समायोजन का अर्थ
समायोजन की परिभाषा
बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वैल्ड के अनुसार, ‘’समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखता है।’’समायोजन की आवश्यकता
- मानसिक कष्ट और व्याधियों से अपने को दूर रखने के लिए।
- अपने मन और मस्तिष्क को व्यर्थ के चिंतन सें दूर रखने के लिए।
- ध्यान की एकाग्रता बनाये रखने के लिए ।
- विभिन्न गतिविधियों और कार्यकलापों में सक्रिय और उत्साहपूर्वक भाग लेने के लिए।
- पलायन करना, चुनौती देना जैसी कुप्रवृत्तियों को न पनपने देने के लिए।
- जीवन में शौक पैदा करने के लिए।
- अपने काम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए।
- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम उपलब्धि प्राप्त करने के लिए।
समायोजन का विकास
मन के अनुसार, ‘‘निरंतर रहने वाली चिंता शारीरिक और मानसिक रूप से कष्टदायी होती है, यहाँ पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी प्रकार की असफलता विद्यार्थियों में निराशा उत्पन्न करती है निराशा के द्वारा मानसिक संघर्ष उत्पन्न होता है और मानसिक संघर्ष की निरंतरता तनाव को उत्पन्न कर देती है।’’ अत: समायोजन अषान्ति उत्पन्न हो सकती है।- किसी प्रकार की समस्या का सामना करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- निराशा और असफलताओं का सामना करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- विशेष शिक्षा एवं दीक्षा का प्रबंध होना चाहिए।
- मार्गदर्शन की व्यवस्था हो ताकि वे वैयक्तिक, शैक्षिक, व्यावसायिक चिंताओं का सही समाधान कर सकें।
- वातावरण में आपसी तनाव को प्रेम तथा सौहार्द के साथ दूर करना चाहिए।
- जीवन का उद्देश्य और वे भविष्य में क्या बनेंगे, बता देना चाहिए ताकि उनके मन से असुरक्षा की भावना निकल सके।
- माता-पिता को बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका ज्ञान समय-समय पर अध्यापक संरक्षण गोष्ठी के माध्यम से समझना चाहिए ताकि बालकों के प्रति स्वयं के कर्तव्य को वे अधिक अच्छे तरीके से समझ सकें।
समायोजन प्रक्रिया
‘‘तनाव तथा आवश्यकताओं के साथ व्यवहार करने के व्यक्तिगत प्रयासों का परिणाम समायोजन है तथा समायोजन एक प्रक्रिया है, जिसमें कोई व्यक्ति तनाव अंदरूनी विरोधों के साथ व्यवहार करने का प्रयास करता है तथा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है, इस प्रक्रिया में वह अपने वातावरण के साथ सहयोगी संबंध बनाने का प्रयत्न भी करता है।’’समायोजन की विशेषताएं
समायोजन करने वाले व्यक्ति में विभिन्न विशेषताएं होती हैं। इन्हीं विशेषताओं का अध्ययन इस प्रकार से किया गया है :- ये पूर्णतया संतुलित रहते हैं। इनके स्पष्ट उद्देश्य होते हैं।
- ये अपनी समस्या का समाधान स्वयं कर लेते हैं।
- इन्हें हमेशा परिस्थिति का ज्ञान होता हैं।
- ये अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट एवं सुखी रहने वाले होते हैं।
- ऐसे व्यक्ति समाज के प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रखने वाले होते हैं।
- ये संवेगात्मक रूप से स्थिर होते है।
- ये व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करते हैं।
- ऐसे व्यक्ति अपनी गल्तियों का दोषारोपण दूसरों पर नहीं करते।
समायोजन के प्रकार
1. आत्म समायोजन
2. सामाजिक समायोजन
3. लैंगिक समायोजन
4. व्यावसायिक समायोजन
दूसरे वर्गीकरण के अनुसार समायोजन चार प्रकार के होते हैं। इन्हें निम्न प्रकार से बतलाया गया है :
5. सुसमायोजन
6. कुसमायोजन
7. रचनात्मक समायोजन
8. प्रतिस्थापित समायोजन
समायोजन की विधियाँ या तरीके
- प्रत्यक्ष विधि (Direct Method), एवं
- अप्रत्यक्ष विधि (Indirect Method)।
1. प्रत्यक्ष तरीके
2. अप्रत्यक्ष तरीके
