जजमानी व्यवस्था क्या है इसके पतन के कारण

‘जजमानी’ वैदिक शब्द है जिसका इस्तेमाल उस संरक्षक के लिए होता है जो समुदाय के लिए कोई यज्ञ संपन्न कराने के निमित्त से किसी ब्राह्मण को नियुक्त करता है। अपने मूल अर्थ में जजमानी आर्थिक संबंध का मतलब सेवाओं के बदले उपहारों का विनिमय था या भविष्य में हो सकता था। यह अर्थ आज भी नहीं बदला है। परंतु इसकी परिसीमा समय के साथ बदल गई है। संरक्षण वाले सभी संबंधों को अब यह अपने साथ सन्निहित कर चुका है। न केवल पारिवारिक पुरोहित को बल्कि गाँव के सभी विशेषज्ञों को संरक्षण देना परिवार के लिए विशेषाधिकार और जिम्मेदारी समझी जाती थी। इस व्यवस्था में चमार, धोबी, नाई, कुम्हार, लुहार आदि सभी की सेवाओं को सुनिश्चित किया जाता था। संरक्षक उन लोगों के जीवन-यापन के लिए भोजन भी सुनिश्चित करते थे जो उनकी सेवा करते थे। जो विशेषज्ञ सेवाएँ प्रदान करते थे उन्हें उनकी सेवाओं के मूल्य के बराबर जमीन की उपज यानी अनाज का एक निश्चित भाग और कपड़े और कभी-कभी आर्थिक महत्व की कोई चीज प्रदान की जाती थी। 

अत: यह कहा जा सकता है कि जजमानी व्यवस्था एक वितरण व्यवस्था है, जिसमें उच्च जाति के भूस्वामी परिवारों को निम्न जाति के लोगों के द्वारा सेवाएं प्रदान की जाती हैं। सेवक जाति के लोगों को ‘कमीन’ कहकर पुकारा जाता है, जबकि सेवित जातियों को ‘जजमान’ कहा जाता है। सेवक जातियों को उनकी सेवा के बदले में नकद या वस्तु के रूप में भुगतान किया जाता है।

जजमानी व्यवस्था की परिभाषा

 1.हैराॅल्ड गाउल्ड - ये यजमानी प्रथा को संरक्षकों एवं सेवादारों  के बीच अन्तर्पारिवारिक अन्तर्जातीय संबंध कहा है जो आधीनस्थ एवं आधीनकर्ता के बीच होते हैं। संरक्षक लोग स्वच्छ जाति के होते हैं जबकि सेवादार अस्वच्छ एवं निम्न जाति के। यह कहा जा सकता है कि यजमानी प्रथा वितरण की व्यवस्था है जिसमें उच्च जाति के भूस्वामी परिवारों को विभिन्न निम्न जातियों, जैसे बढ़ई, नाई, कुम्हार, लोहार, धोबी, भंगी, आदि के द्वारा सेवाएँ या उत्पाद उपलब्ध कराए जाते हैं। सेवादार जातियों को ‘कमीन’ कहा जाता है जबकि सेव्यों  को ‘यजमान’ कहा जाता है। प्रदत्त सेवाओं के बदले सेवादारों को नकद या वस्तु के रूप में (अनाज, चारा, कपड़े, दूध आदि) भुगतान किया जाता है।

2. योगेन्द्र सिंह - ने यजमानी व्यवस्था को एक ऐसी व्यवस्था कहा है जो गाँवों में आधारित अन्तर्जातीय संबंधों में आपसी आदान-प्रदान पर आधारित संबंधों से नियन्त्रित होती है। 

3. ईश्वरन्- ने यजमानी व्यवस्था के संदर्भ में (दक्षिण भारत में मैसूर में इसे ‘आया’ पुकारा जाता है)कहा है कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक जाति को सामुदायिक जीवन में समग्र रूप से एक भूमिका निभानी होती है। यह भूमिका आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक कार्य करने की होती है।

