उर्दू साहित्य का इतिहास और उर्दू साहित्य का विकास

आगरा तथा दिल्ली के आस-पास की हिंदी अरबी-फारसी तथा अन्य विदेशी शब्दों के सम्मिश्रण से विकसित हुई है। इसका दूसरा नाम ‘उर्दू’ भी है। मुसलमानी राज्य में यह अंतरप्रांतीय व्यवहार की भाषा थी। 19वीं शताब्दी में ‘हिंदुस्तानी’ का शब्द उर्दू का वाचक बन गया था। इसी को पुराने ‘एंग्लो इंडियन’, मूर भी कहते थे। स्पेन तथा पुर्तगाल वालों के अनुसार मूर मुसलमान थे। उर्दू हिंदुस्तानी की वह शैली है जिसमें फारसी शब्द अधिक मात्रा में प्रयुक्त होते हैं तथा जो केवल फारसी लिपि में लिखी जा सकती है। हिंदुस्तानी, रेखता, उर्दू तथा दक्खिनी को पर्याय माना गया। उर्दू का प्रसार केवल नागरिक मुसलमानों तथा सरकारी दफ्तरों से संबंध रखने वाले लोगों तक ही सीमित रहा है। 

19वीं सदी में दक्खिनी की परिणति उर्दू में हुई। उर्दू के देश व्यापी प्रचार-प्रसार के लिए दिल्ली में अंजुमन तरक्किए उर्दू की स्थापना हुई। उर्दू तुर्की शब्द है जिसका अर्थ तातार खान का पड़ाव या खेमा है। तुर्किस्तान ताशकंद तथा खोकंद में उर्दू का अर्थ किला है। शाही पड़ाव के अर्थ में उर्दू शब्द भारत में संभवत: बाबर के साथ आया तथा दिल्ली का राजभवन ‘उर्दू ए मुल्ला’ अथवा ‘महान शिविर’ कहलाने लगा। दरबार तथा शिविर में जिस मिश्रित भाषा का आगमन हुआ उसे ‘जबाने उर्दू’ कहा गया। उर्दू वास्तव में दरबारी भाषा है जनसाधारण से उसका कोई संबंध नहीं।

उर्दू भाषा का जन्म

सैयद इंशा ने स्पष्ट कहा है - “लाहौर, मुल्तान, आगरा, इलाहाबाद की वह प्रतिष्ठा नहीं है जो शाहजहानाबाद या दिल्ली की है। इसी शाहजहानाबाद में उर्दू का जन्म हुआ है, कुछ मुल्तान, लाहौर या आगरा में नहीं।” उर्दू की जन्म कथा कुछ इस प्रकार है - “शाहजहानाबाद के खुशबयान लोगों ने एक मत होकर अन्य अनेक भाषाओं से दिलचस्प शब्दों को जुदा किया और कुछ शब्दों तथा वाक्यों में हेर-फेर करके दूसरी भाषाओं से भिन्न एक अलग नई भाषा ईजाद की और उसका नाम उर्दू रख दिया।” उर्दू शाहजादगाने तमूरिया (तैमूरी राजकुमारों) की ही जबान है और किला ही उस जबान की टकसाल थी। मुहम्मद हसन आजाद ने उर्दू को ‘ब्रजभाषा’ से निकली जबान कहा है।

मीर अमन देहलवी ने उर्दू को ‘बाजारी एवं लश्करी भाषा’ कहा है।

डॉ. उदय नारायण तिवारी का कहना है कि लाहौर में उस समय पुरानी खड़ी बोली प्रचलित थी। उसी को विदेशियों ने व्यवहार की भाषा बनाया। इस प्रकार फौज की भाषा जो बाद में उर्दू कहलाई, ‘खड़ी बोली’ से उत्पन्न हुई।

जार्ज ग्रियर्सन बोलचाल की ठेठ हिंदुस्तानी से ही साहित्यिक उर्दू की उत्पत्ति मानते हैं।

श्री ब्रजमोहन दत्तात्रोय कैफी ने अपने अक्तूबर, 1951 के ओरियंटल कांफ्रेंस लखनऊ के भाषण में उर्दू की उत्पत्ति के संबंध में विचार करते हुए कहा था।

“शौरसेनी प्राकृत में विदेशी शब्दों सम्मिश्रण से ही उर्दू की उत्पत्ति हुई। इसे हिंदुस्तानी भी कहा जा सकता है।”

कतिपय भाषा शािस्त्रायों के अनुसार खड़ी बोली में फारसी शब्दों के सम्मिश्रण से ही उर्दू की उत्पत्ति हुई।

