व्यंग्य का अर्थ, परिभाषा तथा उसका स्वरुप

व्यंग्य का अर्थ

व्यंग्य से तात्पर्य उस अनुभव या भाव से हो जो मन को प्रसन्नचित करता है। किसी प्रकार की कोई घटना, काण्य प्रसंग गघ की विधाओं का रूप जैसे (कहानी, नाटक, एकांकी) जिसमें हास्य रस का पुट हो व्यंग्य कहलाता है। ऐसी रचनाएं व्यंग्य कहलाती है। इसके अंतर्गत चुटकुलो को सर्वसम्मति से स्थान दिया गया है।

व्यंग्य का अर्थ

व्यंग्य की उत्पत्ति ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग व ‘ण्यत’ प्रत्यय लगाने से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ताना कसना। दूसरे शब्दों में, ‘व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति अथवा रचना है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समाज की विसंगतियों और विडबानाओं अथवा उसके किसी पहलू को रोचक तथा हास्यास्पद ढंग से प्रस्तुत किया जाता हैं।

वर्तमान समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं को देखकर कभी-कभी मन व्यथित हो जाता है, चाहे वह अव्यवस्था सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक हो मन इन अव्यवस्थाओं का प्रतिकार करना चाहता है परन्तु किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से हम इनका प्रतिकार नहीं कर पाते और ये भावनाएँ मन के किन्हीं कोने में संचित होने लगती है। व्यंग्यकार इन्ही संचित भावनाओं को व्यंग्य के माध्यम से समाज में लाने का प्रयास करता है।

व्यंग्य की परिभाषा

विभिन्न साहित्यकारों ने समय-समय पर व्यंग्य को अपने शब्दों में परिभाषित किया है, जो निम्न हैं:- 

1. डॉ. ज्ञान प्रकाश ने अपने शोध-ग्रंथ में खड़ी बोली की हास्य-व्यंग्य कविता का सांस्कृतिक विवेचन किया है। सांस्कृतिक परिवेश के अंतर्गत राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व साहित्यिक परिवेश आते है जिनपर पर्याप्त रचना की गयी है पर उनमें हास्य-व्यंग्य को खोजकर पाठकों के समक्ष लाने का डॉ. ज्ञान प्रकाश ने सफल प्रयास किया है। 

2. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “व्यंग्य वह है, जहाँ अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बनाना हो जाता है।”

3. डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी के अनुसार, “आलम्बन के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा या भर्त्सना की भावना लेकर बढने वाला हास्य व्यंग्य कहलाता है।”

3. हरिशंकर परसाई ने व्यक्ति व समाज में उपस्थित विसंगति को लोगों के सामने लाने में व्यंग्य को सहायक माना है। उनके अनुसार, “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है।”

4. अमृतराय के अनुसार, “व्यंग्य पाठक के क्षोभ या क्रोध को जगाकर प्रकारान्तर से उसे अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।” विसंगति को देखकर उत्पन्न आक्रोश को नरेन्द्र कोहली ने व्यंग्य कहा है। उनके अनुसार, “कुछ अनुचित अन्यायपूर्ण अथवा गलत होते देखकर जो आक्रोश जगता है, वह यदि काम में परिणत हो सकता है तो अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरो की पीडा पर हँसने लगता है, तो वह विकट व्यंग्यहोता है। पाठक के मन को चुभलाता-सहलता नहीं कोडे़ लगाता है। अत: सार्थक और सशक्त व्यंग्य कहलाता है।”

5. डॉ. शंकर पुणतांबेकर के अनुसार, “व्यंग्य युग की विसंगतियों की वैदग्ध्यपूर्ण तीखी अभिव्यक्ति है। युग की विसंगतियाँ हमारे चारो ओर के यथार्थ जगत से, वैदग्ध्य इन विसंगतियों को वहन करने वाले शैली सौष्ठव से तथा तीखापन विसंगती एंव वैदग्ध्य के चेतना पर पड़ने वाले मिले-जुले प्रभाव से संबंधित है।”

