ध्वनि परिवर्तन के कारण एवं दिशाएं

ध्वनि परिवर्तन का अर्थ किसी भी भाषा के विकास पर विचार करते हुए हम देखते हैं कि उसके प्राचीन और नवीन रूप में पर्याप्त अन्तर आ गया है। यह अन्तर उसमें हुए अनेक प्रकार के परिवर्तनों को सूचित करता है। किसी शब्द में कहीं कोई नयी ध्वनि आ मिली है तो कहीं कोई ध्वनि लुप्त हो गई है। किसी ध्वनि का स्थान परिवर्तित हो गया है तो किसी ध्वनि का घोष से अघोष हो जाना अथवा अघोष ध्वनि का घोष हो जाना सभी परिवर्तन भाषा में ध्वनि-परिवर्तन कहे जाते हैं। बहुत काल तक किसी शब्द का प्रयोग होते रहने पर उसकी कई ध्वनियाँ अल्पप्राण हो जाती हैं तो कोई-कोई अल्पप्राण ध्वनि महाप्राण ध्वनि का रूप ले लेती है। इन सभी को ध्वनि-परिवर्तन की दिशाएँ कहा जाता है। ध्वनि परिवर्तन की दिशाओं को हम निम्नलिखित नामों से पुकारते हैं-

1. आगम - किसी शब्द में पहले से कोई ध्वनि जब अविद्यमान रहती है और बाद में उसमें वह आ मिलती है तो चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो अथवा अक्षर हो वह नवीन आई ध्वनि ‘आगम’ कहलाती है। यह ध्वनि का आगमन शब्द के प्रारम्भ, मध्य अथवा अन्त में कहीं भी हो सकता है। इस प्रकार यह स्वरागम भी तीन प्रकार का होता है, (आदि, मध्य, अन्त) व्यंजनागम भी तथा इसी प्रकर अक्षरागम भी। इससे स्पष्ट होता है कि आगम नौ रूपों में दिखाई पड़ता है अथवा इसके नौ भेद कहे जा सकते हैं। 

कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं- स्वर्ण से सुवर्ण, शाप से श्राप, वधू से वधूटी, स्कूल से इस्कूल, वरयात्रा से बारात, प्यारा से पिआरा, प्रिय से पिया आदि।

2. लोप - किसी शब्द में पहले विद्यमान ध्वनि का उसके परिवर्तित रूप में न पाया जाना ध्वनि का लोप कहलाता है। जैसे- स्कंध से कंधा, स्नान से नहाना, शिक्षा से सीख, ग्राम से गाँव, सर्प से साँप आदि स्नेह से नेह, वाष्प से भाँप, दूर्वा से दूब, भगिनी से बहिन, भण्डागार से भाण्डार और फिर भण्डार, सूची से सूई, अभ्यन्तर से भीतर आदि उदाहरण में कभी आदि में, कभी मध्य में और कभी अन्त में ध्वनि का लोप हो गया है। 

आगम की ही भाँति लोप के भीठीक उसी प्रकार नौ भेद होते हैं। स्वर, व्यंजन, शब्द - इन तीनों के आदि, मध्य और अंत के लोप नौ प्रकार के हो गए। लोप का दसवाँ रूप है समान अक्षर का लुप्त होना जैसे नाक कटा से नकटा आदि।

3. विपर्यय - किसी शब्द में न तो कोई नयी ध्वनि जुड़ी हो और न लुप्त हुई हो अपितु शब्द की ध्वनियाँ आपना स्थान बदल कर आगे-पीछे हो गई हो, उसे विपर्यय कहा जाता है। उदाहरण के लिए अदरक से अदकर, लखनउ से लखलऊ, ससुर से सुसर, पागल से पगला, मतलब से मतबल, आदि। कभी-कभी शब्द या शब्दांश का भी विपर्यय हो जाया करता है जैसे आगे-पीछे से पीछा-आगा रात-दिन से दिन - रात, ओखल-मूसल से मूखल-ओसल। इसे अंगे्रजी भाषा में स्पूनरिज़्म कहा जाता है। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं।

