फतेहपुर का नामकरण और राजनीतिक इतिहास

फतेहपुर जनपद का वर्तमान स्वरूप, जैसा आज है सन् 1801 ई. के पहले नहीं था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस जनपद के विभिन्न भू-भागों को तत्कालीन अधिपतियों से छद्म समझौते के आधार पर छीनकर 1801 से लेकर 1825 ई0 तक बन्दोबस्त व्यवस्था निष्पादित कर आज का वर्तमान स्वरूप प्रदान किया।

फतेहपुर का नामकरण

फतेहपुर जनपद के बसाये जाने के संबंध में अनेक मत हे। जन साधारण में यह स्थापित धारणा हे कि अठगढि़या राजा सतानन्द के ऊपर विजय प्राप्त करने के उपरान्त सुल्तान इब्राहिम शर्की ने इस नगर का नाम फतेहपुर रखा। इस परम्परागत विचार की कोई पुष्टि उपलब्ध नहीं है। फतेहपुर का पहले नाम (विजयनगर) था। अठगढिया राजा जो हिन्दू थे, सम्भवत: नन्दवंश के गुजारेदार प्रतीत होते हैं। इस भू भाग पर अधिकार रखते थे। 

इब्राहिम शर्की द्वारा अठगढि़या राजा को हराकर फतेहपुर बसाये जाने की बात कही गयी हे। लेकिन परम्परागत विचार की पुष्टि में कोई प्रमाण न पाकर इसे अमान्य कर दिया गया। फतेहपुर जनपद का भू-भाग सन् 1800 ई. के पूर्व कोड़ा और कड़ा प्रदेश के अन्तगर् त था।

अठगढि़या राजा स्वतन्त्र हो चुके थे। अतएव इन्होंने अलाउद्दीन हुसैन बंगालवी से भी मोर्चा लिया। अठगढि़या राजा ओर अलाउद्दीन द्वितीय बंगालवा के मध्य 917 हिजरी के पूर्व युद्ध हुआ। इस युद्ध में सैयद नुरुद्दीन (हाजीपुर गंग) अपने चालीस साथियों सहित बलिदान हुए। अठगढ़िया राजा हार गये, पास-पडौस की आबाद बस्ती उजाड़ कर विजय स्मृति से नवीन बस्ती पुन: बसाई गयी, जो कि फतेहपुर के नाम से जानी जाती हे।

1801 से 1825 समय में इलाहाबाद तथा कानपुर जनपदों से कुछ हिस्सा काटकर वतर् मान ‘फतेहपुर’ का निर्माण किया गया। अत: जिला के रुप में फतेहपुर 1826 में अस्तित्व में आया। इस जिले का एक प्रामाणिक विवरण अभी हाल में प्राप्त हुआ है। तत्कालीन तहसीलदार मोहम्मद दलेल उल्ल खाँ ने जिला कलेक्टर विलियम म्योर के आदेश दिनांक 20 दिसम्बर 1844 ई. के अनुपालन में ‘फेहरिस्त आम मकत ूबा तहसीलदारी फतेहपुर’ पसिर्यन लिपि में लिखित, यह प्रथम गजेटियर हिन्दी के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता डा. ओम प्रकाश अवस्थी के पास सुरक्षित हे। जो 163 पृष्ठों का सम्पूर्ण जानकारियों से युक्त दुर्लभ दस्तावेज है।

फतेहपुर का राजनीतिक इतिहास

वैसे तो फतेहपुर के राजनैतिक इतिहास का कोई भी श्रखंलाबद्ध उल्लेख अब तक उपलब्ध नहीं हुआ। लेकिन रेंह और मथुरा में पाये गये इण्डो-ग्रीक संस्कृति के अभिलेखों की समानता इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि फतेहपुर ई.पू. 326 से ही राजनैतिक हलचल का केन्द्र रहा। अभिलेखों के अनुसार सिकन्दर महान का भारत में आक्रमण 326 बी.सी. में हुआ सिकन्दर के बाद सेल्यूकस डियोडोटाज और डिमिटि्रयस प्रथम तथा डिमिट्रियस प्रथम के भाई मेनेण्डर के क्रमिक रुप से भारत में हमले अधिकार व शासन परम्परा कायम करने का उल्लेख मिलता हे।