- दमन (Suppression) : दमन एक ऐसी रक्षायुक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने कष्टपूर्ण अनुभवों, विचारों आदि का अचेतन रूप में दमन करता है। इस रक्षायुक्ति द्वारा अनगिनत इच्छाएँ, घटनाएँ व दुखद अनुभव स्वत: ही व्यक्ति के चेतना क्षेत्र से निकलकर अचेतन क्षेत्र में चले जाते हैं, इसके कारण व्यक्ति की संघर्षपूण स्थिति का समाधान हो जाता है।
- प्रतिगमन (Regression) : इससे व्यक्ति अपने अतीतकालीन सफल प्रयासों की ओर लौटता है दबावयुक्त परिस्थितियों का सामना करने में असमर्थ होने पर व्यक्ति कम परिपक्व व्यवहार प्रदर्शित करता है, जैसे-प्रौढ़ व्यक्ति कभी-कभी हाथ पैर पटकने लगता है।
- शोधन/उदात्तीकरण (Sublimation) : इसमें व्यक्ति अपने क्षेत्र में अपने संवेग को अन्य किसी कार्य से सम्बद्ध कर लेता है। इस युक्ति के माध्यम से अवांछित इच्छाओं को स्थान्तरित कर दिया जाता है, जैसे- व्यक्ति की काम प्रवृित्त कला या संगीत की ओर मुड़ जाती है।
- प्रक्षेपण (Projection) : इसमें व्यक्ति अपनी असफलता के लिए दूसरों को दोषी ठहराकर अपने मानसिक तनाव को कम करता है, जैसे-परीक्षा में असफल होने पर परीक्षाथ्र्ाी कहते हैं कि प्रश्नपत्र कठिन था।
- तादात्म्य स्थापित करना (Identification) : तादात्मीकरण की प्रवृित्त्ा लगभग सभी व्यक्तियों में पायी जाती है। व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए किसी बड़े व्यक्ति या नेता या अध्यापक की भूमिका का निर्वाह करता है और उनके साथ एक हो जाने की चेष्टा करता है।
- औचित्य स्थापना (Rationalisation) : इसे युक्तिकरण के नाम से जाना जाता है। इस मानसिक प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी असफलता के लिए वास्तविक कारणों के स्थान पर झूठे कारण बताता है। यह युक्ति ‘‘लोमड़ी को अंगूर न मिलने पर खट्टा’’ बताना कहावत पर आधारित है।
- क्षतिपूर्ति (Compensation) : इसमें व्यक्ति एक क्षेत्र में अपनी किसी कमी की क्षतिपूर्ति किसी दूसरे क्षेत्र में करता है उदाहरण के लिए, पढ़ाई में कमजोर छात्र खेलकूद या कला के क्षेत्र में परिश्रम कर अपनी कमी को पूरा करता है।
- विस्थापन (Displacement) : इस रक्षायुक्ति में किसी विचार, वस्तु या व्यक्ति से संबंधित संवेग किसी अन्य विचार वस्तु या व्यक्ति पर स्थानांतरित हो जाता है।
- पलायन (Withdrawal) : जब व्यक्ति किसी समस्या या परिस्थिति से अपने को दूर कर लेता है या फिर इस प्रकार किसी समस्या का समाधान करने के स्थान पर उस समस्या से ही दूर भाग जाना पलायन कहलाता है।
- दिवा-स्वप्न (Day Dreaming) : यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति वर्तमान के सुखों को न भाोगकर काल्पनिक संसार में विचरण करने लगता है। दिवा स्वप्नों के माध्यम से व्यक्ति अपनी असफलता को सफलता के रूप में देखने की कल्पना करता है। इससे उसे कुछ संतोष एवं सुख की प्राप्ति होती है और उसके मानसिक तनाव में कुछ कमी आती है।
सुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण
समायोजन की परिभाषाओं के आधार पर तथा व्यवहारों के निरीक्षण से सुसमायोजित व्यक्ति में अग्रलिखित लक्षण दिखाई पड़ते हैं-- सुसमायोजित व्यक्ति पर्यावरण और परिस्थितियों का ज्ञान और नियंत्रण रखने वाला तथा उन्हीं के अनुकूल आचरण करने वाला होता है।
- वह स्वयं तथा पर्यावरण के बीच संतुलन बनाये रखता है।
- वह अपनी आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार पर्यावरण एवं वस्तुओं का लाभ उठाता है।
- अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए समाज के अन्य लोगों को बाधा नहीं पहुँचाता है।
- साधारण परिस्थितियों में भी सन्तुष्ट और सुखी रहकर अपनी कार्य-कुशलता को बनाये रखता है।
- सामाजिकता की भावना से युक्त, आदर्श चरित्रा वाला, संवेगात्मक रूप से संतुलित और उत्तरदायित्व स्वीकार करने वाला होता है।