जजमानी व्यवस्था की अवधारणा

जजमानी व्यवस्था परम्परागत व्यावसायिक कर्तव्यों (occupational obligations) की व्यवस्था है। प्राचीन भारत में जातियां एक दूसरे पर आर्थिक रूप से निर्भर होती थीं। एक ग्रामीण व्यक्ति परम्परागत विशिष्ट व्यवसाय उसकी जाति को सौंपी गयी विशेषज्ञता के आधाार पर अपनाता था। व्यवसाय के विशिष्टिकरण ने ग्रामीण समाज में सेवाओं के आदान-प्रदान को जन्म दिया। सेवाकत्र्ता (servicing) और सेवित (served) जातियों के बीच यह सम्बन्धा व्यक्तिगत, अस्थाई सीमित तथा संविदात्मक (contractual) नहीं था, बल्कि यह जाति-अभिमुख, स्थाई और विस्तृत समर्थन देने वाला था। वह व्यवस्था जिसमें भूमिस्वामी (land owning) परिवार तथा उन भूमिहीन परिवारों में, जो उसे वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करते हैं, स्थाई सम्बन्ध मिलते हैं, उसे जजमानी व्यवस्था कहा जाता है।

योगेन्द्र सिंह ने जजमानी व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जो गांवों के अन्तर्जातीय संबंधाों में पारस्परिकता पर आधारित संबंमा द्वारा नियंत्रित होती है। ईश्वरन ने जजमानी व्यवस्था (जिसे दक्षिण भारत में मैसूर में आया कहा जाता है) के संदर्भ में कहा है कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सम्पूर्ण सामुदायिक जीवन में प्रत्येक जाति को एक भूमिका निभानी होती है। इस भूमिका में आर्थिक, सामाजिक, एवं नैतिक कार्य होते हैं।

‘जजमान’ शब्द का प्रयोग मूल रूप से उस असामी (client) के लिये किया जाता था जिसके लिये ब्रांण फजारी धाार्मिक पूजा व कर्मकाण्ड (rituals) किया करते थे किन्तु बाद में ये विशिष्ट सेवाओं को प्राप्त करने वाले व्यक्ति अथवा संरक्षक के लिये प्रयोग किये जाने लगा। बीडलमैन ने कहा है कि ‘सेवादारों’ अर्थात् वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने वालों के लिये ‘कमीन’ शब्द के अतिरिक्त भिन्न क्षेत्रों में अन्य शब्द जैसे फरजन, परधान, आदि भी प्रयोग किया जाता है।

जजमानी सम्बन्ध

कभी-कभी वस्तुओं की आपूर्ति (supply) के आधाार पर दो या दो से अधिक जातियों के सम्बन्ध संविदात्मक हो सकते हैं, किन्तु जजमानी नहीं। उदाहरणार्थ, जिस जुलाहे को उसकी बनाई हुई और बची हुई वस्तु के लिये नकद भुगतान किया जाता है, वह प्रथा के अनुसार फसल में से हिस्से का अधिकारी नहीं होता है। वह न ‘कमीन’ है और न ही खरीदने वाला उसका ‘जजमान’। फिर, जजमानी सम्बन्धों में कुछ ऐसी सेवाएं तथा वस्तुएं हो सकती हैं जिनका अनुबन्मा (contract) होता है और पृथक से भुगतान भी उदाहरण के लिये गांव में रस्सी बनाने वाली जजमानी व्यवस्था के अन्तर्गत किसान को सभी आवश्यक रस्सियों की पूर्ति करते हैं, केवल उस रस्सी के जो कुएं में उपयोगी होती है और काफी लम्बी और मोटी होती है। किसान को उसके लिए अलग से भुगतान देना होता है। जजमानी सम्बन्धों में धार्मिक कृत्यों, सामाजिक समर्थन तथा आर्थिक आदान-प्रदान सभी का समावेश है। सेवक जातियां जजमान के घर जन्म, विवाह, और मृत्यु के अवसरों पर धार्मिक संस्कारिक समारोहों में कर्तव्यों का पालन करते हैं।

उदाहरणार्थ, बालक के जन्म की दावत के समय ब्रांहण नामकरण संस्कार कराता है, सुनार नवजात शिशु के लिये स्वर्ण आभूषण उपलब्ध कराता है, धाोबी गन्दे कपड़े धोता है, नाई सन्देश वाहन का कार्य करता है, खाती वह पट्टा बनाता है जिस पर बच्चे को नामकरण के लिये बिठाया जाता है, लोहार लोहे का कड़ा बनाता है, कुम्हार कुल्हड़ आदि पानी पीने तथा सब्जियां आदि रखने के लिये उपलब्ध कराता है, पासी भोजन के लिये पत्तलें जुटाता है तथा भंगी दावत के बाद सफाई का काम करता है। वे सभी लोग जो इस प्रकार सहयोग करते हैं उपहार रूप में भोजन, वस्त्र और मान प्राप्त करते हैं जो आंशिक रूप से प्रथा पर, आंशिक रूप से जजमान के आर्थिक स्तर पर तथा आंशिक रूप से प्राप्तकर्ता के अनुरोध पर निर्भर करता हैं

