लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ, परिभाषा, लक्षण व कार्य

लोक कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य एक ऐसे राज्य से होता है जिसके अंतर्गत शासन की शक्ति का प्रयोग किसी वर्ग विशेष के कल्याण हेतु नहीं वरन् संपूर्ण जनता के कल्याण के लिए किया जाता है। इस रूप में लोक कल्याणकारी राज्य का विचार नया नहीं है। भारत में प्राचीन काल से रामराज्य की जो धारणा प्रचलित है, वह एक ऐसे राज्य का प्रतीक है, अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का स्वतंत्र रूप से सर्वांगीण विकास करने का प्रयत्न किया जाता है। यद्यपि भारतीय राजनीतिक विचारकों ने राजपद के दैवी उदय का प्रतिपादन किया है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने नरेशों के कर्तव्यों की विस्तृत विवेचना भी की है और उनका मूल विचार है कि राजा के द्वारा सभी कार्य लोककल्याण की दृष्टि से ही किए जाने चाहिए।

लोक कल्याणकारी राज्य की परिभाषा

अपने वर्तमान रूप में लोक कल्याणकारी राज्य की प्रमुख रूप से इस प्रकार की परिभाषाएँ की गयी हैं- 1918 में प्रकाशित ‘Encyclopaedia of Social Science’ में लोक कल्याणकारी राज्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि फ्लोक कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य एक ऐसे राज्य से है जो अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन स्तर प्रदान करना अपना अनिवार्य उत्तरदायित्व समझता है।

टी. डब्ल्यू. केण्ट के अनुसार, लोकहितकारी वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्यवस्था करता है। इन समाज सेवाओं के अनेक रूप होते हैं। इनके अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और वृद्धावस्था में पेंशन आदि की व्यवस्था होती है। इनका मुख्य उद्देश्य नागरिकों को सभी प्रकार की सुरक्षा प्रदान करना होता है। डॉ. अब्राहम के अनुसार, कल्याणकारी राज्य वह है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था का संचालन आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से करता है।

जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में लोक कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करते हुए कहा था, सबके लिए समान अवसर प्रदान करना, अमीरों और गरीबों के बीच अंतर मिटाना और जीवन स्तर को ऊपर उठाना लोकहितकारी राज्य के आधारभूत तत्व हैं।

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं में लोककल्याण के आर्थिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है, परंतु कल्याण की धारणा केवल भौतिक ही नहीं, वरन् मानवीय स्वतंत्रता और प्रकृति से भी संबंधित है। सन् 1954 में मैसूर विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण देते हुए न्यायमूर्ति छागला ने लोक कल्याणकारी राज्य की सही धारणा को व्यक्त करते हुए कहा था, लोक कल्याणकारी राज्य का कार्य एक ऐसे फल का निर्माण करना है जिसके द्वारा व्यक्ति जीवन की पतित अवस्था से निकलकर एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कर सके जो उत्थानकारी और उद्देश्यपूर्ण है। लोक कल्याणकारी राज्य का यथार्थ उद्देश्य नागरिक द्वारा स्वतंत्रता में उपभोग को संभव बनाना है।

इस प्रकार लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ है राज्य के कार्यक्षेत्र का विस्तार। राज्य के कार्यक्षेत्र के विस्तार का अर्थ प्राय: व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बंधन लिया जाता है, लेकिन कल्याणकारी राज्य का अर्थ राज्य के कार्यक्षेत्र इस प्रकार विस्तार करना होता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई विशेष बंधन न लगे, राज्य के कार्यक्षेत्र के साथ-ही-साथ व्यक्ति का भी अपना स्वतंत्र कार्यक्षेत्र हो। वास्तव में लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा पश्चिमी प्रजातंत्र और साम्यवादी अधिनायकतंत्र दोनों से ही भिन्न है। पश्चिमी प्रजातंत्र राजनीतिक स्वतंत्रता को एक ऐसी स्थिति प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत नागरिकों को आर्थिक सुरक्षा प्राप्त नहीं होती। इसके विपरीत आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित साम्यवादी अधिनायकतंत्र में राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव होता है।

