जॉन लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत

जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत

जॉन लॉक का राजदर्शन के इतिहास को सबसे बड़ी देन उसके प्राकृतिक अधिकार विशेषकर सम्पत्ति का अधिकार है। यह धारणा जॉन लॉक के राजनीतिक दर्शन का सार है। जॉन लॉक के सभी सिद्धांत किसी न किसी रूप में जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत से जुड़े हुए हैं। जॉन लॉक के अनुसार मनुष्य एक विवेकशील, नैतिक तथा सामाजिक प्राणी है। इस कारण सभी मनुष्य अपने साथी व मित्रों के साथ सुख-शान्ति और सौहार्दपूर्ण भाव से रहते है। जॉन लॉक ने एक ऐसी अवस्था की कल्पना की है जिसमें सभी व्यक्ति शांतिमय तरीके से राज्य के बिना ही रहते हैं। जॉन लॉक इसे प्राकृतिक अवस्था कहता था, जॉन लॉक ने इस अवस्था को सद्भावना, पारस्परिक सहयोग, संरक्षण और शान्ति की व्याख्या बताया है। जॉन लॉक की यह अवस्था राजनीतिक समाज से पूर्व की अवस्था है। इसमें मानव विवेक कार्य करता है। मनुष्यों को ईश्वर ने विवेक प्रदान किया है। अत: प्रकृति के कानून के अनुसार काम करना सभी का स्वाभाविक कर्त्तव्य है। इन प्राकृतिक कानूनों द्वारा ही व्यक्ति को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। 

आधुनिक युग में साधारणतया यह माना जाता है कि व्यक्ति को अधिकार समाज और राज्य से प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत जॉन लॉक की मान्यता है कि व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार हैं जो कि उसके पैदायशी अधिकार हैं। ये अधिकार अलंघ्य होते हैं। राज्य बनने से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक नियमों के तहत अधिकार प्राप्त थे। प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले लोगों ने इन अधिकारों को अधिक प्रभावशाली, सुरक्षित और इनके प्रयोग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए राज्य बनाया। जॉन लॉक राज्य से पहले भी प्राकृतिक अवस्था में संगठित समाज का अस्तित्व स्वीकारता है। जॉन लॉक का मानना है कि प्राकृतिक अवस्था में इस संगठित समाज के पीछे प्राकृतिक कानून का सिद्धांत था जो स्वयं विवेक पर आधारित था। 

प्राकृतिक कानून और अधिकार ईश्वर द्वारा बनाई गई नैतिक व्यवस्थाएँ हैं। जॉन लॉक ने जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना है। यद्यपि 17 वीं शताब्दी के अन्त तक प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ जीवन, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अर्जन को माना जाने लगा था पर उन्हें प्राकृतिक मान तार्किक आधार जॉन लॉक ने ही प्रदान किया। 

जॉन लॉक ने प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कहा है- “अधिकार मनुष्य में प्राकृतिक रूप से जन्मजात होते हैं और यही अधिकार ‘प्राकृतिक’ हैं। ये अधिकार अपरिवर्तनशील व स्वाभाविक होते हैं। ये अधिकार समाज की देन हैं और उनका क्रियान्वयन सभ्य समाज के माध्यम से ही होता है। इनका जन्म मनुष्य की बुद्धि व आवश्यकता के कारण होता है तथा वे सामाजिक अधिकार कहलाते हैं।

जॉन लॉक के अनुसार हर व्यक्ति के पास कुछ प्राकृतिक, कभी न छोड़े जाने वाले, मूलभूत अधिकार होते हैं, जिन्हें कोई छू नहीं सकता, चाहे वह राज्य हो या समाज या कोई अन्य व्यक्ति। ये प्राकृतिक अधिकार हर सामाजिक, प्राकृतिक, कानूनी तथा राजनीतिक व्यवस्था में सर्वमान्य होंगे। जॉन लॉक ने कहा कि जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार जन्मसिद्ध और स्वाभाविक होने के कारण समाज की सृष्टि नहीं हैं। मनुष्य इन अधिकारों की रक्षा के लिए नागरिक समाज या राज्य का निर्माण करते हैं। मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में भी स्वभाव से प्राकृतिक कानून का पालन करते हैं। ये तीन अधिकार हैं :-

