गाँव का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं

गाँव का अर्थ

गाँव का अर्थ

विभिन्न विद्वानों ने गाँव या ‘ग्रामीण’ शब्द की अनेक व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। कुछ व्यक्तियों का मत है कि जहाँ आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछडे़ हुए लोग रहते हो, उस क्षेत्र को गॉव कहा जाए। 

दूसरी ओर कुछ विद्वानों ने गाँव या ‘ग्रामीण’ शब्द उनके लिए उपयुक्त माना है, जहां कृषि को मुख्य व्यवसाय के रूप में प्रयोग किया जाता है। ‘ग्रामीण की एक व्याख्या नगरीय शब्द के विपरीत की गयी है अर्थात् नगरीय विशेषताओं के विपरीत विशेषताओं वाला क्षेत्र ग्रामीण है। 

‘ग्रामीण’ को जनसंख्या के आधार पर भी परिभाषित किया जाता है। प्रत्येक देश में एक निश्चित जनसंख्या वाले क्षेत्र को ग्राम कहा जाता है। 

गाँव की परिभाषा

बरट्रांड ने ‘ग्रामीणता’ के निर्धारण में दो आधारों (1) कृषि द्वारा आय अथवा जीवन-यापन, (2) कम घनत्व वाला जनसंख्या क्षेत्र, को प्रमुख माना है। मैरिल और एलरिज लिखते हैं, ‘‘ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है जो छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राकृतिक हितों में भाग लेते हैं।’’

सिम्स के अनुसार, ‘‘समाजशास्त्रियों में ‘ग्रामीण समुदाय’ को ऐसे बड़े क्षेत्रों में रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसमें समस्त अथवा अधिकतर प्रमुख मानवीय हितों की पूर्ति होती है।

सेंडरसन ग्रामीण समुदाय को परिभाषित करते हुए लिखते हैं ‘‘एक ग्रामीण समुदाय में स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सामाजिक अन्त:क्रिया और उनकी संस्थाएँ सम्मिलित थीं, जिसमें वह खेतो के चारों ओर बिखरी झोपड़ियो तथा पुरवा या ग्रामों में रहती है और जो उनकी सामान्य क्रियाओं का केन्द्र है।’’

फेयरचाइल्ड के अनुसार, ‘‘ग्रामीण समुदाय पड़ोस की अपेक्षा विस्तृत क्षेत्र है, जिसमें आमने-सामने के सम्बन्ध पाये जाते हैं, जिसमें सामूहिक जीवन के लिए अधिकांशत: सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक एवं अन्य सेवाओं की आवश्यकता होती है और जिसमें मूल अभिवृत्तियों (Attitudes) एवं व्यवहारों के प्रति सामान्य सहमति होती है।’’

पीके के अनुसार- ‘‘ग्रामीण समुदाय परस्पर सम्बन्धित तथा असम्बन्धित उन व्यक्तियों का समूह है जो अकेले परिवार से अधिक विस्तृत एक बहुत बड़े घर या परस्पर निकट स्थित घरों में कभी अनियमित रूप में तथा कभी एक गली में रहता है तथा मूलत: अनके कृषि योग्य खेतों में सामान्य रूप से कृषि करता है, मैदानी भूमि को आपस में बाँट लेता है और आसपास की बेकार भूमि में पशु चराता है जिस पर निकटवर्ती समुदायों की सीमाओ तक वह समुदाय अपने अधिकार का दावा करता है।’’

गाँव के प्रकार

विश्व के विभिन्न भागों में हमें विभिन्न प्रकार के गाँव देखने को मिलेंगे। ग्रामो का उद्भव कृषि के विकास के साथ-साथ हुआ है। भौगोलिक पर्यावरण, तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक विकास के कारण गाँवों के स्वरूपों में परिवर्तन हो रहे है। देश और काल की दृष्टि से हमें कई प्रकार के गाँव देखने को मिलेंगे जैसे सेक्सन ग्राम, जर्मन मार्क, रूसी मीर, आत्मनिर्भर भारतीय ग्राम, सामन्तवादी यूरोप का ग्राम और आधुनिक ग्राम जो राष्ट्रीय तथा अन्तर्राश्ट्रीय आर्थिक प्रणालियों का अभिé अंग है। 

