वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत - Theories of origin of caste system

वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘वृ’ वरणे धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ‘चुनना’ या ‘वरण करना’। सम्भवतः ‘वर्ण’ से तात्पर्य ‘वृति’ या किसी विशेष व्यवसाय के चुनने से है। समाज शास्त्रीय भाषा में ‘वर्ण’ का अर्थ ‘वर्ग’ से है, जो अपने चुने हुए विशिष्ट व्यवसाय से आबद्ध है। वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत समाज का चार भागों में कार्यात्मक विभाजन किया जा सकता है, यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। 

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वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति

आर्य जब भारत वर्ष में आए उस समय त्वचाभेदक आधार (रंग के आधार पर भारतीय समाज दो वर्गों में विभक्त था, पहला आर्य तथा दूसरा अनार्य । ऋग्वेद के प्रारंभिक काल में भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था जैसी कोई सामाजिक संस्था नहीं थी, लेकिन जब आर्यों का अनार्यों से संघर्ष हुआ तो उस समय आर्यों का समाज तीन वर्गों में विभाजित हो गया, पहला वर्ग जो देव पूजा, यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों को करता था। दूसरा योद्धा वर्ग जो शुद्ध वीर होने के कारण अनार्यों से युद्ध तथा शेष आर्यों की रक्षा करता था। तीसरा विश् वर्ग जो पशुपालन एवं कृषि करके आर्यों के भरण-पोषण का दायित्व संभाल रहा था। समाज में ये ही तीनों वर्ग आगे चल कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के नाम से अभिहित हुए। जब आर्यों ने अनार्यों को पराजित कर अपने वशीभूत कर लिया तथा धीरे-धीरे अनार्य उनके परिचारक (दास) बन गये और ये दस्यु बन गये तथा ऋग्वेद के उत्तर काल में शूद्र के नाम से अभिहित हुए और इस काल में चार वर्ग बन गए ।'

दैवी सिद्धांत के रूप में वर्ण व्यवस्था के उद्भव का वर्णन महाभारत में भी किया गया है, इसमें वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू (जंघा) से वैश्य और तीनों वर्णों के सेवार्थ पद (पैर ) से शूद्र का निर्माण हुआ है। मनु ने वर्णों के उत्पत्ति विषयक वर्णन में लिखा है कि ब्रह्मा ने लोकवृद्धि के लिए ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र को क्रमशः मुख, बाहु, जंघा और चरण से निरवर्त किया है।' विष्णुपुराण में उल्लिखित है कि भगवान विष्णु के मुख, बाहू, जंघा और चरण से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र उद्गत हुए । मत्स्य पुराण में भी इसी प्रकार का वर्णन किया गया है तथा वायु और ब्रह्मांड पुराणों से भी यही परिलक्षित होता है कि चतुर्वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है। भारतीय धर्म - शास्त्रकारों ने वर्णों की उत्पत्ति परमब्रह्म से स्वीकार की और इस वर्ण-व्यवस्था को आदि कालीन माना है।

दैवी सिद्धांत के अनुसार वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति

वर्ण-व्यवस्था के उत्पत्ति से सम्बन्धित दैवी सिद्धान्त के अनुसार चारो वर्णो की उत्पत्ति हुई है। मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। वर्ण का अर्थ रंग भी होता है। आर्य श्वेत वर्ण के और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे। रंग के आधार पर आर्य एवं अनार्य अथवा शूद्र दो ही वर्ण थे। पुनः आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीन वर्ण हो गये इसके पीछे क्या सिद्धान्त था यह स्पष्ट नहीं है। गुणों के आधार पर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार सत्वगुण की प्रधानता वाले वर्ण ब्राह्मण हैं, जिनमें रजोगुण की प्रधानता है वे क्षत्रिय हैं और जिनमें रजस् और तमस् की प्रधानता होती है वो वैश्य हैं। केवल तमस् गुण की प्रधानता वाले शूद्रवर्ण हैं। वर्ण विभाजन पहले व्यक्तिगत एवं मुक्त था। वर्ण-परिवर्तन सरल और सम्भव था, जो बाद में धीर-धीरे जटिल होता गया। पुराणों में भी कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है तथा यह माना गया है कि पूर्व जन्म के कर्मों के परिणामस्वरूप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए।