लेकिन लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक सुरक्षा के बीच सामंजस्य का सफल प्रयत्न है। होब्मेन (Hobman) के शब्दों में, यह (कल्याणकारी राज्य) दो अतिथियों में एक समझौता है जिसमें एक तरफ साम्यवाद है तो दूसरी तरफ अनियंत्रित व्यक्तिवाद। लोक कल्याणकारी राज्य लोकहित पर आधारित होता है और इस संबंध में लोकहित से हमारा तात्पर्य राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से अवसर की असमानता को दूर कर उसकी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। इस व्यवस्था का उद्देश्य किसी एक समुदाय या वर्ग विशेष के हितों की साधना न होकर जनता के सभी वर्गों के आवश्यक हितों की साधना होता है।

लोक कल्याणकारी राज्य के लक्षण

लोक कल्याणकारी राज्य की उपर्युक्त धारणा को दृष्टि में रखते हुए इस प्रकार के राज्य के प्रमुख रूप से निम्नलिखित लक्षण बताए जाते हैं-

1. आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था-लोक कल्याणकारी राज्य प्रमुख रूप से आर्थिक सुरक्षा के विचार पर आधारित है। हमारा अब तक का अनुभव स्पष्ट करता है कि शासन का रूप चाहे कुछ भी हो, व्यवहार में राजनीतिक शक्ति उन्हीं लोगों के हाथों में केद्रित होती है, जो आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होते हैं। अत: राजनीतिक शक्ति को जनसाधारण में निहित करने और जनसाधारण के हित में इसका प्रयोग करने के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था नितांत आवश्यक है। लोक कल्याणकारी राज्य के संदर्भ में आर्थिक सुरक्षा का तात्पर्य निम्नलिखित तीन बातों से लिया जा सकता है-

(क) सभी व्यक्तियों के रोजगार-ऐसे सभी व्यक्तियों को शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उनकी योग्यतानुसार उन्हें किसी न किसी प्रकार का कार्य अवश्य ही दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ हैं या राज्य जिन्हें कार्य प्रदान नहीं कर सका है उनके जीवनयापन के लिए राज्य द्वारा ‘बेरोजगारी बीमे’ की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(ख) न्यूनतम जीवन-स्तर की गारंटी-एक मनुष्य को अपने कार्य के बदले में इतना पारिश्रमिक अवश्य ही मिलना चाहिए कि उसके द्वारा न्यूनतम आर्थिक स्तर की प्राप्ति की जा सके। न्यूनतम जीवन-स्तर के संबंध में अर्थशास्त्री क्राउथर ने कहा है कि नागरिकों के लिए अधिकार रूप में उन्हें स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए। निवास, वस्त्र आदि के न्यूनतम जीवन-स्तर की ओर से उन्हें चिंतारहित होना चाहिए। शिक्षा का उन्हें पूर्णतया समान अवसर प्राप्त होना चाहिए और बेरोजगारी बीमारी तथा वृद्धावस्था के दु:ख से उसकी रक्षा की जानी चाहिए। लोक कल्याणकारी राज्य में किसी एक के लिए अधिकता के पूर्व सबके लिए पर्याप्त की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(ग) अधिकतम समानता की स्थापना-संपत्ति और आय की पूर्ण समानता न तो संभव है और न ही वांछनीय तथापि आर्थिक न्यूनतम के पश्चात होने वाली व्यक्ति की आय का उसके समाज सेवा संबंधी कार्य से उचित अनुपात होनी चाहिए। जहाँ तक संभव हो व्यक्तियों की आय के न्यूनतम और अधिकतम स्तर में अत्यधिक अंतर नहीं होना चाहिए। इस सीमा तक आय की समानता तो स्थापित की ही जानी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति अपने धन के आधार पर दूसरे का शोषण न कर सके।

2. राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था-लोक कल्याणकारी राज्य की दूसरी विशेषता राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था कही जा सकती है। इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए कि राजनीतिक शक्ति सभी व्यक्तियों में निहित हो और ये अपने विवेक के आधार पर इस राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-

