सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म सन् 1896 ई. में बसन्त पंचमी के दिन बंगाल के महिषादल नामक स्थान पर हुआ। निराला की जन्म तिथि के विषय में विद्वान में पर्याप्त मतभेद भी पाये जाते है। निराला के पिता पं. राम सहाय, गढ़ा कोला, जिला उन्नाव के रहने वाले थे आर्थिक परिस्थिति के कारण कलकत्ता में जाकर पुलिस के सिपाही बन गए। 

सन 1920 ईस्वी में राज्य की नौकरी छोड़कर पूर्ण संकल्प से निराला ने साहित्यिक जीवन में प्रवेश किया और अन्त तक उसी को ही अपना जीवन मानकर चले। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मृत्यु 15 अक्तूबर, 1961 को हुई ।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ 

कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने गद्य व पद्य लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उनके छायावादी काव्य संग्रह में ‘अनामिका’ (1922 ई.), ‘परिमल’ (1930 ई.), ‘गीतिका’ (1936 ई.), ‘तुलसीदास’ (1938 ई.) आदि रचनाएँ सम्मिलित है। अन्य काव्य संग्रहों में ‘कुकुरमुत्ता’ (1942 ई.), ‘अणिमा’ (1943 ई.), ‘बेला’ (1946 ई.), ‘नये पत्ते’ (1946 ई.), ‘अर्चना’ (1950 ई.), ‘आराधना’ (1950 ई.), ‘गीतगुंज’ (1954 ई), ‘अपरा’ (1969 ई.), ‘सांध्य काकली’ (1969 ई.) आदि प्रमुख है। इसके अलावा उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, जीवनी, रेखाचित्र व आलोचनात्मकपरक रचनाएँ भी लिखी है जिनका विवरण इस प्रकार है-
  1. अनामिका (1922 ई.)
  2. परिमल (1930 ई.)
  3. गीतिका (1936 ई.)
  4. तुलसीदास (1938 ई.) 
  5. ‘कुकुरमुत्ता (1942 ई.)
  6. अणिमा (1943 ई.)
  7. बेला (1946 ई.)
  8. नये पत्ते (1946 ई.)
  9. अर्चना (1950 ई.)
  10. आराधना (1950 ई.)
  11. गीतगुंज (1954 ई)
  12. अपरा (1969 ई.)
  13. सांध्य काकली (1969 ई.) 

अनामिका

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का प्रथम काव्य संग्रह ‘अनामिका’ सन् 1922 ई. में प्रकाशित हुआ था। जिसमें कुल सात कविताएँ थीं, जो बाद में अन्य संकलनों में सम्मिलित हो गयी। अनामिका की ‘प्रेयसी’, ‘प्रेम के प्रति’, ‘रेखा’, ‘प्याला’, ‘मरण दृष्य’, ‘अपराजिता’, ‘प्राप्ति’, ‘नारायण मिले हंस’ आदि रचनायें रहस्यात्मक कवितायें हैं। इसके अतिरिक्त ‘सेवा प्रारम्भ’, ‘तोड़ती पत्थर’ सामाजिक कविताएँ हैं। 

इस काव्य संग्रह में एक आख्यान काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ भी संग्रहित है। ‘सरोज स्मृति’ शोक गीत की परम्परा में एक नई कड़ी है। ‘जूही की कली’, ‘खुला आसमान’, ‘वन बेला’, ‘नरगिस’, ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’, ‘दिल्ली’, ‘प्रिया से चुम्बन’, ‘आवेदन’, ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति’ आदि कविताएँ इस संग्रह की मूल्यवान उपलब्धियाँ है।