फतेहपुर जनपद भी इन शासकों के अधिकार से इतर नहीं रहा। इस काल खण्ड की स्थापत्य और संस्कृति की विपुल सामग्री अब तक जनपद के विभिन्न भ ूभागों में उपलब्ध और स ुरक्षित हे। इस विदेशी शासकों के आक्रमण काल में भारत नन्दवंश से शासित रहा। महाबोधि धर्म ग्रंथ के अनुसार नंदवंश के शासकों ने महानन्द एवं उग ्रसेन बड़े पराक्रमी और ऐश्वर्यशाली राजा भारत में शासन करते थे तथा फतेहपुर का भू-भाग भी उनकी राजकीय सीमा के अन्दर था। विद्वानों के अनुसार ग्रीक शासक मैनेण्डर 150 से 190 ई. पू. भारत आया। मेनेण्डर के भारत आने के पूर्ण का राजनैतिक इतिहास यद्यपि उपलब्ध नहीं, तथापि विश्वसनीय है कि उसे किसी ने किसी भारतीय राजा का प्रतिरोध सहना पड़ा होगा। क्योंकि भारत में शासन स्थापित करने के लिये शकों और हूणों से उसे कई लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी।

काबुल से मथुरा और मथुरा से बुन्देलखण्ड तक मेनेण्डर के सिक्कों का पाया जाना तथा इतिहासकार ‘‘टेरीप्लस’’ के अनुसार भड़ोच (गुजरात) के बाजार में मैनेण्डर का शिलालेख इस तथ्य को स्पष्ट स्थापित करते हें कि मैनेण्डर के कालखण्ड से पूर्व यहाँ की राजनैतिक स्थिति अवश्य सुदृढ़ रही होगी। सन् 1979 में पहली बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र टी.पी. शर्मा द्वारा रेंह के मन्दिर में उपलब्ध शिवलिंग की खोज की गयी किन्तु उक्त शिवलिंग की फर्श पर प्राप्त शिलालेख का मूल्यांकन इतिहासकार प्रो.जी.आर शर्मा द्वारा किया गया। 

मैनेण्डर के काल खण्ड के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में (405 ई.) में चीनी यात्री फाह्यान के शासन का भारत आना और (सन् 414 ई.) में वायस जाना तथा हर्षवर्धन के शासन काल में (644 ई.) ह्वेनसांग का भारत आना और इन दोनों चीनी यात्रियों द्वारा भारत की राजनेतिक व्यवस्था पर की गयी टिप्पणियाँ, जो अभिलेख में उपलब्ध है भी साक्ष्य देती है, कि राजनैतिक व्यवस्था की एक सुदृढ़ वयवस्था जो भारत में थी उससे फतेहपुर जनपद का भू-भाग भी प्रभावित था। फाहयान कौशाम्बी से लेकर फतेहपुर के गंगा तटीय नगर असनी गोपालपुर से होते हुए। इन्द्रप्रस्थ की यात्रा का वर्णन यात्रा स्मरण में उल्लेख किया। जनपद में मैनेण्डर का शिलालेख का पाया जाना और चीनी यात्रियों के यात्रा स्मरण में फतेहपुर के प्रमुख नगरों का नाम होना यहाँ की राजनैतिक हलचल का यथेष्ट लेखा जोखा प्रस्तुत करते है।

जनपद के विभिन्न स्थलों से प्राप्त शिलालेखों और स्थापत्य के पुरावशेषों से भी यह तथ्य प्रतिपादित होता है कि विभिन्न काल खण्डों में विभिन्न राजाओं ने यहाँ अपनी कीर्ति की ध्वजा फहराई। यदि हम इतिहासेत्तर अध्ययन की ओर बढ़े तो अग्नि पुराण से एक नये तथ्य का रहस्य उद्घाटन होता है। अग्नि पुराण में कहा गया है कि देवताओं के भेषज (वैद्य) अश्विनी कुमारों की साधना स्थली पवित्र नदी गंगा के किनारे अवस्थित असनी नगरी था। असनी में आज भी अश्विनी कुमारों का मन्दिर उपलब्ध है। जिसमें विराजमान अश्विनी कुमारों के विग्रह बीसवीं शाताब्दी के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में चोरी हो गये थे। विभिन्न राजाओं के द्वारा बनवाये गये मन्दिर, बावली तालाब और कुएं, भग्नावेशष के रूप में आज भी असनी में विद्यमान हैं।

कु रारी, सरहन बुजुगर् , धमिना, खुर्द, तेन्दुली, बहुआ, ठिठौरा, रेंह, मझिंलगों, अमोली, डीघ, अढ़ोली, छोटी, बडागाँव धाता, गलाथा, गढ़ा, खैरई, कीतिर् खेड़ा, लौकियापुर, नोबस्ता, पधारा, परास, पिलखनी, शाखा, सरसई बुजुगर् , सातों, तिवारीपुर (सेनपुर), थवई आदि के मन्दिरों को सन् 500 ई. से 800 ई. सन् के बीच की अवधि में विद्धानों द्वारा निर्मित किया जाना अनुमानित किया गया है। ये मन्दिर गुप्तकाल के पूर्व से चली आ रही वस्तु शिल्प की परम्परा की ऐतिहासिकता एवं गुजर्र परिहारों एवं चन्देलों की शासन काल तक की शिल्पीय उत्कषर् यात्रा के साक्ष्य हें।

