कौटिल्य का जीवन परिचय एवं कृतियाँ

कौटिल्य का जीवन परिचय

कौटिल्य का जीवन परिचय

‘कौटिल्य’ का जन्म एवं नाम चाणक्य का जन्म 325 ई0पू0 हुआ था। कुछ विद्वानों का मत है कि आचार्य कौटिल्य का जन्म 400 ई0पू0 हुआ था। उनके पिता का नाम संभवतः चणक् अथवा शिवगुप्त था। आचार्य कौटिल्य के जीवन काल के विषय में यही कहा जा सकता है कि वे सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य एवं उनके पूर्वज नन्द के समकालीन थे।  कौटिल्य का जन्म-स्थान भी विवादास्पद विषय रहा है। कुछ विद्वान उनका जन्म-स्थल गान्धार क्षेत्र स्थित तक्षशिला तथा कुछ मगध अर्थात् बिहार मानते हैं। बौद्ध-जैन साहित्य के अनुसार कौटिल्य तक्षशिला के ही निवासी थे। 

तक्षशिला बौद्ध-दर्शन का भी केन्द्र था। कौटिल्य ने अनेक वनस्पतियों एवं धातुओं का उल्लेख किया है, जो गान्धार में थे। उस क्षेत्र के संबंध में चाणक्य के द्वारा लिखने का यही कारण है कि उनका संबंध उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से था तथा उन्होंने वहीं अध्ययन किया था। अनेक दक्षिण के लेखकों ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि कौटिल्य दक्षिण के ब्राह्मण थे और अर्थशास्त्र दक्षिण की ही रचना है। दक्षिण के अधिकांश लेखकों का मत है कि अर्थशास्त्र की कोई पाण्डुलिपि उत्तर भारत में नही मिली है। 

अत: अर्थशास्त्र दक्षिण भारत की ही रचना है किन्तु यह भी स्मरणीय तथ्य है कि चन्द्रगुप्त मौर्य अपने सम्राट पद से अवकाश ग्रहण करने पर, 299 ई.पू. में दक्षिण चले गए थे तथा वहÈ उनकी मृत्यु हो गई। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को राज्य दिलाकर एक राज्यसंहिता देश को दी थी। ‘कौटिल्य’ के सम्मुख सम्पूर्ण भारतवर्ष एक इकाई के रूप में स्थापित हो गया था अत: ‘कौटिल्य’ भी चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ दक्षिण चले गए एवं इस अवकाश काल में अर्थशास्त्र की रचना की गई। इससे स्पष्ट होता है कि कई विद्वान कौटिल्य को उत्तर-पश्चिम का मानते हैं तो कई विद्वान दक्षिण का मानते हैं।

कौटिल्य की शिक्षा 

 बौद्ध, जैन साहित्य तथा अन्य स्रोतों के आधार पर यह अनुमान किया जाता है कि कौटिल्य की जन्मभूमि तक्षशिला थी एवं उन्होंने तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी। पाटलीपुत्र आने से पूर्व ये नीति, वैद्यक, ज्योतिष, रसायन आदि लोकोपयोगी विविध विद्याएं पढ़ चुके थे। ये साहस, धैर्य और दृढ़ता जैसे सद्गुणों की भी समुचित शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर वे तक्षशिला विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हो गये। इसके विपरीत कुछ विद्वान तक्षशिला विश्वविद्यालय के स्थान पर नालन्दा को कौटिल्य का अध्ययन केन्द्र स्वीकार करते हैं किन्तु तक्षशिला विश्वविद्यालय को ही अधिक प्रामाणिक माना जाता है, क्योंकि तक्षशिला तत्कालीन शिक्षा का श्रेष्ठतम केन्द्र था।