1. जीवन का अधिकार : मनुष्य को जीवन का अधिकार प्राकृतिक कानून से प्राप्त होता है। जॉन लॉक की धारणा है कि आत्मरक्षा व्यक्ति की सर्वोत्तम प्रवृत्ति है और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुरक्षित रखने का निरंतर प्रयास करता है। आत्मरक्षा को हॉब्स मानव की सर्वोत्तम प्रेरणा मानता है, उसी प्रकार जॉन लॉक का मानना है कि जीवन का अधिकार जन्मसिद्ध अधिकार है और प्राकृतिक कानूनों के अनुसार उनका विशेषाधिकार है। व्यक्ति न तो अपने जीवन का स्वयं अन्त कर सकता है और न ही वह अन्य किसी व्यक्ति को इसकी अनुमति दे सकता है।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार : जॉन लॉक के अनुसार क्योंकि सभी मनुष्य एक ही सृष्टि की कृति हैं, इसलिए वे सब समान और स्वतन्त्र हैं। यह स्वतन्त्रता प्राकृतिक कानून की सीमाओं के अन्तर्गत होती है। स्वाधीनता के अर्थ प्राकृतिक कानून जो मनुष्य की स्वतन्त्रता का साधन होता है के अतिरक्त सभी बन्धनों से मुक्ति होती है। “इस कानून के अनुसार वह किसी अन्य व्यक्ति के अधीन नहीं होते तथा स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छा से कार्य करते हैं।” व्यक्ति की यह स्वतन्त्रता प्राकृतिक कानून की सीमाओं के अन्दर होती है। अत: मनमानी स्वतन्त्रता नहीं है। मानव सुखी और शान्त जीवन व्यतीत करते थे क्योंकि सभी स्वतन्त्र और समान थे। वे एक-दूसरे को हानि नहीं पहुँचाते थे। इसलिए प्रत्येक स्वतन्त्रता का पूर्ण आनन्द लेता था।

3. सम्पत्ति का अधिकार : जॉन लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार को एक महत्त्वपूर्ण अधिकार माना है। जॉन लॉक के अनुसार सम्पत्ति की सुरक्षा का विचार ही मनुष्यों को यह प्रेरणा देता है कि वे प्राकृतिक दशा का त्याग करके समाज की स्थापना करें। जॉन लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना है। अपनी रचना ‘द्वितीय निबन्ध’ में जॉन लॉक ने इस अधिकार की व्याख्या की है। जॉन लॉक ने इस अधिकार को जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकार से भी महत्त्वपूर्ण माना है। जॉन लॉक ने सम्पत्ति के अधिकार का विस्तार से प्रतिपादन किया है। संकुचित अर्थ में जॉन लॉक ने केवल निजी सम्पत्ति के अधिकार की ही व्याख्या की है। व्यापक अर्थ में जॉन लॉक ने जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकारों को भी सम्पत्ति के अधिकार में शामिल किया है।

सम्पत्ति पर जॉन लॉक के विचार काफी दृढ़ हैं तथा सम्पत्ति के अधिकार के लिए अक्षुण्ता की भावना से युक्त है। प्रारम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को विश्व दिया। अत: किसी एक वस्तु विशेष पर कोई अधिकार नहीं था। यद्यपि भूमि तथा अन्य दीन जीव सभी की सम्पत्ति थे। फिर भी हर व्यक्ति को स्वयं भी सम्पत्ति का अधिकार था। उसके शरीर का श्रम और उसका फल उसकी अपनी सम्पत्ति थी। उसका श्रम भूमि के साथ मिलकर उसकी सम्पत्ति बन जाता था। इस प्रकार श्रम को किसी वस्तु के साथ मिलाकर व्यक्ति उसका स्वामी बन जाता था। जॉन लॉक ने अपने इस सिद्धांत के विपरीत जॉन लॉक श्रम सिद्धांत के आधार पर स्वामित्व की बात करता है। 

रोमन विधि के अनुसार- “व्यक्तिगत सम्पत्ति का उदय उस समय हुआ जब व्यक्तियों ने वस्तुओं पर अनधिकृत कब्जा करना आरम्भ किया।” जॉन लॉक ने उपर्युक्त धारणा का खण्डन किया और कहा कि व्यक्ति का शरीर ही उसकी एकमात्र सम्पत्ति है। जब व्यक्ति अपने शारीरिक श्रम को प्रकृति प्रदत्त अन्य वस्तुओं के साथ मिला लेता है तो वह उन वस्तुओं का अधिकारी बन जाता है। 