‘कमीन’ (निम्न जातियां) जो अपने ‘जजमानों’ (उच्च जातियां) को विशिष्ट कुशलता एवं सेवाएं प्रदान करते हैं, स्वयं भी दूसरों से वस्तुएं तथा सेवाएं चाहते हैं। हैरोल्ड गूल्ड के अनुसार ये निम्न जातियां या तो प्रत्यक्ष रूप से श्रम के आदान-प्रदान द्वारा मान या वस्तु के रूप में भुगतान के माध्यम से अपनी स्वयं की जजमानी व्यवस्था कर लेते हैं। मध्यम जातियां भी निम्न जातियों के समान ही या तो सेवाओं के बदले नकद भुगतान के रूप में या सेवाओं के आदान-प्रदान के रूप में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करती हैं।

कमीन अपने जजमानों को न केवल वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं बल्कि उनके लिये वे कार्य भी करते हैं जो उन्हें (जजमानों को) अपवित्र करती हैं उदाहरणार्थ, (धोबी द्वारा) गन्दे कपड़ों का धोना, (नाई द्वारा) बालों का काटना, (नायन द्वारा) बच्चे का जन्म दिलाना, तथा (भंगी द्वारा) स्नान गृह/शौच घर आदि की सफाई करना, आदि। यद्यपि धोबी, नाई, लोहार, आदि स्वयं निम्न जाति में आते हैं फिर भी वे हरिजनों की ‘कमीन’ के रूप में सेवा नहीं करते और न ही ब्राह्मण इन निम्न जातियों को अपना जजमान बनाते हैं, तथापि जब निम्न जाति परिवार समृद्ध हो जाते हैं तब वे दूषित व्यवसाय को त्याग देते हैं और संस्कार विशेषज्ञों (ritual specialists) की सेवाएं प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और इसमें सफल भी हो जाते हैं।

जजमानी सम्बन्ध जातियों की अपेक्षा परिवारों में होते हैं। इस प्रकार राजपूत जाति का परिवार गांव में लोहार जाति के एक विशेष परिवार के धातु के औजार प्राप्त करता है, न कि गांव के सभी लोहार जातियों से। इसी विशिष्ट लोहार परिवार को ही फसल पर राजपूत परिवार की फसलों में से एक भाग मिलेगा न कि दूसरे लोहार परिवारों को। लोहार और राजपूत दो परिवारों के बीच यह जजमानी सम्बन्ध स्थायी हैं क्यों कि लोहार परिवार उसी राजपूत परिवार की सेवा करता रहता है जिसकी सेवा उसके पिता और दादा करते थे। राजपूत परिवार भी अपने औजार और उनकी मरम्मत उसी लोहार परिवार से कराता है जिससे उसके पूर्वज कराया करते थे। यदि सम्बद्ध परिवारों में से एक परिवार समाप्त हो जाता है तो उस परिवारों वंशज उस स्थान को ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, उपर्युक्त प्रकरण मे अगर लोहार के परिवार में अधिक पुत्र हैं जिन सभी को उनका जजमान राजपूत परिवार संरक्षण नहीं दे सकता तो कुछ लोहार पुत्र दूसरे स्थानों पर जाकर नये सहयोगी ढूंढ लेते हैं जहां लोहारों की कमी होती है।

ओरेन्सटीन ने माना है कि गांव के पदाधिकारी/कर्मचारी या ग्रामीण सेवकों के परिवार (जैसे चौकीदार) गांव में विशेष परिवारों की अपेक्षा सम्पूर्ण गांव से जजमानी सम्बन्धों को मानते हें। इस प्रकार चौकीदार के परिवार को गांव के प्रत्येक भूस्वामी कृषक परिवार से फसल के समय कुछ न कुछ योगदान प्राप्त होता है। गांव के सेवक गांव की जमीन का कर मुक्त प्रयोग भी कर सकते हैं। कुछ सेवक परिवार व्यक्तिगत परिवारों की अपेक्षा गांव के एक हिस्से से जजमानी सम्बन्ध बनाये रखते हें। ऐसे सेवक परिवारों को गांव के उस विशेष भाग में रहने वाले सभी परिवारों की सेवा करने का अधिकार होता है।