परिमल

‘परिमल’ (1930) में 1916 ई. से 1929 ई. तक की रचित कविताएँ संग्रहीत है। यह संग्रह तीन खण्डों में विभाजित है। ‘परिमल’ के प्रथम खण्ड में प्रकृति-चित्रण, जागरण-गीत, सम्बोधन गीत, दार्शनिक कविताओं आदि का अभूतपूर्व समावेश है। जैसे-’तुम और मैं’, ‘खेवा’, ‘षेश’, ‘पतनोन्मुख’, ‘वृित्त’, ‘प्रार्थना’, ‘अध्यात्म फल’, ‘मौन’, ‘प्रभाती’, ‘यमुना के प्रति’ आदि कविताएँ। ‘तुम और मैं’ कविता में ‘स्व’ एवं ‘पर’ का अनन्य सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए अध्यात्म, पुराण, धर्म, दर्शन, इतिहास और जगत एवं माया आदि को एक सूत्र में बाँधा गया है। ‘मौन’ कविता में कवि ने अपने को अन्तर्जगत के सच्चे एवं असीम स्नेह को व्यक्त करने में असमर्थ पाते हैं। ‘प्रभाती’ कविता रात की कलियाँ को नष्ट करने वाले प्रभात के आगमन की सूचना देती है। ‘यमुना के प्रति’ कविता में कवि ने अतीत के गौरव का उल्लेख किया है। इस कविता में राधा-कृश्ण के माध्यम से नारी-पुरुष के संयोग-वियोग कल्पना द्वारा प्रकृति वर्णन के साथ ही श्रृंगार, माधुर्य और जीवन रहस्य की चर्चा करते हैं। 

द्वितीय खण्ड में, कवि की भावना का निर्द्वन्द्व प्रसार मिलता है। इस खण्ड की रचनाएँ रहस्यवादी अधिक हैं। अधिकांश गीत जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं। इसमें ‘विधवा’, ‘सन्ध्या-सुंदरी’, ‘बादल राग’ (छ: खण्डों में )। ‘विधवा’ कविता में कवि भारत की विधवा स्त्री के दर्द भरे जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं। ‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता में कवि ‘सन्ध्या और रात्रि की नीरसता को अलग-अलग दृश्यों में व्यक्त करते हैं। ‘बादल राग’ कविता छ: भागों में विभाजित है। पहली कविता में बादल को किसान वर्ग एवं गरीब वर्ग में बरसने का निवेदन करते हैं। दूसरी कविता में तीव्र बरसने एवं उसका क्रांतिकारी रूप की झलक मिलती है। तीसरे खण्ड में अर्जुन के स्वर्ग और द्रौपदी को “यामा रूप में व्यक्त किया गया है। ‘बादल राग’ शीर्षक चौथी कविता में बादल को शिशु के समान मचलने वाला चंचल और क्रांतिकारी माना गया है। पाँचवीं कविता में दार्शनिक रूपक है। इसमें बादल को परिवर्तन चक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

इस कविता में निर्गुण में सगुण रूप धारा करने और आकर्षक बन जाने की कथा है। छठी कविता में बादल के विप्लव रूप का विस्तार है। बादल अपनी इस रूप में नवजीवन का संचार करती है। 

तृतीय खण्ड की कविताएँ अधिकतर ‘अनामिका’ (प्रथम, 1922) की ही हैं। इसके अन्तर्गत ‘जुही की कली’, ‘जागृति में सुप्ति थी’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘जागरण’, ‘महाराज शिवाजी का पत्र‘ तथा ‘पंचवटी-प्रसंग’ आदि कविताएँ सम्मिलित है। ‘जुही की कली’ कवि की महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें ‘जूही की कली’ मानवीय सौन्दर्य के रूप में चित्रित है। ‘जागृति में सुप्त थी’ कविता ‘जुही की कली’ की भावना का अगला विकास है। कवि इस कविता द्वारा यह कहना चाहता है कि मनुष्य को किसी वस्तु परिस्थिति में आत्मलीन होते हुए भी अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना चाहिए। ‘जागो फिर एक बार’ इस नाम से कवि ने दो कविताएँ लिखी। एक श्रृंगारपरक, जिसमें प्राकृतिक उपादानों से प्रेरित होकर जागरण गीत लिखे हैं। इसमें आकाश के तारे और तरुण किरण भी जागरण का गीत गाते हैं और दूसरी वीर भावना से ओत-प्रोत, इसके अन्र्तगत कवि ने भारतवासियों को अतीत की याद कराकर प्रोत्साहित करते हैं। ‘पंचवटी प्रसंग’ एक गीति नाट्य है। 