(क) लोकतंत्रीय शासन-राजतंत्र, अधिनायक तंत्र या कुलीनतंत्र के अंतर्गत व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर राजनीतिक कर्तव्यों का संपादन नहीं कर सकता। वस्तुत: इस शासन-व्यवस्थाओं में उसके कोई राजनीतिक अधिकार होते ही नहीं हैं। लोक कल्याणकारी राज्य में व्यक्ति के राजनीतिक हितों की साधना को भी आर्थिक हितों की साधना के समान ही समझा जाता है, अत: एक लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था वाला राज्य ही लोक कल्याणकारी राज्य हो सकता है।

(ख) नागरिक स्वतंत्रताएँ-संविधान द्वारा लोकतंत्रीय शासन की स्थापना कर देने से ही राजनीतिक सुरक्षा प्राप्त नहीं हो जाती। व्यवहार में राजनीतिक सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नागरिक स्वतंत्रता का वातावरण होना चाहिए अर्थात् नागरिकों को विचार-अभिव्यक्ति और राजनीतिक दलों के संगठन की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। इन स्वतंत्रताओं के अभाव में लोकहित की साधना नहीं हो सकती और लोकहित की साधना के बिना लोक कल्याणकारी राज्य, आत्मा के बिना शरीर के समान होगा।

सोवियत रूस जैसे साम्यवादी राज्यों में नागरिकों के लिए नागरिक स्वतंत्रताओं और परिणामत: राजनीतिक सुरक्षा का अभाव होने के कारण उन्हें लोक कल्याणकारी राज्य नहीं कहा जा सकता।

3. सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था-सामाजिक सुरक्षा का तात्पर्य सामाजिक समानता से है और इस सामाजिक समानता की स्थापना के लिए आवश्यक है कि धर्म, जाति, वंश, रंग और संपत्ति के आधार पर उत्पन्न भेदों का अंत करके व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में महत्त्व प्रदान किया जाए। डॉ. बेनीप्रसाद के शब्दों में, फ्सामाजिक समानता का सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक के सुख का महत्त्व हो सकता है तथा किसी को भी अन्य किसी के सुख का साधनमात्र नहीं समझा जा सकता है। वस्तुत: लोक कल्याणकारी राज्य में जीवन के सभी पक्षों में समानता के सिद्धांत को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए।

4. राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि-लोक कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत व्यक्तिवादी विचार के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है और इस मान्यता पर आधारित है कि राज्य को वे सभी जनहितकारी कार्य करने चाहिए जिनके करने से व्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट या कम नहीं होती। इसके द्वारा न केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा की व्यवस्था वरन् जैसा कि हॉब्सन ने कहा है, डॉक्टर, नर्स, शिक्षक, व्यापारी, उत्पादक, बीमा कंपनी के एजेंट, मकान बनाने वाले, रेलवे नियंत्रक तथा अन्य सैकड़ों रूपों में कार्य किया जाना चाहिए।

5. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना-इन सबके अतिरिक्त एक लोक कल्याणकारी राज्य, अपने राज्य विशेष के हितों से ही संबंध न रखकर अंतर्राष्ट्रीय होता है। वैज्ञानिक प्रगति तथा राजनीतिक चेतना के विकास ने विश्व के सभी देशों को एक-दूसरे के इतना निकट ला दिया है कि त्रस्त मानवता के बीच में अकेला राज्य अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत नहीं कर सकता है। एक लोक कल्याणकारी राज्य तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सम्पूर्ण विश्व ही मेरा कुटुम्ब है’ के विचार पर आधारित होता है।

लोक कल्याणकारी राज्य के कार्य

परंपरागत विचारधारा राज्य के कार्यों को दो वर्गों (अनिवार्य तथा ऐच्छिक) में विभाजित करने की रही है और यह माना जाता रहा है कि अनिवार्य कार्य तो राज्य के अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किए जाने जरूरी हैं, किंतु ऐच्छिक कार्य राज्य की जनता के हित में होते हुए भी राज्य के द्वारा उनका किया जाना तत्कालीन समय की विशेष परिस्थितियों और शासन के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। लेकिन लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा के विकास के परिणामस्वरूप अनिवार्य और ऐच्छिक कार्यों की वह सीमा रेखा समाप्त हो गयी है और अब यह माना जाने लगा है कि परंपरागत रूप में ऐच्छिक कहे जाने वाले कार्य भी राज्य के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने की अनिवार्य समझे जाने वाले कार्य लोक कल्याणकारी राज्य के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं-