‘हिंदुस्तानी ठेठ’ हिंदी का ही पर्याय है। और इसी को कतिपय विद्वानों ने खड़ी बोली नाम दिया। उर्दू की उत्पत्ति हिंदी से हुई और उर्दू वास्तव में हिंदी की ही एक शैली है।

उर्दू की जबान वस्तुत: एक वर्ग विशेष की भाषा है और यह नितांत कृित्राम ढंग से हिंदुस्तानी अथवा ठेठ हिंदी या खड़ी बोली में अरबी फारसी शब्दों तथा मुहावरों का सम्मिश्रण करके बनाई गई है। यह कार्य दिल्ली में ही किला मुअल्ला में सम्पन्न हुआ इसलिए इसको ‘जबाने-उर्दू-ए-मुअल्ला’ भी कहते हैं।

सैयद इंशा अल्ला के अनुसार - “यहां (शाहजहानाबाद) के खुशबयानयों (साधु वक्तव्यों) ने मुलफिक (एकमत) होकर मुताद्दिक (परिगठित) जबानों से अच्छे-अच्छे लफ्ज निकाले और बाजी इबारतों (वाक्यों) और अल्फाज (शब्दों) में तसर्रुफ (परिवर्तन) करके और जबानों से अलग एक नई जबान पैदा की जिसका नाम उर्दू रखा।”

उर्दू ने भाषा का रूप मीर की मृत्यु सन् 1799 ई. के पश्चात लिया जब मसहबी ने लिखा - “खुदा रक्खे जबां हमने सुनी है मीर वा मिरजा की।

उत्तरी भारत में उर्दू भाषा का साहित्य 19वीं सदी में प्रारंभ हुआ जबकि दक्खिनी में इससे पांच सौ वर्ष पूर्व काव्य सृजन होना प्रारंभ हो गया था।

उर्दू साहित्य के विकास को मुख्य रूप से तीन - आरंभिक, मध्य एवं आधुनिक कालों में विभक्त किया जा सकता है। आरंभिक काल में उर्दू काव्य का विकास दक्षिणी भारत में दक्खिनी के मसनवी रूप में हुआ। मध्यकाल में उत्तरी भारत मुख्य रूप से दिल्ली-लखनऊ के राजाओं के दरबारी वातावरण में हुआ मध्यकाल तक उर्दू कविता मुख्य रूप से गजल के रूप में इश्क और हुश्न के तंग गलियारों में अपनी कलाबाजी दिखलाती हुई सुरा-सुंदरी की तरह लोगों का दिल बहलाव करती रही। प्रेमावृत्ति की प्रधानता रही जो मनुष्य की मूलभूत पूंजी है।

आधुनिक काल में उर्दू का चरित्रा बदल गया नज्म का जमाना आ गया। नज्म ने मनुष्य के व्यापक जीवन संघर्षों और लोक जीवन की अनेक समस्याओं तथा उसके यथार्थ से नाता जोड़ लिया। अब उर्दू काव्य ऐसे मैदान में प्रवृष्ट हो गया था जहां किसी आश्रयदाता का सहारा दूर-दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होता था अपने ही बाहुल, संघर्ष शक्ति तथा बौद्धिकता का भरोसा था। जीवन का पाथेय यही बना। देश, समाज और जीवन की भाव भूमि के समक्ष खड़ा उर्दू कवि पलायन का नहीं संघर्ष का मार्ग चयन कर देश-समाज के कदम से कदम मिलाते हुए अग्रसर होने का प्रयासी बन गया था। काव्य प्रवृत्ति के अनुसार विकास के कालों को ‘मसनवी काल’, ‘गजल काल’ तथा ‘नज्म काल’ भी कह सकते हैं। ‘गजल काल’ में लखनऊ में मरसिया शोक गीत का विकास हुआ किंतु वह मुख्य प्रवृत्ति नहीं थी।

उर्दू भाषा का जन्म एवं विकास उत्तरी भारत के दिल्ली के आस - पास हुआ किंतु साहित्य का सर्वप्रथम उद्गम एवं विकास दूर दक्षिण भारत में हुआ। जिसे ‘दक्षिणी देशीय काव्य’, ‘दक्खिनी उर्दू काव्य’ या ‘दक्खिनी काव्य’ से अभिहित किया गया। उर्दू भाषा एवं साहित्य को प्रारंभ से राजकीय संरक्षण प्राप्त था जिससे विकसित प्रतिष्ठित होकर भी जन मानस की आकांक्षा की पूर्ति न कर सकी। बादशाहों ने भी उत्कृष्ट रचनाएं की।

