सामाजिक यथार्थ का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति

सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य ‘‘समाज से सम्बन्धित किसी भी घटनाक्रम का ज्यों का त्यों चित्रण ही सामाजिक यथार्थ कहलाता है।’’ इसके अतिरिक्त सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य आम प्रचलित शब्दों में मनुष्य द्वारा की गई सामान्य क्रियाओं के सच्चे चित्रण से लिया जाता है। साहित्य से ही हमें तत्कालीन समाज की परिस्थितियों तथा जन-सामान्य के जीवन का परिचय मिलता है।

सामाजिक यथार्थ का अर्थ

ज्ञान शब्द कोश में सामाजिक शब्द का अर्थ ‘‘समाज सम्बन्धी, ‘समाज में पाये जाने वाला’ आदि से लिया गया है।’’ इसी शब्द कोश में यथार्थ का अर्थ ‘‘सत्यप्रकट, उचित आदि से लिया गया है।’’ इन दोनों के अथोर्ं को मिलाकर सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य समाज में घटित होने वाली सच्ची घटनाओं का यथार्थ चित्रण ही सामाजिक यथार्थ कहलाता है।

सामाजिक यथार्थ से ही साहित्य में अभिरूचि उत्पन्न होती है। जिसमें सामाजिक जीवन के यथार्थ की तस्वीरों को देख सकते हैं। साहित्य और समाज एक दूसरे के परिपूरक हैं। साहित्य समाज से सामग्री ग्रहण कर हमें मार्ग दर्शन कराता है। ‘‘उपन्यास इस दृष्टि से आज सबसे अधिक सशक्त माध्यम है। क्योंकि उसका सम्बन्ध युग की यथार्थ घटनाओं से अधिक है उसका विषय ही जीवनगत यथार्थताओं को व्यक्त करना है।’’

सामाजिक यथार्थ की प्रकृति

यथार्थ शब्द का प्रयोग सत्य, वास्तविकता, वस्तुस्थिति आदि कई अथोर्ं में किया जाता है। ‘‘इसी को यदि हम सीधी-सादी भाषा में कहना चाहे तो अपने सामने जो कुछ भी यानी कि कोई घटना, प्रसंग, दृश्य, संबंध समस्या या अन्य कोई स्थिति अथवा प्रकरण देखते हैं, सुनते हैं और उसका अनुभव बिना किसी लाग लपेट अथवा दाव पेच से रहित स्वानुभूति ही यथार्थ है।’’ यथार्थ के स्वरूप और चरित्र के बारे में अनेक साहित्य चिंतको एवं मनीषियों ने अपने-अपने मंतव्य प्रकट किए हैं। साहित्य में वह सभी यथार्थ माना जाता है जिसमें साहित्यकार की स्वयं की अनुभूति होती है और जिसे वह दूसरों को भी अनुभव करा सकता है। साहित्य सदैव सत्य का पक्षपाती रहा है। साहित्य में सत्य को यथार्थ के रूप में स्वीकार किया जाता है। 

साहित्य तथा यथार्थ दोनों ही ‘‘कल्पना का सत्य रूप विद्यमान रहता है। परन्तु यह कल्पना कोरी कपोल कल्पना न होकर यथार्थ को सुन्दर से सुन्दरतम् ढंग से प्रस्तुत करने के लिए ताने-बाने के रूप में प्रयुक्त होती है।’’ लेखक अपनी रचना में अपने आस-पास के वातावरण को या उस समाज को चित्रित करता है। जिसमें वह अपना जीवन व्यतीत करता है। ‘‘साहित्यकारों ने अपने साहित्य में समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, सामाजिक विषमता, दरिद्रता जीवन की असंगतियॉं काम कुण्ठाएॅं और सदियों से सामाजिक और पारिवारिक दमन के दुहरे चक्र में पिसती बेबस अपमान और प्रताड़ना के जाल में छटपटाती समाज के लिए सर्वस्व लुटाती नारी की ओर विशेष रूप से समाज का ध्यान आकृष्ट किया है।’’

सामाजिक यथार्थ को रूपायित करते समय समाज में व्याप्त कुरीतियों का भी चित्रण होता है, समाज में आये दिन बलात्कार, व्यभिचार, चोरी, डकैती आदि घटनाएं घटित होती है। व्यभिचार, मर्यादाओं का उल्लंघन समाज में व्याप्त शिक्षा सुरूचि के अभाव को जिम्मेदार मान सकते हैं।

समाज में व्याप्त मजदूर वर्ग का शोषण भी सामाजिक यथार्थ की एक दुखद स्थिति है। पॅूंजीपति वर्ग मजदूरों का शोषण कर रहा है। मजदूरी की दर निश्चित कर रखी है जबकि उन्हें भुगतान उससे कुछ कम ही किया जाता है। पूंजीपति की असंवेदनशील मानसिकता विकराल रूप धारण कर लेती है।