ग्रामीण समाजशास्त्र को ग्रामों के अध्ययन से यह ज्ञात होगा कि गाँवों का उद्भव कैसे हुआ और समय के साथ-साथ उनमें कौन-कौन से परिवर्तन आये और उनके कौन-कौन से नये रूप अस्तित्व में आते रहे हैं। विभिन्न विद्वानों ने ग्रामो का वर्गीकरण अलग-अलग आधारों को लेकर किया है। धर्म ग्रन्थों के आधार पर- रामायण और महाभारत में दो प्रकार के गाँव ‘घोष’ तथा ‘ग्राम’ का उल्लेख मिलता है। ‘घोष’ ‘ग्राम’ से आकार में छोटा और जंगल के पास बसा होता था। ऐसे गाँवों में पशुचारण मुख्य व्यवसाय था और इसके निवासी दूध बेचने का कार्य करते थे। 

‘ग्राम’ का आकार ‘घोश’ से बड़ा होता था। इनके निवासियों का व्यवसाय कृषि था। ग्राम के मुखिया को ‘ग्रामणी’ कहा जाता था।

डॉ सीएस दुबे ने गाँवों के वर्गीकरण के छ: आधार प्रस्तुत किये हैं। वे हैं:
  1. आकार, जनसंख्या और भू-क्षेत्र के आधार पर।
  2. प्रजातीय तत्व और जातियों के आधार पर।
  3. भूमि के स्वामित्व के आधार पर।
  4. अधिकार और सत्ता के आधार पर।
  5. दूसरे समुदाय से दूरी के आधार पर।
  6. स्थानीय परम्परा के आधार पर। 
H.J. Peack ने गाँवों का वर्गीकरण मानव के भ्रमणशील जीवन से कृषि अवस्था वाले जीवन तक के उद्विकास के आधार पर किया है। इस दौरान मानव के अनेक स्थायी और अस्थायी प्रकार के गाँव बसाये। इसी आधार पर पीक ने गाँवों को तीन भागों में विभक्त किया है:-

(i) पवासी कृषि ग्राम - इस प्रकार के गाँव अस्थायी प्रकार के होते हैं। ऐसे गाँवों के निवासी किसी स्थान पर थोड़े समय तक रहते हैं और फिर उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर कृषि करने चले जाते हैं। वे लोग कितने समय तक एक स्थान पर निवास करेगे, यह भूमि की उर्वरा शक्ति, मौसम की अनुकूलता और जीवनयापन के साधनो की उपलब्धता आदि कारकों पर निर्भर करता है।

(ii) अर्द्ध.स्थायी कृषि ग्राम - ऐसे गॉवों में लोग कई वर्षों तक निवास करते हैं और जब भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है तो वे गाँव छोड़कर दूसरे उपजाऊ स्थान पर जा बसते हैं। ऐसे गाँव पहले प्रकार के गॉवों की तुलना में स्थायी होते हैं।

(iii) स्थायी कृषि वाले ग्राम -  इस प्रकार के गाँवों में लोग पीढ़ियो से नहीं शताब्दियों से रहते आये हैं। वही कृषि करते हैं, इनकी प्रकृति स्थायी एवं रूढ़िवादी होती है। प्राकृतिक विपदाओं और आर्थिक संकटों को झेलकर भी लोग इन गाँवों में रहते हैं। भारत में अधिकांशत: इसी प्रकार के गाँव देखने को मिलते हैं।

सोरोकिन ने ग्रामों के वर्गीकरण के दो आधार बताये हैं:
  1. घरों के संगठन के आधार पर।
  2. भू-स्वामित्व एवं सामाजिक स्तरण के आधार पर।
घरों के संगठन के आधार पर गाँवों को दो भागों में बॉटा जा सकता है:

(अ) केन्द्रित ग्राम- ऐसे गाँवों में किसान घरों का एक झुण्ड बना कर रहते हैं। उनकी कृषि योग्य भूमि गाँव के बाहर होती है। एक ही निवास स्थान पर साथ-साथ रहने से उनमें दृढ़ और सुसम्बद्ध जीवन का विकास होता है।

(ब) विकेन्द्रित ग्राम- ऐसे ग्रामों में किसान अपने-अपने खेतों के किनारे छोटे-छोटे समूह बनाकर घरों में निवास करते हैं। उनके निवास स्थान बिखरे हुए होते हैं, अत: उनके सामाजिक जीवन में विभेदीकरण उत्पन्न हो जाता है।