सम्पत्ति सिद्धांत के उद्भव के बारे में जॉन लॉक ने कहा- “जिस चीज को मनुष्य ने अपने शारीरिक श्रम द्वारा प्राप्त किया है, उस पर उसका प्राकृतिक अधिकार है।” जॉन लॉक ने आगे कहा है- “सम्पत्ति का अधिकार बहुत पवित्र है। जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति उसके प्राकृतिक अधिकार हैं। समाज न तो सम्पत्ति पर नियंत्रण कर सकता है और न ही कर लगा सकता है।”

जॉन लॉक का सम्पत्ति का अधिकार का सिद्धांत वास्वत में प्रकृति के कानून पर आधारित वंशानुगत उत्तराधिकार का ही सिद्धांत है। कोई व्यक्ति किसी वस्तु में अपना श्रम मिलाकर ही उसके स्वामित्व का अधिकार ग्रहण करता है। प्रकृति के द्वारा प्रदत्त किसी वस्तु में अपना श्रम मिलाकर ही अपना अधिकार उस पर जताता है। वंशानुगत उत्तराधिकार का अधिकार प्रकृति के इस कानून से उत्पन्न होता है कि मनुष्य को अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को वस्तुओं पर अपना स्वामित्व कायम करने के लिए बुद्धि तथा शरीर प्रदान किया है। वह श्रम के आधार पर अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति का सर्जन कर सकता है। 

प्रो0 सेबाइन के अनुसार- “मनुष्य वस्तुओं पर अपनी आन्तरिक शक्ति व्यय करके उन्हें अपना हिस्सा बना लेता है।” जॉन लॉक के लिए निजी सम्पत्ति का आधार एक सांझी वस्तु पर व्यय की हुई श्रम शक्ति है।

जॉन लॉक सम्पत्ति के दो रूप बताता है- 1. प्राकृतिक सम्पत्ति 2. निजी सम्पत्ति। प्राकृतिक सम्पत्ति सभी मानवों की सम्पत्ति है और उस पर सभी का अधिकार है। प्राकृतिक साधनों के साथ मानव उसमें अपना श्रम मिलाकर उसे निजी सम्पत्ति बना लेता है। जॉन लॉक ने सम्पत्ति के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्पत्ति मानव को स्थान, शक्ति और व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसर प्रदान करती है। जॉन लॉक ने असीम सम्पत्ति संचित करने के अधिकार को उचित ठहराया है। व्यक्ति को प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार है जितना नष्ट होने से पहले उसके जीवन के लिए उपयोगी हो। मनुष्य को सम्पत्ति संचित करनेका तो अधिकार है, परन्तु उसे बिगाड़ने, नष्ट करने या दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं है। 

जॉन लॉक ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से सम्पत्ति तो एकत्रित कर सकता है, परन्तु प्राकृतिक कानून दूसरे व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमणको स्वीकृति नहीं दे सकता। जॉन लॉक का यह भी मानना है कि यदि किसी के पास आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति हो तो उसे जन सम्पत्ति मान लेना चाहिए। जॉन लॉक ने सम्पत्ति अर्जन में श्रम का महत्त्व स्पष्ट किया है। जॉन लॉक के अनुसार मनुष्य का श्रम निस्सन्देह उसकी अपनी चीज है, और श्रम सम्पत्ति का सिर्फ निर्माण ही नहीं करता, बल्कि उसके मूल्य को भी निर्धारित करता है। यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि किसी वस्तु का मूल्य एवं उपयोगिता उस पर लगाए गए श्रम के आधार पर ही निर्धारित हो सकती है।

निजी सम्पत्ति के पक्ष में तर्क

जॉन लॉक ने निजी सम्पत्ति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के पक्ष में तर्क दिए हैं :-
  1. आरम्भ में भूमि तथा इसके सारे फल प्रकृति द्वारा सारी मानव जाति को दिये गए थे।
  2. मानव को इनका प्रयोग करने से पहले इन्हें अपना बनाना है।
  3. हर व्यक्ति का व्यक्तित्व, उसकी शारीरिक मेहनत तथा उसके हाथों का कार्य उनकी अपनी सम्पत्ति है। 
  4. प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य अपनी-अपनी मेहनत से जो लेते हैं, वह उनकी निजी सम्पत्ति है बशर्ते कि वह दूसरों के लिए काफी छोड़ दें।
  5. सम्पत्ति पैदा करने के लिए किसी दूसरे की आज्ञा लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह जिन्दा रहने की आवश्यकता है।
इस प्रकार जॉन लॉक उपर्युक्त तर्कों के आधार पर निजी सम्पत्ति को न्यायसंगत ठहराते हैं।

