अमेरिका की विदेश नीति : उद्देश्य एवं विशेषताएं

1776 में अमेरिका का एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ। 1783 के अन्त तक इस नये राज्य को संसार के सभी राज्यों की मान्यता प्राप्त हो गयी, जिसके फलस्वरूप अमेरिका विश्व के अन्य राष्ट्रों के परिवार का एक सदस्य बन गया।1 जॉर्ज वाशिंगटन स्वतंत्र अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति बने। उन्होंने 1797 में अन्य देशों के प्रति अपनी नीति को इस प्रकार प्रकट किया था-”हम उनके साथ व्यापारिक संबंध तो रखें, पर जहाँ तक संभव हो, उनके साथ राजनीतिक संबंध न रखा जाए।” इस नीति को अमेरिका की पृथक्करण (Isolation) की नीति कहा जाता है। इस नीति का प्रयोजन यह था कि अमेरिका यूरोप के आंतरिक झगडों में न पड़कर अपनी उन्नति में तत्पर रहे।

संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति को प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जैफरसन ने कहा था कि “अमेरिका सभी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण एवं शान्तिपूर्ण संबंध बना सकता है, परन्तु किसी राष्ट्र में वैमनस्यता वाली संधियाँ नहीं करेगा। पूर्व में अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने कहा था कि हमारी सीधी एवं सच्ची नीति यह है कि हम विश्व के किसी भी राष्ट्र के साथ स्थायी सन्धि न करें।” इससे ही अमेरिका की पूर्व नीतियों का खुलासा हो जाता है कि अमेरिका केवल अस्थायी एवं अल्पकालिक संधियाँ तो कर सकता है परन्तु दीर्घकाल तक राष्ट्रों के बीच क्या समीकरण हो एवं उनकी गृह एवं विदेश नीतियों में क्या परिवर्तन हो। 

संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति अमेरिकी जनता की आकांक्षाओं, विश्व की समस्याओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं व वहाँ की कार्यकारिणी और कांग्रेस (संसद) के संयुक्त प्रभाव व राष्ट्रपति की नीति पर आधारित है। प्रत्येक राष्ट्र के अपने निहित स्वार्थ होते हैं और उनकी विदेश नीति राष्ट्रीय हितों पर ही आधारित होती है। अमेरिका की विदेश नीति किसी भी अन्य राष्ट्र की विदेश नीति की भांति, वहाँ की भौगोलिक, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक और सांस्कृतिक वातावरण व परिस्थितियों पर आधारित है।

पैफर के अनुसार अमेरिकी विदेश नीति के चार स्थिर बिन्दु हैं- (1) पृथकतावाद, (2) मुनरो सिद्धान्त, (3) समुद्रों पर गमनागमन की स्वतंत्रता, (4) व्यापार के ‘उन्मुक्त द्वार की नीति। परन्तु कूटनीतिक इतिहासकार बेमिस ने अमेरिकी विदेश नीति की नींव के निम्न आधार बताये हैं- (1) सम्पूर्ण स्वतंत्रता, (2) उपनिवेश विरोधी सिद्धान्त, (3) अमेरिकी महाद्वीप में विस्तार, (4) यूरोपीय गुटबन्दी से असंलग्नता, (5) आत्मनिर्णय का सिद्धान्त, (6) अहस्तक्षेप की नीति, (7) अमेरिकी सुरक्षा। किन्तु अमेरिका की विदेश नीति व्यावहारिक (Pragmatic) अधिक रही है तथा सिद्धान्तों का उस पर सीमित प्रभाव ही पड़ा है।