6. डॉ. शेरजंग गर्ग ने समाज व व्यक्ति की दुर्बलताओं को व्यंग्य कहा है। उनके अनुसार, “व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति या रचना है जिसमें व्यक्ति तथा समाज की कमजोरियों, दुर्बलताओ, करनी एवं कथनी के अंतरों की समीक्षा निंदा भाषा को टेढ़ी भंगिमा देकर अथवा कभी-कभी पूर्णत: सपाट शब्दों में प्रहार करते हुए की जाती है। वह पूर्णत: अगंभीर होते हुए गंभीर हो सकती है, मखौल लगती हुई बौद्धिक हो सकती है।”

7. शरद जोशी के अनुसार, “व्यंग्य की पहचान है कि ऐसा साहित्य जो कष्ट सहती सामान्य जिन्दगी के करीब है या उससे जुड़ा है। यदि ऐसा न हो तो कहीं गड़बड़ है।”

8. डॉ. प्रभाकर माचवे के अनुसार, “मेरे लिए व्यंग्य कोई पोज या अनाज या लटका या बौद्धिक व्यायाम नहीं, पर एक आवश्यक अस्त्र है। सफाई करने के लिए किसी को तो हाथ गन्दे करने ही होगें, किसी-न-किसी की तो बुराई अपने सर लेनी ही हा़गे ी।”

9. रवीन्द्रनाथ त्यागी ने महावीर अग्रवाल के साथ हुये साक्षात्कार में व्यंग्य को निम्न कथन से परिभाषित किया है, “जीवन में जो विसंगतियाँ हैं, परेशानियाँ हैं, हर्ष और उल्लास है उसको रेखांकित करने में नाटक, कविता, कहानी की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है। व्यंग्य कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष प्रहार करता है, इसलिए विशेषकर विसंगति और विद्रूप को वह अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदारी से निभाता है। व्यंग्यकार की लेखनी का सशक्त और बेखौफ होना भी इसकी शर्त है।”

10. श्रीलाल शुक्ल के अनुसार, “मैने व्यंग्य को आधुनिक जीवन और आधुनिक लेखन के एक अभिन्न अस्त्र और एक अनिवार्य शर्त के रूप में पाया है।” 

11. डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार, “आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर, उससे हास्य उत्पन्न करना ही व्यंग्य है।”

12. डॉ. श्रीराम ठाकुर ‘दादा’ के अनुसार, “व्यंग्य निश्चित दृष्टि से पूर्ण जीवन की विसंगतियों, सामाजिक कुरीतियों और व्यवस्थाजन्य विद्रूपताओं पर प्रहार करने वाला शस्त्र है, जिसके द्वारा सहृदय के मन में आक्रोश, क्षोभ, पीड़ा अथवा सहानुभूति पैदा होती है।”

13. डॉ. हरिशंकर दुबे ने व्यंग्य को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है- “’व्यंग्य’ समाज की वस्तुगत परिस्थितियों में निहित अंतविर्रोधों की अभिव्यक्ति है। ये अंतविर्रोध सामाजिक परिस्थितियों से अनुस्युत विविध घटनाओं और विचारों से लेकर मानव के स्वभाव, क्रिया-व्यापार और आचरण में सर्वत्र उपस्थित है।” 

14. डॉ, शैलजा माहेश्वरी ने व्यंग्य के संबंध में निम्न कथन कहे है, “अंतर्बाह्य जगत के नास्ति मूल्यों पर वैदग्ध्यपूर्ण तीखा प्रहार व्यंग्य है।”

15. एन्सायक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका के अनुसार, “व्यंग्य अपने साहित्यिक रूप में, हास्यास्पद और बेढ़गी स्थितियों से उत्पन्न विनोद और अरूचि को सही-सही अभिव्यक्ति देने वाला साहित्य रूप है, बशर्ते कि उसमें हास्य स्पष्ट रूप से दृश्यमान हो और वह कथन साहित्यकता से परिपूर्ण हो।”

हिन्दी शब्दकोश की तरह ही ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्श्नरी में भी व्यंग्य की परिभाषा दी गयी है उनके अनुसार, “व्यंग्य वह रचना है, जिसमें प्रचलित दोषों अथवा मूर्खताओं का कभी-कभी कुछ अतिरंजना के साथ मजाक उड़ाया जाता है।” 

16. स्विफट के अनुसार, “व्यंग्य एक ऐसा दर्पण है जिसमें झाँकने में अपनी छाया के अलावा और सभी का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है।”