सामाजिक यथार्थ की अवधारणा बदलती रहती है। उपन्यास साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट होती है कि सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने की ललक हर उपन्यासकार में होती है। विसंगतियों विद्रूपताओं, शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार आदि का जो रूप आज विद्यमान है वह क्रमश: घोर से घोरतर विकट होता जा रहा है। सामाजिक यथार्थ युगीन परिस्थितियों पर अवलम्बित रहता है। ‘‘प्रारम्भ से देशी राजाओं की कूट से लाभ उठाकर विदेशी शासकों ने अपने पैर जमाकर यहां शासन किया, यहां के देश वासियों ने अपने धर्म का प्रचार और प्रसार किया। इससे न केवल भारतीयों में परस्पर ईर्ष्या व द्वेष की भावना उद्भूत हुई बल्कि साहसिक भावों का भी उदय हुआ और वे स्वतन्त्रता के पक्षधर हो गए। 

इससे पता चलता है कि प्रारम्भ में साहित्य पर सामाजिक यथार्थ का प्रभाव न्यूनतम मात्रा में पड़ा था।

साहित्य में वह सभी यथार्थ माना जाता है जिसमें साहित्यकार की अनुभूति होती है और जिसे वह दूसरों को भी अनुभव करा सकता है। यथार्थ के चित्रण में वास्तविक जीवन में उपयोग की जाने वाली कल्पना भी सत्य बन जाती है। वस्तुत: ‘‘साहित्य तथा यथार्थ दोनों में ही कल्पना का सत्य रूप विद्यमान रहता है परन्तु यह कल्पना कपोल कल्पना न होकर यथार्थ को सुन्दर से सुन्दरतम् ढंग से प्रस्तुत करने के लिए ताने बाने के रूप में प्रयुक्त होती है।’’

आधुनिक उपन्यास समाज व्यवस्था प्रकृति का सामंजस्य असामंजस्य उसे उद्घाटित करता है। वह केवल मूल आवेगों का उपभोग नहीं करता है। उपन्यास की इसी आधुनिकता ने उसे समकालीन तथा यथार्थवादी बना दिया है। सामान्यत: साहित्य में और विशेषत: उपन्यास में क्रमश: यथार्थ का आग्रह और उसके विश्लेषण की परिधि निरन्तर बढ़ती गई है। उपन्यासकारों ने मानव संस्कृति की डगमगाती अवस्था और मानवता की गरिमा को खण्डित होते हुए भी देखा है। कुण्ठा विनाश घूसखोरी, स्वार्थपरता, भाई-भतीजावाद, बेकारी, सार्वजनिक जीवन को रिसते एवं छीजते हुए देखा है। मनुष्य में कोई आदर्श नहीं न ही कोई उच्च जीवन मूल्य। पुराने जीवन मूल्य टूट रहे हैं और नये जीवन मूल्य उचित रूप से पनप नहीं पा रहे। समाज में चोर बाजारी, साम्प्रदायिकता, वर्ग संघर्ष, जातिवाद, भाषावाद, प्रांतीयता, क्षेत्रवाद, आर्थिक असंतुलन, आदिवासियों का शोषण, अन्न का अभाव, बेरोजगारी, बेकारी, मंहगाई, पुराने और नये नेताओं के बीच की ये ही जीर्ण-शीर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक परम्पराएं सूखकर ढहने को तैयार’’ इसीलिए उपन्यासकार के सामने देश का वह युग रहा जो मूर्ति भंजक था। मानवीय संवेदनशील स्थितियों ने रचनाकारों की संवेदना को झकझोर कर रख दिया।

व्यक्ति केवल सामाजिक जीवन की यांत्रिकी इकाई के रूप में नहीं होता, उसका मन टटोलना आवश्यक है और जब व्यक्ति को पूर्णरूपेण बाह्य व आंतरिक रूप से टटोला जाता है तभी यथार्थ का व्यापक व सत्य स्वरूप प्रस्तुत होता है। इन दो प्रकार की यथार्थ चेतनाओं को अलग-अलग ढंग से आधुनिक काल के दो मनीषियों- माक्र्स व फ्रायड ने मुखरता प्रदान की है माक्र्स के अनुयायियों ने सामाजिक यथार्थ को महत्ता दी है और फ्रायड ने अन्तर्मन को ही सत्य माना है। भारतीय रचनाकार प्रेमचन्द ही हिन्दी के सबसे पहले यथार्थवादी उपन्यासकार थे, जिन्होंने यथार्थवाद को बाह्य व आन्तरिक रूप से परखा है।

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