संत रविदास जी का इतिहास
संत रविदास का जन्म परदादा श्री कालूराम जी, पऱदादी श्रीमती लखपती देवी जी, दादा-श्री हरिनन्द जी, दादी-श्रीमती चतर कौर जी के परिवार में 25 जनवरी सन् 1376 ई0 में हुआ था।
चौदहवीं शताब्दी में जन्में संत रविदास की जन्मतिथि के बारे में विद्वानों में मत भिन्नता देखने को मिलती है। उनके जन्म तिथि के संदर्भ में अनेकों मत विभिन्न ग्रन्थों, साहित्यों में इस प्रकार उल्लिखित हैं-
- डॉ धर्मपाल मैनी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1441 तदनुसार 27 जनवरी सन् 1385 ई0 मानते हैं।
- डॉ0 आर0एल0 हांडा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24 जनवरी सन् 1388 ई0 मानते हैं।
- डॉ0 गंगाराय गर्ग संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24 जनवरी सन् 1388 ई0 मानते हैं।
- डॉ0 राम कुमार वर्मा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1445, 12 जनवरी सन् 1389 ई0 मानते हैं।
- डॉ0 रामानन्द शास्त्री संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1454 से पहले मानते हैं।
- डॉ0 भगवत मिश्र ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
- डॉ0 विष्णुदत्त राकेश ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
- डॉ0 दर्शन सिंह ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25 जनवरी सन् 1415 ई0 माना है।
- डॉ0 गोविन्द त्रिगुणायक संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471 तदनुसार 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।
- डॉ0 वी0पी0 शर्मा ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455 तदनुसार 12 जनवरी सन् 1399 ई0 माना है।
- सं0 राम प्रसाद त्रिपाठी ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12 जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
- महन्त सत्य दरबारी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1456, 12 जनवरी सन् 1400 ई0 मानते हैं।
- ज्ञानी बरकत सिंह भी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471 तदनुसार 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।
- महात्मा रामचरण कुरील ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानी है।आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1433, सन् 1376 ई0 मानते हैं।
संत रविदास के पिताश्री रघुजी चमड़े के जूते बनाने का कार्य करते थे। शैक्षिक दृष्टि से संत रविदास की पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी नहीं थी। भारत में संत रविदास के समकालीन परिवेश में शिक्षा जैसी सुविधायें मुहैया नहीं थी। सामान्यत: योग्यता और ज्ञान का आकलन डिग्री अथवा स्कूल, कालेजों की व्यवस्था पर आधारित न होकर व्यक्ति के वैयक्तिक ज्ञान और समझ पर निर्भर था। प्रौद्योगिकीय विकास का प्रादुर्भाव नहीं हो पाया था परन्तु सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से सामाजिक प्रतिबन्ध और निषेध की जड़ें अत्यन्त ही गहरी और कठोर थी। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था में विद्यमान नियमों और प्रतिबन्धों पर ही निर्भर थी। संत रविदास के पिता शूद्र वर्ण के थे। शूद्र वर्ण का समाज में निम्न और अन्तिम स्थान था।