जजमानी व्यवस्था के सन्दर्भ में कोलेन्डा ने कहा है: हिन्दू जजमानी व्यवस्था को भारतीय गांवों में एक संस्था या सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है, जो कि भूमिकाओं तथा प्रतिमानों (norms) के जाल द्वारा बनी होती है। यह जाल भूमिकाओं तथा सम्पूर्ण व्यवस्था से गुंथा होता है जिसे सामान्य सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा वैधता एवं समर्थन प्राप्त होता है। जजमानी व्यवस्था में जिन महत्वपूर्ण प्रश्नों का विश्लेषण आवश्यक है वे हैं: इस व्यवस्था का कार्य क्या है? इसमें कौन सी भूमिकाएं निहित हैं? इसके प्रतिमान और मूल्य क्या हैं? इस व्यवस्था में शक्ति और अधिकारों का वितरण किस प्रकार होता है? यह व्यवस्था दूसरी व्यवस्थाओं से किस प्रकार सम्बन्धित है? व्यवस्था बनाये रखने की क्या प्रेरणा है? व्यवस्था में क्या परिवर्तन हुए हैं?

जजमानी व्यवस्था के प्रकार्य और भूमिकाएं

जजमानी व्यवस्था के कार्यों का विश्लेषण करते हुए लीच ने कहा है कि जजमानी व्यवस्था श्रम विभाजन तथा जातियों के आर्थिक परस्पर निर्भरता को नियमित करती है और बनाये रखती है। वाइजर के अनुसार जजमानी व्यवस्था भारतीय ग्राम को एक आत्मनिर्भर समुदाय के रूप में बनाये रखने में सहायक होती है। हैरोल्ड गूल्ड ने कहा है कि जजमानी व्यवस्था नीच एवं दस्तकारी सेवाओं के बदले में कृषि उत्पादन का वितरण करती है। बीडलमैन का मत है कि जजमानी व्यवस्था उच्च जातियों के सम्मान को बनाये रखती है।

जजमानी व्यवस्था में ‘जजमान’ और ‘कमीन’ की दो भूमिकाएं सम्मिलित हैं। ‘कमीन’ जातियां ‘जजमान’ जातियों के लिये कुछ व्यावसायिक, आर्थिक और सामाजिक सेवाएं प्रदान करती हैं जिसके लिये जजमान निश्चित अन्तराल में या विशेष अवसरों पर उन्हें भुगतान करते रहते हैं। परन्तु इस आपसी विनिमय में सभी जातियां आवश्यक रूप से भाग नहीं लेती हैं। उदाहरणार्थ, तेली एक ऐसी जाति है जो सामान्य रूप से इस सेवा विनिमय व्यवस्था में सम्मिलित नहीं होती। कमीन की असामियों (clientele) में उसके गांव तथा आसपास के गांवों के परिवार सम्मिलित होते हैं। कमीन अपने जजमान के प्रति अधिकारों को दूसरे कमीन को दे सकते हैं। इस जजमान-कमीन के भूमिका सम्बन्धों में महत्वपूर्ण बात विभिन्न प्रकार की छूट रियायत देने की हैं, जैसे मुल्त भोजन, मुल्त कपड़े, मुल्त आवास, लगान मुल्त भूमि, आकस्मिक सहायता, मुकदमे में सहायता, आदि तथा जजमानों द्वारा जीवन की विविध संकटकाल परिस्थितियों में कमीनों का संरक्षण करना भी सम्मिलित है।

तथापि, जजमानी व्यवस्था सभी गांवों में आदान-प्रदानात्मक (reciprocal) नहीं है। कोलेन्डा की मान्यता है कि भारत के बहुत से गांवों में इस प्रकार के सम्बन्धों में प्रबल जातियां शक्ति सन्तुलन अपनी ओर कर लेती हैं। योगेंन्द्र सिंह भी विश्वास करते हैं कि भारत के गांव आजकल आर्थिक संस्थाओं, सना संरचना और अन्तरजातीय सम्बन्धों के अर्थ में बदल रहे हैं। आर्थिक परिवर्तन का प्रमुख पेत भूमि सुधार है जो कि मध्यस्थता उन्मूलन, किरायेदारी सुधार, भूमि चकबन्दी, भूमि के पुनर्वितरण, सहकारी खेती के विकास तथा अन्त:क्रिया, जजमानी व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित किया है।