- वह स्पष्ट उद्देश्य वाला तथा साहसपूर्ण व ठीक ढंग से कठिनाइयों तथा समस्याओं का सामना करने वाला होता है।
कुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण
कुसमायोजित व्यक्ति को निम्नलिखित लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है-- कुसमायोजित व्यक्ति अपने को पर्यावरण के अनुकूल बनाने में असमर्थ होता है।
- वह अनिश्चित मन वाला, अस्थिर बुद्धि वाला, संवेगात्मक रूप से असंतुलित, अनिर्दिष्ट उद्देश्य वाला, घृणा, द्वेष और बदले की भावना वाला होता है।
- वह असामाजिक, स्वार्थी और सर्वथा दुःखी होता है।
- वह साधारण-सी बाधा एवं समस्या उत्पन्न होने पर मानसिक संतुलन खो देने वाला होता है।
- स्नायु रोगों से पीडि़त, मानसिक द्वन्द्व एवं कुण्ठा से ग्रस्त तथा तनावयुक्त होता है।
समायोजन के स्तर
यह कभी भी सम्भव नही है कि व्यक्ति की सभी इच्छाओं या आवश्यकताओं की पूर्ति हो, क्योंकि अनेक ऐसी इच्छाएँ होती है जो पूर्णतः समाज-विरोधी होती है या व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर होती है या कम अंश में ही पूर्ण होती है। समायोजन को जानते समय यह भी जानना आवश्यक है कि समायोजन का क्या-क्या रूप हो सकता है। कभी-कभी व्यक्ति अपनी इच्छाओं एवं वातावरण की अनेक परिस्थितियों के साथ समायोजन करने में असफल रहता है या गलत ढंग से समायोजन कर लेता है। यहाँ समायोजन के अन्य रूपों के सम्बन्ध में भी जानना आवश्यक है। नीचे हम उन्हीं का क्रमबद्ध वर्णन कर रहे हैं -
1. समायोजनात्मक प्रतिक्रियाएँ
इस श्रेणी में व्यक्ति की वे प्रतिक्रियाएँ आती है जो परिस्थितियों के साथ मिलकर व्यक्त होती है। जब व्यक्ति एक कार्य करना चाहता है और बाधक परिस्थितियाँ उस कार्य में बाधा पहुँचाती है तो सबसे सामान्य तरीका यही है कि वह और मेहनत एवं बुद्विमानी से कार्य करे। जैसे एक विद्यार्थी परीक्षा में फैल होने की कुण्ठा से बचाव करने के लिए अधिक मेहनत करता है और सामान्यतः ऐसा करने पर उसे सफलता भी मिलती है। इस प्रकार वह अपनी प्रेरणाओं में सन्तुलन रखता है और कुण्ठा का शिकार नहीं होता। इस प्रकार समायोजनात्मक प्रतिक्रियाओं में मुख्यतः व्यक्ति की रचनात्मक प्रतिक्रियाएँ आती है जिसमें व्यक्ति अपने वातावरण या सामाजिक नियमों या मान्यताओं को मानता है; एक रूढि़वादी की तरह नहीं बल्कि एक सच्चे दृष्टिकोण के कारण; और अपनी प्रेरणाओं के साथ उनका सन्तुलन करने का प्रयास करता है।
2. अशान्त समायोजनात्मक या अर्द्ध-सन्तुलित प्रतिक्रियाएँ
जब व्यक्ति प्रेरणाओं को सिद्ध करने के लिए परिस्थितियों के साथ सन्तुलन करता है तो केवल यही सम्भव नही है कि उसकी प्रेरणा पूर्ण रूप से सन्तुष्ट ही हो जाय। दूसरे शब्दों में, सभी प्रेरणाएं पूर्ण रूप से समायोजनात्मक सिद्ध नहीं होती। कुछ में आंशिक समायोजन ही होता है; उदाहरण स्वरूप, एक विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के लिए मेहनत के स्थान पर यह दिवास्वप्न देखता है कि पेपर आउट हो जायेगा, कापी जांचने वाले निरीक्षक का पता चल जायेगा, आदि। ऐसी अवस्था में विद्यार्थी कल्पनाओं के माध्यम से आंशिक समायोजन स्थापित कर लेगा, परन्तु उसे पूर्ण सन्तोष प्राप्त नहीं होगा। इस प्रकार की प्रक्रियाओं को ही अंशतः समायोजनात्मक या अर्द्ध-सन्तुलित प्रतिक्रियाएँ कहते हैं। फिशर ने इसके अन्तर्गत क्षतिपूर्ति आदि क्रियाओं को रखा है।
3. असमायोजनात्मक प्रतिक्रियाएँ