अनेको ऐतिहासिक ग्रन्थों और साहित्यों में उल्लिखित है कि शूद्रों को समाज से अलग (दूर) रखा जाता था। छुआछूत के नियम अत्यन्त ही कठोर थे। संत रविदास के पिता इन सामाजिक प्रतिबन्धों से अछूते नहीं थे। ऐसी व्यवस्था से संत रविदास बिल्कुल सहमत नहीं थे परन्तु सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान कठोर नियमों और प्रतिबन्धों पर काशी नगरी के महाराजा का कोई हस्तक्षेप नहीं था। यह कहना अतिषयोक्ति नहीं होगा कि तत्कालीन शासन व्यवस्था से जुड़े शासक भी ऐसी ही व्यवस्था के हिमायती और प्रतिपालक थे। ऐसी परिस्थिति में संत रविदास द्वारा विद्रोह भी किया जाना सम्भव नहीं था। यही कारण है कि संत रविदास ने समाज में विद्यमान सामाजिक व्यवस्था के निषेधों में घुटन महसूस किया और वह साधु-संतों की जमात में सम्मिलित हो गए जहाँ छुआछूत भेदभाव के प्रतिबन्ध कम और कठोर नहीं थे।
संत रविदास जी की आर्थिक स्थिति
संत रविदास समाज वैज्ञानिक के रूप में वह ऐतिहासिक पुरोधा है, जिनके समकालीन परिवेश में प्रौद्योगिकीय विकास नगण्य था। व्यवसाय के रूप में कृषि प्रमुख व्यवसाय था। जजमानी व्यवस्था सुदृढ़ रूप में विद्यमान थी। व्यवसाय का निर्धारण योग्यता के आधार पर नहीं जाति के आधार पर होता था। सामाजिक पद और प्रतिष्ठा भी जाति के आधार पर निर्धारित होती थी। सामाजिक प्रतिबन्धों और निषेधों के कारण व्यवसाय परिवर्तन किया जाना सम्भव नहीं था। आर्थिक स्थिति का निर्धारण पूर्णत: व्यवसायिक स्थिति पर निर्भर था। सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार थी कि सम्पूर्ण समाज सामाजिक निषेधों के नियंत्रण में जकड़ा हुआ था। जिसके कारण निम्न पद वाले व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निम्न ही होती थी।
संत रविदास की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी परन्तु उनका स्वाभिमान, ईमानदारी और मेहनत के साथ-साथ ही आत्मबल इतना दृढ़ था कि वह भूखे रहकर भी यथा सम्भव दूसरों की मदद करते थे। कुछ साहित्यों में उल्लेख है कि संत रविदास ने किसी एक नंगे पैर व्यक्ति को पिता द्वारा मेहनत से बनाये हुए जूते दान कर दिया। जिसके कारण वह घर से निकाल दिये गये। फिर भी उन्होंने अपनी मेहनत के बल पर अपने परिवार का भरण-पोषण किया तथा समाज में विद्यमान असमानताओं के प्रति मुखर होते गए।
संत रविदास तत्कालीन परिवेश की सामाजिक विषमताओं और असमानताओं के प्रति अधिक चिन्तित थे। आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
संत रविदास को जन्म से ही आर्थिक परेषानियों का सामना करना पड़ा। उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो आर्थिक दृष्टि से निर्बल और दलित था। परिवार का पालन-पोषण भी बड़ी मुश्किल से चल पाता था। सम्पूर्ण भारत छोटी-छोटी रियासतों में बंटकर राजनीतिक दृष्टि से महत्वहीन हो गया था। इस राजनीतिक व्यवस्था का प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। संत रविदास समाज के उस हिस्से से सम्बन्ध रखते थे जो शताब्दियों से शोषण का शिकार होकर छटपटा रहा था। इस प्रकार परिवार भी पूरी तरह से आर्थिक यातना का शिकार था। इस प्रकार मुगल शासनकाल में भारत की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं थी। वह विभिन्न रियासतों में बंटकर सिमट चुकी थी और उस पर भी आपस में लड़ाई झगड़े के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था समाप्ति के कगार पर थी।
ऐसे
समय में अछूत कही जाने वाली जाति शूद्र को उनके जाति के आधार पर
जातीय व्यवसाय अपनाना पड़ता था। इस प्रकार संत रविदास की आर्थिक दशा