वर्ण व्यवस्था के प्रकार

वर्ण से आशय समान व्यवस्था करने वाले व्यक्तियों के एक सामाजिक समूह से है। व्यवसाय व्यक्ति के गुण और कर्म पर निर्भर करता है। एक व्यक्ति में अनेक गुण हो सकते हैं, किन्तु व्यक्ति के व्यक्तित्व में उन गुणों के एक विशेष संगठन के रूप में प्रधानरूप से कौन सी शक्तियाँ कार्यरत हैं, वर्ण निर्धारण में मुख्यत: इस बात पर ध्यान दिया जाता है। प्रमुख गुण तीन हैं-सत् ,रज और तम। जिस व्यक्ति में रज और तम गुणों की तुलना में सत् प्रधान है वह ब्राह्मण है, रजो गुण प्रधानता का व्यक्ति क्षत्रिय, रजो और तमो मिश्रित गुण सम्पन्न व्यक्ति वैश्य और तमो गुण प्रधान शूद्र है। समाज को कार्यात्मक रूप से चार बड़े भागों में विभाजित किया गया है।

1. ब्राह्मण  

समाज में प्राचीन काल से ही हिन्दू समाज में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। आलोच्यकाल में भी ब्राह्मण वर्ग की प्रतिष्ठा एवं सर्वोच्चता समाज में बनी रही जिसका प्रमाण तत्कालीन भक्ति सन्तों द्वारा समय-समय पर ब्राह्मण विरोधी प्रचार था। वर्ण व्यवस्था का धर्म से निकट का संबंध था, अतः वेदों के अध्ययन-अध्यापन से लेकर समाज में होने वाले यज्ञ एवं धार्मिक कार्यों में ब्रह्मणों की ही प्रधानता थी । वह धार्मिक मामलों में पृथ्वी पर सभी प्राणियों का माग्रदर्शक समझा जाता था। ब्राह्मण की सर्वोच्चता उसके ज्ञान और विद्वत्ता के कारण ही थी। वह अपनी विद्वत्ता से समाज को शिक्षित करता था तथा अपनी याज्ञिक क्रिया से उसे धार्मिक बनाता था । 

मनु के अनुसार समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है। मुख्य रूप से उसके छः कर्म थे - वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। दान लेने में उसका प्रयास यही होना चाहिए, कि वह दान न ले क्योंकि दान लेने से उसका ब्रºम तेज कम हो जाता है। अन्त:करण की शुद्धि, इन्द्रियों का दमन, पवित्रता, धर्म के लिए कष्ट सहना, क्षमावान होना, ज्ञान का संचय करना तथा परमतत्व अर्थात सत्य का अनुभव करना ही ब्राह्मणांें के परम धर्म हैं।

2. क्षत्रिय

देश और समाज की रक्षा क्षत्रिय ही करते थे। उनका कार्य प्रायः युद्ध-पराक्रम और शौर्य प्रदर्शित करना था, इसलिए ऐसे वीर और पराक्रमी वर्ग को ‘क्षत्रिय’ कहा गया। क्षत्रियों का मुख्य गुण शौर्य, शासन और सैन्य संचालन था। ब्राह्मणों के समान ही क्षत्रियों को अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, किन्तु यज्ञ कराने का अधिकार नहीं था।

समाज में क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों के पश्चात थी किंतु उनका मान और महत्व ब्राह्मणों से कम न था । उन्हें राजन्य' के नाम से या राजपूत शब्द से भी अभिहित किया था। जैन पुराण क्षत्रिय वर्ण के लिए प्रायः 'क्षत्र' और 'क्षत्रिय' शब्द का प्रयोग करते हैं । किंतु पुराणों में कहीं-कहीं 'अयोनिज' का शाब्दिक अर्थ होता है, ऐसी जाति जिसकी उत्पत्ति मानवीय योनि से नहीं हुयी है अर्थात् क्षत्रियों की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुयी है इसी से वह 'अयोनिज' कहलाते हैं।' क्षत्रियों का परम्परागत कार्य शासन करना तथा देश की रक्षा के लिए युद्ध करना था । अपने युद्ध कौशल और प्रशासन से वे समाज को रक्षित व पोषित करते थे। ऋग्वेद में उन्हें 'क्षत्र से संबंधित किया गया है जिसका अर्थ 'शौर्य' और 'पराक्रम' से है । प्राचीन काल में वर्ग जन्मना न हो कर कर्मणा ही था, तथापि युद्ध और शौर्य से संबंद्ध वर्ग को 'क्षत्रिय' (राजन्य) वर्ग के रूप में गृहीत किया गया। उत्तर वैदिक युग में क्षत्रीय वर्ग ने देश और समाज में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास किया और उनके लिए यह कहा गया है कि क्षत्रिय से ऊंचा कोई नहीं । राजसूय यज्ञ में क्षत्रिय ऊंचे सिंहासन पर बैठता था तथा उससे नीचे के आसन पर ब्राह्मण बैठकर क्षत्रीय की उपासना कराता था, तथा क्षत्रीय की योनि ब्रह्म को माना गया । ' प्राचीन युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय की की स्पर्धा तीव्रतर हो गयी, और वे ब्राह्मणों के बौद्धिक चुनौती को स्वीकार किये तथा अनेक ऐसे शासक हुए जो अपनी विद्वत्ता, दार्शनिकता और ज्ञान से अनेक ब्राह्मणों को अपना शिष्य बना लिया । जनक, अश्वपति कैकय, काशिराज अजातशत्रु और प्रवाहण जैबलि ऐसे ही क्षत्रिय राजा थे, जिन्होंनें तत्कालीन युग में अपनी अनुपम विद्वत्ता और आध्यात्मिकता से ब्राह्मण वर्ग को चकित ही नहीं किया बल्कि प्रभावित भी किया है। पंचाग्नि विद्या का उद्भव और उन्नयन क्षत्रियों के कारण ही हुआ था जिसका दर्शन - तत्व आवागमन के सिद्धांत का प्रतिपादन करना था । "