गाँव की विशेषताएं

ग्रामीण विशेषताओं को हम ग्रामीण जीवन का अंग कह सकते हैं। इन विशेषताओं के आधार पर ही ग्रामों को पहचाना और नगरों से पृथक् किया जा सकता है। गाँव के लोगों का जीवन कृषि, पशुपालन, शिकार, मछली मारने एवं भोजन संग्रह करने, आदि की क्रियाओ पर निर्भर है। इन सभी कार्यों के लिए व्यक्ति को प्रकृति के प्रत्यक्ष और निकट सम्पर्क में रहना होता है। 

भूमि, मौसम, जंगल सभी प्रकृति के ही अंग हैं। मौसम के अनुरूप व्यक्ति अपने को ढालता है और व्यवसाय की प्रकृति को प्रभावित करने में प्राकृतिक कारकों का महत्वपूर्ण हाथ होता है। वर्षा, शीत, गर्मी, आदि भी कृषि को प्रभावित करते है और कृषि ग्रामीणो  का मुख्य व्यवसाय है। नगर का जीवन आधार उद्योग है। इसलिए नगरवासियों का प्रकृति से अप्रत्यक्ष सम्पर्क होता है। वे मशीन, कोयला, कारखाने, लोहा, धातु आदि निर्जीव पदार्थों के अधिक सम्पर्क में आते है प्रकृति पर प्रत्यक्ष निर्भरता समुदाय के आकार को छोटा बनाती है क्योंकि कृषि कार्य अथवा पशुचारण में जीवन-यापन के लिए प्रति व्यक्ति भूमि की मात्रा अधिक चाहिए अन्यथा सभी लोगों  का जीवन-निर्वाह सम्भव नहीं हो पाता। नगर उद्योगों पर आश्रित होते हैं, जहाँ हजारों आदमी एक ही व्यवसाय अथवा कारखाने में काम करते हैं। उनके लिए अधिक भूमि की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि शहरों का आकार बढ़ता जाता है।

गॉव में प्रति वर्ग मील जनसंख्या का अनुपात शहरों की अपेक्षा बहुत कम होता है। ग्रामीण लोगों के पास प्रति व्यक्ति भूमि अधिक होती है क्योंकि इसके बिना कृषि कार्य एंव पशुचारण सम्भव नहीं है। ग्रामीण लोग जीवन यापन के विभिन्न स्रोतों के इर्द-गिर्द बिखरे रहते हैं। कम घनत्व के कारण ग्रामीण क्षेत्र घनी बस्ती की समस्याओं जैसे स्वास्थ्यपूर्ण वातावरण का अभाव, गन्दगी, बीमारी, मकानों की कमी आदि से बचे रहते हैं।

ग्रामीण समुदाय का प्रकृति से घनिष्ट सम्बन्ध होता है। ग्रामवासी प्रकृति की गोद में ही जन्म लेते और मरते हैं। ग्रामीण लोग शुद्ध हवा, पानी, रोशनी, सर्दी, गर्मी, आदि का अनुभव करते हैं। खुला एवं स्वच्छ वातावरण, शीतल सुगन्धित हवा, पेड़-पौधे, लताएं और पशु-पक्षियों, आदि से ग्रामीणों का प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है। वे ऋतुओ एवं प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द लेते हैं, जिसके लिए नगरवासी तरसते हैं।

गॉव का आकार छोटा होने से प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानता है। उनमें निकट, प्रत्यक्ष और घनिष्ट सम्बन्ध होते है। ऐसे सम्बन्धों ं का आधार परिवार, पड़ोस और नातेदारी है। ग्राम में औपचारिक सम्बन्धां े का अभाव होता है। वे कृत्रिमता से दूर होत े है ं तथा उनमें पारस्परिक सहयोग एवं प्राथमिक नियन्त्रण पाया जाता है।

ग्रामीण लोगों का जीवन सरल और सादा होता है। वे नगर की तड़क-भड़क, चमक-दमक, आडम्बर और बनावटी जीवन से दूर होते हैं। उनके पास न तो साज-सज्जा और श्रृंगार की सामग्री ही होती है और न ही वे कृत्रिमता को पसन्द ही करते हैं। उन लोगों की आय भी इतनी नहीं होती कि वे जरूरत की चीजों के अतिरिक्त फैशन और साज-सज्जा पर खर्च कर सकें। साधारण और पौष्टिक भोजन, शुद्ध हवा और मोटा वस्त्र तथा विनम्र और प्रेमपूर्ण व्यवहार ग्रामीण लोगों की पसन्द है। प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भरता उन्हें सरल, छल रहित और सादगी से जीवन व्यतीत करने को प्रेरित करती है।