उर्दू साहित्य का विकास

इनके अतिरिक्त लगभग चालीस मुसलमान कवियों ने मसनवी शैली में प्रबंध काव्य तथा मुक्तक रचनाएं की जिनमें अकबर हुसैनी, निजामी, मुहम्मद कुली, कुतुबशाह, वजही, गौवासी, शेख मुहम्मद जुनेद, इब्न निशाती, इश्रती, तबई, नुòती, हाशिमी, आतिशी, अमीन, मुकीमी, सनाती, रुश्तमी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

मुहम्मद कुली कुतुबशाह दक्खिनी काव्य के विशेष कवि थे। ये आध्यात्मिक थे। साहित्यिकता एवं काव्यत्व की दृष्टि से इनके काव्य में उत्कृष्टता नहीं है किन्तु भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व है।

उर्दू साहित्य का मध्यकाल

मध्यकालीन उर्दू साहित्य के विकास में दिल्ली एवं लखनऊ का विशेष योगदान रहा है। इसी के आधार पर मध्यकालीन उर्दू साहित्य को भागों में विभक्त किया जा सकता है।

दिल्ली - उर्दू साहित्य - 

उर्दू भाषा की उत्पत्ति दिल्ली के आस पास हुई किंतु पांच सौ वर्षों तक साहित्य सृजन दक्षिण में चलता रहा। दिल्ली उर्दू भाषा एवं साहित्य का प्रभुत्व बनाए रही। 18वीं शताब्दी में ऐतिहासिक परिवेश में परिवर्तन हुआ। उर्दू भाषा एवं साहित्य में नई चेतना आई। उर्दू भाषा एवं साहित्य का विकास दक्षिण से उत्तर आया। इसका श्रेय ‘वली औरंगावादी’ को है। उन्होंने उर्दू भाषा को दिल्ली में प्रतिष्ठित किया। दिल्ली यात्रा के मध्य वली ने दो महत्वपूर्ण कार्य - 
  1. उर्दू भाषा का प्रचार प्रसार किया तथा उर्दू की लोकप्रियता में वृद्धि की।
  2. गजल एवं मरसिया विधा को मसनवी के समानांतर प्रतिष्ठा प्रदान की।

वली औरंगाबादी - 

दिल्ली में वली और उनकी गजलों का अत्यधिक स्वागत हुआ। उसने फारसी के साहित्यकारों को उर्दू लेखन हेतु बाध्य कर दिया। फारसी भाषा के विद्वान कवि फितरत, उन्मीद, बेदिल, नदीम तथा आरजू आदि शिष्यों के अनुरोध पर उर्दू के शेर लिखने लगे जिनमें एक पंक्ति फारसी की तथा दूसरी पंक्ति उर्दू की होती थी। फारसी के कवियों ने स्वाभाविक रूप से दो भाषाओं को काव्य का माध्यम बनाया। जिसके संयोग से नई भाषा बनने लगी। मुगल सत्ता के प्रभाव घटने के परिणाम स्वरूप फारसी का प्रभाव भी घटने लगा। बादशाह मुहम्मद शाह उर्दू कविता का प्रेमी हो गया। उसी समय नादिरशाह दुर्रानी ने दिल्ली पर आक्रमण करके दिल्ली सल्तनत की नींव हिला दी। फारसी कवियों का राजकीय संरक्षण समाप्त हो गया फलस्वरूप जनभाषा उर्दू को सिर उठाने का अवसर मिल गया।

18वीं 19वीं शताब्दी में उर्दू कविता दिल्ली में खूब फूली भली। फारसी का प्राधान्य होने से जन मानस से दूर रही। प्रेम, सौंदर्य तथा शाश्वत सच्चाइयों की अभिव्यक्ति ने इसे लोकप्रिय बनाया। उर्दू के साथ से अब दक्खिनी शब्द अलग हो गया 18वीं शती के उर्दू साहित्य का विकास दो चरणों में हुआ। प्रथम में उर्दू कविता की नींव तैयार हुई और द्वितीय में उर्दू कवियों ने उस नीव पर भव्य महल का निर्माण किया।

प्रथम चरण के विषय में रघुपति सहाय फिराक, गोरखपुरी ने लिखा है -

प्रथम चरण या प्रारंभिक काल की चार विशेषताएं हैं -
  1. दकनी शब्द का बहिष्कार।
  2. सूफियाना विषयों की कमी और ठोस भौतिक प्रेम प्रदर्शन।
  3. वर्णन में पहले से अधिक सफाई तथा प्रवाह।
  4. शाब्दिक अनुरूपता तथा द्वयअर्थक शब्दों का अधिक प्रयोग।
इस प्रवृत्ति से संबंधित शायरों में खान आजू, शाह मुबारक आबरू, अशरफ अली फुगा, शाह हातिम, मिर्जा जानाजाना, मअहर, तांबा आदि उल्लेखनीय हैं।