के विषय में वैसे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी आर्थिक दशा कैसी
रही होगी।
संत रविदास जी का राजनीतिक परिदृश्य
सैद्धान्तिक दृष्टि से शासन व्यवस्था और समाज व्यवस्था के मध्य प्रभावित करने वाले सह-सम्बन्धों के दो प्रमुख आधार हैं -1. महात्मा गाँधी के अनुसार- कोई भी समाज यदि सामाजिक आधार पर सुदृढ़ और सम्पन्न हो तो राजनीतिक व्यवस्था स्वत: सुदृढ़ हो जायेगी। सामान्यत: यह धारणा लोकतांत्रिक व्यवस्था में उपयुक्त और प्रभावी हो सकती है परन्तु राजतन्त्रात्मक/नृपतंत्रात्मक व्यवस्था में सामाजिक सुदृढ़ता का राजनीतिक सुदृढ़ता से कोई सह-सम्बन्ध नहीं है।
2. वर्तमान धारणाओं में डॉ0 बी0आर0 अम्बेदकर और काँशीराम जैसे समाज विचारकों के अनुसार- सामाजिक सुदृढ़ता से राजनीतिक सुदृढ़ता की परिकल्पना उपयुक्त नहीं रही। इसके विपरीत इन विचारकों का यह मानना है कि यदि राजनीतिक व्यवस्था सुदृढ़ हो तो सामाजिक व्यवस्था स्वत: सुदृढ़ होगी। उपरोक्त दोनों धारणाओं का यह तात्पर्य हुआ कि (1) गाँधी जी के अनुसार - ‘‘सामाजिक सम्पन्नता से राजनीतिक सम्पन्नता की स्वत: प्राप्ति हो सकती है’’। जबकि (2) डॉ0 अम्बेदकर और काँशीराम के अनुसार- ‘‘राजनीतिक सम्पन्नता सामाजिक सम्पन्नता का स्वाभाविक आधार है’’। तत्कालीन परिवेष में नृपतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित थी।
फलस्वरूप वर्ण व्यवस्था में विद्यमान कठोर सामाजिक नियमों और प्रतिबन्धों तथा राजनीतिक व्यवस्था में नृपतंत्रात्मक “ाासन व्यवस्था के कारण किसी भी तरह के परिवर्तन की (असीमित समय तक) सम्भावना नहीं थी।
संत रविदास चौदहवीं शताब्दी के योग्य विचारक, समाज वैज्ञानिक व चिंतक थे। यह एक ऐसा समय था जब इस देष में मुस्लिम साम्राज्य/षासकों का साम्राज्य था। इस समय भारतवर्ष पर मुसलमानों के अत्याचारों, अनाचारों का बोलवाला था। हिन्दुओं की आँखों के सामने उनके देवालय घोषणाएँ करके गिराए जाते थे। उनके आराध्य देवताओं का अपमान किया जाता था। ऐसे समय में जनता न तो विद्रोह ही कर सकती थी और न ही वे ‘सिर झुकाए बिना’ जी ही सकती थी। अत: ऐसे समय में हृदय के आक्रोश को अपनी असहायता निराशा और दीनता से प्रभु के सम्मुख रखकर मन को शक्ति देने के अतिरिक्त और रास्ता ही क्या था?
भारत की सामाजिक दशा हिन्दू शासकों के समय से ही अव्यवस्थित थी। समाज में प्रचलित चतुर वर्ण व्यवस्था एक अभिशाप थी। जिसने समाज को संगठन की अपेक्षा विघटन की ओर अग्रसर किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत विभिन्न ईकाइयों में विभक्त हो गया। इस आपसी फूट के कारण भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। समाज में चतुर वर्ण या शूद्र कही जाने वाली इन जातियों को इस शासन व्यवस्था के परिवर्तन से अपमान और तिरस्कार की दोहरी नीति का सामना करना पडा़। एक ओर सवर्ण हिन्दू अपने अत्याचारों की श्रृंखला में मनोरंजन तक भी कभी नहीं करते, दूसरी ओर राजतंत्र ने भी चतुर वर्ण के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। चतुर वर्ण को समाज और शासन दोनों की यातनाओं और अत्याचारों की चक्की में पिसना पड़ा। इस भीषण समस्या का समाधान समाज और राजतंत्र के पास असम्भव हो गया तो एक सामाजिक क्रान्ति ने जन्म लिया जो पुनर्जागरण या संतों का भक्ति आन्दोलन के नाम से लोकप्रिय हुआ। इस पुनर्जागरण (भक्ति आन्दोलन) के जनक संत रविदास हुए।
संत रविदास को तत्कालीन परिवेष में अनेकों समस्याओं का सामना