जब व्यक्ति अपनी प्रेरणाओं का परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर पाता तो उन्हें असमायोजनात्मक प्रतिक्रिया कहते है। व्यक्ति सामाजिक व बौद्धिक प्राणी होने के फलस्वरूप अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है। उसके सम्मुख विभिन्न प्रेरकों की सन्तुष्टि करने की समस्या रहती है। जब व्यक्ति ऐसे कार्यो को निरन्तर करता रहता है जिनसे कि समायोजन में बाधा पहुंचती है तो इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं को असमायोजित प्रतिक्रियाएँ कहते है; जैसे - मद्यपान की आदत डालना जिससे कि वह स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सके। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं को करने वाला व्यक्ति परिस्थितियों के प्रति प्रतिक्रिया करने से इन्कार कर देता है। वह यह निश्चय कर लेता है कि उसे परिस्थितियों के प्रति निषेधात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करनी है। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं के अन्तर्गत प्रतिगम तथा शैशवकालीन व्यवहार से सम्बन्धित क्रियाएँ भी आती है। व्यक्ति कभी-कभी एक विशेष प्रेरणा या आवश्यकता पर ध्यान नहीं देता तथा अन्य क्रियाएँ करने में लगा रहता है। ऐसी अवस्था में वह प्रेरणा कुण्ठित हो जाती है तथा उस कुण्ठित प्रेरणा का दमन होना शुरू हो जाता है। दमन के प्रयास को ही असमायोजनात्मक प्रतिक्रियाएँ कहते है।
4. विसमायोजनात्मक प्रतिक्रियाएँ
इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं में वे प्रतिक्रियाएँ आती है जिनका गलत ढंग से समायोजन होता है। इस प्रकार का समायोजन क्योंकि व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए हानिकारक है अतः इसे विसमायोजनात्मक प्रतिक्रियाएँ कहते है। इस प्रकार की क्रियाएँ करने वाले व्यक्तियों की समाज में आलोचना होती है तथा धीरे-धीरे इनका व्यवहार सामान्य व्यवहार से भिन्न होने लगता है। इस प्रकार के व्यक्ति न तो स्वयं ही उन्नति कर पाते हैं और न ही इनके द्वारा समाज व देश की ही उन्नति होती है। उसका सामाजिक सम्बन्ध धीरे-धीरे बिगड़ता जाता है। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से अनेक असामान्य व्यवहार व मानसिक विकृतियों का जन्म होता है। इस प्रकार से इन प्रतिक्रियाओं के कारण व्यक्ति को न तो इच्छित लक्ष्य की ही प्राप्ति होती है और न ही इनकी सहायता से भावी समस्याओं के समाधान में ही सहायता प्राप्त होती है। ये व्यक्ति व्यर्थ में ही दिवास्वप्नों में लीन होकर अपना समय बरबाद करते है। विफलताओं से बचाव के लिए वह प्रेरणाओं को अधिक दमित करना सीख लेता है तथा अत्यधिक दमन के कारण व्यक्ति दैनिक जीवन की अनेक भूलों, असामान्य व्यवहारों व मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होता जाता है। उसके अन्दर सदैव एक हलचल बनी रहती है जिससे उसमें आत्मविश्वास व उत्साह की असमर्थता आ जाती है।
- शिक्षा मनोविज्ञान, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा, पृ. 530
- आर. ए. शर्मा, शिक्षा मनोविज्ञान के मूल तत्व, आर.लाल बुक डिपो, बेगम ब्रिज रोड, मेरठ, पृ. 450
- शर्मा राजकुमारी, सक्सेना, वन्दना, शिक्षा मनोविज्ञान एवं मापन, राधा प्रकाशन, आगरा, पृ. 40 40
- कुलश्रेष्ठ, एस.पी. (2011), शिक्षा मनोविज्ञान, आर.लाल. बुक डिपो, मेरठ, पृ. 423
- पाठक, पी.डी. (2013), शिक्षा मनोविज्ञान, अग्रवाल पब्लिकेशन, आगरा, पृ. 531
- शर्मा, आर.एस., एवं शर्मा अजय कुमार (2011-12), नर्सेस के लिए समाजशास्त्र एवं मनोविज्ञान, वर्धन पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स, जयपुर, पृ. 148-142
- शिक्षा मनोविज्ञान के मूल तत्व, आर.लाल. बुक डिपो, मेरठ, पृ. 450-452
- शिक्षा मनोविज्ञान, अग्रवाल पब्लिकेशन, आगरा, पृ. 464
- शिक्षा मनोविज्ञान, राधा प्रकाशन, आगरा, पृ. 271 48
Main samayojan ki bare mein acchi Tarah samajh liya aur aise hi notification mere ko chahie
ReplyDeleteठाकुर दयाल देव मनिकराज इंटर कॉलेज (अधौरा, नगर उंटारी)
ReplyDelete