कौटिल्य तत्कालीन वर्ण व्यवस्थात्मक परम्पराओं के अनुरूप ब्राह्मण होने के कारण अध्यापन कार्य करते थे। शास्त्र एवं शस्त्र के ज्ञाता एवं शिक्षक के रूप में उन्हें अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त थी। एक आदर्श अध्यापक होने के कारण कौटिल्य राजनीति से पृथक् रहना चाहते थे परन्तु परिस्थितियों के कारण कौटिल्य भारत की सम्पूर्ण राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन गये।

कौटिल्य का राजनीति में प्रवेश एवं मौर्य साम्राज्य की स्थापना एक प्राध्यापक के पद से प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचने वाले आचार्य कौटिल्य का राजनीति में प्रवेश मगध राज्य से हुआ था। ऐतिहासिक शोधों के अनुसार 632-372ई.पू. तक मगध की शासन सत्ता शिशुनाग वंश के अधीन रही, तदन्तर नन्दवंश के उत्तराधिकारी हुए। जिसका प्रथम प्रतापी सम्राट् महापद्मनन्द था। अठासी वर्ष तक राज्योपरान्त उसका निधन हुआ तथा 22 वर्ष तक उसके उत्तराधिकारियों का अस्तित्व बना रहा।

कौटिल्य का मगध में आगमन महापद्मनन्द के समय हुआ था। जहां राजसभा में सम्राट के द्वारा ‘कौटिल्य’ का अपमान हुआ तथा अपमानित किन्तु स्वाभिमानी कौटिल्य ने नन्दवंश का समूल नाश करने हेतु प्रतिज्ञा की। राजसभा में उपस्थित प्रतिनिधियों के समक्ष चाणक्य ने शिखा खोलते हुए घोषणा की, कि जब तक मैं नन्दवंश का समूल नाश नहीं करूँगा तब तक शिखा नहीं बाँधूंगा।

इस घटना से संबंधित अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, जिनके अनुसार नन्दवंश के मंत्री शकटार ने राजा से प्रतिशोध लेने की भावना से चाणक्य को राजभवन में श्राद्ध-भोज में आमंत्रित किया तथा वहां शारीरिक दृष्टि से कुरूप ब्राह्मण होने के कारण राजा द्वारा चाणक्य का अपमान किया गया, जिसके परिणामस्वरूप चाणक्य ने उक्त प्रतिज्ञा की। एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार प्रथम बार धर्म-सभा में महापद्मनन्द द्वारा चाणक्य का अपमान किया गया तथा द्वितीय बार जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो राष्ट्र की सुरक्षा एवं अस्तित्व को बनाये रखने हेतु चाणक्य ने सम्राट्् नन्द से संगठित सैन्य बल के माध्यम से आक्रान्ता का सामना करने की प्रार्थना की, परन्तु सम्राट ने आचार्य कौटिल्य का अपमान कर उन्हें राजमहल से बाहर निकलवा दिया।

प्रतिज्ञा करने से पूर्व की घटना किसी भी प्रकार घटित हुई हो किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि कौटिल्य का राजनीति में प्रवेश नन्द द्वारा अपमानित होने के पश्चात् ही हुआ था। विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस ने नन्दवंश के विनाश का वर्णन करते हुए लिखा है- कौटिल्य: कुटिलमति: स एष येन क्रोधाग्नो प्रसभ्रमदाहि नन्दवंश:।। अर्थात् यह वह कूटनीतिज्ञ कौटिल्य है जो अपनी क्रोधाग्नि में नन्दवंश को बलपूर्वक जला चुका है।