4. समीकरण - किसी शब्द में जहाँ दो ध्वनियाँ हों जिनमें एक सशक्त ध्वनि दूसरी ध्वनि को अपने अनुरूप परिवर्तित कर लेती है इसे समीकरण कहा जाता है। जैसे संस्कृत का अग्नि प्राकृत में अग्गि हो जाता है, धर्म (संस्कृत) से धम्म (प्राकृत) हो जाता है। वल्कल से वक्कल आदि। समीकरण स्वर का व्यंजन का दो प्रकार का हुआ एवं पुनः उसके दो भेद हैं अग्र और पश्च। इस प्रकार समीकरण चार प्रकार का हो जाता है।

5. विषमीकरण - जहाँ दो एक ही प्रकार की ध्वनियाँ धीरे-धीरे असमान होकर विषमता में बदल जाएँ वहाँ विषमीकरण कहा जाता है जेसे कंकन से कंगन। समीकरण की भाँति इसके भी स्वर विषमीकरण, व्यंजन विषमीकरण, अग्र और पश्च इस प्रकार चार भेद होते हैं।

6. सघोषीकरण - जहाँ एक अघोष ध्वनि अपने साथ की ध्वनि के प्रभाव से घोष में बदल जाए वहां सघोषीकरण कहा जाता है, जैसे शकुन से सगुन, शाक से साग, अर्क से आख, हस्त से हाथ प्रकट से प्रगट (केवल उच्चारण में) आदि।

7. अघोषीकरण - जहाँ शब्द में कोई घोष ध्वनि अघोष ध्वनि में बदल जाए उसे अघोषीकरण कहा जाता है, जैसे, फारसी मदद से हिन्दी मदत। 

8. मात्रा-भेद -जब किसी शब्द में कोई दीर्घ मात्रा हृस्व में अथवा हृस्व मात्रा दीर्घ में बदल जाती है उसे मात्रा भेद कहा जाता है, जैसे- संस्कृत का दुग्ध से दूध, पुत्र से पूत, अग्नि से आग, आषाढ़ से असाढ़ आदि।

9. अलपप्राणीकरण - जहाँ कोई महाप्राण ध्वनि परिवर्तित हो कर अल्प प्राण ध्वनि हो जाए उसे अल्पप्राणीकरण कहते हैं जैसे, सिन्धु से हिन्दू भगिनी से बहिन।, पाद से पाँव, कर्ण से कान आदि।

10. महाप्राणीकरण -  जब किसी शब्द में अल्पप्राण ध्वनि महाप्राण में परिवर्तित हो जाए उसे महाप्राणीकरण कहा जाता है जैसे- गृह से घर, वन से बन, वाटिका से बाग, पादप से पेड़, वट से बड़।

11. ऊष्मीकरण - जब किसी शब्द में पहले से जो ध्वनि ऊष्म न हो और वह ऊष्म में परिवर्तित हो जाए तो उसे ऊष्मीकरण कहते हैं। केन्तुम और शतम् वर्ग की भाषाओं में क्रमशः ‘क’ और ‘श’ या ‘स’ ध्वनियाँ ऊष्म में परिवर्तित हो गई हैं।

12. अनुनासिकीकरण - किसी शब्द में जो ध्वनि पहले अनुनासिक न हो किन्तु बाद में उसमें अनुनासिकता का समावेश हो जाए उसे अनुनासिकीकरण कहा जाता है, जैसे- ग्राम शब्द से गाँव, छाया शब्द से छाँव, सर्प से साँप, वाष्प से भाँप, श्वास से साँस, अश्रु से आँसू, हास्य से हँसी आदि।

13. सन्धि - जहाँ अलग-अलग ध्वनियों में मेल या संधि हो जाताी है उसे सन्धि का ध्वनि परिवर्तन कहा जाता है जैसे- नइन (नैन) बइन (बैन) कउन (कौन)। सन्धि तीन प्रकार की होती है-
  1. अच् या स्वर सन्धि।
  2. हल् अर्थात् व्यंजन सन्धि।
  3. विसर्ग सन्धि।
संधि की चार दिशाएँ हैं- लोप, आगम, विकार तथा प्रकृतिभाव।