अमेरिकी विदेश नीति की विशेषताएं 

अमेरिकी विदेश नीति की विशेषताएं संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति के निर्माण में कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं- 
  1. प्रारम्भ में अमेरिका की विदेश नीति यूरोप के प्रति अलगाववाद की रही है, जिसके फलस्वरूप अमेरिका अपनी सुरक्षा हेतु आणविक शक्ति को क्षमतापूर्वक विकसित करने में सफल रहा। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) में भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने सहयोगात्मक विदेश नीति अपनाकर मित्र राष्ट्रों को सहायता पहुँचाई। 
  2. अमेरिका, यूरोप की राजनीति संघर्षपूर्ण होने के कारण स्वत: उसने अपने आप यूरोप की राजनीति में शामिल हुआ। अमेरिका वहाँ की साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करता रहा। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों में अमेरिका ने सहभागिता एवं विश्व शांति के रूप में अपने को स्थापित किया।
  3. अमेरिका 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल हुआ और उसने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया था। यदि अमेरिका विजय हासिल नहीं करता तो जापान आज विश्व का शक्तिशाली राष्ट्र होता।
  4. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति का मुख्य आधार साम्यवाद के प्रसार को (Containment of Communism) रोकने की नीति रही है, जिसका तात्पर्य यह था कि स्वतंत्र जगत् (गैर-साम्यवादी देश) में जहाँ कहीं साम्यवादी हस्तक्षेप या आक्रमण तथा अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद के समर्थन से कोई देश किसी दूसरे राष्ट्र के असन्तुष्ट या विद्रोही तत्वों को सहायता देकर शांति भंग करता या शांति को खतरा उत्पन्न हो जाता या राज्यों की स्वतंत्रता, अखण्डता और सुरक्षा खतरे में पड़ जाती तो वहाँ उसका सामना अमेरिका की प्रति शक्ति द्वारा किया जायेगा। साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका ने पृथकतावादी नीति का परित्याग कर दिया और वह स्वतंत्र राष्ट्र के लिए आरक्षक बन गया। 
  5. पाँचवे दशक में अमेरिका ने सामूहिक नीति का अनुसरण करते हुए नाटो, सीटो, सेन्टो जैसे संगठनों का निर्माण करने की नीति पर बल दिया। यह दीर्घकाल तक विदेश नीति का हिस्सा रही। लेकिन शीतयुद्ध के समाप्त होने के बाद सीटो और सेन्टो जैसे संगठनों की उपादेयता कम हो गर्इ है और नाटो संगठन के हथियारों में भी कटौती कर दी गयी। अभी नाटों संगठन को बनाया गया है जो कि सामूहिक सुरक्षा नीति का ही उदाहरण माना जा सकता है।
  6. अमेरिका की विदेश नीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी रही है कि उसने विदेशी सहायता और सैनिक सहायता के द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करता रहा है। अब इसने तकनीकी सहायता को विदेश नीति का अंग बनाया है। सर्वप्रथम मार्शल योजना के अन्तर्गत आर्थिक सहायता देने का कार्यक्रम शुरू किया जिसके माध्यम से सैनिक अड्डे प्राप्त करना या उस क्षेत्र विशेष पर निगरानी रखने का भी उद्देश्य रखा जाता है।
  7. अमेरिका की विदेश नीति की मुख्य विशेषता यह रही है कि वह लोकतंत्र के नाम पर या उसकी स्थापना के नाम पर राष्ट्रों की आंतरिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करता है।50 इसीलिए अमेरिका ने पिछली सदी के उत्तरार्द्ध से मध्य और दक्षिणी अमेरिकी देशों में कानून व्यवस्था और लोकतंत्र की बहाली और अमेरिकी नागरिकों के हितों के नाम कई बार हस्तक्षेप किया हैं। अमेरिका की विदेश नीति में राष्ट्रपति ट्रूमैन, निक्सन, रोनाल्ड रीगन, जार्ज बुश और िक्ंलटन को हमेशा याद किया जायेगा; क्योंकि इन्होंने अपने कार्यकाल में हस्तक्षेप की नीति का संचालन किया और विश्व राजनीति को संघर्षपूर्ण भी बनाया है।
  8. सीमित परमाणु आक्रमण सिद्धान्त की रूपरेखा कार्टर ने प्रस्तुत की जिसके अनुसार “अमेरिका रूस द्वारा विशिष्ट क्षेत्र या देश में प्रत्यारोपित युद्ध को परम्परागत युद्ध के आधार पर नहीं लड़ेगा अपितु विशिष्ट रूसी निशानों पर स्वयं सीमित परमाणु आक्रमण का सहारा लेगा।” यह सिद्धान्त सबसे खतरनाक है क्योंकि सीमित परमाणु आक्रमण कभी भी व्यापक परमाणु युद्ध का रूप धारण कर सकता है।
  9. अमेरिकी विदेश नीति की प्रमुख विशेषता मानवाधिकार का समर्थन करना है, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने मानवाधिकारों को अमेरिकी विदेश नीति का एक अंग बना दिया। इसके द्वारा मानव अधिकारों के संबंध में न केवल विश्व में आवाज बुलन्द की गई, बल्कि इसे द्विपक्षीय संबंधों, आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी सहायता तथा सैनिक सहायता का आधार बना दिया गया। इसकी देखरेख के लिए स्टेट डिपार्टमेंट में एक पृथक ब्यूरो की स्थापना की गई तथा एक पृथक मानवाधिकार अधिकारी नियुक्त किया गया। विदेश मंत्रालय ने मानवाधिकारों के हनन के ब्यौरे प्रकाशित किये तथा अमेरिकी राजदूतों का यह व्यक्तिगत उत्तरदायित्व बना दिया गया कि दूसरे राष्ट्रों में मानवाधिकार संबंधी नीति को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करें। 
  10. 21वीं सदी ‘एशिया की सदी’ होने का जो अनुमान लगाया जा रहा है उसके कारण इस क्षेत्र के प्रति अमेरिका की दिलचस्पी कुछ ज्यादा बढ़ गई है। शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् एशिया प्रशान्त क्षेत्र में दिलचस्पी बढ़ी है जिसका मुख्य कारण यह है कि यूरोपीय साझा बाजार के देश अब अमेरिकी माल और पूंजी के उपयुक्त बाजार नहीं रहे। यूरोप अमेरिका का सहयोगी न होकर प्रतिद्वन्द्वी हो गया है। इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए िक्ंलटन ने नवम्बर, 1993 में सिएटेल में एशिया-प्रशान्त आर्थिक सहयोग के 15 सदस्य देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित किया। क्लिंटन ने कहा कि “एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में हो रहा आर्थिक विस्फोट हमारे लिए चिंता का विषय है। भय यह है कि रोजगार और बाजार दोनों एशिया के देश छीन ले जायेंगे।हम नहीं चाहते कि एशिया में अपनी सैनिक उपस्थिति बनाये रखे, क्षेत्रीय नेतृत्व का बोझ उठाये पर क्षेत्र के आर्थिक विकास से वंचित रहे, न तो यह उचित है और न यह दूरगामी हित में है। 
  11. 9/11 के आंतकवादी घटना के पश्चात् 21 सितम्बर को अमेरिकी कांगे्रस को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा कि आज के बाद जो देश आंतकवादियों को पनाह या समर्थन जारी रखेगा, वह देश अमेरिका का दुश्मन माना जायेगा। वर्तमान में भी अमेरिकी प्रशासन आंतकवाद के विरोध की नीति पर चल रही है।