करना पड़ा। एक बार तत्कालीन राजा सिकन्दर लोदी को संत रविदास की
महिमा ज्ञात हुई तो लोदी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया तथा उनको धर्म
परिवर्तन के लिए विवष किया। संत रविदास ने तार्किकता पूर्ण जवाब देते हुए
कहा ‘‘मुझे मिटाया जा सकता है परन्तु धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता।’’
इस प्रकार संत रविदास को अनेकों राजनीतिक कठिनाइयों का सामना करना
पड़ा परन्तु सामाजिक चेतना की भावना को जगाने में उन्हें इन कठिनाइयों की
कोई परवाह नहीं थी।
संत रविदास जी का विभिन्न नाम तथा व्यक्तित्व
यद्यपि 14वीं शताब्दी के काल में भारत में संचार संसाधनों का विकास नहीं हो पाया था परन्तु शैक्षिक दृष्टि से पुस्तकों, पाण्डुलिपियों, वक्तव्यों, शिलालेखों आदि के माध्यम से शैक्षिक जागरूकता का प्रादुर्भाव हो चुका था। संत रविदास काल में आवागमन के संसाधनों के अभावों के बावजूद संत रविदास के विचारों का प्रचार-प्रसार भारत के अनेकों प्रान्तों में प्रचलित भाषाओं, बोलियों, लिपियों और वक्तव्यों तथा व्याख्यानों के माध्यम से हो चुका था। चौदहवीं “ाताब्दी में संत रविदास जैसे समाज विदत्ता के विचारों की स्वीकारोक्ति उनके स्पष्ट और निष्पक्ष वाणियों के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हो चुकी थी। चूँकि विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की भाषा और बोली का प्रचलन अलग-अलग शब्दों में आज भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में देखने को मिलता है, यही कारण है कि संत रविदास का नाम विभिन्न प्रान्तों की बोलियों और भाषाओं के आधार पर निम्न प्रकार था।लोकप्रियता की दृष्टि से उनका नाम देश के विभिन्न भागों में आज भी अनेक नामों से प्रचलित हैं। पंजाब में ‘रैदास’, बंगाल में ‘रुईदास’, महाराष्ट्र में ‘रोहिदास’ राजस्थान में ‘रायदास’, गुजरात में ‘रोहिदास’ अथवा ‘रोहीतास’ मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में ‘रविदास’ अथवा ‘रैदास’ नामों से उनके नामों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार उनके अनेक नाम देखने को मिलते हैं। उच्चारण में अन्तर जरूर देखने को मिलता है। परन्तु ये सभी नाम ‘रविदास’ या ‘रैदास’ के बिगड़े हुए रूप हैं। स्थान-स्थान की बोली एवं भाषा से प्रभावित होकर असली नाम में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक है। यों तो रैदास को भी ‘रविदास’ का अपभ्रंश माना जा सकता है किन्तु अनुमान के सहारे निर्णय लेना उचित नहीं है। बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘‘रैदास की बानी’’ (1971) में संकलित पदों में ‘रैदास’ एवं ‘रविदास’ नाम की छाप मिलती है।
गुरु-ग्रन्थ साहिब में संत रविदास के 40 पद हैं, जिनमें अधिकांश पदों में उनका नाम ‘रैदास’ ही मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं ‘रविदास’ नाम का भी उल्लेख हुआ है। समकालीन संतों की वाणियों में भी उनका नाम ‘रैदास’ एवं रविदास दोनों मिलते हैं।
गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता में भी संदेह नहीं किया जा सकता। ‘रैदास रामायण’ तथा ‘रैदास की बानी’ में भी ‘रविदास’ नाम का समर्थन मिलता है। अत: यह बात स्वीकार की जा सकती है कि संत रविदास का पुकारने का नाम ‘रैदास’ भले ही प्रचलित हो, किन्तु उनका असली नाम ‘रविदास’ ही था। नाम के अपभ्रंश रूप में प्रचलित हो जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि इनके पन्थ के अनुयायी अधिकांशत: उपेक्षित, दलित और अशिक्षित वर्ग के लोग ही रहे हैं। उनके लिए यह कठिन ही नहीं असम्भव भी था कि वे इनके नाम का शुद्ध उच्चारण कर सकते।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि संत रविदास के नाम की प्रसिद्धि विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं से प्रभावित होकर विभिन्न शब्द जैसे- रविदास, रायदास, रूईदास, रोहिदास, रोहीतास आदि संज्ञा के रूपान्तर है। जो अन्य नाम देश और काल के भेद से उन्हीं के परिवर्तित और विकसित रूप माने जा सकते हैं। काव्य-ग्रन्थों में रैदास का तत्सम रूप रविदास प्रयुक्त हुआ है, जिसे लोक प्रचलन और सुविधा की दृष्टि से अधिकांश विद्वानों ने उनका नाम रविदास ही स्वीकार किया है।।
संत रविदास का व्यक्तित्व त्याग, तपस्या से ओतप्रोत था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण राजपाठ और विलासिता के साधनों को छोड़कर योग, त्याग और तपस्या में अपना सम्पूर्ण जीवन विलीन कर दिया था। इसी प्रकार संत रविदास ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्राचीन भारतीय परम्पराओं और मूल्यों का अनुसरण करते हुए भोग और विलासिता से दूर योग और साधना को अंगीकृत किया तथा एक कल्याणकारी समाज व्यवस्था की कल्पना में तत्कालीन समाज में विद्यमान कमियों को उल्लिखित और उद्धृत करते हुए बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना की। आधुनिकता की अंधी दौड़ में संस्कारों की उपेक्षा करना हम सभी के लिए कष्टकारी होगा। इससे मानव मूल्यों का हृास होता है, जो सामाजिकता के लिए बहुत ही घातक है। मानव मूल्यों की रक्षा के लिए संत-महापुरुषों का इतिहास त्याग, तपस्या से भरा पड़ा है।।
‘समन्वय का संदेश’ संत रविदास के व्यक्तित्व की सार्थकता को दर्शाता है। अपनी इसी विशिष्टता के कारण वह मध्यकालीन इतिहास में मानव-समाज के प्रेरणास्रोत बने। संत रविदास के समन्वय का ढंग भी उनके अनुरूप निराला था। अपने इस समन्वय के लिए उन्होंने कभी भी किसी पक्ष के अवगुणों से समझौता नहीं किया और न ही कभी उसकी कमियों को छिपाया, बल्कि वे तो अपनी सीधी-सरल तार्किक वाणी से सत्य कहने से कभी नहीं चूके।।
भारतीय मध्य युग के इतिहास में समाज के निम्न वर्ग से उद्धत संत रविदास को समाज ने ठुकराने का दु:साहस किया, लेकिन उन्होंने उस आडम्बरपूर्ण समाज को ही ठुकराकर अपने पीछे लगा लिया। समय ने उनके सामने जो भी चुनौती रखी, उससे वे भागे नहीं, बल्कि उससे जूझे। उन्होंने एक नहीं अनेको कष्ट सहे, पर सच्चाई कहने से कभी चूके नहीं। उनका झगड़ा तो समाज को गुमराह करने वालों से था, किसी जाति, धर्म या वर्ग विशेष से नहीं। यही कारण है कि समाज के सभी वर्ग के लोग उनके अपने हुए, सभी ने उन्हें अपनाया।।
संत रविदास ने ईश्वर कृपा पाने के लिए किसी भी प्रकार के जप, तप और व्रत का पालन नहीं किया। उन्होंने अपने शरीर को किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं दिया। उन्होंने जीवन में मध्यम मार्ग अपनाया। उन्होंने अपने मन की चंचलता को रोका और उस पर अंकुश लगाया। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को शांत कर संयमित और पवित्र जीवन बिताया। उन्होंने कुशल कर्म अपनाये और लोभ, द्वेष तथा आलस्य को त्याग कर ‘‘अत्त दीपो भव’’ को अपने जीवन में अपनाया। संत रविदास ने मनुष्य के चरित्र की पवित्रता को ही मानव कल्याण का आधार माना। यही पवित्र सन्देश बुद्ध ने भी संसार को दिया था।