इससे स्पष्ट होता है कि कौटिल्य दृढ़-प्रतिज्ञ व्यक्ति थे, जिन्होंने नन्दवंश को समाप्त कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की तथा चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर आसीन किया। राज्याधिकार प्राप्त करने के पश्चात विजित राज्य को दृढ़ता, विस्तार एवं शान्ति प्रदान करने के लिए कौटिल्य ने अनेक कदम उठाये। म्लेच्छ राजा पर्वतक को उसने विषकन्या के प्रयोग द्वारा मरवा दिया, जिससे राजा पर्वतक मगध के आधे राज्य की माँग न कर सके क्योंकि नन्द के विरुद्ध सहयोग देने के परिणामस्वरूप पर्वतक को कौटिल्य के द्वारा ऐसा वचन दिया गया था। अपनी कूटनीति के द्वारा चाणक्य ने नन्दवंश के भक्त मंत्री राक्षस को चन्द्रगुप्त का महामंत्री बनाया क्योंकि कौटिल्य को पूर्ण विश्वास था कि राक्षस की बुद्धि, शक्ति, योग्यता, चातुर्य से ही मौर्य साम्राज्य का विस्तार हो सकता है। राक्षस को महामंत्री बनाने के पश्चात कौटिल्य ने सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस से चन्द्रगुप्त की सेना का युद्ध करवाया तथा सेल्यूकस को परास्त करके अफगानिस्तान, बलुचिस्तान तथा आगे के क्षेत्र उससे जीतकर मौर्य साम्राज्य का विस्तार किया। तत्पश्चात ही कौटिल्य ने अपनी शिखा बाँधकर मगध की सक्रिय राजनीति से संन्यास ग्रहण किया।

कौटिल्य का जीवन-यापन

चन्द्रगुप्त मौर्य कौटिल्य की सहायता से ही चक्रवतÊ सम्राट बना था तथा कौटिल्य न केवल मौर्य साम्राज्य का महामंत्री था वरन् वह साम्राज्य का सर्वेसर्वा था, लेकिन सर्वशक्तिमान होने के पश्चात भी एक आदर्श ब्राह्मण की तरह वह त्याग के आदर्श को ग्रहण कर वीतरागी एवं तपस्वी ही बना रहा। उसके जीवन में शान शौकत न थी। विद्वानों के अनुसार कौटिल्य अत्यन्त परिश्रमी, त्यागी, साधु प्रकृति का सादा जीवन व्यतीत करने वाला एवं आजीवन ब्रह्मचारी था। कौटिल्य चक्रवतÊ सम्राट के राजप्रसाद के वैभव-विलास एवं पद त्यागकर, राजधानी से दूर गंगा के तट पर पर्णकुटी में जीवन के शेष दिन चिन्तन और मनन में व्यतीत करने लगा।

विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में चक्रवती सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री कौटिल्य के भवन-वैभव का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत चित्रण अत्यन्त हृदयस्पशी, कारूणिक एवं यथार्थसूचक है। उसके शब्दों में- उपलशक लमेतद् भेदक गामयानों वटुभिरुष तानसुं बहिषां स्तोभ एष: शरणमपि समिदिभि: शुष्य माणभिराभि विनमितपटलान्तं दृश्यते जीर्णकुड़यम्

अर्थात् ‘कुटिया के एक ओर गोबर के उपलों को तोड़ने के लिए पत्थर का टुकड़ा पड़ा हैं दूसरी ओर विद्यार्थियों द्वारा लाई गई लकड़ियों का गÎर पड़ा हुआ है। चारों ओर छप्पर पर सुखाई जाने वाली लकड़ियों के बोझ से घर झुका जा रहा है तथा इसकी दीवार भी जीर्ण अवस्था में है।

इस वृतान्त से स्पष्ट होता है कि चाणक्य का रहन-सहन अत्यन्त ही साधारण था। अपने जीवन में चाणक्य ने यह सिद्ध कर दिखाया कि ऐश्वर्यपूर्ण साधनों के माध्यम से ही सफलता प्राप्त नहÈ होती वरन् दृढ़-प्रतिज्ञ, साहसी, विवेकी बनने से लक्ष्य-पूर्ति सम्भव है। चाणक्य का रहन-सहन देखकर चीनी यात्री फाह्यान ने कहा था कि वह देश धन्य क्यों नहÈ होगा, जिसका प्रधानमंत्री इतना साधारण जीवन व्यतीत करता है।