द्वितीय चरण के शायरों ने उर्दू कविता को उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया जिनमें मीर तकी मीर, मुहम्मद रफी सौदा, दर्द एवं स्वज के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। पूर्ववर्ती उर्दू कविता की न्यूताओं से मुक्ति दिलाकर उसे रवानी दी। इस काल को उर्दू का स्वर्ण काल कहा जाता है।

समसामयिक कटु यथार्थ का विवेकपूर्ण प्रस्तुतीकरण किया गया। मीर की शायरी की उच्चता गालिब को भी नहीं मिली। आक्रमण कारियों के अत्याचारों से ‘मीर तथा सौदा’ दिल्ली छोड़ गए। 19वीं शताब्दी में उर्दू कविता को पुनर्जीवित करने वालों में हकीम मोमिन खां मोमिन, शेख इब्राहिम जौक, मिर्जा असदुल्ला खां गालिब, बहादुर शाह जफर, आदि का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है। इनके अतिरिक्त दिल्ली में उर्दू कविता के पुनरुत्थान में योगदान देने वाले शायरों में शाहन सीर, सेफता, तसकीन, नसीन देहलवी तथा अनवर आदि के नाम प्रमुख हैं। गालिब युग निर्माता कवि हैं। इसलिए इस युग को गालिब युग की संज्ञा दी जाती है।

लखनऊ : उर्दू साहित्य - 

लखनऊ की उर्दू शायरी को लखनवी उर्दू कविता का नाम दिया गया है। 18वीं शताब्दी में नादिरशाह, अहमदशाह तथा मराठों- जाटों के अत्याचार से शायरी दिल्ली से उचट गई। दिल्ली के स्थान पर लखनऊ उर्दू कविता का केन्द्र बन गया। लखनऊ के अलावा फर्रुखाबाद, टांडा, अजीमाबाद, मुर्शिदाबाद, हैदराबाद तथा रामपुर के राजदरबारों में शायरों ने शरण ली। अन्य स्थानों की अपेक्षा उर्दू शायरी का गढ़ लखनऊ बन गया।

लखनऊ ने उर्दू शायरी पर अपना रंग जमाया तथा उसे दिल्ली शायरी से अलग कर दिया। लखनवी उर्दू कविता को सजाने-संवारने वालों में नासिख, आतिश, अनीस तथा दबीश का नाम प्रमुख है। लखनऊ में सौदा, जौक, मुसहफी तथा इंशा ने उर्दू कविता का प्रसार-प्रचार किया। यदि नवाबों ने शायरों को शरण न दी होती, उन्हें बुला-बुलाकर सम्मानित एवं पुरस्कृत न किया होता तो लखनऊ में उर्दू शायरी का वह दौर न चल पाता जिसके लिए वह अलग से जानी-पहचानी जाती है। आसुफद्दौला, सआदत खां तथा वाजिद अली शाह ‘अख्तर’ आदि नवाबों ने उर्दू कविता को समृद्धि प्रदान की। अख्तर के चालीस ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।

लखनऊ का परिवेश प्रारंभ में गजल के लिए काफी मुफीद था। लखनऊ की पृष्ठभूमि ने मरसिया को प्रतिष्ठित किया। मरसियाकारों में मीर बबर अली, अनीस, मिर्जा सलामत अली दबीर, रशीद, आरिफ तथा नफीस आदि के नाम प्रमुख हैं। अनीस की शायरी में सहजता, सरलता तथा अलंकार प्रियता है तो दबीर में आलंकारिक क्लिष्टता, जटिलता तथा कल्पना की प्रधानता है। अनीस भाववादी तथा दबीस कलावादी शायर थे।

उर्दू साहित्य - आधुनिक काल

सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में परिवर्तन आया। अंग्रेजी शासन की सुदृढ़ता तथा उनसे मुक्ति पाने के लिए भारतीयों की बेचैनी ने सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। महात्मा गांधी का आंदोलन चल पड़ा। सन् 1947 में भारत स्वतन्त्र हो गया। इन घटनाओं से उर्दू कविता पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। एकांत प्रेम अब युगीन समस्याओं का चित्रण करने लगे।