अमेरिका की विदेश नीति के उद्देश्य 

 यह सच है कि प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिए विदेश नीति का निर्माण करता है जिसमें वह अपने कुछ लक्ष्य भी निर्धारित करता है। इसी प्रकार अमेरिकी विदेश नीति के लक्ष्य बताये गये हैं- 
  1. राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना तथा इसके लिए विशाल सैन्य तंत्र की स्थापना करना एवं परम्परागत तथा आणविक हथियारों में सर्वोच्चता प्राप्त करना। 
  2. साम्यवाद के अवरोध या परिसीमन की नीति अर्थात् पूर्व सोवियत संघ तथा चीन के प्रभाव को रोकना या सीमित करना। 
  3. पाश्चात्य यूरोप के लोकतांत्रिक देशों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना तथा उनकी सुरक्षा के लिए सैनिक गठबंधनों का जाल फैलाना। 
  4. विश्व की अर्थव्यवस्था और विश्व के प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करना। 
  5. लोकतंत्र का समर्थन करना एवं लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर अन्य राष्ट्रों में हस्तक्षेप करने की नीति का अवलम्बन करना। 
  6. विश्व में कहीं भी मानवाधिकारों का उलंघन होने पर उसकी रक्षा करना।
  7. विश्व शांति का समर्थन करना, डलेस ने 1955 में कहा था कि अमेरिकी विदेश नीति का व्यापक लक्ष्य संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों को शांति और स्वतंत्रता को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना। 
  8. शस्त्र नियंत्रण एवं नि:शस्त्रीकरण का समर्थन करना। 
  9. नई विश्व व्यवस्था का निर्माण करना। 
  10. विश्व की एकमात्र महाशक्ति के रूप में अपने वर्चस्व को बनाये रखना। 
  11. आंतकवाद को समाप्त करना।
इस प्रकार से देखा जाय तो द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अमेरिकी विदेश नीति के दो ही आधारभूत उद्देश्य रहे- साम्यवाद के प्रसार को रोकना एवं पूर्व सोवियत संघ (रूस) की शक्ति एवं प्रभाव को कम करना।

सन्दर्भ -  
  1. सी0एम0 कोली, 2000, प्रमुख देशों की विदेश नीतियाँ, पृ0 82
  2. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्र, 2010, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 132 
  3. डॉ0 बी0एल0 फड़िया, 2011, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, साहित्य भवन, आगरा, पृ0 177-178 
  4. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्र, 2010, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 132 
  5. स्व0 डॉ0 मथुरालाल शर्मा, प्रमुख देशों की विदेश नीतियाँ (खण्ड-2), कालेज बुक डिपो, जयपुर, पृ0 17 
  6. डॉ0 महेन्द्र कुमार मिश्र, 2010, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, कल्पना प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 133

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