स्वदेशी क्या है?

गाँधी जी स्वदेशी को परिभाषित करते हुए कहते है कि “जो वस्तु करोड़ों भारतीयों के हित का सम्वर्द्धन करती है, भले ही उसमें लगी पूंजी और कौशल विदेशी हो, वह स्वदेशी है, अलबत्ता यह पूंजी और कौशल भारतीय नियंत्रण के अधीन होना चाहिए।”

स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी वह भावना, जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपवर्ती प्रदेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। गाँधी ने स्वदेशी के बारे में लिखा है कि, स्वदेशी एक सार्वभौम धर्म है। प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने पड़ोसियों के प्रति है। इसमें परदेशी के प्रति द्वेष नहीं है और स्वदेशी के लिए पक्षपात नहीं। इस प्रकार स्वदेशी धर्म का पालन करने वाला विदेशी वस्तुओं से कभी द्वेष करेगा ही नहीं। अथा्रत् पूर्ण स्वदेशी में किसी से द्वेष नहीं होता। यह प्रेम और अहिंसा से उत्पन्न एक सुन्दर धर्म है। शरीरधारी की सेवा करने की शक्ति की मर्यादा होता है। वह अपने पड़ोसियों के लिए भी म ुश्किल से अपना धर्म पूरा कर सकता है। अगर पड़ोसियों के प्रति लोग अपना धर्म अच्छी तरह से पालन कर सकें, तो दुनिया में मदद के बिना भी कोई दु:ख न भोगे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य पड़ोसी की सेवा करके दुनिया की सेवा करता है। असल में इस स्वदेशी धर्म में अपने पराये का भेद नहीं है। पड़ोसी के प्रति धर्म पालन करने का अर्थ है, जगत के प्रति धर्म-पालन और किसी तरह से दुनिया की सेवा हो ही नहीं सकता। जिसकी –श्टि में सारा जगत ही क ुटुम्ब है, उसमें अपनी जगह पर रहकर भी सबकी सेवा करने की शक्ति होनी चाहिए। वह तो पड़ोसी की सेवा के द्वारा ही हो सकती है।

टॉलस्टाय तो एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहते है कि, “अपनी सेवा किये बिना कोई दूसरों की सेवा करता ही नहीं और दूसरों की सेवा किये बिना जो अपनी ही सेवा करने के इरादे से कोई काम शुरू करता है, तो वह अपनी और संसार की हानि करता है।”

कहने का तात्पर्य यह है कि पूरी दुनिया के लोग एक दूसरे के साथ इस तरह जुड़े हैं कि जब भी किसी व्यक्ति द्वारा कोई अच्छा या बुरा काम किया जाता है तो उसका प्रभाव पूरे संसार पर पड़ता है। हमारे देखने की एक सीमा है। हम भले ही इसे प्रत्यक्षत: न देख सकें। यह हो सकता है कि एक व्यक्ति के द्वारा किये गये काम का प्रभाव इस संसार रूपी सागर में एक बूँद के समान हो किन्तु उसका प्रभाव होता ही है।

इस प्रकार स्वदेशी से यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि विदेश में बनी हर चीज हर हालत में त्याज्य है। स्वदेशी की सामान्य परिभाषा यह है कि हमें देशी वस्तुओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए विदेशी वस्तुओं का त्याग करके देशी वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए; यह बात उन उद्योगों पर विशेष तौर पर लागू होती है जिनके नष्ट होने पर भारत कंगाल हो जायेगा। इसलिए स्वदेशी का यह अर्थ लगाना उसकी व्याख्या को संकुचित करना होगा कि हमें प्रत्येक विदेशी वस्तु का त्याग कर देना चाहिए, भले ही वह कितनी ही फायदेमंद क्यों न हो और उसके कारण देश में किसी के काम धन्धे को हानि न पहुँचती हो। इसलिए विदेश में बनी चीजों का केवल इसलिए त्याग करना कि ये विदेशी में बनी है, और परिस्थितियाँ अनुकूल न होने पर भी, अपने देश में ही उनका विनिर्माण करने के लिए राष्ट्रीय समय और धन का अपव्यय करना, मूर्खतापूर्ण और स्वदेशी की भावना को नकारना होगा। क्योंकि स्वदेशी का अभियान घृणा फैलाने का अभियान नहीं है। यह नि:स्वार्थ सेवा का सिद्धांत है जिसकी जड़ में विशुद्ध अहिंसा अथा्रत प्रेम है।

सन्दर्भ -
  1. प्रदीप कुमार पाण्डेय पूर्वोधृत, पृ. 60।
  2. महात्मा गाँधी : मेरे सपनों का भारत, पूर्वोधृत, पृ. 104।
  3. प्रशांत कुमार (सं.) : महात्मा गाँधी : स्वदेशी की ललकार, वाराणसी, पृ. 12।
  4. महात्मा गाँधी : ग्राम-स्वराज्य, पूर्वोधृत, 2010, दिल्ली, पृ. 54।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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