कौटिल्य का व्यक्तित्व

प्राचीन भारतीय राजनीति में कौटिल्य का व्यक्तित्व अनेक दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण रहा है। एक साधारण गृहस्थ ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर उसने अपने युग की महान् तथा शक्तिशाली राजशक्ति का सामना किया। अपनी कूटनीति, चातुर्य, दृढ़ता, स्वाभिमान एवं साहस के बल पर नन्दवंश का नाश करके देश को एक योग्य शासन प्रदान किया। जनहित की दृष्टि से कौटिल्य ने सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रों हेतु उपयोगी नियमों का प्रतिपादन किया। उन नियमों के आधार पर मौर्य साम्राज्य में शान्ति, सुख और समृद्धि की ज्योति प्रज्ज्वलित की गई।

कौटिल्य ने अपने वैयक्तिक सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु कोई कार्य नहीं किया। अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप साम्राज्य की स्थापना करने के पश्चात् भी उसने त्याग तथा शांति के मार्ग का आलम्बन किया। कौटिल्य ने भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्णाश्रम के जो आदर्श स्थापित किये हैं उन्हें स्वयं के जीवन में चरितार्थ करके दिखाया है। कौटिल्य ने जीवन-पर्यन्त अपनी कामनाओं को नियंत्रित करके, राष्ट्रहित हेतु कार्य करके एक आदर्श स्थापित किया है। एक यथार्थवादी एवं व्यावहारिक विचारक होने के कारण कौटिल्य इस सिद्धान्त में विश्वास करते थे कि कुटिल के साथ सज्जनता का व्यवहार नहÈ करना चाहिये वरन् कुटिल के साथ कुटिलता पूर्ण व्यवहार ही उचित होता है।

भारतीय विचारकों में कौटिल्य प्रथम विचारक है जिसने एक ऐसी शासन व्यवस्था तथा राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जिनके आधार पर मौर्य साम्राज्य का उद्विकास होकर इतिहास में एक आदर्श रूप में प्रतिस्थापित हुआ। उन्होंने तत्कालीन ज्वलन्त समस्याओं पर सूक्ष्म रूप से अध्ययन कर, अपने चिन्तन-मनन से एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत किया जिससे आन्तरिक अत्याचारी शासक तथा विदेशी शत्रुओं का संहार कर दिया गया।

विशाखदत्त के मुद्राराक्षस नाटक में चाणक्य को नि:स्वार्थ लोकहित की भावनायुक्त नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जबकि प्राचीन कथा-परम्परा चाणक्य को महत्त्वाकांक्षी महानीतिज्ञ एवं क्रोधी ब्राह्मण के रूप में स्वीकार करता है। मुद्राराक्षस के अनुसार नायक चाणक्य जो कार्य करता है वह अपने स्वार्थवश नहÈ वरन् चन्द्रगुप्त एवं राष्ट्रहित हेतु करता है। मुद्राराक्षस का चाणक्य अपने दूरदशÊ प्रखर बुद्धि के बल पर अपने शत्रु को अपना मित्र तथा अपने आदर्शों का पालक बनाकर शान्त करता है। इसी कारण कौटिल्य ने राक्षस को चन्द्रगुप्त मौर्य के पक्ष में करके, उसे प्रमुख अमात्य पद प्रदान किया।

प्राचीन कथा साहित्य और कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य के व्यक्तित्व की यह भी एक विशेषता देखी जाती है, कि उसने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की सिद्धि में साधनों की नैतिकता पर किसी प्रकार से ध्यान नहीं दिया है। उदाहरणस्वरूप सिकन्दर पर विजय प्राप्त करने हेतु, पूर्व “ाड़यन्त्र के अनुसार पहले सिकन्दर की सेना में फूट डालकर, उसकी सेना में मगध पर आक्रमण के संबंध में ही विद्रोह पैदा कर दिया, तत्पश्चात पर्वतराज को सिकन्दर के विरुद्ध कर उसे मगध-सम्राट बनाने का असत्य आश्वासन देकर पर्वतराज की हत्या करवा दी। इसके विपरीत मुद्राराक्षस में चाणक्य का वर्णन ऐसे व्यक्ति के रूप में किया गया है जो संग्राम में शत्रु पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा अपने निःस्वार्थ व्यक्तित्व की शक्ति से शत्रु के हृदय परिवर्तन हेतु सतत उद्यत रहते हैं।