14. भ्रामक व्युत्पत्ति - जब अज्ञानवश किसी अन्य भाषा के शब्द को अपनी भाषा की ध्वनियों में मनगढ़ंत ढंग से प्रयोग किया जाए उसे भ्रामक व्युत्पत्ति कहा जाता है जैसे अंगे्रजी भाषा का कण्डक्टर हिन्दी में ‘कनक्टर’ कलक्टर को ‘कलट्टर’, लार्ड से लाट आदि। भाषा वैज्ञानिकों ने अभी तक ध्वनि परिवर्तन की ऊपर निर्दिष्ट 14 दिशाओं का ही अध्ययन किया है यद्यपि ध्वनि परविर्तन की असंख्य दिशाएँ हो सकती हैं।

ध्वनि परिवर्तन के कारण

भाषा में ध्वनियों का परिवर्तन होने के कुछ कारण अवश्य रहते हैं क्योंकि कोई भी कार्य बिना किसी कारण के नहीं होता है। भाषा क्योंकि अनुकरण से सीखी जाती है अतः अनुकरण की अपूर्णता से ध्वनि परिवर्तन हो सकता है। संसार में सभी मनुष्यों की अनुकरण करने की शक्ति बुद्धि एक समान नहीं है साथ ही सभी के उच्चारण अवयव भी एक जैसे नहीं हैं यही कारण है कि उच्चरित ध्वनियों में अन्तर उपस्थित हो जाता है। 

कभी-कभी मनुष्य शीघ्रता से बोलने के कारण भी ध्वनियों का उच्चारण ठीक प्रकार से नहीं करता और कभी कठिनाई से बोली जाने वाली ध्वनियों को सरल बना कर उच्चरित कर लेता है। 

अतः ध्वनि परिवर्तन के अनेक कारण हे। जिनमें कुछ प्रमुख कारणों पर हम यहाँ चर्चा करेंगे-

  1.  बाह्य कारण
  2. आभ्यंतर कारण।

1. ध्वनि परिवर्तन के बाह्य कारण

ये कारण बाहर से ध्वनि को प्रभावित करते है। ध्वनि-परिवर्तन के बाह्य कारण मुख्यत: हैं-

1. व्यक्तिगत भिन्नता-प्रत्येक व्यक्ति की वा¯गद्रिय तथा श्रवणेंद्रिय अन्य व्यक्ति से भिन्न होती हैं। एक व्यक्ति किसी ध्वनि को जिस प्रकार बोलता है, दूसरा व्यक्ति पूर्ण प्रयत्न करने पर भी वैसा नहीं बोल सकता है। वाग्यंत्र की भिन्नता के ही कारण किन्हीं दो व्यक्तियों के उच्चारण में पूर्ण समानता नहीं हो सकती है। यह भिन्नता कभी सामान्य होती है, तो कभी रेखांकन योग्य होती है यथा-अंग्रेज ‘तुम’ को टुम कहता है। हम बच्चे के मुख से रोटी को ‘लोटी’ और हाथी को ‘आती’ सुनते ही हैं। इस प्रकार वा¯गद्रिय भिन्नता और श्रवण की अपूर्णता से अनेक ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है।

2. भौगोलिक कारण-ध्वनि-उच्चारण पर भौगोलिक परिस्थिति का विशेष प्रभाव पड़ता है। एक भाषा की विभिन्न ध्वनियों का उच्चारण भिन्न भौगोलिक वातावरण के दूसरे भाषा-भाषियों के द्वारा संभव नहीं है। शीत-प्रधन वातावरण के व्यक्ति प्राय: बातचीत में मुख सीमित खोलते हैं। इस कारण ऐसे वातावरण के व्यक्ति दंत्य ध्वनियों का स्पष्ट उच्चारण नहीं कर पाते हैं। वे प्राय: त, थ, द को क्रमश: ट, ठ, ड बोलते हैं। आवागमन के साधन से रहित या ऐसे शिथिल साधन वाले भौगोलिक भाग की भाषाओं में ध्वनि-परिवर्तन अत्यंत मंद होता है।, जबकि उर्वर, समतल, आवागमन से मुक्त भू-भाग की भाषाओं की ध्वनियों में सतत-तीव्र गति से परिवर्तन होता रहता है।