मौलाना मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ तथा अलताफ हुसैन ‘हाली’ ने हालरायड की प्रेरणा से सन् 1874 ई. में ही लाहौर में एक नए मुशायरी की नींव डाली। ‘हाली’ ने स्थानीय रंग, वास्तविकता से लगाव तथा जीवन के सच्चे चित्राण पर बल दिया। आजाद की प्रेरणा से उर्दू कविता में नवीन चेतना का उदय हुआ। उर्दू कविता का कायाकल्प हो गया। विषयवस्तु एवं क्षेत्र में विस्तार हुआ। आधुनिक काल की शायरी ने अपनी संकुचित भावभूमि का परित्याग कर जीवन के अहम् समस्याओं से जोड़ा तथा उसने अति संयम से युगीन चेतना का चित्रण किया।

उर्दू साहित्य - नवजागरण

उर्दू साहित्य के नवजागरण (सन् 1874 - 1935 ई.) ने राष्ट्र एवं सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की। आधुनिक उर्दू का प्रारंभ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से हुआ। अंग्रेजों ने ज्ञान-विज्ञान की नवीन उपलब्धियां प्रदान की जिससे देश भक्ति तथा स्वतन्त्राता की विचारधारा का उदय हुआ। राजनीतिक आंदोलन तथा सुधारवादी आंदोलनों से उर्दू कविता प्रभावित हुई। मौलाना हुसैन, आजाद, अलताफ हुसैन, हाली, दुर्गा सहाय सुंरूर, पं. ब्रज नारायण चकबस्त तथा इकबाल जैसे शायरों ने उर्दू कविता में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की तथा देश प्रेम, राष्ट्रभक्ति एवं जातीय भावना का प्रसार किया। आजान ने भारतीयों को साहस के साथ अग्रसर होने का संदेश दिया। आजाद ने गद्य-पद्य दोनों की रचनाएं की। नज्मे आजाद तथा अबेहयात इनकी प्रसिद्ध कृतियां हैं। दुर्गा सहाय सुरूर राष्ट्रीय भावना के कवि थे। उनकी राष्ट्रीय भावना में संकीर्णता तथा इस्लामपरस्ती को स्थान नहीं मिला।

डॉ. इकबाल ने “सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा” देश को महत्वपूर्ण तराना दिया। उर्दू कवियों ने सामाजिक कुरीतियों एवं धार्मिक आडंबरों की कटु आलोचना की। जीवन मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरणा दी। बाल-विवाह तथा सती प्रथा के विरोध में शायरी लिखी।

उर्दू साहित्य - प्रगतिवादी काव्य धारा

सन् 1936 ई. में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ। इस लड़ाई में उर्दू के तरक्की पसंद शायद पीछे नहीं रहे। जमाने के दुख दर्द को पहचाना तथा भारतीयों के मुक्ति संघर्ष को शायरी का विषय बनाया। उर्दू शायरी के प्रगतिवादी शायरों में जोश मलीहावादी, अहसान दानिश, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, फैज अहमद फैज, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, अहमद नदीम ‘कासिम’, मजाज लखनवी, कैफी आजमी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जोश महीलावादी को ‘शायरे इन्कलाब’ तथा अहसान ‘दानिश’ को ‘शायरे मजदूर’ कहा जाता है। उर्दू शायरी में भौतिकवादी दृष्टिकोण आया। माक्र्स का भी प्रभाव पड़ा। जोश मलीहावादी ने इंसानियत को दीन-ईमान कहा। धर्म के ठेकेदारों की उड़कर निंदा की। अली सरदार जाफरी ने धर्म की आड़ में होने वाले अत्याचारों और अनाचारों का पर्दाफाश किया। थोथी धार्मिकता की कटु आलोचना की। बंदगी और सिजदे का विरोध किया। शोषण-शोसित वर्ग को नष्ट कर साम्यवादी व्यवस्था का प्रतिपादन किया। फिराक ने श्रमिकों के स्वाभिमान एवं शक्ति को जागृत करते हुए बड़ी क्रांतिकारी रचना प्रस्तुत की।

उर्दू साहित्य - प्रयोगवादी काव्यधारा

सन् 1943 ई. में अज्ञेय ने ‘तारशप्तक’ का प्रकाशन किया। प्रयोगवादी काव्य रचना का श्री गणेश हुआ। द्विवेदी विश्व युद्ध के पश्चात कुछ उर्दू शायरों ने परराष्ट्रीय इंग्लैंड, अमेरिका तथा फ्रांस के कतिपय कवियों - टी.एस. इलियट, एजरा पाउंड, पो बादलियर, हल्डा डुल्टन आदि से प्रेरित होकर नवीन शायदी की शुरुआत की। जो प्रगतिवादी उर्दू कविता के विरुद्ध एक नया काव्यांदोलन था। प्रगतिवादी उर्दू कविता ने नारेबाजी का रूप धारण कर लिया था। उसमें काव्यत्व हीनता आ गई थी। शायर बाºय चित्रण में ऐसा रम गया था कि आंतरिक सौंदर्य पर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती थी। स्वतन्त्र सत्ता तथा वैयक्तिक समस्याएं उपेक्षित हो गई। अभिव्यक्ति को प्रधानता दी गई। मानवीयता पर बल दिया गया। प्रयोगवादी शायर फ्रायड तथा सार्त्रा से प्रभावित रहे हैं। उर्दू के प्रयोगवादी शायरों ने शिल्पगत प्रयोगों के साथ आजाद नज्म पर जोर दिया। 