व्यंग्य के तत्व

तत्व वे बिंदु है जिस पर किसी विधा का मूल्यांकन किया जाता हैं। इसमें उन परिस्थितियों का वर्णन किया जाता है जो इस विधा के जन्म के कारक होते है। साहित्य समीक्षकों द्वारा अन्य विधाओं की तरह ही व्यंग्य के तत्वों की भी चर्चा की है। उनके अनुसार व्यंग्य के निम्न तत्व है:-

1. विसंगतियों की उपस्थिति - विसंगति के बगैर व्यंग्य की कल्पना करना संभव नहीं है। विसंगति ही व्यंग्य की आत्मा है। इस प्रकार विसंगति व्यंग्य का एक अनिवार्य तत्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा हमारा समाज विसंगतियों से भरा पड़ा है। ये विसंगतियाँ पुरातन काल में भी थी और वर्तमान में भी। ये विसंगतियाँ व्यक्ति व समाज को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती है। 

व्यंग्यकार सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व आर्थिक विसंगतियों को लक्ष्य कर अपना व्यंग्य-कर्म करता है तथा पढ़ने वाला पाठक भी इन विसंगतियों के बारे में सोचने को विवश हो जाता है। ये विसंगतियाँ ही व्यंग्यकार को उसके लक्षित लक्ष्य तक पँहुचाता है।

इन विसंगतियों से समाज को मुक्त करना अंसभव है किन्तु इन्हें कुछ हद तक कमजोर अथवा कम किया जा सकता है वह भी व्यंग्य के प्रहार द्वारा। व्यंग्यकार विचारों का मंथन कर समाज की विषमताओं को व्यंग्य रचना द्वारा समाज के सम्मुख रखता है।

2. प्रगतिशील व सकारात्मक सोच - साहित्यकार की सकारात्मक सोच उसे एक अच्छे व्यंग्य लेखन की ओर अग्रसित करता है। समाज से विसंगतियों का पलायन उसका उद्देश्य होता है तथा इसी को केद्रित कर वह अपनी रचना लिखता है। वह उन सभी बुराईयों का पुरजोर विरोध करता है जो समाज की प्रगति में बाधक हैं। जो व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य रचना द्वारा साम्प्रदायिकता, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीति, गरीबी, बेरोजगारी व रूढ़िवादिता का विरोध करे वहीं व्यंग्य सफल व्यंग्य माना जायेगा अन्यथा वह व्यंग्य मात्र हास्य-विनोद बनकर रह जायेगा। 

व्यंग्यकार निहीर शोषितों व गरीबों की करूणा व पीड़ा को महससू करता है तथा सदू खोरो,ं महाजनों तथा शोषक वर्ग पर व्यंग्य करता है।

3. नैतिक मूल्यों की रक्षा - मानव जीवन के विकास के लिए नैतिक मूल्यों की आवश्यकता होती है। नैतिक मूल्यों के अभाव में मनुष्य पतन की ओर उन्मुख हो जाता है। ईमानदारी, सहिष्णुता, समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना ऐसे ही कुछ नैतिक गुण या मूल्य है।

व्यंग्यकार अपने व्यंग्य रचना द्वारा भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, अशिक्षा पर व्यंग्य कर नैतिक मूल्यों को पुन: स्थापित करने का प्रयास करता है। व्यंग्यकार शिक्षा, राजनीति या धार्मिक सभी क्षेत्र में आई अनावश्यक विसंगति को समाज के समक्ष लाने का प्रयास करता है। नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए व्यंग्यकार अनैतिक पक्षों को समाज व पाठकों के समक्ष रखता है। 

इस प्रकार नैतिक मूल्यों के बगैर व्यंग्य शाश्वत रूप से स्थापित होने में असफल रहेगा।

4. गहन चिंतन - गहन चिंतन ही व्यंग्य को जन्म देता है। किसी विषय की गंभीरता साहित्यकार को व्यंग्य लिखने के उद्देश्य को पूरा करने में सहायक होता है वहीं उसका चिंतन उसको उसके लक्ष्य तक पँहुचाता है। जहाँ से वह चारों तरफ विसंगति ही विसंगति से घिरा हुआ पाता है। गंभीर व गहन चिंतन द्वारा व्यंग्यकार श्रेष्ठ व्यंग्य की रचना करता है जो समाज में परिवर्तन का नेतृत्व करने में सहायक होता है।