संत रविदास नि:स्वार्थ भाव से स्वयं कार्य करते और दूसरों को भी नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने की सलाह देते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं था। उनके उपदेश सरल, सहज और सभी को सुलभ थे। उनका संदेश था कि बुरा काम न करे, बुरी बात न सोचे, अपनी जीविका के लिए बुरे काम का सहारा न लें। किसी भी काम को छोटा-बड़ा और किसी भी व्यक्ति को छोटा-बड़ा न समझे। किसी को भी न सतायें, प्राणी मात्र पर दया रखें और सभी को समान समझकर उससे प्रेम करें।।
संत रविदास जी की अष्टांग साधना
मनुश्य संसार में रहकर सांसारिकता की चकाचौंध में अनेकों समाज विरोधी कार्य करता रहता है। जिसके कारण उसे तथा समाज को अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिससे वह दु:खी होता है। इन दु:खों के निवारण के लिए क्रमानुसार आन्तरिक चेतना के विकास का एक सरल उपाय ‘अष्टाँग योग है’। जब तक मनुष्य के चित्त्ा में विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक वह तत्व ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। शुद्ध हृदय और निर्मल बुद्धि से ही आत्म-ज्ञान उपलब्ध होता है।- अहिंसा (अर्थात् किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना); (
- सत्य (अर्थात् किसी से किसी तरह का झूठ नहीं बोलना),
- अस्तेय (अर्थात् चोरी नहीं करना),
- ब्रºमचर्य (अर्थात् विषय वासना की ओर नहीं जाना), और
- अपरिग्रह (अर्थात् लोभवश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना),
योग का दूसरा अंग है नियम या सदाचार का पालन। इसके निम्नलिखित अंग हैं- ।
- शौच (वाºय शुद्धि अर्थात् शारीरिक शुद्धि, जैसे स्नान और पवित्र ) भोजन के द्वारा आभ्यंतर शुद्धि अर्थात् मानसिक शुद्धि जैसे, मैत्री, करूणा, मुदिता आदि के द्वारा।
- संतोष (अर्थात् उचित प्रयास से जितना ही प्राप्त हो उससे संतुष्ट रहना)।
- तप (जैसे गर्मी-सर्दी आदि सहने का अभ्यास, कठिन व्रत का पालन करना, आदि)।
- स्वाध्याय (नियम पूर्वक धर्मग्रन्थों का अध्ययन करना)।
- ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर का ध्यान और उनपर अपने को छोड़ देना)।
आसन शरीर का साधन है। इसका अर्थ है शरीर को ऐसी स्थिति में रखना जिससे निष्चल होकर सुख के साथ देर तक रह सकते हैं। नाना प्रकार के आसन होते हैं, जैसे पद्यासन, वीरासन, भद्रासन, सिद्धासन, “ाीर्शासन, गरुणासन, मयूरासन, श्वासन आदि। चित्त की एकाग्रता के लिए शरीर का अनुशासन भी आवश्यक है जितना मन का। यदि शरीर रोगादि बाधाओं से पूर्णत: मुक्त नहीं रहे तो समाधि लगाना बड़ा ही कठिन है। अतएव आरोग्य साधन के लिए बहुत से नियम निर्धारित करना है, जिससे शरीर समाधि क्रिया के योग्य बन सके।
शरीर और मन को शुद्ध तथा सबल बनाने के लिए तथा दीर्धायु प्राप्त करने के लिए योग में नाना प्रकार के नियम बतलाए गए। योगासन शरीर को निरोग तथा सबल बनाए रख्ने के लिए उत्तम साधन है। इन आसनों के द्वारा सभी अंगों, विशेषत: स्नायुमण्डल इस तरह वश में किए जा सकते हैं कि वे मन में कोई विकास उत्पन्न नहीं कर सकें।