जजमानी व्यवस्था के प्रतिमान एवं मूल्य

देश में लगभग सभी क्षेत्रों में भुगतान की परम्परागत विधि यह है कि भुगतान फसल कटने के समय किया जाता है, जब प्रत्येक भूस्वामी कृषक परिवार विभिन्न ‘कमीन’ परिवारों को अन्न के नये उत्पादन में से कुछ न कुछ देता है। फिर भी फसल के समय का यह भुगतान कमीन परिवार को प्राप्त होने वाले भुगतानों का एक ही भाग होता है। कमीन अपने मकान बनवाने के लिए स्थान, जानवरों के चरने के लिए स्थान, लकड़ी और उपले के ईधन, औजारों का प्ण आदि के लिये अपने जजमान पर ही निर्भर करता है। इसके साथ-साथ जजमान विभिन्न समाराहों पर वस्त्र आदि की भेंट भी देता है तथा आपातकाल में ऋण के रूप में धन से भी सहायता करता है।

वाइजर ने कमीन को जजमान से मिलने वाले सत्रह प्रकार के प्रतिफल/लब्धिया (considerations) गिनाये हैं। हैरोल्ड गूल्ड ने भी 1954-55 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के शेरपुर गांव में किये गये जजमानी व्यवस्था पर अपने अध्ययन में जजमानी बन्धनों में इन उपलब्धियों’ को महत्वपूर्ण पाया। इनमें से कुछ उपलब्धिया’ इस प्रकार हैं: मुल्त आवास स्थल, परिवार के लिये मुल्त भोजन, मुल्त वस्त्र, पशुओं के लिये मुल्त भोजन, मुल्त इमारती लकड़ी, उपले, लगान-मुक्त भूमि, ऋण सुविधाएं, पूरक रोजगार के अवसर, मुल्त औजारों व जानवरों का उपयोग, मुल्त चमड़ा, मुकदमें में सहायता, मुल्त चिता की लकड़ी तथा कच्चे पदाथोन का मुल्त प्रयोग, आदि। 

हैरोल्ड गूल्ड ने जजमानों द्वारा ‘पूरजनों’ की सेवाओं के लिये भुगतान का भी अध्ययन किया। उदाहरणार्थ, ब्रांण को हर जजमान परिवार से फसल के समय पर पन्द्रह किलो अनाज मिलता था जुलाहे को प्रति जजमान पन्द्रह किलो अनाज प्रति फसल और बीस रुपया प्रति माह मिलता था, कुम्हार, नाई, लोहार को प्रति परिवार प्रति फसल आठ किलो अनाज मिलता था और धोबी को प्रत्येक फसल पर घर में प्रति स्त्री के हिसाब से चार किलो अनाज मिलता था।

एक गांव में एक कमीन परिवार को सभी जजमानों से प्राप्त होने वाले अनाज का उदाहरण देते हुए हैरोल्ड गूल्ड कहते हैं कि उनके गांव में उन्होंने पाया कि एक नाई को पच्चीस एकाकी इकाइयों वाले पन्द्रह संयुक्त परिवारों से लगभग 312 किलो अनाज प्राप्त हुआ। विभिन्न जातियों में जजमानी सम्बन्धों को लेकर उन्होंने पाया कि शेरपुर गांव के सभी जजमानों ने एक वर्ष में भी ‘फरजन’ परिवारों को 2039 किलो अनाज दिया था। उस गांव में 228 लोगों की कुल जनसंख्या पर 43 परिवार थे। इनमें से केवल उन्नीस परिवार जजमान परिवार थे जिन्हें सेवाएं प्राप्त थीं और जो अनाज देते थे। इससे ज्ञात होता है कि आर्थिक अन्तक्रिया कितनी अधिक थी।