1. आंतरिक सुव्यवस्था तथा विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा-एक राज्य जब तक विदेशी आक्रमण से अपनी भूमि और सम्मान की रक्षा करने की क्षमता नहीं रखता और आंतरिक शांति और व्यवस्था स्थापित रखते हुए व्यक्तियों को जीवन की सुरक्षा का आश्वासन नहीं देता, उस समय तक वह राज्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। इस कार्य को संपन्न करने के लिए राज्य सेना और पुलिस रखता है, सरकारी कर्मचारी तथा न्याय की व्यवस्था करता है और इन कार्यों से संबंधित व्यय को पूरा करने के लिए नागरिकों पर कर लगाता है।

2. व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों और राज्य एवं व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था-मानव के स्वार्थी होने और उनकी पृथक-पृथक विचारशीलता होने के कारण उनके विचारों और कार्यों में भेद होता है और किन्हीं प्रतिबंधों के अभाव में विचारों और कार्यों का यह भेद संघर्ष का रूप ग्रहण कर सकता है। अत: राज्य के द्वारा व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों का नियंत्रण किया जाना चाहिए। इसके लिए राज्य कानूनों का निर्माण करता है एवं पुलिस और न्यायालयों की सहायता से उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है। इसके अतिरिक्त, वर्तमान समय में व्यक्ति एवं राज्य के संबंधों का नियमित करना भी आवश्यक हो गया है और यह कार्य भी राज्य के द्वारा ही किया जाता है। राज्य का यह कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण है और इस कार्य की भलीभाँति संपन्न करने पर ही व्यक्तियों की स्वतंत्रता एवं राज्य की सत्ता निर्भर करती है।

3. कृषि, उद्योग तथा व्यापार का नियमन और विकास-लोक कल्याणकारी राज्य के दायित्व एक ऐसे राज्य के द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं जो आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त संपन्न हो, अत: इस प्रकार के राज्य द्वारा कृषि, उद्योग तथा व्यापार के नियमन एवं विकास का कार्य किया जाना चाहिए। इसमें मुद्रा निर्माण, प्रामाणिक माप और तौल की व्यवस्था, व्यवसायों का नियमन, कृषकों को राजकोषीय सहायता, नहरों का निर्माण बीज वितरण के लिए गोदाम खोलना और कृषि-सुधार इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। राज्य के द्वारा जंगल आदि प्राकृतिक साधनों और संपत्ति की रक्षा की जानी चाहिए और कृषि तथा उद्योगों के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए।

4. आर्थिक सुरक्षा संबंधी कार्य-लोक कल्याणकारी राज्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य आर्थिक सुरक्षा संबंधी होता है। आर्थिक सुरक्षा के अंतर्गत अनेक बातें सम्मिलित हैं, जिसमें सभी व्यक्तियों को रोजगार और अधिकतम समानता की स्थापना प्रमुख है। ऐसे सभी व्यक्तियों को जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कार्य करने की क्षमता रखते हैं, राज्य के द्वारा उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार किसी-न-किसी प्रकार का कार्य आवश्यक ही दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार कार्य करने में असमर्थ हैं या राज्य जिन्हें कार्य नहीं प्रदान कर सका है उनके लिए राज्य द्वारा ‘जीवन निर्वाह भत्ते’ की व्यवस्था की जानी चाहिए।

लोक कल्याणकारी राज्य के द्वारा यद्यपि आय की पूर्ण समानता स्थापित नहीं की जा सकती, लेकिन जहाँ तक संभव हो, व्यक्तियों की आय के अन्यूनतम और अधिकतम स्तर में अधिक अंतर नहीं होना चाहिए। इस सीमा तक आय की समानता तो स्थापित की ही जानी चाहिए कि कार्य भी व्यक्ति अपने धन के आधार पर दूसरे का शोषण न कर सके।

