सामाजिक न्याय क्या है।। सामाजिक न्याय किसे कहते हैं

सामाजिक न्याय क्या है

सामाजिक न्याय (Social justice) से तात्पर्य है समाज में असमानताओं को दूर करना तथा सामाजिक समता की स्थापना करना । यह प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा द्वारा समाज में उचित स्थान प्राप्त करने का विश्वास दिलाता है तथा इस समान स्तर को प्राप्त करने में आनेवाली कठिनाईयों को दूर करने की प्रेरणा भी देता है । 

सामाजिक न्याय को प्रभावी बनाने हेतु ही संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि राज्य किसी भी नागरिक में धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग भेद, या जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं करेगा तथा इसी प्रकार व्यक्ति को इन सभी आधारों पर राज्य की किसी भी सेवा में नियुक्ति के लिए अयोग्य नहीं समझा जाएगा ।

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सामाजिक न्याय का अर्थ

जन्म, वंश, जाति, संप्रदाय, धर्म, लिंग, पद प्रतिष्ठा आदि को ध्यान में न रखते हुए सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करना। आर्थिक न्याय का अर्थ है गरीबी और अमीरी की खाई को पाटने का प्रयास करना और उन्हें बराबरी की नजर से देखना। राजनैतिक न्याय का अर्थ है कि धर्म, जाति आदि को ध्यान में न रखते हुए सभी नागरिकों को समान रूप से राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार होना।

सामाजिक न्याय क्या है

सामाजिक न्याय से भावार्थ यह है कि किसी देश में रह रहे व्यक्तियों में जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। जिस समाज में जन्म, जाति अथवा रंग आदि के आधार पर कुछ लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं, उस समाज में सामाजिक न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय उस समाज में भी संभव नहीं हो सकता, जहाँ लोगों में अत्यधिक आर्थिक अंतर है अथवा जहाँ व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण होता हो।

1. कानून के समक्ष समानता: सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह बहुत आवश्यक है कि कानून की दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाए। कानून के संसार में किसी व्यक्ति में जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई विशेष रियायत अथवा भेदभाव न किया जाए। 

2. विशेषाधिकारों की समाप्ति: सामाजिक न्याय तभी ही लोगों को प्राप्त हो सकता है, यदि किसी भी वर्ग के लोगों को सरकार द्वारा विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, तो ऐसे देश में सामाजिक न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए सामाजिक समानता की स्थापना आवश्यक है। यदि किसी विशेष वर्ग को सरकार द्वारा कुछ रियायतें दी जाएगी तो ऐसे देश में सामाजिक समानता की कल्पना भी नहीं की जा सकेगी। 

3. जाति-प्रथा का अंत: प्रकृति ने जाति के आधार पर मनुष्यों में कोई बाँट नहीं की। इस बात की अपेक्षा संसार के अनेक देशों में जाति के आधार पर मनुष्य अपने साथी मनुष्यों से घृणा करता है। हमारा अपना देश इस अमानवीय कुरीति का चिरकाल तक शिकार रहा है और वर्तमान समय में भी जाति के नाम पर हरिजन भाइयों से भेदभाव किया जाता है। सामाजिक न्याय तभी ही प्राप्त हो सकता है, यदि जाति-प्रथा को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए और लोग जाति के नाम पर अपने साथियों के भेदभाव करना बंद कर दें।

4. पिछड़े वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएँ: सामाजिक समानता तभी स्थापित हो सकती है, यदि पिछड़े वर्गों के लोगों को विकास करने के लिए कुछ विशेष सुविधाएँ दी जाए। ये विशेष सुविधाएँ या रियायतें स्थायी रूप में नहीं होनी चाहिए अपितु कुछ सीमित समय के लिए दी जानी चाहिए। इन विशेष सुविधाओं का उद्देश्य यह होता है कि पिछड़े वर्गों के लोग इन सुविधाओं के आधार पर दूसरे उत्पन्न वर्गों के समान विकास कर सके। 

5. लोकतांत्रिक प्रणाली: सामाजिक न्याय वास्तविक अर्थों में तभी प्राप्त हो सकता है यदि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को ग्रहण किया जाए। लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रत्येक प्रकार के अधिकार सभी लोगों को समान रूप में प्राप्त होते हैं और किसी विशेष वर्ग के लोगों को कोई विशेष सुविधाएँ अथवा रियायतें प्रदान नहीं की जातीं। लोकतांत्रिक प्रणाली में कुछ समय के पश्चात आम चुनाव करवाए जाते हैं और ऐसे चुनावों में देश के समूचे नागरिक समान रूप में भाग लेते हैं। यदि इन सभी व्यवसायों को क्रियान्वित रूप दिया जाए तो निस्संदेह ही सामाजिक न्याय की प्राप्ति हो सकती है।

6. आर्थिक सुरक्षा: आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना किसी व्यक्ति के लिए संतुष्ट जीवन व्यतीत करना लगभग असंभव है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार कार्य देना सरकार का आवश्यक कर्तव्य होना चाहिए। जब तक सरकार किसी व्यक्ति को काम प्रदान नहीं करती, तब तक व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व सरकार पर होना चाहिए। आर्थिक सुरक्षा से भावार्थ यह है कि सरकार ऐसे व्यक्तियों को बेरोजगारी भत्ता दे ताकि बेरोजगार व्यक्ति अपने जीवन की प्रारंभिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके। इसके अतिरिक्त सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि बीमारों, बुजुर्गों और अंगहीनों की आर्थिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व सरकार के आवश्यक कर्तव्यों में शामिल हो।

7. श्रमिकों के हितों की रक्षा: सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाए। इस उद्देश्य के लिए श्रमिकों के कार्य का अधिक-से-अधिक समय निश्चित किया जाना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त श्रमिकों के उचित वेतन तथा अन्य अनेक सुविधाओं की व्यवस्था करनी अनिवार्य है। जब तक श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए सरकार कोई विशेष प्रयत्न नहीं करती, तब तक सामाजिक न्याय की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।

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