ग्रामीण समाज अपेक्षाकृत स्थिर समाज होते हैं। उनमें सापेक्ष रूप से गतिशीलता का अभाव होता है। वे घड़े में भरे पानी की तरह स्थिर और शान्त होते हैं। वे परिवर्तन के प्रति उदासीन होते हैं तथा जीवन जैसा चल रहा है, उसमें कोई हेर-फेर नहीं चाहते। ग्रामीण सामाजिक संस्तरण इतना कठोर और अनमनीय होता है कि उसे बदलना बड़ा कठिन है। जाति-व्यवस्था ही सामाजिक संस्तरण का मुख्य आधार है।

ग्रामों में सामाजिक नियन्त्रण के साधन अनौपचारिक होते हैं। धर्म, प्रथाएं और रूढ़ियां उनके जीवन को नियन्त्रित करती है। धर्म ग्रामवासियो ं के जीवन का केन्द्र है। उनके दैनिक और वार्षिक जीवन की अनेक क्रियाएं धर्म से ही प्रारम्भ होती है और धार्मिक विश्वासो एवं क्रियाओं के साथ ही समाप्त होती हैं। वे ईश्वरीय शक्तियों को आदर, भय और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनके सम्मुख नत-मस्तक होते हैं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, धर्म-कर्म, अच्छाई-बुराई की भावनाएँ उनके जीवन को प्रभावित करती हैं। उनका जीवन प्रथाओं और रूढ़ियों से बंधा होता है।

ग्राम शहर की अपेक्षा छोटा होता है, अत: वहाँ के लोगों में अपने गाँव के प्रति लगाव और सभी में ‘हम’ की भावना पायी जाती है। शहरी लोगों में व्यक्तिगत स्वार्थ की प्रधानता होती है जबकि ग्रामीण लोग सारे गॉव की भलाई की बात अधिक सोचते हैं। बाढ़, अकाल, महामारी और अन्य सकं टकालीन अवसरों पर गाँव के सभी लागे सामूहिक रूप से इन सकं टों का मुकाबला करते हैं। वे ऐसे अवसरों पर देवताओं के यज्ञ, अनुश्ठान और पूजा कराते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का अभिमान होता है कि वह किसी एक गाँव का सदस्य है।

भारतीय गाँवों की सर्वप्रमुख विशेषता है, संयुक्त परिवारों की प्रधानता। यहाँ पति-पत्नी व बच्चो के परिवार की तुलना में ऐसे परिवार अधिक पाये जाते हैं, जिनमें तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्य एक स्थान पर रहते हैं। इनका भोजन, सम्पत्ति और पूजा-पाठ साथ-साथ होता है। ऐसे परिवारों का संचालन परिवार के वयोवृद्ध व्यक्ति द्वारा होता है। वही परिवार के आन्तरिक और बाह्य कार्यों के लिए निर्णय लेता है। परिवार के सभी सदस्य उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, उनका आदर और सम्मान करते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली भारत में अति प्राचीन है।

भारतीय ग्रामों में निवास करने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। 70 से 75% तक लोग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषि द्वारा ही अपना जीवन-यापन करते है। इसका यह अर्थ नही  कि गाँवों में अन्य व्यवसाय नहीं हैं। चटाई, रस्सी, कपड़ा, मिÍी के एवं धातु के बर्तन बनाना, वस्त्र बनाना, गुड़ बनाना आदि अनेक व्यवसायों का प्रचलन गाँवों में है। शिल्पकारी जातियाँ अपने-अपने व्यवसाय करती हैं तो सेवाकारी जातियाँ कृशकों एवं अन्य जातियों की सेवा करती हैं।

जाति व्यवस्था तथा भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता है। जाति के आधार पर गाँवों में सामाजिक संस्तरण पाया जाता है। जाति एक सामाजिक संस्था और समिति दोनों ही है। जाति की सदस्यता जन्म से निर्धारित होती है। प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता है। जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते हैं, जाति की एक पंचायत होती है जो अपने सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करती है। जाति के नियमो का उल्लंघन करने पर सदस्यो को जाति के बहिष्कार, दण्ड अथवा जुर्माना आदि सजा भुगतनी होती है। 

