आत्मकथा किसे कहते हैं? - अर्थ, परिभाषा

आत्मकथा किसी व्यक्ति की स्वलिखित जीवनगाथा है। इसमें लेखक स्वयं की कथा को बड़ी आत्मीयता के साथ पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता हैं। लेखक अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, घटनाओं, पारिवारिक, आर्थिक तथा राजनीतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में लिखता है। अपने जीवन में घटित मार्मिक घटनाओं का वर्णन भी करता है। महापुरुषों की आत्मकथायें हमारा मार्गदर्शन करती है तथा प्रेरणा देती हैं। जीवन और आत्मकथा में यही अंतर है कि जीवनी में लेखक किसी पुरुष की कथा, चरितनायक गुणों की प्रशंसा लिखता है। और आत्मकथा में स्वयं अपनी जीवन का सिंहावलोकन हुए अपनी बात लिखता हैं भारतेन्दु हरिष्चन्द्र की ‘कुछ आप बीती कुछ जगवीती’ के प्रकाशन से ही हिन्दी आत्मकथा का लेखन प्रारंभ हुआ।

आत्मकथा किसे कहते हैं?

जब व्यक्ति स्वयं अपनी कथा, अपनी शैली में लिखता है, उसे आत्मकथा कहते हैं। उसमें लेखक अपने बचपन से लेकर उस विशिष्ट बिन्दु तक का जीवन जो उसने सोचा है, उसे वह अपनी आत्मकथा में लिखता है। उसी कालखण्ड का विस्तृत जीवन-ब्यौरा प्रस्तुत करता है। अर्थात्  लेखक अपने व्यक्तिगत जीवन को नि:संकोच विश्लेषित और विवेचित करता है। अपनी भावों-अनुभूतियों को, जीवन में घटित घटना-प्रसंगों आदि को वह प्रस्तुत करता है। 

साथ ही इस घटना-प्रसंगों को लेकर वह अपनी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं को भी रेखांकित करता है। क्योंकि ‘‘आत्मकथा लेखक के अतीत का लेखा-जोखा भर नहीं है। वह तो परिवेश में जिए गए क्षणों का पुन: सृजन है।’’ अतीत की घटनाओं का वर्तमान की दृष्टि से किया गया चित्रण है।

आत्मकथा का अर्थ 

‘आत्मकथा’ मूलत: अंग्रेजी शब्द ‘ऑटोबायोग्राफी’ ( Autobiography ) पर बना हुआ शब्द है। संस्कृत में ‘आत्मवृत्तकथनम्’ और ‘आत्मचरितम्’ शब्द अवश्य मिलते हैं, जो आत्मकथा के अर्थ में स्वीकृत शब्द है। ऑटोबायोग्राफी के लिए हिन्दी में अनेक शब्द प्रचलित हैं - आत्मकथा, आत्मवृत्त, आत्मगाथा, आत्मचरित, आत्मचरित्र, आत्म-जीवनी, आत्मवृत्तांत, आत्मचरित जीवन, आत्मकहानी, आपबीती, मेरी कहानी, अपनी खबर, जीवन कहानी आदि। 

आत्मकथा की परिभाषा

डॉ0 नगेन्द्र ने ‘आत्मकथा’ को इस प्रकार परिभाषित किया है - ‘‘आत्मकथाकार अपने सम्बन्ध में किसी मिथक की रचना नहीं करता, कोई स्वप्न सृष्टि नहीं रचता, वरन् अपने गत जीवन के खट्टे-मीठे, उजाले-अंधेरे, साधारण-असाधारण संचरण पर मुड़कर एक दृष्टि डालता है, अतीत को पुन: कुछ क्षणों के लिये स्मृति में जी लेता है और अपने वर्तमान तथा अतीत के मध्य सूत्रों का अन्वेशण करता है।’’

हरिवंशराय बच्चन कहते हैं - ‘‘आत्मकथा, लेखन की वह विधा है, जिसमें लेखक ईमानदारी के साथ आत्मनिरीक्षण करता हुआ अपने देश, काल, परिवेश से सामंजस्य अथवा संघर्ष के द्वारा अपने को विकसित एवं प्रस्थापित करता है।’’

डॉ0 भोलानाथ ने - ‘‘अपने द्वारा लिखी हुयी अपनी जीवनी को आत्मकथा कहा है।’’