5. पात्रों का चयन - एक सफल व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य रचना में पात्रों का चयन बडी़ सावधानी से करता है। क्योंकि उसके व्यंग्य लिखने का उददेश्य उसके पात्रों के आस-पास ही केद्रिंत होता है। व्यंग्यकार विसगंतियों के सापेक्ष अपने पात्रों का चयन करता है। व्यंग्यकार कभी-कभी फैंटेसी का सहारा लेता है तो कभी पौराणिक पात्रों के माध्यम से समाज की विसंगति को पाठक के सामने रखता है।

6. व्यक्ति व समाज का पतन - पतनोन्मुख व्यक्ति व समाज व्यंग्यकार के लिए पीड़ा का विषय है। वह इस पीड़ा को महसुस करता है तथा उसे अपनी रचना द्वारा उस पतन को समाज के समक्ष लाता है।

7. भाषा-शैली - व्यंग्य की भाषा उसकी प्रहारक क्षमता को दोगुना करता है। व्यंग्य विसंगतियों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता अपितु वह कठोर व तीक्ष्ण भाषा का प्रयोग करता है। व्यंग्यकार अपनी भाषा-शैली द्वारा पाठकों के हृदय में अमिट छाप छोड़ता है।

8. आलोचना - व्यंग्य का अस्तित्व आलोचना पर आधारित होता है। आलोचना जितना तीक्ष्ण व कटाक्ष होगा व्यंग्य उतना ही प्रभावशाली होगा। व्यंग्य में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियों की आलोचना की जाती है। आलोचना सौद्देश्य होनी चाहिए।

9. बौद्धिकता - व्यंग्य में बौद्धिकता तत्व अनिर्वाय है। व्यक्ति अपनी बुद्धि-तत्व के द्वारा विसंगतियों, विद्रूपताओं व विषमताओं को पहचान कर उस पर अपनी व्यंग्य दृष्टि रखता है। अच्छे व्यंग्य लेखन के लिए तर्क व ज्ञान आवश्यक है जो व्यंग्य को उसके उद्देश्य तक पँहुचाने में मदद करता है।

इस प्रकार ये सभी तत्व व्यंग्य सृजन के लिए आवश्यक है। ये सभी तत्व ही व्यंग्य लिखने के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। इनके अभाव में व्यंग्य रचनाएँ सामान्य रचना बन कर रह जाती है।

संदर्भ-
  1. सिंह, सत्यव्रत , काव्य प्रकाश, पृष्ठ क्रमांक-13
  2. आनंदवर्धन, आचार्य, ध्वन्यालोक (प्रथम अध्याय), पृष्ठ क्रमांक-102
  3. रत्नाकर, श्री जगन्नाथदास, बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ क्रमांक-146
  4. परसाई, हरिशंकर, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाए, पृष्ठ क्रमांक- अपप (लेखक की बात)
  5. दुबे, अश्विनी कुमार, शहर बंद है, पृष्ठ क्रमांक-7 (ये रचनाएँ)
  6. शर्मा, ज्ञान प्रकाश, हिन्दी की हास्य-व्यंग्यमयी कविता का सांस्कृतिक विवेचन, पृष्ठ क्रमांक-20
  7. जैन, वन्दना, बालेन्दु शेखर तिवारी का व्यंग्यकर्म- चिंतन और सृजन, पृष्ठ क्रमांक-5
  8. परसाई, हरिशंकर, परसाई रचनावली-6, पृष्ठ क्रमांक-242
  9. अमृतराय, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, पृष्ठ क्रमांक- 5
  10. कोहली, नरेन्द्र, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, पृष्ठ क्रमांक-7
  11. पुणतांबेकर, शंकर, पाँच व्यंग्यकार, भूमिका
  12. जोशी, शरद, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, भूमिका
  13. अमृत संदेश- 8 फरवरी 1987 ई., पृष्ठ क्रमांक-5.
  14. रावत, आशा, कवि और व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी, पृष्ठ क्रमांक-285
  15. ठाकुर ‘दादा’, श्रीराम, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, पृष्ठ क्रमांक-5 (लेखक की ओर से)

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