इस नवीन काव्य प्रवृति को उर्दू में हल्क-ए-अरबाब जौंक की संज्ञा दी गई। इस हलके से इत्तिफांक रखने वाले शायरों ने नून.मीम. राशिद, मीरा जी, युसुफ जफर, अख्तरुल ईमान, सलाम, मछली शहरी, करयूम नजर, मुख्तार सिद्दिकी, मुमताज मुफ्ती तथा हसन अस्करी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रयोगवादियों ने प्रतीकों के माध्यम से वैयक्तिक अनुभवों की अभिव्यक्ति को प्रमुखता दी। तरक्की पसंद वालों पर माक्र्स तथा हलकाए अरबाबे जौक पर फ्रायड का प्रभाव था। प्रयोगवादी अंतश्चेतनावादी थे।

राशिद, मीराजी, अख्तरुल ईमान तथा मख्मूर जालंधरी ने वस्तु और शिल्प के स्तर पर नए-नए प्रयोग किए तथा आजाद नज्म को जिसे बेकाफिया शायरी भी कहते हैं उसे काफी लोकप्रिय बनाया। राशिद की गुनाह और मुहब्बत, एक दिन लारेंस बाग में, जुरअते परवाज तथा शराबी आदि नज़्मों में उनके व्यक्तिवादी जीवन-दर्शन और मनोविश्लेषणवादी यथार्थ को कई रूप-रंगों में देखा जा सकता है। राशिद की शायरी में पलायनवाद है। जिंदगी को बेनकाब पाकर सातवीं मंजिल से छलांग लगार खुदकुशी करना चाहता है।

उर्दू साहित्य : स्वातंत्रयोत्तर युग

लंबे संघर्ष के बाद देश सन् 1947 ई. में आजाद हुआ। ब्रिटिश हुकूमत से निजात पाने की खुशी थी तो देश के टुकड़े हाने का दर्दनाक गम था। शायरों ने आजादी का स्वागत किया। पर शोक भी मनाया। जोश मलीहावादी, मजाज, तथा मुल्ला जैसे शायरों ने आजादी का स्वागत किया। जोश ने ‘तराना-ए-आजादी’ नज्म लिखी। कुछ दिनों बाद ही ‘मातमे आजादी’ लिखकर उसका मातम भी मना डाला। फैज ने सुबहे-आबादी नज्म में ‘दाग-दाग’ ‘उजाला’ देखा। सरदार जाफरी ने ऐसे ही माहौल-’आजादी नहीं धोखा है’-में आजादी-आजादी कहकर खुशियां मनाने वालों से बड़ी संजीदगी से पूछा - “कौन आजाद हुआ?

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मादरे हिंद के चेहरे पर उदासी है वही।”

‘राही मासूम रजा’ ने पंजाब दंगे और देश विभाजन की बड़ी ही दर्दनाक नज्म लिखी और कहा कि इस बंटवारे ने देश को ही नहीं, जिंदगी की तमाम चीजों को काट-बांट कर रख दिया है।

स्वातन्त्रयोत्तर उर्दू शायरी में अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति भी चेतना जागी। उर्दू के शायरों ने रूस, एशिया, चीन, कोरिया, मिश्र, ईरान, फिलिस्तीन आदि देशों से संबंधित उन समस्याओं पर नज्में लिखी जिनसे अंतर्राष्ट्रीय संबंधित जगत प्रभावित होता है। फैज ने ‘ईरानी तुलना के नाम’, ‘इन्कलाव-ए-रूस’ तथा फिलिस्तीनी बच्चों के लिए जो नज्में लिखीं हैं उनसे व्यापक दृष्टिकोण का पता लगता है। फैज, जोश, जिगर तथा फिराक जैसे पिछली पीढ़ी के शायर गजल लिखते रहे। यथार्थवादी और रोमानी दोनों प्रकार की गजलें हैं। व्यक्तिगत सुख-दुख, आशा-निराशा तथा प्रेम-विरह के साथ-साथ युगीन समस्याओं को गजल में अभिव्यक्ति देकर परंपरागत स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। गमें-जानां एवं गमें दौरां एक दूसरे से समन्वित हो गए।