आचार्य कौटिल्य के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि कौटिल्य क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति थे। अपने क्रोध के कारण ही उन्होंने नन्दवंश को समाप्त कर दिया था। इतिहास में एक घटना का उल्लेख मिलता है कि एक दिन चाणक्य के पैर में कुश के कांटे चुभ गये। चाणक्य दो-तीन बार उसे काट भी चुके थे किन्तु इस बार क्रोधवश वे सारी कुश को हाथों से ही उखाड़ने लगे। वे कुश उखाड़ते जाते एवं उसकी जड़ों में मÎा डालते जाते, जिससे उस स्थान पर पुन: कुश उत्पé न हो। उनके इस क्रोधपूर्ण प्रतिशोधात्मक कार्य को देखकर ही मगध के आमात्य शकटार उन्हें नन्द के राजदरबार में ले गये थे। जहाँ क्रोधवश कौटिल्य नन्दवंश के नाश की प्रतिज्ञा करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि क्रोध चाणक्य के व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण अंग था।

इतिहास के कई विद्वानों ने नन्दों के नाश का कारण चाणक्य के क्रोध को ही बताया है, किन्तु मुद्राराक्षस ने नन्दों के उन्मूलन का कारण उनका राज्य के उचित कर्तव्यों से विमुख होना बताया है, न कि श्राद्ध भोजन के समय चाणक्य का अपमान नन्द वंश के नाश का कारण था। जिसके बारे में कामन्दक ने लिखा है- वंशों विशालवंश्यान भृषेणामिव भूयसां। अप्रतिग्राहकाणां या बभूव भुवि विश्रुत:।।

अर्थात् चाणक्य अप्रतिग्राही (दान न लेने वाले) ब्राह्मण थे तब वे किसी दरबार में श्राद्ध भोजन हेतु जाये, यह एक असंगत कल्पना है। जिसके मस्तिष्क में विस्तृत साम्राज्य की सामग्री विद्यमान हो, वह लोगों के घर श्राद्ध खाये, यह हो ही नहीं सकता।

इस प्रकार इस खण्डन के बाद भी अर्थशास्त्र में इसी बात का उल्लेख मिलता है कि चाणक्य ने क्रोध के कारण नन्द राजा के अधीन हुई भूमि का उद्धार कर दिया था। परिस्थिति जैसी भी रही हो किन्तु यह स्पष्टत: कहा जा सकता है कि चाणक्य क्रोधी स्वभाव के किन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ-व्यक्ति थे तथा उन्होंने ही नन्दवंश का नाश करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आचार्य कौटिल्य अत्यन्त स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। चन्द्रगुप्त के शासन काल में एक बार चन्द्रगुप्त ने राजकुमारी हेलन से विवाह के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय समारोह के आयोजन की घोषणा की किन्तु चाणक्य ने समारोह का उचित अवसर न होने के कारण समारोह आयोजित नहÈ करने की आज्ञा दे दी। अपनी अवज्ञा के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को पदच्युत करने की धमकी दे दी। इससे स्वाभिमानी चाणक्य दावानल (जंगल की आग) की तरह क्रोधित हो उठे एवं अधिकार-चिन्ह राजदरबार में फेंक कर चले गये। उनका कहना था कि ‘‘पदच्युत होने का भय उसे होता है, जिसे अधिकार की चाह होती है।’’