कमजोर फसल वाले वर्ष में कृषक जजमान अपने कमीन परिवारों को अधिक अन्न नहीं देता, लेकिन अच्छी फसल पर वह उन कमीन परिवारों को कुछ अतिरिक्त अनाज देने में आनाकानी नहीं करता जिन्होंने उन्हें अच्छी सेवाएं प्रदान की हैं। यदि कमीन जजमान की सेवा में कुछ धोखे वाली बात करता है (जैसे लोहार उसके औजारों की सही मरम्मत नहीं करता या धोबी उसके कपड़े खो देता है या फाड़ देता है) तो जजमान उसे अधिक नहीं देता इसी प्रकार कमीन भी प्राप्त होने वाले भुगतान के अनुसार ही जजमान की सेवा करता है। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार भी उन जजमानों को अधिक महत्व दिया जाता है जो भुगतान रुपयों में न करके अनाज के रूप में करते हैं।

बीडलमैन के अनुसार जजमान और कमीन के बीच शक्ति आवंटन (allocation) में सांस्कारिक पवित्रता और अपवित्रता (ritual purity and pollution) महत्वपूर्ण नहीं है। निम्न जाति का व्यक्ति का व्यक्ति भले ही जजमान हो, उच्च जाति के कमीन से नीचे ही माना जाता है। उच्च जाति की शक्ति भू स्वामित्व और धन पर आधारित होती है और कमीन के पास यह शक्ति नहीं होती है। हैरोल्ड गूल्ड ने माना है: कि मौलिक अन्तर एक ओर भू स्वामी कृषक जातियों में जो सामाजिक व्यवस्था में प्रभुत्व रखती हैं और दूसरी ओर भूमिहीन नीच एवं दस्तकारी जातियों के बीच पाया जाता है। पोकाक भी इसी प्रकार कहते हैं: यदि जजमानी सम्बन्ध एक व्यवस्था नहीं बनाते हैं, तो एक संगठन बनाते हैं। वे एक संस्था के चारों ओर संगठित हैं जो (संस्था) उस क्षेत्र की प्रबल जाति है। जजमान और कमीनों के कर्तव्यों, अधिकारों, भुगतानों एवं लाभों के सम्बन्ध में भी प्रतिमान है। जजमान को अपने कमीन के प्रति पितृ भाव रखना चाहिये और उनकी मांगें पूरी करनी चाहिये। कमीन को भी पिता के लिए पुत्र की तरह व्यवहार करना चाहिये। उसे अपने जजमान का उसके गुट सम्बन्धी विवादों में समर्थन करना चाहिए।

जजमानी व्यवस्था का सांस्कृतिक मूल्य यह है कि दान और उदारता धार्मिक कर्तव्य हैं तथा असमानता ईश्वर की देन है। पवित्र, अर्द्ध पवित्र तथा निरपेक्ष हिन्दू साहित्य एवं मौखिक परम्पराएं भी जजमान कमीन सम्बन्धों को उचित एवं अधिकारिक मानते हैं। ग़ल्ति करने वाले जजमानों और कमीनों को दण्ड देने का अधिकार जाति पंचायत को है। साथ-साथ उपरोक्त अनुज्ञाएं (sanctions) यह भी अनुमति देती हैं कि चाहे तो कमीन वांछनीय सेवाएं न करें और जजमान चाहे तो कमीन को दी हुई भूमि वापस ले ले।

उदाहरणार्थ, यदि एक कुम्हार परिवार दूसरे कुम्हार के जजमानों को लेना चाहता है तो प्रभावित कुम्हार परिवार घुसपैठिये को रोकने के लिये अपनी जाति पंचायत से निवेदन करता है और यदि गांव के कुम्हार यह विश्वास कर ले कि उनके जजमान (कृषक) उनके साथ अनुचित व्यवहार कर रहे हैं तो वे गांव के किसान जजमानों का बहिष्कार तब तक करने का प्रयत्न कर सकते हैं जब तक कि वे अपने अनुचित व्यवहार को छोड़ न दें।

जजमानी व्यवस्था के पतन के कारण

अब जजमानी व्यवस्था के द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का ज्यादा कार्य नहीं होता। अब तक जजमानी संबंध बहुत सारे गाँवों में बदल गए हैं। कुछ गाँवों में तो यह पूर्णतः समाप्त हो गयी है। जजमानी व्यवस्था इसलिए भी समाप्त हो रही है क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अब रुपये का अधिक प्रयोग हो रहा है। इसका कारण यह भी है कि आधुनिक यातायात के साधनों ने बाजार के साथ लेनदेन को ज्यादा संभव बना दिया है।

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