इससे पुष्ट होता है कि इस जनपद का सारा का सारा भूखण्ड गुप्तकाल एवं उसके पूर्व राजनैतिक हलचल का केन्द्र रहा होगा। कुकरा, कुकरी और लौकियापुर आदि स्थानों से मिले हुये प्रागैतिहासिक काल के शिकार और दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली कुल्हाड़ी आदि उपकरण भी इस सत्य की साक्ष्य देते हैं।

पुरातत्वान्वेषक श्री कुकबनर् तथा शियोनार्ड जब बाँदा उन्नाव एवं इलाहाबाद जनपद में नव पाषाण कालीन स्थलों का अनन्वेषण और अध्ययन कर रहे थे, तो इलाहाबाद से जुड़ी हुई फतेहपुर की भूखण्ड पत्रिका भी उन्होने नवपाषाण कालीन पुरातात्विक अवशेषों के प्राप्त हाने की सम्भावनायें व्यक्त की थी परिणामत: इलाहाबाद विश्वविद्यालय की इतिहासकार डा0 माधुरी शर्मा ने 1975 से 1980 के बीच खागा तहसील का सर्वेक्षण करके नौबस्ता, बेगाँव, ब्राह्मण टोला (खागा) बुढवां, कुकरा, कुकरी, भखन्ना आदि स्थलों से नवपाषाण कालीन पुरातत्वावशेष खोज निकाला जिनमें बेसाल्ट पाषाण से निर्मित काले रंग के शिकारी उपकरण तथा ताम्र युग एवं प्रस्तर युगीन, लालमृदमाण्ड, मध्यकालीन मृदमाण्ड, मुगलाकालीन ब्लेज्ड मृदमाण्ड तथा चन्देल कालीन पाषाण मूतिर् यां भी प्राप्त हुई हे जो फतेहपुर की नगरपालिका में स ुरक्षित रखा दी गयी। खोजों की यह उपलब्धि इस तथ्य को स्थापित करती हे कि प्रस्तर युग ताम्रयुग ओर नवपाषाण युग में यहां समृद्धि और समुन्नत बस्तियाँ थी जो राज्य सन्ताओं से प्रभावित एवं संचालित अवश्य होती रही होंगी।

देवनगरी अंकों की विकास यात्रा का अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करता है कि फतेहपुर में राजनैतिक क्रिया कलापों की शून्यता नहीं रही। शून्य से लेकर नौ (9) तक की अंको में जो समय-समय पर स्वरुप परिवर्तन आया उस स्वरुप परिवतर् न में असनी अभिलेख का एक महत्वपूर्ण योगदान है यह स्वरुप परिवर्तन में असनी अभिलेख का एक महत्वपूर्ण योगदान है यह असनी अभिलेख विक्रम सम्वत 974 से 917 ई. विक्रम के बीच का है, जो तत्कालीन असनी के शासक महिपाल के शासन काल में लिखा गया। इस समय तक अंकों के स्वरूप परिवर्तन की यात्रा ब्राह्मी लिपि से चलकर देवनगरी तक आ चुकी थी। इस अभिलेख में पंच शतानि के रुप में 500 की संख्या प्राप्त होती है। इनमें क्रमश: 0, 4, 5, 7, 9 अंक आते हें विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न शासकों द्वारा फतेहपुर के जनपद के भूभाग में शासकीय प्रमाण जमाने और उखाड़ने के प्रमाण स्वरूप इस जनपद में उपलब्ध स्थापत्य पुरातत्व अवशेष वं ऐतिहासिक स्थलों में उपलब्ध व्रिपुल सामगि्रयाँ, सिक्के एवं भवन, भग्नावशेष इस बात की साक्ष्य देते है कि फतेहपुर जनपद पोराणिक काल से आज तक राजनैतिक गतिविधियों से सदैव प्रभावित रहा और अपनी पहचान इतिहास में आज भी बनाये हुए है।

2 Comments

  1. खैरई के मंदिर के अवशेष अभी देखे जा सकते हैं

    ReplyDelete
  2. आदमपुर जो की गंगा नदी के तट पर है वहां भी प्राचीन मंदिर है जिसको ब्रह्म शिला के नाम से जाना जाता है ।

    ReplyDelete
Previous Post Next Post