क्षत्रियों का जातीय गुण था शौर्य, शासन और सैन्य संचालन, वह अपने राजकीय अधिकारों, प्रशासनिक कार्यों और सामरिक क्रियाओं के कारण वे एक-दूसरे के वर्ग से पूर्णतः भिन्न थे।' वे पूर्णतः शासन, संरक्षण, और पोषण से संबंद्ध थे, तथा उनका प्रमुख कार्य चतुर्वर्णों को संरक्षण प्रदान करना था।

3. वैश्य

वैश्यार्थ जैन पुराणों में वैश्य, सेठ, वणिक, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह शब्द प्रयुक्त हुए हैं। पाणिनी ने वैश्य के लिए 'अर्य' शब्द का प्रयोग किया है। समाज में वैश्यों का स्थान क्रमानुसार तीसरा था। व्यापार, खेती, पशुपालन का समस्त उत्तरदायित्व वैश्य के ऊपर ही था। अर्थ संबंधी नीतियों का सारा संचालन वैश्य वर्ग करता था। आलोच्य काल में वैश्य जाति को साहू अथवा साहूकार के नाम से अभिहित किया जाता था । वैश्य धनोपार्जन के लिए देश से बाहर जाया करते थे। अन्य साक्ष्यों से भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारत (विशेषतया गुजरात) के बनियों ने वाणिज्य और व्यापार के विकास में विशेष योगदान दिया था और वे इतने समृद्धवान् थे कि कुछेक तो सामन्त व्यवस्था में सम्मिलित हो गये थे । '

राज्य को अधिकाधिक कर प्रदान करनेवाला वर्ग वैश्य ही था, जो अपनी वस्तुओं के विक्रय की आय में से राजा को कर देता था तथा सर्वाधिक धनाढ्य होने के कारण वही राज्य को सबसे अधिक कर देने वाला था। मनु के अनुसार जिस वस्तु का वह जो मूल्य निश्चित करता था, उसके लाभ में से राजा को कर के रूप में बीसवां भाग मिलता था। पशु और सुवर्ण का कर (मूलधन का ) पचासवां भाग एवं धान्य का छठा, आंठवां या बारहवां भाग राजा को प्राप्त होता था । राजपूत राजा जो अधिकतर संघर्ष एवं राजनैतिक कार्यों में व्यस्त रहते थे, व्यापार में कुशल होने के कारण, अनेक वैश्यों को अपने शासन तंत्र में राजकिय कार्यों में सहयोग प्राप्त करने हेतु नियुक्त किये थे।

अर्थ-सम्बन्धी नीतियों का सारा संचालन वैश्य वर्ग करता है। अध्ययन, यजन और दान उसका परम कर्तव्य है।पाणिनि ने वैश्य के लिए ‘अर्थ’ शब्द का प्रयोग किया है। मनु ने मनुस्मृति में वैश्यों के भी सात धर्मों का उल्लेख किया है-पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, ब्याज पर धन देना तथा कृषि करना, वैश्यों के प्रमुख धर्म हैं।