जाति-व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणो का है और सबसे नीचा स्थान अस्पृश्य जातियो का। इन दोतों के बीच क्षत्रिय और वैश्य जातियाँ  है। जातियों के बीच परस्पर भेद-भाव और छुआछूत की भावना पायी जाती है।

जाति प्रथा की एक विशेषता यह है कि प्रत्येक जाति एक निश्चित परम्परागत व्यवसाय करती है। सभी जातियाँ परस्पर एक दूसरे की सेवा करती हैं। ब्राह्मण विवाह, उत्सव एवं त्यौहार के समय दूसरी जातियों के यहाँ अनुष्ठान करवाते हैं तो नाई बाल काटने, धोबी कपड़े धोने, ढ़ोली ढ़ोल बजाने, चमार जूते बनाने, जुलाहा कपड़े बनाने के कार्य करते हैं। जजमानी प्रथा के अन्तर्गत एक जाति दूसरी जाति की सेवा करती है और उसके बदले में सेवा प्राप्त करने वाली जाति भी उसकी सेवा करती है अथवा वस्तुओं में भुगतान प्राप्त करती है। एक किसान परिवार में विवाह होने पर नाई, धोबी, ढोली, चमार, सुनार सभी अपनी-अपनी सेवाएँ प्रदान करेंगे। बदले में उन्हे कुछ नकद, कुछ भाजे न, वस्त्र और फसल के समय अनाज दिया जाता है।

प्रत्येक गाँव में एक गाँव पंचायत होती है। इसका मुखिया गाँव का मुखिया होता है। ग्राम पंचायत अति प्राचीन काल से भारत में विद्यमान रही है। ग्राम पंचायत का मुख्य कार्य गाँव की भूमि का परिवारों में वितरण, सफाई, विकास कार्य और ग्रामीण विवादों का निपटाना है। डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘डेमोक्रेसीज ऑफ द ईस्ट’ में पंचायत को मूलत: मुण्डा-द्रविड़ संस्था माना है। ब्रिटिश शासन से पूर्व ग्राम समुदाय राजनीतिक दृष्टि से आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतन्त्र थे। चाल्र्स मेटकाफ ने इन्हें छोटे-छोटे गणराज्य कहा है। यद्यपि गाँवों को केन्द्रीय शासक को कर देना होता था, किन्तु वह गाँव के आन्तरिक कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता था। आन्तरिक कार्यों को निपटाने का भार ग्राम पंचायतों पर ही था। 

भारतीय गाँवों के निवासियों में शिक्षा का अभाव है। अत: वे अन्धविश्वासी और भाग्यवादी हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि व्यक्ति चाहे कितना ही प्रयत्न करे, किन्तु उतना ही प्राप्त होगा जो उसके भाग्य में लिखा है। उनके इस विश्वास को हम तुलसीदास जी कि इस पंक्ति द्वारा व्यक्त कर सकते हैं :

‘होई है सोई जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावहि साखा।’ अर्थात् वही होगा जो ईश्वर ने निर्धारित कर रखा है। हम तर्क करके विवाद को क्यों बढ़ावा दें। भाग्यवादी होने के कारण ही ग्रामीण लोग सभी प्रकार के कश्टों, अत्याचारों एवं शोशण को बर्दाश्त करते रहे और कभी भी परिवर्तन और क्रान्ति की ओर अग्रसर नहीं हुए। अब शिक्षा के कारण इस स्थिति में बदलाव आ रहा है।

ग्रामवासी जनमत का सम्मान करते हैं और उससे डरते हैं। वे जनमत की शक्ति को चुनौती नहीं देते, वरन् उसके सम्मुख झुक जाते हैं। पंच लोग जो कुछ कह देते हैं, उसे वे शिरोधार्य करते हैं। पंच के मुँह से निकला वाक्य ईश्वर के मुख से निकला वाक्य होता है। जनमत की अवहेलना करने वाले की निन्दा की जाती है। ऐसे व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा गिर जाती है। कोई भी ग्रामीण इस प्रकार की स्थिति को पसन्द नहीं करेगा।