5. जनता के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना-लोक कल्याणकारी राज्य के द्वारा नागरिकों को न्यूनतम जीवन-स्तर की गारंटी दी जानी चाहिए। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि नागरिकों को अपने-आपको स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त भोजन, वस्तु, निवास, शिक्षा और स्वास्थ्य की सामान्य सुविधाएँ अवश्य ही प्राप्त हों। इसके साथ ही राज्य के द्वारा नागरिकों के जीवन-स्तर को उत्तरोत्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

6. शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कार्य-लोक कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के लिए उन सभी सुविधाओं की व्यवस्था करना होता है, जो उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु सहायक और आवश्यक हैं। इस दृष्टि से शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार का राज्य शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना करता है और एक निश्चित स्तर तक शिक्षा को अनिवार्य तथा नि:शुल्क किया जाता है। औद्योगिक तथा प्राविधिक शिक्षा की जाती है। इसी प्रकार चिकित्सागृहों तथा प्रसवगृहों आदि की स्थापना की जाती है जिनका उपयोग जनसाधारण नि:शुल्क कर सकते हैं।

7. सार्वजनिक सुविधा संबंधी कार्य-लोक कल्याणकारी राज्य के द्वारा परिवहन, संचार साधन, रेडियो, सिंचाई के साधन, बैंक, विद्युत, कृषि के वैज्ञानिक साधनों आदि की व्यवस्था से संबंधित सार्वजनिक सुविधा के कार्य किए जाते हैं। यद्यपि इन सुविधाओं के लिए राज्य द्वारा शुल्क प्राप्त किया जाता है। किंतु इन सुविधाओं का महत्व इस दृष्टि से है कि व्यक्ति अपने लिए इन साधनों की व्यवस्था नहीं कर सकता, साधन संपन्न राज्य ही कर सकता है। इसके अतिरिक्त, इन सुविधाओं के लिए राज्य के द्वारा उचित शुल्क ही प्राप्त किया जाता है और जो कुछ लाभ होता है, वह सार्वजनिक कोष में जाता है तथा उसका उपयोग भी स्वाभाविक रूप से अधिक सार्वजनिक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ही किया जाता है।

8. समाज सुधार-लोक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य व्यक्तियों का न केवल आर्थिक वरन् सामाजिक कल्याण भी होता है। इस दृष्टि से राज्य के द्वारा मद्यपान, बाल-विवाह, छुआछूत, जाति-व्यवस्था आदि परंपरागत सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के उपाय किए जाने चाहिए।

9. आमोद-प्रमोद की सुविधाएँ-जनता को स्वस्थ मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए राज्य के द्वारा सार्वजनिक उद्यानों, क्रीड़ा-क्षेत्रों, सार्वजनिक तरण-तालों सिनेमागृहों, रंगमंच, रेडियो आदि का प्रबंध करना चाहिए।

10. नागरिक स्वतंत्रताओं की व्यवस्था-राज्य के द्वारा अपने सभी नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति, सम्मेलन, संगठन आदि की स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए, जिससे लोकतांत्रिक आदर्श की व्यावहारिक प्राप्ति संभव हो सके।

11. अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र के कार्य-लोककल्याण का आदर्श किसी एक राज्य विशेष से नहीं वरन् समस्त मानवता से संबंध रखता है, अत: एक लोक कल्याणकारी राज्य द्वारा अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र के अंतर्गत युद्ध ही नहीं वरन् अधिकाधिक राज्यों के साथ सद्भावना और सहयोग का मार्ग अपनाया जाना चाहिए। अपने अस्तित्व और सीमाओं या सम्मान की रक्षा के लिए उनके द्वारा शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु राजनीतिक या आर्थिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु उसके द्वारा अन्य किसी राज्य के विरुद्ध बल प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। ऊपर लोक कल्याणकारी राज्य के कुछ कर्तव्य गिनाए गए हैं, किंतु लोक कल्याणकारी राज्य के समस्त कर्तव्यों की सूची तैयार कर सकना संभव नहीं है।