3. सामाजिक परिस्थिति-सामाजिक उन्नति तथा अवनति का भाषा पर विशेष प्रभाव पड़ता हैं सामाजिक उन्नति पर भाषा का शुद्ध रूप प्रयुक्त होता है, तो अवनति पर उसके परिवर्तित रूप का ही अधिक प्रयोग होना स्वाभाविक है। इस प्रकार सामाजिक स्थिति के कारण शब्दों में ध्वनि-परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। यजमान > जजमान, फरोहित > उपरेहित, वियरिग > बैंरग, वाराणसी > बनारस।

4. अन्य भाषाओं का प्रभाव-एक भाषा-क्षेत्र में जब किसी अन्य भाषा का प्रयोग होने लगता है, तो उनकी ध्वनियाँ वहाँ की भाषा को प्रभावित करती हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के पश्चात अरबी तथा फारसी भाषा का यहाँ प्रयोग होने लगा है। अरबी-फारसी के प्रभाव से हिंदी में क, ख़्, ग़, ज़्, फ आदि ध्वनियाँ बोली तथा लिखी जाने लगी हैं। अंग्रेजी के प्रभाव से हिंदी में ऑ ध्वनि का प्रयोग होने लग गया हैयथा-डॉक्टर, बॉल आदि।

2. ध्वनि परिवर्तन के आभ्यंतर कारण

ध्वनि-परिवर्तन के संबंध में वक्ता और श्रोता से संबंधित कारणों को आभ्यंतर या आंतरिक कारण कहते हैं। इस वर्ग के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

1. मुखसुख-इसे प्रयत्नलाघव भी कहते हैं। यह कारण उच्चारण सुविधा से जुड़ा है। मनुष्य अल्प श्रम से अधिक से अधिक कार्य संपन्न करना चाहता है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार मनुष्य कम से कम उच्चारण से स्पष्ट तथा प्रभावशाली अभिव्यक्ति करना चाहता है। ऐसे में उच्चारण-सुविध के अनुसार अनेक क्लिष्ट ध्वनियाँ सरल रूप में परिवर्तित हो जाती है। इस प्रयत्न में अनेक प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन होते हैं। 

मुख-सुख ध्वनि-परिवर्तन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण है। इसमें कभी आगम होता है, तो कभी लोप। समीकरण विषमीकरण, घोषीकरण तथा अघोषीकरण आदि परिवर्तन प्राय: मुख-मुख के कारण होते हैं।

2. भावावेष-प्रेम, क्रोध आदि संदर्भों के भावावेश में उच्चरित शब्दों की ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता हैं प्राय: देखा गया है कि प्रेम और क्रोध में सीध नाम न लेकर उसे तोड़-मरोड़ कर प्रयोग किया जाता हैयथा-रामेश्वर > रामे, रामसुरा, रामसर या राम श्याम > शामू, शामुआ, शमुआँ, शामों।i

3. अशिक्षा-अशिक्षा या अज्ञानता के कारण शब्दों का उचित ज्ञान नहीं होता, इससे उनकी ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है। ऐसे व्यक्ति जब शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते, तब भी ध्वनि-परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार से होने वाले परिवर्तन है-गार्ड > गारद, कंपाउंडर > कंपोडर, टाइम > टेम।

4. बोलने में शीघ्रता-शीघ्रता से बोलने के कारण भी शब्दों की ध्वनियों में परिवर्तन होता है। ऐसे में प्राय: शब्द की मध्य ध्वनियाँ लुप्त हो जाया करती है। इस प्रक्रिया में शब्दों की लम्बार्इ भी कम हो जाती है यथा-उपामयाय > ओझा > झा, भ्रातृजाया > भौजी, तब ही > तभी, कब ही > कभी। शीघ्र उच्चारण में कभी-कभी कुछ का कुछ हो जाता है। यथा-दाल-चावल > दावल चाल, दाल-भात > दात-भाल आदि।