इसमें पाँच खण्ड है। इसकी कथा पंचवटी में राम, सीता, लक्ष्मण को आकर्षित करने के प्रयास, राम की अनुमति से लक्ष्मण द्वारा सुपर्णनखा का नाक काटना और अंत में उसका विकराल रूप आदि पौराणिक कथा के माध्यम से निराला जी ने ज्ञान, भक्ति, कर्म का उपदेष राम के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। ‘जागरण’ कविता में दर्षन की भावना है। इसमें कबीर आदि संतों के दर्षन में चैतन्य बोध झलकता है। ‘परिमल’ में कवि की प्रतिभा के विभिन्न पक्षों, “ौली के विभिन्न रूपों, भाशा के अनेक प्रयोगों के दर्षन हो जाते हैं।

गीतिका

‘गीतिका’ निराला का दूसरा गीत संग्रह है। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ है। इसमें 101 गेय पदों की रचना संग्रहित है। ‘गीतिका’ के अधिकतर गीतों में प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है। ‘गीतिका’ में ‘भारति जय विजय करे’, ‘कनक शस्य कमलधरे’, ‘बन्दू पद सुन्दर तव’ आदि राष्ट्रीय कविताएँ है। ‘भारति जय विजय करे’ कविता में कवि भारत की भौगोलिक वन्दना करते हुए स्वतंत्रता की माँग करते हैं। 

इसमें भारत की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक गरिमा की ओर संकेत करते हैं। इसके अलावा ‘मौन रही हार’, ‘प्रिय यामिनी जागो’, ‘कौन तम के पार’, ‘धन गर्जन से भर दो वन’, ‘सखी री डाल बसन बासन्ती लेगी’, ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’, ‘गुंजित जीवन झरना’, ‘जागा दिषा ज्ञान’ प्रमुख गीत है। ‘मौन रही हार’ कविता में कवि ने नायिका के मौन अभिसार का चित्रण किया है। मौन अभिसार करते हुए नायिका को अलंकरणों की ध्वनि सुनायी दे रही है। तब वह सोचती है कि मेरे प्रिय को भी मेरे आने का ज्ञान हो रहा होगा। अत: वह अपने समस्त लज्जा एवं असमंजस को त्यागकर प्रेमी के पास चली जा रही है। 

यहाँ कवि सच्चे प्रेम के वैषिश्ट्य को दर्शाते हैं। ‘प्रिय यामिनी जागो’ कविता में कवि ऐसी नायिका का चित्रण करते हैं, जो प्रकृति के साथ सोई हुई है। ‘कौन तम के पार’ कविता में अनुभूति के स्तर पर दर्शन की व्याख्या है। इसमें कवि प्रत्येक वस्तु जड़ या चेतन में सूक्ष्म से स्थूल सभी में समरूपता का दर्शन देते हैं। 

उनका कहना है कि संसार में कुछ मंगल-अमंगल नहीं है। ‘घन गर्जन भर दो वन’ कविता में कवि बादलों के प्रति सम्भाव रखते हुए उसका आàान करते हैं। वह चाहते हैं कि बादल इतना तेज गरजे की पूरी पृथ्वी कम्पित हो जाए और बरस कर सारी पृथ्वी वन एवं खेत सभी को हरा भरा कर दे अर्थात सर्वत्र नवीन जीवन का संचार हो। ‘सखी री डाल बसन वासन्ती लेगी’ यह छोटी कविता है। इसमें कवि ने सूखे पेड़ और पार्वती की तपस्या में समरूपता स्थापित करने का प्रयास किया है। वसन्त के आगमन से जिस प्रकार सूखे पेड़ हरे-भरे एवं फल-फूलों से भरे जाते हैं, उसी प्रकार की स्थिति पार्वती की तपस्या से शिव के प्रसन्न होने पर भी होती है। इस कविता में प्रकृति एवं मानवीय वृित्त की एकरूपता लक्षित होती है। 

‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’ कविता में कवि माँ सरस्वती की वन्दना करते हुए प्रार्थना करते हैं कि माँ हमें आष्र्ाीवाद दीजिए कि हमारे अन्दर का अंधकार दूर हो जाये एवं मन की कलुशता समाप्त हो और हम स्वतंत्र हो। इस कविता में एक ओर स्वतंत्रता की कामना की गई है और दूसरी ओर सम्पूर्ण जीवन में नवीनता की इच्छा है। ‘गुंजित जीवन झरना’ में कवि झरना के माध्यम से मनुष्य को प्रेरणा लेने के लिए कहते हैं, जिस प्रकार झरना कठोर पत्थर की षिराओं से होते हुए, वह पृथ्वी की ओर आता है, लेकिन वह कभी अपने कश्टों के बारे में किसी से नहीं कहता, उसी प्रकार तुम भी अपने कश्टों को सहते हुए अपना कर्म करते रहो। ‘जागा दिषा ज्ञान’ कविता में कवि भारत के जागरण की बात करते हैं। इसे वह प्रकृति के माध्यम से रूपायित करते हैं।

तुलसीदास

‘तुलसीदास’ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का सर्वश्रेष्ठ कथाकाव्य तथा हिन्दी का अत्यन्त उच्च कोटि का खण्ड काव्य है। प्रस्तुत काव्य तुलसीदास की प्राचीन लोक-विख्यात कथा पर आधारित है, जिसको कवि ने अपनी कल्पना के योग से नवीन रूप प्रदान किया है। प्रारम्भ में कवि ने आलंकारिक रूप में भारतीय संस्कृति के सांध्यकाल का चित्रण किया है। इस काव्य में तुलसी को एक सांस्कृतिक दायित्व के कवि रूप में स्थापित किया गया और रत्नावली के प्रसंग को मुख्य आधार बनाया गया। तुलसीदास की वस्तुयोजना नाटकीय गरिमा से पूर्ण है, इसकी कथावस्तु कई मोड़ों को पार करती हुई अन्तिम परिणति तक पहुँचती है। 

वस्तुत: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इस रचना में छायावादी कला का विकसित और प्रौढ़ रूप दृष्टिगत होता है।

कुकुरमुत्ता

‘कुकुरमुत्ता’ (1942) एक कथा काव्य है। इसमें गुलाब और कुकुरमुत्ता का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण कर एक सांकेतिक कथा लिखी गयी है। ‘कुकुरमुत्ता’ की कथा का आधार कवि की सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि तथा प्रगतिशील विचारधारा है। कवि समाज के उस ढाँचे पर अत्यधिक तीखे व्यंग्य करता है, जहाँ पूंजीपतियों का आधिपत्य है तथा दरिद्रों का शोषण एवं उपेक्षा होती है। ‘गुलाब’ उच्च वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता’ निम्न वर्ग का प्रतीक है। वास्तव में, कवि ने इसमें समाज की समस्याओं को सुलझाने एवं उसके लिए विकास-पथ खोजने की चेष्टा की है।

अणिमा

‘अणिमा’ (1943) कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित पद्य संग्रह है। यह कविता संग्रह ‘संधिकालीन कही जा सकती है, क्योंकि इसमें एक ओर छायावादयुगीन रहस्यमयता, अतीत का गौरवगान और प्रकृति का विराट एवं रहस्यपूर्ण वर्णन है। दूसरी ओर इसमें भक्ति, निवेदन, ग्राम आदि का व्यंग्य है। इसके विचार मुख्यत: सामाजिक हैं। द्वितीय महायुद्ध के प्रभावस्वरूप भारत में फैली निराशा और पराजय की भावना तथा सन् 1942 के अकाल से हुई देष की स्थिति ने कवि को प्रभावित किया है। ‘अणिमा’ में यथार्थवादी प्राकृतिक दृश्य भी प्राप्त हैं। 

