार नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त इस विधि में एक दोष यह भी है कि बाल-अपराधी छ समय के लिए अपराध की प्रवृनि से मुक्त दिखाई पड़ता है, किन्तु उसकी प्रवृनि जड़ से समाप्त नहीं होती। वस्तुत: होता यह है कि अपराध के लक्षण चेतन से अचेतन मस्तिष्क में चले जाते हैं और हम कह उठते हैं कि अपराध के लक्षण समाप्त हो गए। अचेतन मस्तिष्क में पहुच कर ये लक्षण अपराध के अन्य लक्षणों को किसी भी समय जन्म दे सकते हैं, तथापि मानसिक चिकित्सा के उपयोग से हम आख नहीं बन्द कर सकते और यह कहना उपयुक्त ही है कि वर्तमान समय में छ बाल-अपरािमायों के लिए यह विधि सर्वश्रेष्ट विधि है। मानसिक चिकित्सा वास्तव में मानसिक रोगों को दूर करने का उपाय है। हम मानसिक आरोग्य एवं मानसिक रोग निरोध के अध्यायों में इसका उल्लेख कर चुके हैं। यहा पर मानसिक चिकित्सा का बालापराध को दूर करने के उपाय के रूप में ही उल्लेख क्रिया गया है।
इस प्रकार बालापराधी को सुधारने का प्रयत्न क्रिया जाता है एवं उसे एक सुयोग्य नागरिक बनाने का सदा उद्धेश्य रखा जाता है। पहले अपराधी को बन्दीगृह में ही भेज कर अपराध से छुट्टी लेने की कोशिश की जाती थी, किन्तु उससे समस्या का समाधान नहीं हुआ। अब अपराधी को सुधारने पर बल दिया जाता है।
सफल मनोचिकित्सा विशेषज्ञ के गुण
- वह भावनाओं, अभिवृनियों, अभिरूचियों तथा व्यवहारों के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए।
- मानव व्यवहार का पर्याप्त ज्ञान तथा बोध होना चाहिए।
- उसे अपने रोगी का समुचित आदर सम्मान करना चाहिए।
- उसे मौर्यवान श्रोता भी होना चाहिए।
- वह अधिक नैतिकवादी नहीं होना चाहिए।
- रोगी की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि कोण होना चाहिए।
- रोगी के उपचार में मौर्य तथा निरन्तरता होनी चाहिए।