5. बलाघात-जब बाद की किसी विशेष ध्वनि पर बल दिया जाता है, तो श्वास का अधिकांश भाग उसी के उच्चारण में लगता है। इसके परिणामस्वरूप शेष ध्वनियाँ निर्बल हो जाती हैं। ऐसे में कुछ ध्वनियाँ लुप्त हो सकती हैं यथा-अभ्यंतर > भीतर, निम्ब > नीम, बिल्ब > बेल।

6. कलागत स्वातंत्रय-काव्य-रचना में कवि शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रयोग करता है क्योंकि उसे छंद के नियमों का पालन करना पड़ता है। जिसके कारण ध्वनि-परिवर्तन होता है यथा-सुग्रीव > सुग्रीवा, चरण > चरन, प्रमाद > प्रमादा, रघुराज > रघुरार्इ आदि।

7. अनुकरण की अपूर्णता-भाषा अनुकरण के आधार से सीखी जाती है। जब किन्हीं कारणों से अनुकरण अपूर्ण होता है। तब ध्वनि में परिवर्तन हो जाता है यथा-कोर्ट साहब > कोट साहब, कानूनगो > कानी गोह, बंदूक, > दंबूक, लिफाफा। अनुकरण की अपूर्णता प्रमाद, आलस्य या लड़कपन के कारण होती है। बच्चों के उच्चारण में ऐसे परिवर्तन प्राय: देखने को मिलते हैं यथा-अमरूद > अरमूत, जलेबी > जबेली।

8. सहजीकरण-दूसरी भाषा के कठिन शब्दों को सरल बनाने के लिए यदा-कदा उनकी ध्वनियों में परिवर्तन कर देते हैं यथा-टेकनीक + तकनीक, ट्रेजडी > त्रासदी, > ऐकडमी > अकादमी। ऐसे परिवर्तन से गृहीत (विदेशी) शब्दों में अपनी भाषा की सहजता आ जाती है।

9. लिपि-दोष-लिपि की अपूर्णता के कारण भी शब्द का शुद्ध उच्चारण कठिन हो जाता है। ऐसे में ध्वनि-परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। अंग्रेजी की लिपि-रोमन के प्रभाव से गुप्त का गुप्ता, मिश्र का मिश्रा, राम का रामा, कृष्ण का कृष्णा उच्चारण हो गया है, क्योंकि अंग्रेजी में Éस्व और दीर्घ के भिन्न रूप नहीं है। किसी उच्चारण को आसान बनाने के लिए भी ध्वनि में परिवर्तन किया जाता है यथा-एकेडमी के लिए अकादमी, टैकनीक के लिए तकनीक।

ध्वनि परिवर्तन की दिशाएं

सोस्युर के अनुसार ‘ध्वनि-परिवर्तन के कारणों की खोज करना भाषा-विज्ञान की सबसे कठिन समस्या है। 81 मुख्य बात यह है कि ध्वनि-परिवर्तन के जो कारण बताये गये हैं उनमें से कोई एक कारण परिवर्तन के जो कारण बताये गये हैं उनमें से कोई एक कारण परिवर्तन के लिए उत्तरदायी नहीं होता, वरन् एकाध्कि कारणों से परिवर्तन की प्रक्रिया पूरी होती है।

ध्वनि-परिवर्तन की दिशाओं का उल्लेख करते हुए निरुक्ताकार यास्क ने आदि शेष, आदि लोप, अनालोप, उपधा-परिवर्तन, वर्ण लोप, द्विवर्ण लोप, आदि- विपर्यय, अंतविपर्यय, अंतविपर्यय, आद्यन्त विपर्यय, अंतिम वर्ण-परिवर्तन, वर्णोपजन (वर्ण का आगम) आदि का उल्लेख किया है।

वामन जयादित्य के अनुसार 1. वर्णागम, 2. वर्ण विपर्यय, 3. वर्ण विकार, 4. वर्णनाश, 5. धतु का अर्थान्तर से योग ध्वनि-परिवर्तन की दिशाएँ हैं।

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