इसमें दार्षनिकता से पूर्ण कविताएँ भी हैं। ‘दलित जन पर’ कविता भक्तिपरक गीत है।

बेला

‘बेला’ काव्य संग्रह (1946) में स्वतंत्र गीतों के अतिरिक्त अधिकतर गजल शैली की रचनायें हैं, जिन्हें निराला जी ने उर्दू के अनुकरण पर लिखा है। इस संग्रह में आध्यात्मिक, श्रृंगारिक, प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और देष प्रेम आदि से सम्बन्धित कविताएँ है। फिर भी प्रकृति सम्बन्धी गीतों की प्रधानता है।

नये पत्ते

‘नये पत्ते’ (1946) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी रचनाओं का संग्रह है। इसमें व्यंग्य कविताओं की प्रधानता है। ‘गर्म पकौड़ी’, प्रेम संगीत’ कविताएँ में सामाजिक व्यंग्य है। इस संग्रह में ‘वर्षा’, ‘खजोहरा’, ‘स्फुटिक षिला’, ‘कैलाश में शरत’ आदि कविताएँ प्रकृति चित्रण प्रधान है।

‘अर्चना’, ‘आराधना’, गीतगुंज’ नामक काव्य संग्रह कवि की परवर्ती गीतों से आवृत है। इस काव्य संग्रहों में अनुभव और अभिव्यक्ति के सभी स्तर उपस्थित है। इसमें कवि ने सामान्य जन-जीवन एवं सूक्ष्म और सुकुमार संवेदना को उभारा है।

अर्चना

‘अर्चना’ (1950) भक्तिपरक गीतों का संकलन है। गीतिका में जहाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने प्रेम तथा सौन्दर्य के गीत गाये, वहाँ ‘अर्चना’ में उन्होंने परमात्मा के चरणों में श्रद्धापूर्वक निवेदन किया। ‘दुरित दूर करो नाथ’ इस प्रार्थनापरक गीत में कवि मंगलमय विभु से जीवन से कष्टों एवं संकटों से मुक्ति की याचना एवं प्रार्थना करता है।

आराधना

‘आराधना’ (1950) प्रार्थनापरक गीति-संग्रह है। किन्तु स्थान-स्थान पर जागरण और राष्ट्रीय भावना से युक्त गीत भी मिल जाते हैं। ‘आराधना’ तथा ‘अर्चना’ एक ही शैली की रचनाएँ हैं। यह काव्य संग्रह ‘अर्चना’ का ही अग्रिम रूप है। ‘आराधना’ में प्रथम गीत ‘सरस्वती-वन्दना’ का है, जिसमें कवि पंत माँ सरस्वती से वरदान स्वरूप समस्त विश्व के लिए नवीनता की इच्छा प्रकट करते हैं।

गीतगुंज

‘गीतगुंज’ (1954) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के जीवनकाल का अन्तिम गीत संग्रह है। विषय की दृष्टि से ‘गीतगुंज’ में भक्ति, श्रृंगार, प्रकृति एवं व्यंग्य विषयक गीत है। कवि के मन का उल्लास और वेदना ‘गीतगुंज’ के गीतों में समाविष्ट हैं। ‘बुझी न दिल की लगी’ में कवि की निराशा तथा ‘फिर उपवन में खिली चमेली’ में मन के उल्लास का अंकन है। ‘षाम तुम्हारा गरज उठे सौ-सौ बादल’, ‘जिधर देखिए “याम विराजे’ इत्यादि रचनाओं में रहस्यवादी विचारधारा परिलक्षित होती है।

अपरा

‘अनामिका’, ‘गीतिका’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘तुलसीदास’ तथा ‘अणिमा’ के प्रौढ़तम अंषों को चुनकर ‘अपरा’ काव्य संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक में कवि के सभी भावों तथा विचारों, अभिव्यंजना के सभी स्वरूपों, भाषा एवं छन्दों के सभी प्रकार के उदाहरणों को एकत्र करने का सुन्दर प्रयास किया गया है।