उर्दू साहित्य : नया युग

सन् 1950 ई. के बाद उर्दू शायरी में नई कविता जैसा नया दौर शुरू हो गया जिसमें शायरों की चेतना नए आलोक में नई जिंदगी के निर्माण के लिए विकल हो उठी। नया जीवन, नया उत्साह, नई आशाएं जन्मीं जिसके परिणामस्वरूप शायरी ने भी नया मोड़ लिया। सन् 1950-1960 ई. के बीच नई काव्य चेतना से परिपूर्ण शायरों में खलीलुर्रहमान, बाकर मेहदी, वहीद अख्तर, अमीक हनफी, मजहर, राही, मासूम रजा, बलराज कोमल आदि उल्लेखनीय हैं। खलीलुर्रहमान आजमी - आइनाखाने में , कागजी पैरहन, तथा नया अहद नामा, बलराज कोमल - मेरी नज्में तथा दिल का रिश्ता, राही मासूम रजा - रक्से मय, अजनबी शहर तथा अजनबी रास्ते एवं अमीक हनफी - संग पैराइन तथा सिंवाद जैसी रचनाओं में नयेपन को गति प्रदान की। 

नव्य धारा पर आधुनिकतावाद का गहरा प्रभाव है। इन शायरों ने जीवन की विसंगतियों, विडंबनाओं एवं जटिल जीवनानुभूतियों की अभिव्यक्ति हेतु नई भाषा और नए शिल्प का आविष्कार किया। नव्य धारा के चलते हुए गजल की उपेक्षा नहीं हुई। इस समय इब्ने इंशा, खलीलुर्रहमान आजमी, मुनीर नियाजी तथा जफर इकबाल ने गजल विधा को समृद्ध किया। नए शहरों ने उर्दू गजल को नई भाषा, नई जमीन और नई चेतना दी।

उर्दू साहित्य : साठोत्तरी युग

सन् 1960 ई. के बाद उर्दू शायरी ने करवट बदली। अतिवादी प्रवृत्तियां उभरीं। ऐसे शायरों में शहर यार, विमल किरन अश्क, इफ्तेखार जालिब, शन्शुर्रहमान फारूखी जाहिदा जैदी, अहमद हुमैश तथा हसन कमाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। साठोत्तरी उर्दू शायरी में आधुनिक जीवन दृष्टि के विकास के साथ-साथ समकालीन सामाजिक एवं राजनीतिक प्रश्नों से उलझने और उनके यथार्थ रूप में चित्रांकन की चेतना जागृत हुई। आठवें दशक में जब जनवादी चेतना का उदय हुआ तो उर्दू शायरी में जनता की समस्याओं को चित्रित करने और जनसंघर्ष में उर्दू साहित्य की भूमिका को रेखांकित करने के प्रयास हुए। किन्तु सन् 1960 ई. के बाद भी आदिल मंसूरी, विमल कृष्ण अश्क, शहरयार, शम्शुर्रहमान फारूखी, बशीर बद्र, निदा फाजली तथा शीन-फाफ-निजाम आदि शायर गजल विधा को समृद्ध करने में लगे रहे।

उर्दू साहित्य का प्रमुख काव्य रूप

उर्दू शायरों ने फारसी साहित्य से विषय वस्तु, शब्द संपदा, अप्रस्तुत योजना तथा द्वंद्वों का ही ग्रहण नहीं किया है अपितु काव्य रूप भी लिए हैं। उर्दू में जिन काव्य रूपों का प्रयोग हुआ है उनमें मसनवी, गजल, नज्म, मरसिया, कसीदा, हज्व, रूबाई, वासोख्त और मुखम्मस विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा शहर आशोब्हम्द, नात, सलाम, नौहा, कतअ, फर्द, रेख्ती, मुस्तजाद, तरकीब, बंद तथा तर्जोऊबद आदि काव्य रूप भी प्रचलित रहे हैं। किंतु उर्दू शायरी में इनका विशेष विकास नहीं हुआ है।

मसनवी - सूफी प्रबंधात्मक शायरी को मसनवी कहते हैं यह एक शैली विशेष है जिसे मसनवी शैली कहते हैं। मसनवी एक ऐसा काव्य रूप है जिसके हर शेर के दोनों मिस्रे एक ही रटीफ और काफिए में होते हैं, लेकिन विभिनन शेरों के रदीफ और काफिए एक दूसरे से अलग होते हैं। पूरी मसनवी का एक ही छंद में होना अथा प्रवाह के लिए अनिवार्य होता है।