चाणक्य दैव (भाग्य) में विश्वास नहÈ करता। चन्द्रगुप्त के यह कहे जाने पर कि नन्द वंश का विनाश दैव ने किया तो उसके द्वारा कहा जाता है- दैवम् विद्वान्स: प्रमाणयन्ति। (मूर्ख भाग्य पर विश्वास करते हैं) कौटिल्य एक आदर्श कर्मयोगी और अनासक्त योगी थे। उनका चरित्र किसी भी काल में, किसी भी राष्ट्र के राजतंत्र सूत्रधार या प्रजातंत्र सूत्रधार के लिए एक महान् आदर्श है। उनमें आत्मविश्वास की मात्रा सर्वाधिक थी। उनकी सफलता का रहस्य उनके अपने पुरुषार्थ में, अटूट और अदम्य विश्वास था। चाणक्य को अपने पौरुष पर इतना आत्मविश्वास था कि दैव का नाम सुनते ही क्रोधित हो उठते थे। उन्होंने जो कुछ किया अपने पौरुष के बल पर किया, न कि भाग्य की सहायता से।

आदर्श राष्ट्र, आदर्श राजचरित्र तथा सुसंगठित अखण्ड भारतीय साम्राज्य से सम्बन्धित नीतियों की स्थापना करना चाणक्य का ध्येय था। यह महापुरुष अपनी इन तीन नीतियों को व्यावहारिक रूप देने में मात्र चौबीस वर्ष में पूर्ण सफल हुआ था। जबकि उस युग में आज के वैज्ञानिक अध्ययन एवं उपागमों की सुविधाएं उपलब्ध नही थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य में आदर्श राजचरित्र का निर्माण करके दिखाया तथा आदर्श राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से भारत में अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए आपस में लड़ते-झगड़ते छोटे-छोटे राज्यों को एक विशाल शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में संगठित किया। उन्होंने शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के नियम-कानून को अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया।

कौटिल्य अपनी समझदारी, दूरदर्शिता, शासनकला, मन्त्रविद्या, कूटनीति आदि के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें अपनी बुद्धि पर इतना दृढ़ विश्वास था और वह इतनी सावधानी एवं सतर्कता से कार्य करते थे कि बिना तलवार उठाये वह शत्रु पक्ष के षड़यन्त्र्ाों को विफल कर देते थे। नि:सन्देह वह राज्य के उद्देश्यों की सिद्धि के लिए कपट, दांवपेच, षड़यंत्र आदि नीति का समर्थन करते हैं और इस पहलू को देखते हुए हम उन्हें मैकियावेली के समकक्ष या उससे भी अधिक आगे देखते हैं। जहाँ प्लेटो डियोनिसियस द्वितीय को एक आदर्श शासक बनाने में असफल रहा, वहाँ कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके शासन को अपने विचारों के अनुकूल ढालने में सफल रहा।

आचार्य कौटिल्य गुप्तचर व्यवस्था के अद्वितीय विशेषज्ञ रहे हैं। उनके कार्यक्रम में संलग्न परम विश्वस्त गुप्तचर भी परस्पर एक-दूसरे के संबंध में अनभिज्ञ एवं अपरिचित रहते हैं। यहाँ तक कि स्वयं सम्राट् चन्द्रगुप्त भी कौटिल्य के गुप्त कृत्यों तथा गुप्तचरों के संबंध में कुछ भी जानकारी नहÈ रखते। किस गुप्तचर को किस कार्य के निमित्त नियुक्त किया गया है, इसका एकमात्र ज्ञान तथा स्मरण चाणक्य को ही रहता था। गुप्तचर संबंधी कार्यों का संचालन जितनी सूक्ष्मता के साथ चाणक्य द्वारा किया जाता था, उतनी सूक्ष्मता के साथ आज के युग में भी संचालन संभव नही हो पा रहा है।