डॉ0 नारायण विलास आत्मकथा की परिभाषा इस प्रकार करते हैं- ‘स्व’ के जीवन की ‘स्वरचित कथा’ ही आत्मकथा कहलाती है।’’

डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार - ‘‘आत्मकथा, लेखक के अपने अतीत का समग्र वर्णन है। आत्मकथा के द्वारा अपने बीते हुए जीवन का सिंहावलोकन और एक व्यापक पृष्ठभूमि में अपने जीवन का महत्त्व दिखलाया जाता है।’’

त्रिलोकी नाथ शर्मा के अनुसार - ‘‘आत्मकथा, आत्मकथाकार के द्वारा लिखित उसके निज जीवन की अनुभूतियों एवं जीवन के विकासात्मक इतिहास की कलात्मक अभिव्यक्ति है, जिसमें जीवन-सत्य और युग सत्य का समावेश रहता है।’’

डॉ0 कमलापति आत्मकथा का प्रमुख आधार अतीत की स्मृति को मानते हैं - ‘‘स्मृति में विविध घटनाएँ, तथ्य और पात्र एकत्र होते रहते हैं। अनावश्यक तत्त्व विस्मृति के गर्त में लीन हो जाते हैं, किन्तु महत्त्वशील उपकरण संचित होते रहते हैं और समय के साथ मानस में उनका रूप निखरता जाता है। इसी संचित ज्ञान को आत्मकथा का आधारभूत तत्त्व मानना चाहिए।’’

स्मृति में कई दिनों तक बनी रहने वाली घटनाएँ ही महत्त्वपूर्ण होती हैं जिससे ‘आत्मकथा’ अपना स्वरूप-विशेष रूप धारण करती है। लेखक की यादाश्त को हमेशा ताजा रखने वाले प्रसंग ही स्मृति-पटल पर उभरकर आते हैं, जिससे आत्मकथा का निर्माण होता है। यह स्मृतियाँ ही आत्मकथा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

डॉ0 श्यामसुन्दरदास ने अपने आत्मकथा-लेखन के सम्बन्ध में कहा है - ‘‘जिस समय जैसी भावना मेरे मन में थी और जिन उद्देश्यों से प्रेरित होकर जो काम मैंने किया है तथा जिस प्रकार मेरे कार्यों में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हुई हैं, उनका मैंने यथातथ्य वर्णन किया है।’’ इस प्रकार कहा जा सकता है कि आत्मकथा साहित्य का वह रूप है, जिसमें लेखक अपने जिए हुए जीवन की मुख्य घटनाओं का विवरण सत्य एवं यथार्थ की भूमिका पर आत्मनिरीक्षण एवं परीक्षण करते हुए प्रस्तुत करता है।

इन सभी परिभाषाओं के बाद आत्मकथा के विषय में कहा जा सकता है कि - ‘‘आत्मकथा मानव के मन रूपी जगत् में स्थित वह स्थायी प्रज्ञा है, जो समय आने पर अपने प्रकाश द्वारा आत्मकथाकार की लेखनी से निकल कर पाठकों को एवम् समाज को आलोकित करती है।’’ जीवन से सीधे सम्बद्ध होने के कारण आत्मकथा किसी एक बन्धन को स्वीकार नहीं करती-किसी भी शिल्प में वह हो सकती है और होती है। लेखक को इतनी छूट कोई विधा नहीं देती। इसीलिए वह सिर्फ लेखक की होती भी नहीं। 

आत्मकथा का विग्रह करें, तो पाएंगे कि ‘आत्म’ अपना है और ‘कथा’ सबकी हैं। इसमें आत्म-मोह को मारना पड़ता है, तो दूसरी ओर कथनी और करनी के बीच चल रहे सामाजिक द्वन्द्व को तोड़ना होता है।

सम्भवत: इसी द्वन्द्व को ध्यान में रखते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि - ‘‘जहाँ जीवन की अश्लीलता को शालीनता की चादर से ढककर जीने को ही सभ्यता माना जाता हो, वहाँ बड़े लोगों के बारे में सच कहने-सुनने की आदत कैसे होगी? - हिन्दी में आत्मकथा और जीवनी-लेखन की दुर्दशा का मुख्य कारण यहाँ व्यक्तिगत जीवन की सच्चाई कहने के साहस का और सहने की आदत का अभाव भी है।’’

2 Comments

  1. बहुत बढ़िया आपने बताया है

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  2. Bahut badhiya bataya hai aapne 👏👏👏👏

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