सांध्य काकली

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का यह संग्रह उनकी मृत्यु के बाद 1969 ई. प्रकाशित किया गया है। यह कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का अंतिम काव्य संग्रह है। इसमें ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विश बुझा हुआ है’ कविता सर्वाधिक विशाद की व्यंजना प्रकट करते हैं। कवि अपने बुढ़ापे के बारे में सोचते हैं। इस सांध्य बेला में भी असंतोष की छटपटाहट नहीं है, बल्कि संतोष की भ्रांति है। यह कवि की अंतिम कविता है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का काव्य संकलन प्रत्येक युग का दर्पण है, जिसमें छायावाद का रूप स्पष्ट दिखाई देता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने केवल कविताओं और गीतों की रचना नहीं की, बल्कि उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी लेखनी चलाई है। वे सर्वप्रथम कहानी लेखन की ओर आकृष्ट हुए।

उनका तीन कहानी संग्रह महत्त्वपूर्ण है। जिसमें कुल बीस कहानियाँ संग्रहित है। इनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘लिली’ 1922 में प्रकाशित हुई। जिसमें आठ कहानियाँ संग्रहित है। ‘पद्मा और लिली’, ‘ष्यामा’, ‘ज्योर्तिमयी’ और ‘कमला’ प्रसिद्ध कहानियाँ है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का दूसरी कहानी संग्रह ‘चतुरी चमार’ है। इसमें कुल आठ कहानियाँ संकलित है। इसमें तीन कहानियाँ ‘चतुरी चमार’, ‘देवी’, ‘स्वामी सारदानन्द जी महाराज और मैं’ कहानी निराला जी के जीवन से सम्बन्धित है। इसके अलावा ‘सखी’, ‘सफलता’, ‘राजा साहब को ठेगा दिखाया’, ‘भक्त और भगवान’ प्रमुख कहानियाँ है। निराला जी की तीसरी कहानी संग्रह ‘सुकुल की बीवी’ है। इस संग्रह में निराला जी की पहली कहानी ‘क्या देखे और’, ‘श्रीमती गजानन्द शास्त्री जी’, ‘प्रेमिका परिचय’, ‘कला की रूप रेखा’ और ‘सुकुल की बीवी’ आदि कहानी संग्रहित है। इस संग्रह में सुकुल की बीवी कहानी सबसे प्रिय है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने छ: उपन्यासों की रचना की है। जिसमें चार पूर्ण है और दो अपूर्ण है। जिसमें ‘अप्सरा’ (1931), ‘अलका’ (1933), 3. निरूपमा (1936), 4. प्रभावती (1936) पूर्ण उपन्यास है। ‘चोटी की पकड़’ (1943), ‘काले कारनामे’ (1950) अपूर्ण उपन्यास है। ‘काले कारनामे’ निराला जी का अंतिम उपन्यास है। निराला जी के उपन्यासों में देष सेवा, समाज सुधार, स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न, प्रेम, रोमांस एवं नारी शक्ति का परिचय मिलता है।

‘कुल्लीभाट’ निराला जी का संस्मरणात्मक रेखाचित्र है। इसमें निराला के स्वयं के जीवन की झलक दिखती है।

‘बिल्लेसुर बकरिहा’ निराला जी का हास्य-व्यंग्य से सम्बन्धित है। इसमें सामाजिक रूढ़ियों, धार्मिक ढोंग एवं आर्थिक दीनता का यथार्थ चित्रण है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के निबंधों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक व धार्मिक सभी तरह के निबन्धों की रचना की। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के सभी निबंध ‘प्रतिभा’, ‘प्रबन्ध पद्य’, ‘चाबुक चयन संग्रह’ एवं भावुक आदि संग्रहों में उपलब्ध है। इनका सर्वश्रेष्ठ निबंध ‘पंत जी और पल्लव’ है।

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