कौटिल्य के अनुसार उसका प्रधान कर्म अध्ययन करना, यज्ञ करना और दान देना है। कालान्तर में वैश्य ने अध्ययन त्यागकर अपने को पूर्णरूप से व्यापार और वाणिज्य में लगाया। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि अध्ययन, यजन, दानादि के कर्मों को त्यागकर वैश्य कृषि, वाणिज्य, पशुपालन और कुसीद जैसे धनार्जन के कार्यों में तल्लीन हो गये। महाभारत में भी कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म माने गये हैं। कौटिल्य ने भी अध्ययन, यजन, दान, कृषि, पशुपालन और वाणिज्य वैश्यों का कर्म बताया है।

महाभारत के अनुसार वैश्यों का प्रमुख ध्येय धनार्जन करना है। मनु के अनुसार पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और कृषि करना वैश्यों के कर्म थे। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तरह वैश्यों को भी आपत्तिकाल में दूसरे वर्ण का कर्म करने की छूट प्राप्त थी।

4. शूद्र

शूद्र चतुर्थ व सबसे अन्तिम वर्ण है और इसका एक मात्र धर्म अपने से उच्च तीनों वर्णों की बिना किसी ईर्ष्या-भाव के सेवा करना है। इनके अतिरिक्त सभी वर्णों के लिए, क्रोध न करना, सत्य बोलना, धन को बाँटकर उसका उपयोग करना, पत्नी से सन्तानोत्पत्ति, पवित्रता को बनाये रखना, क्षमाशील होना, सरल भाव रखना, किसी से द्रोह न करना तथा समस्त जीवों का पालन-पोषण करना आदि समस्त वर्णों के नौ सामान्य धर्म हैं, जिनका पालन करना प्रत्येक वर्ण के लिए अनिवार्य माना गया है।

'परासरा माधव' के उल्लेख से मिलता है कि उनका संपूर्ण जीवन ब्राह्मणों पर आश्रित था तथा ब्राह्मण की सेवा करना उनका अनिवार्य कर्म था । उच्चवर्गों में सपन्न होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में उनकी उपस्थिति केवल सेवा के लिए ही उपयुक्त समझी जाती थी। शूद्रों के जीवन में नियम कानून का कोई अर्थ नहीं था। ब्राह्मणों द्वारा शूद्र को दास के रूप में रखना कोई सामाजिक अपराध नहीं था ।

सन्दर्भ-
  1. राम गोपाल सिंह, “भारतीय समाज एवं संस्कृति”, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 1997, पृश्ठ-52
  2. पी0सी0खरे, “भारतीय समाज एवं संस्कृति”, मीनाक्षी प्रकाशन मेरठ, 1976, पृश्ठ-39
  3. मनुस्मृति ( 4/186)
  4. मनुस्मृति ( 2/128)-”शमो दमास्वय: शैच: क्षन्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तियं ब्राºंकर्म सवभावजम्।।”
  5. गीता ( 18/4)- “शौर्य तेजो धृति रश्यिं युद्धे चारमलायलम्। छानमीश्वरमावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।”
  6. मनुस्मृति ( 1/90) - “पशूनां रक्षणं रानमिज्याध्ययनमेव च। व्णिंक्वथं कुसीदं च वैश्यस्य कृशिमेव च्।।”
  7. पी0एच0प्रभू “हिन्दू सोशल आर्गनाइजेशन”,राजपाल एण्ड सन्स दिल्ली, 1972, पृश्ठ-284
  8. रिलिजन एण्ड पालिटिक्स, के० ए० निजामी, अलीगढ़, 1961, पृ0 69 1 2 अभिधानचिन्तामणि, हेमचन्द्र, संपा० हरगोविन्ददास, बेचरदास और मुनि जिन विजय, भावनगर, 1914, 3.894 |
  9. शूद्राज इन एन्शिएंट इंडिया, एस० आर० शर्मा, द्वितीय संस्करण, 1980, पृ0 192 |
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  12. मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति, आर०के० चौधरी, वाराणसी, 1976, पृ0 132
  13. रिलिजन एण्ड पालिटिक्स, के० ए० निजामी, अलीगढ़, 1961, पृ0 69 3 द्वयाश्रयकाव्य, हेमचन्द्र (संस्कृत), दो जिल्द बी० एस० एस० पूना, 1915, 9.15.16 |
  14. सोसायटी एण्ड कल्चर इन नार्दन इण्डिया, ब्रजसिंह यादव, इलाहाबाद, पृ० 38 पद्मपुराण, 55.
  15. मनुस्मृति 8.398 | 7 वही, 7.1301
  16. महाभारत, शांति पर्व, 5.139, 19–12 । 3 कुमार पाल चरित संग्रह, संपा० जिन विजयमुनि, पृ० 120 |
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