भारतीय ग्रामों में सामाजिक और सांस्कृतिक समरूपता देखने को मिलती है। उनके जीवन-स्तर में शहरों की भांति जमीन-आसमान का अन्तर नहीं है। सभी लोग एक जैसी भाषा, त्यौहार-उत्सव, प्रथाओ और जीवन विधि का प्रयोग करते हैं। उनके सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन में गहरी खाई और विभेद नहीं पाये जाते। यहाँ अनके प्रान्तो, वर्गो, प्रजातियों, भाषाओं और देशों के लोग निवास नहीं करते हैं उनके जीवन में समानता और एकरूपता की अजस्र धारा बहती है। भारतीय ग्रामीण समुदायों में नारी की स्थिति निम्न है। उन्हें दासी के रूप में समझा जाता रहा है। कन्या-वध, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, विधवा पुनर्विवाह का अभाव, आर्थिक दृष्टि से पुरूषो पर निर्भरता, पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार न होना, विवाह विच्छेद का अभाव आदि ऐसे अनेक कारण हैं जो भारतीय ग्रामीण नारियों की सामाजिक स्थिति को शहरी स्त्रियों की तुलना में निम्न बनाये रखने में योग देते हैं।

गॉवों की अधिकांश जनसंख्या अशिक्षित है। आजादी के करीब 63 वर्षो के बाद भी हमारी शिक्षा का प्रतिशत 65.38 से ऊँचा नहीं हो पाया है। पुरूषों की तुलना में स्त्रियो में शिक्षा का प्रतिशत तो और भी निम्न है। उच्च और तकनीकी शिक्षा का उनमें अभाव है। अज्ञानता और अशिक्षा के कारण उनका खूब शोषण हुआ है। वे अन्धविश्वासो और जादू-टोने के चंगुल से मुक्त नहीं हुए हैं तथा अनेक बुराइयों से अब भी चिपके हुए हैं।

भारतीय गाँवो को आत्म-निर्भर इकाई के रूप में परिभाषित किया गया है। यह आत्म-निर्भरता केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं वरन् सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि में भी थी। किन्तु वर्तमान में यातायात के साधनों के विकास, केन्द्रीय शासन की स्थापना, औद्योगीकरण आदि के कारण गाँवों की आत्म-निर्भरता समाप्त हुई है। अब वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और राजनैतिक व्यवस्था के अंग बन गये हैं। दिनों-दिन अन्योन्याश्रितता बढ़ रही है।

भारतीय समाज में अनेक सामाजिक समूह एवं श्रेणियाँ पायी जाती हैं जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर्याप्त भिन्न-भिन्न है। कुछ समूह सामाजिक दृष्टि से श्रेष्ठ स्वीकार किए जाते हैं तथा वे समाज में पर्याप्त प्रतिष्ठा-सम्पन्न हैं।

4 Comments

  1. Ham log abhi bhi gramino ke name se apni pratishda ko banay rkhne ke liye shangharsh ki sidhi or Chadh jate hai or wo sarkari adhikari hamare hak ki chijo ko chhin kr apni jholi me bhoon te hai or ham gao walo ko pata bhi nhi chalta yahi to sarkar ki adhiwakta or kamjori hai

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  2. Par ab kuchh alag hai

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  3. Kahan Jata Hai Bharat Ke Atma Gaon Mein Basti hai Bhartiya gaon ke sundarta pure Vishva Mein Jaani Jaati Hai Kyunki ine gaon ki visheshta Hi Sabhi logon ko apni or aakarshit karti hai Bharat Mein Sabhi Prakar ke bhaugolik Drishya dekhne ko Milte Hain Pahadi Parvati registani maidani Aise Kai Kshetra yahan hai Jahan gaon ki sankhya acchi khasi hai yahan ki Hariyali manushya ko manmohit Karti Hai Aur ताजी-ताजी hawayen manushya Ko antratma se santusht V Swasth karti hai Bhartiya gaon ki sanskritik paramparaen bhi Anokhi Hoti Hai Kyunki Yahan prakrutik Puja ki Jaati Hai Gaon Ka vyavhar Gaon Ke Logon Ki Tarah hi acche Hote Hain Yahan pedon ki chhanv mein log ekjut hokar baten Kiya Karte Hain Sab Milkar Rahte Hain Koi Ek dusre ka Sath Nahin chhodata Sab Ek dusre ke sath rahte hain

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