प्राणायाम का अर्थ है श्वास पर नियंत्रण। इस क्रिया में तीन अंग होते है (1) पूरक (पूरा श्वास भीतर खींचना), (2) कुंभक (श्वास को भीतर रोकना) और (3) रेचक (नियमित विधि से श्वास छोड़ना)। श्वास के व्यायाम से हृदय पुष्ट होता है और उसमे बल आता है, इसे चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है। प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन में दृढ़ता आती है। जब तक श्वास की क्रिया चलती रहती है तब तक चित्त भी उनके साथ चंचल रहता है। जब श्वास वायु की गति स्थगित हो जाती है तब मन भी निस्पंद या स्थिर हो जाता है। इस तरह प्राणायाम के अभ्यास से योगी समाधि की अवधि को बढ़ा सकता है।
प्रत्याहार का अर्थ है इंन्द्रियों को अपने-अपने वाºय विषयों से खींचकर हटाना और उन्हे मन के वश में रखना। जब इंन्द्रिय पूर्णत: मन के वष में आ जाते हैं तब वे अपने स्वाभाविक विषयों से हटकर मन की ओर लग जाते हैं। इस अवस्था में आँख-कान के सामने सांसारिक विषय रहते हुए भी हम देख-सुन नहीं सकते। रूप, रस, गंध, शब्द या स्पर्ष का कोई भी प्रभाव मन पर नहीं पड़ता। यह अवस्था कठिन है, यद्यपि असंभव नहीं है। इसके लिए अत्यंत दृढ़ संकल्प और प्रौढ़ इंद्रिय-निग्रह की साधना आवश्यक है।
उपर्युक्त पाँच अनुशासन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार बहिरंग साधन कहलाते हैं। “ोश तीन- धारणा, ध्यान और समाधि- अंतरंग साधन कहलाते हैं, क्योंकि उनका योग (समाधि) से सीधा संपर्क है।
धारणा का अर्थ है चित्त को अभीष्ट विषय पर जमाना। यह विषय वाºय पदार्थ भी हो सकता है। (जैसे, सूर्य या किसी देवता की प्रतिमा) और अपना शरीर भी (जैसे, अपनी नाभि या भौहों का मध्य भाग) किसी विषय पर दृढ़तापूर्वक चित्त को एकाग्र करने की शक्ति ही योग की असल कुंजी है। इसी को सिद्ध करने वाला समाधि अवस्था तक पहुँच सकता है।
इसके बाद अगली सीढ़ी है ध्यान। ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय का निरंतर मनन। अर्थात् उसी विषय को लेकर विचार का अनवच्छिन्न (लगातार) प्रवाह। इसके द्वारा विषय का सुस्पष्ट ज्ञान हो जाता है। पहले भिन्न-भिन्न अंशों यह स्वरूपों का बोध होता है। तदनंतर अविराम ध्यान के द्वारा संपूर्ण चित्त आ जाता है और उस वस्तु के असली रूप का दर्षन हो जाता है। इस तरह योगी के मनमें ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है। योगासन की अंतिम सीढ़ी है समाधि। इस अवस्था में मन ध्येय विषय में इतना लीन हो जाता है कि वह उसमें तन्मय हो जाता है और अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता।
ध्यान की अवस्था में ध्येय विषय और ध्यान की क्रिया- ये दोनो पृथक: प्रतीत होते हैं। परन्तु समाधि की अवस्था में ध्यान की क्रिया का पृथक अनुभव नही होता , वह ध्येय विषय में डूबकर अपने को खो बैठती है। धारणा, ध्यान और समाधि - ये तीनो योग के अंतरंग साधन है। इन तीनो का विषय एक ही रहना चाहिए अर्थात एक ही विषय को लेकर पहले चित्त में धारणा, तब ध्यान और अंत में समाधि होनी चाहिए। ये तीनो मिलकर ‘संयम’ कहलाते हैं जो योगी के लिए अत्यावश्यक है।
रविदास की भक्ति भावना एवं साधना
ईश्वरीय शक्ति अथवा ईश्वर पर विश्वास ही ईश्वरीय भक्ति कहलाती है। इस आस्था और विश्वास का माध्यम आकार-प्रकार, स्वरूप किसी भी रूप में हो सकता है। कभी कभी ईश्वरी आस्था में तल्लीन व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने में उस शिखर तक पहुँच सकता है जो सोच और सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतया उपयुक्त और वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो।
ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को ईश्वरीय भक्ति के नाम से सम्बोधित किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से ईश्वरीय आस्था में विश्वास रखने वाले लोगों को समूह/धारा के रूप में सम्बोधित किया जाता है। सामान्यत: इसके दो रूप हो सकते हैं। (1) सगुण (2) निर्गुण। सगुण का अर्थ है वे लोग जो ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखते हैं परन्तु उनमें तर्क और ज्ञान का बोध है। दूसरे वे लोग जो ईश्वर के प्रति आस्था रखते हैं परन्तु उनमें ज्ञान और योग्यता का अभाव है। ऐसे लोग मात्र एक दूसरे को देखकर उसी कार्य व्यवहार को अपनाते हैं जैसा दूसरों से देखा सुना है। ऐसे लोगों में ज्ञान/तर्क का पूर्णतया अभाव होता है।
यद्यपि परम्परागत साहित्यों में सगुण और निर्गुण की अवधारणा का अर्थ यह माना जाता रहा है कि सगुण का तात्पर्य मूर्ति आकार-प्रकार से है वहीं निर्गुण का अर्थ निराकार से है परन्तु समाजषास्त्ररय सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि सगुण का तात्पर्य उस विचारधारा से है जिसमें ज्ञान और तर्क का समावेश हो तथा निर्गुण का अर्थ अज्ञानता की उस स्थिति से है जिसमें ईश्वर पर आस्था कल्पनाओं पर आधारित है। सत्यता यह है कि ईश्वरीय आस्था का तात्पर्य उन प्राकृतिक शक्तियों से है जो स्वाभाविक रूप से नियमानुसार स्वाभाविक रूप में संचालित हो रही है। इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं के संचालन में निश्चित रूप से कोई ऐसी शक्ति है जो व्यवस्था का संचालन स्वाभाविक रूप में करती है। उदाहरणार्थ दिन-रात का होना, सर्दी, गर्मी व बरसात का परिवर्तन आदि ऐसी स्वाभाविक घटनाएँ हैं जिससे ईश्वर के प्रति आस्था अधिक दृढ़ और प्रगाढ़ होती है। दुख्र्ाीम और काम्ट ने इसी मत का समर्थन किया है।
दुख्र्ाीम के अनुसार ‘‘साधना चेतना क्षेत्र का ऐसा पुरुषार्थ है, जिसमें सामान्य श्रम एवं मनोयोग का नियोजन भी असामान्य विभूतियों एवं शक्तियों को जन्म देता है। साधारण स्थिति में हर वस्तु तुच्छ है पर यदि उसे उत्कृष्ट बना दिया जाए, तो उससे ऐसा कुछ मिलता है, जिसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।’’ मानव जीवन मोटी दृष्टि से ऐसा ही एक खिलवाड़ है। मनुष्यों के बीच पाए जाने वाले आकाष-पृथ्वी जैसे अन्तर का यही कारण नजर आता है कि जीवन की ऊपरी परतों तक ही जिन्होंने मतलब रखा, उन्हें छिलका ही हाथ लगा, किन्तु जिन्होंने गहरे उतरने की चेष्टा की, उन्हें एक के बाद एक बहुमूल्य उपलब्धियाँ मिलती चली गयीं। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में ‘साधना’ कहते हैं।
संत रविदास की साधना न तो रहस्यवाद है, ना पलायनवाद। उसमें काया कष्ट का वैसा विधान नहीं है, जैसा कि कई अतिवादी अपना दुस्साहस दिखाकर भावुक जनों पर विशिष्टता का आतंक जमाते और उस आधार पर शोषण करते देखे गए हैं। उसमें कल्पना लोक में अवास्तविक विवरण भी नहीं है, और न उसे जादू चमत्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। देवताओं को वशवर्ती बनाकर या भूत-प्रेतों की सहायता लेकर मनोकामना पूरी करने-कराने जैसी ललक लिप्सा पूरी करने जैसा भी इस विद्या में कोई आधार नहीं है।
संत रविदास की साधना एक विशुद्ध विज्ञान है, जिसका वास्तविक आधार है- आत्मानुशासन का अभ्यास और क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए सफल नियोजन। जो इतना कर सकते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में सिद्ध पुरुष कहा जा सकता है।