कौटिल्य की मृत्यु

प्राचीन भारतीय इतिहास कौटिल्य की निश्चित जन्मतिथि एवं मृत्युतिथि के पहलू पर मौन है। मुद्राराक्षस नाटक जिसका नायक चाणक्य है, इस पर कोई प्रकाश नही डालता। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार चाणक्य, चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार के शासनकाल में भी महामात्य था एवं उसने सोलह राजधानियाँ जीतकर पूर्व से पश्चिम तक का क्षेत्र बिन्दुसार के अधीन कर दिया था, परन्तु जैन ग्रन्थों के अनुसार चाणक्य की मृत्यु चन्द्रगुप्त के समय में ही हो गई थी। चाणक्य की मृत्यु के संबंध में निम्नलिखित बातें भी प्रचलित है : नन्द का ‘सुबन्धु’ नामक अमात्य था। वह चाणक्य से बदला लेना चाहता था। एक दिन सुबन्धु ने चन्द्रगुप्त से कहा- मैं आपके हित की एक बात बताता हूँ। चाणक्य ने अपनी माता को मरवा डाला है। इसके बाद चाणक्य, चन्द्रगुप्त से मिलने गये तो चन्द्रगुप्त ने उनका आदर नही किया। चाणक्य, चन्द्रगुप्त की नाराजगी का कारण समझ गया। उसने अपनी मृत्यु निकट जानकर अपनी सम्पत्ति अपनी संतान को बाँट दी और जंगल में अपने आश्रम में जाकर मरण अनशन ग्रहण करके शरीर त्याग दिया।

अत: कौटिल्य के सम्बंध में प्राप्त ग्रन्थों के आधार पर स्पष्टत: कहा जा सकता है कि कौटिल्य तीक्ष्ण बुद्धि के धनी, वेदों एवं मंत्रों के ज्ञाता, धन एवं शक्ति से घृणा करने वाले, तपस्वी, सूक्ष्मदशी, स्वाभिमानी, मनोवैज्ञानिक, असाधारण प्रतिभावान, दूरदशी आदि विशेषतायुक्त व्यक्तित्व के स्वामी थे।

कौटिल्य की कृतियाँ

चणक के पुत्र विष्णुुगुप्त ने भारतीय शासकों को राजनीति की शिक्षा प्रदान करने एवं योग्य शासक का निर्माण करने हेतु निम्नांकित ग्रन्थों की रचना की थी-
  1. अर्थशास्त्र
  2. लघु चाणक्य
  3. वृद्ध चाणक्य
  4. चाणक्य नीतिशास्त्र
  5. चाणक्य सूत्र
चाणक्य की विभिन्न कृतियों में अर्थशास्त्र एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। चाणक्य नीति एवं राजनीति से संबंधित समस्त पुस्तकें अर्थशास्त्र पर ही आधारित हैं।

संदर्भ-
  1. विशाख दत्त, मुद्राराक्षस, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी, 1961, प्रस्तावना, पृ0 9.
  2. रघुनाथ सिंह, कौटिलीय अर्थशास्त्रम्, कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 1977, पृ0 4-5
  3. देवकान्ता शर्मा, कौटिल्य के प्रशासनिक विचार, प्रिन्टवैल पब्लिशर्स, जयपुर, 1998, पृ0 22.
  4. रामावतार विद्याभास्कर, चाणक्य सूत्र संग्रह , आर.बी.एस. प्रकाशन, हरिद्वार, 1976, पृ0 243.
  5. वाचस्पति गैरोला, कौटिलीय अर्थशास्त्रम्, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1977, पृ0 944
  6. विशाखदत्त, मुद्राराक्षस, पृ0 15
  7. देवकान्ता शर्मा, कौटिल्य के प्रशासनिक विचार, पृ0 28.
  8. ज्वाला प्रसाद मिश्र, कामन्दकीय नीतिसार, खेमराज श्रीकृष्णदास पब्लिकेशन, बंबई, संवत् 2009, पृ0 5.
  9. देवकान्ता शर्मा, कौटिल्य के प्रशासनिक विचार, पृ0 32..
  10. विशाखदत्त, मुद्राराक्षस, पृ0 160.

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