व्यक्ति के जीवन में राज्य हस्तक्षेप कहाँ से प्रारंभ हो और कहाँ पर समाप्त हो जाए, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर स्थानीय तथा राष्ट्रीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं के संदर्भ में ही दिया जा सकता। आज की जटिल परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति केवल अपने लिए या अपने प्रयास से जीवित नहीं रह सकता है और समाज द्वारा जन-हितकारी कार्यों का सम्मान अच्छे जीवन की एक आवश्यकता बन गयी है। अत: राज्य के द्वारा अपने नागरिकों को वे सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। जो उनके सामूहिक कल्याण की वृद्धि करने वाली हों।

यद्यपि लोक कल्याणकारी राज्य वर्तमान समय की सर्वाधिक लोकप्रिय प्रवृत्ति है फिर भी लोक कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध कुछ तर्क दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं-

1. वैयक्तिक स्वतंत्रता का हनन-कुछ व्यक्तियों का कहना है कि लोककल्याण की प्रवृत्ति को अपना लेने पर जब राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो स्वभावत: राज्य की शक्तियों में वृद्धि होती है और अति शक्तिशाली राज्य तो वैयक्तिक स्वतंत्रता को समाप्त कर देता है। अमरीकी राज्य सचिव बायर्नेस ने इसी आधार पर इसमें ‘विकराल सरकार’ (Big Government) की झलक पाई थी।

2. ऐच्छिक समुदाय का आघात-जब लोककल्याण की प्रवृत्ति को अपना लेने पर राज्य के कार्य बहुत अधिक बढ़ जाते हैं तो राज्य अनेक ऐसे कार्य करने लगता है जो वर्तमान समय में ऐच्छिक समुदायों के लिए घातक होते हैं और मानव जीवन के संबंध में उपयोगी भूमिका निभाने वाले ऐच्छिक समुदाय समाप्त हो जाते हैं। 3. नौकरशाही का भय-लोककल्याण की प्रवृत्ति को अपना लेने पर राज्य नौकरशाही में भी बहुत अधिक वृद्धि होगी और नौकरशाही में यह अत्यधिक वृद्धि लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार आदि अन्य बुराइयों को जन्म देगी।

4. अत्यधिक खर्चीला-लोक कल्याणकारी राज्य बहुत अधिक खर्चीला आदर्श है, क्योंकि राज्य को विभिन्न लोक कल्याणकारी सेवाएँ सम्पादित करने में बहुत अधिक धनराशि की आवश्यकता होती है। सामान्य आर्थिक साधनों वाला राज्य इस प्रकार का व्यय भार वहन नहीं कर सकता। सीनेटर टाफ्रट ने इसी कारण कहा है कि फ्लोककल्याण की नीति राज्य को दिवालियापन की ओर ले जाएगी।

लोक कल्याणकारी राज्य के जो उपर्युक्त दोष बताए जाते हैं, उनके कारण लोक कल्याणकारी राज्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में ये दोष लोक कल्याणकारी राज्य के नहीं, वरन् मानवीय जीवन की दुर्बलताओं के हैं। सर्वप्रथम लोक कल्याणकारी राज्य और सर्वाधिकारवादी राज्य में आधारभूत अंतर है और लोक कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य राज्य द्वारा व्यक्ति के संपूर्ण जीवन पर अधिकार नहीं है। लोक कल्याणकारी राज्य में न केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक बहुत बड़ा क्षेत्र बच जाता है, वरन् यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को वास्तविकता का रूप प्रदान करता है। लोक कल्याणकारी राज्य के कारण ऐच्छिक समुदायों के कार्य क्षेत्र पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इससे उनके कार्य और महत्व में वृद्धि होती है, कमी नहीं। जहाँ तक नौकरशाही की बुराइयों का संबंध है, वे तो दोषपूर्ण राज्य व्यवस्था और मानवीय चरित्र की दुर्बलता के परिणाम हैं और इनमें सुधार कर इन्हें दूर किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, यह देखने में आया है कि लोककल्याण की प्रवृत्ति तत्काल तो राजकोष से भारी व्यय को जन्म देती है लेकिन लंबे समय में इसका नागरिकों की कार्यकुशलता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है और राष्ट्रीय आय तेजी के साथ बढ़ती है।

2 Comments

  1. लोक कल्याण करी का अर्थ परिभाषा एवं क्षेत्र का वणन करें

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