निजी सम्पत्ति के अधिकार पर सीमाएँ

जॉन लॉक निजी सम्पत्ति के अधिकार पर कुछ सीमाएँ या बन्धन लगाते हैं जो हैं :-

1. किसी को सम्पत्ति नष्ट करने का अधिकार नहीं है : जॉन लॉक कहता है कि सम्पत्ति को एकत्रित तो किया जा सकता है लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता। सम्पत्ति को बेचकर मुद्रा के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। जॉन लॉक ने असीमित मुद्रा को पूंजी के रूप में एकत्र किये जोने पर बल दिया। अत: जॉन लॉक ने निजी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए इसको नष्ट करने पर रोक लगाई है। जॉन लॉक के अनुसार- “मानव को सम्पत्ति संचित करने का अधिकार है, परन्तु उसे बिगाड़ने, नष्ट करने या दुरुपयोग करने का अधिकार नहीं है।

2. सम्पत्ति को दूसरों के लिए छोड़ देना चाहिए : जॉन लॉक कहता है कि जो प्राकृतिक भूमि आदि मनुष्य मेहनत से अपनी निजी सम्पत्ति बना लेते हैं, उससे वह दूसरों के लिए कुछ उत्पादन करते हैं और यह उत्पादन समाज की सामान्य भूमि आदि की कमी को पूरा कर देता है। व्यक्ति सारी प्राकृतिक सम्पत्ति को निजी सम्पत्ति में नहीं बदल सकता। जॉन लॉक का कहना है- “प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार है। जितना उसके जीवन के लिए उपयोगी हो और दूसरों के लिए भी पर्याप्त हिस्सा बचा रहे।”

3. निजी सम्पत्ति वह है जिसे व्यक्ति ने अपना श्रम मिलाकर अर्जित किया है : जॉन लॉक का कहना है व्यक्ति अपने सामथ्र्य अनुसार अपना श्रम मिलाकर किसी भी प्राकृतिक वस्तु को अपना सकता है। व्यक्ति अपने श्रम का मालिक होता है तथा श्रम उसकी सम्पत्ति है। यदि वह अपना श्रम दूसरे को बेच देता है तो वह श्रम दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति बन जाता है। अत: श्रम द्वारा ही किसी वस्तु पर व्यक्ति के स्वामित्व का फैसला निर्भर करता है। बिना श्रम प्राप्त सम्पत्ति निजी सम्पत्ति नहीं हो सकती। आवश्यकता से ज्यादा संचित सम्पत्ति जन सम्पत्ति मानी जा सकती है।

निजी सम्पत्ति के अधिकार के निहितार्थ 

जॉन लॉक के निजी सम्पत्ति के सिद्धांत की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं :-
  1. निजी सम्पत्ति शारीरिक श्रम व योग्यता से प्राप्त होती है।
  2. व्यक्ति का श्रम एक निजी वस्तु है। वह जब चाहे किसी को भी इसे बेच सकता है तथा दूसरा इसे खरीद सकता है।
  3. निजी सम्पत्ति का अधिकार प्राकृतिक है।
  4. निजी सम्पत्ति उत्पादन का आधार है।
  5. श्रम को खरीदने वाला श्रम का न्यायसंगत स्वामी बन सकता है।
  6. निजी सम्पत्ति क्रय व विक्रय योग्य वस्तु है।
  7. निजी सम्पत्ति के अधिकार के बिना मानव जीवन का कोई आकर्षण नहीं है।
  8. समाज हित में निजी सम्पत्ति के अधिकार पर बन्धन लगाया जा सकता है।
  9. निजी सम्पत्ति का अधिकार मेहनत को प्रोत्साहित करता है।

जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत की आलोचना

जॉन लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण देन होते हुए भी कुछ कमियों से ग्रसित है। अनेक विचारकों ने इस की आलोचनाएँ की हैं :-
  1. जॉन लॉक का यह कथन कि अधिकार, राज्य या समाज से पहले उत्पन्न हुए - इतिहास, तर्क या सामान्य बुद्धि के विपरीत है। जॉन लॉक की दृष्टि में अधिकारों का स्रोत प्रकृति है। परन्तु अधिकारों का स्रोत समाज होता है और उसकी रक्षा के लिए राज्य का होना अनिवार्य है।
  2. जॉन लॉक ने सम्पत्तिके अधिकार पर तो विस्तार से लिखा है लेकिन जीवन तथा स्वतन्त्रता के अधिकार पर ज्यादा नहीं कहा।
  3. जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास है। जॉन लॉक एक तरफ तो उन्हें प्राकृतिक मानता है और दूसरी तरफ श्रम को सम्पत्ति के अधिकार का आधार मानता है। यदि प्राकृतिक अधिकार जन्मजात व स्वाभाविक हैं तो उसके अर्जन की क्या जरूरत है।
  4. जॉन लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत पूंजीवाद का रक्षक है। श्रम-सिद्धांत को परिभाषित करते हुए जॉन लॉक ने कहा है- “जिस घास को मेरे घोड़े ने खाया है, मेरे नौकर ने काटा है, और मैंने छीला है; वह मेरी सम्पत्ति है और उस पर किसी दूसरे का अधिकार नहीं है।” अत: जॉन लॉक का यह सिद्धांत पूंजीवाद का समर्थक है।
  5. जॉन लॉक ने स्वतन्त्रता पर जोर दिया है, समानता पर नहीं। जबकि आधुनिक युग में समानता के अभाव में स्वतन्त्रता अधूरी है।
  6. जॉन लॉक के अधिकारों का क्षेत्र सीमित है। आधुनिक युग में शिक्षा, धर्म संस्कृति के अधिकार भी बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं।
  7. जॉन लॉक किसी व्यक्ति के बिना श्रम किये उत्तराधिकार द्वारा दूसरे की सम्पत्ति प्राप्त करने के नियम का स्पष्ट उल्लेख नहीं करता।
  8. जॉन लॉक आर्थिक असमानता की तो बात करता है लेकिन उसे दूर करने के उपाय नहीं बताता।
  9. जॉन लॉक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति संचित करने पर सम्पत्ति को जनहित में छीनने की बात तो करता है लेकिन सम्पत्ति छीनने की प्रक्रिया पर मौन है।
अनेक आलोचनाओं के बावजूद भी जॉन लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत राजनीतिक चिन्तन में उत्कृष्ट देन है। जॉन लॉक का सिद्धांत आधुनिक युग में भी महत्त्वपूर्ण है। इसका महत्त्व निम्न आधारों पर स्पष्ट हो जाता है।

प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का प्रभाव

  1. जॉन लॉक का यह सिद्धांत मौलिक अधिकारों का जनक है। आज के सभी प्रजातन्त्रीय देशों में जॉन लॉक के इन सिद्धांतों को अपनाया गया है। अमेरिका के संविधान पर तो जॉन लॉक का गहरा प्रभाव है। अमेरिकन संविधान का चौदहवाँ संशोधन घोषणा करता है कि- “कानून की उचित प्रक्रिया के बिना राज्य किसी भी व्यक्ति को जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकता।”
  2. इस सिद्धांत का न्ण्छण्व् (संयुक्त राष्ट्र संघ) पर भी स्पष्ट प्रभाव है। इसके चार्टर में मानवीय अधिकारों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए मानवाधिकारों को शामिल किया गया है। वे अधिकार जॉन लॉक की देन है।
  3. इस सिद्धांत का कार्लमाक्र्स के ‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत’ ;ज्ीमवतल व िैनतचसने टंसनमद्ध पर भी स्पष्ट प्रभाव है। माक्र्स भी श्रम को ही महत्त्व देकर अपने सिद्धांत की व्याख्या करता है।
  4. जॉन लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण इस देन का प्रभाव 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी के उदारवादी विचारकों पर भी पड़ा। 
अत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अपनी अनेक आलोचनाओं के बावजूद भी जॉन लॉक का प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। डनिंग ने कहा है- “राजनीतिक दर्शन को जॉन लॉक का सर्वाधिक विशिष्ट योगदान प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत है।” जॉन लॉक ने एडम स्मिथ जैसे अर्थशास्त्रियों पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। प्राकृतिक अधिकारों के रूप में जॉन लॉक की यह देन उत्कृष्ट है।

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