दक्खिनी - अशरफ - नौसरहार - सन् 1503 ई.; निजामी - कदमराव पदमराव; शाहमीरांजी - खुशनुमा तथा खुशनग्ज; निशाती-फूलवन; सनअती - किस्सा वे नजीर; तंबई - बहराम व गुलराम; मुहम्मद अमीन - युसूफ जुलेखा; इशरती - दीपक पतंग; नुòती - गुलशने इश्क तथा अलीनामा जैसी मसनवियां लिखकर उर्दू की मसनवी काव्य परंपरा को समृद्ध किया। इसे प्रेम गाथा काव्य धारा या मसनवी काव्य परंपरा कहा जा सकता है।

गजल - गजल उर्दू की सबसे अधिक लोकप्रिय विधा है। गजल से महफिलें रंगीन होती है। मुशायरे जवां होते हैं। गजल का शाब्दिक अर्थ - प्रेमिका से वार्तालाप है। गजल का प्रधान विषय प्रेम है। गजल में सब कुछ फारसी से लिया गया। अन्दाजें बयां ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रेमी वार्ता से उठकर गजल आध्यात्मिक विचारों की गूढ़ता का भावात्मकता के साथ प्रस्तुत करने का माध्यम बन गई। इसमें बसीर एवं मिर्जा गालिब का विशेष योगदान है। लोकप्रिय एवं गजल की अबाध परंपरा को शुरू करने का श्रेय दक्षिण के प्रसिद्ध शायरा औरंगावादी को है। शाह मुबारिक आबरू, पकरंग, खान आरजू, फुगां, तांबा, मजहर आदि शायरों ने दिल्ली में उर्दू गजल की नींव डाली। उसी नींव पर मीर सौदा, सोज, दर्द आदि ने उर्दू गजल की भव्य इमारत खड़ी कर दी। मीर गजल के बादशाह थे। मोमिन, जौक, गालिब तथा जफर ने उर्दू गजल को शिखर तक पहुंचाया।

रेख्ती - उर्दू भाषा और गजल के लिए पहले रेख्ता शब्द प्रचलित हुआ था बाद में इसी के आधार पर िस्त्रायों की भाषा को रेख्ती और उन्हीें की दशा को चिित्रात करने वाली शायरी को रेख्तीकहा गया। रेख्ती उर्दू भाषा की ‘जनाना शायरी’ है जिसमें निम्न वर्गीय औरतों की गाली-गलौज और कामुक भाषा शैली में उन औरतों की काम वासनाओं, कुंठाओं एवं दूषित मानसिक भावनाओं का वर्णन हुआ है। रेख्ती शायरों ने स्तर से बहुत नीचे उतर कामुकता और अश्लीलता की ओर से अपनी गजलों को अलग से रेखांकित किया है। दक्षिण के शायर हाशमी में इसके प्रारंभिक बीज दृष्टिगोचर होते हैं।

कसीदा - कसीदा को प्रशस्ति शायरी कहा गया है। राजा-महाराजा शासनाधिकारी अथवा किसी महापुरुष की प्रशंसा में की गई रचना कसीदा कहलाती है। फारसी अनुकरण पर उर्दू में कसीदा शायदी आई। सौदा, जौक, अमीर, ईशा तथा मुसहफी उर्दू के प्रसिद्ध कसीदाकार हैं। ‘सौदा’ को कसीदा का सम्राट कहा जाता है। दरबारों के नष्ट होने से यह परंपरा समाप्त हो गई। फिराक ने कसीदा के चार अंग - 1. भूमिका, मुख्य विषय, 3. प्रशंसा तथा 4. आशीर्वचन माने हैं।

हज्व - कसीदा अर्थात् प्रशंसा के विपरीत हज्व: अर्थात् निंदा को हज्व: की संज्ञा दी गई है। इसमें कुकृत्यों, अत्याचारों, धार्मिक रूढ़ियों, सामाजिक कुरीतियों तथा गलत व्यवस्थाओं की आलोचना की जाती है। ‘सौदा इसके सम्राट’ हैं उन्होंने समसामयिक शायरों की निंदापरक शायरी की रचना की। ‘मीर जाहिक’, फिदवी, ‘मौलवी’, ‘नुदरत’, ‘मीर, हकीम गौस’ तथा ‘मिया फीकी’ आदि सभी उसकी निंदा से नहीं बच पाए हैं।

मरसिया - मरसिया शोक गीत है जो किसी अपने प्रिय की मौल पर लिखा जाता है। गजल की तरह मरसिया भी उर्दू लोकप्रिय विधा रही है। इसमें मृत व्यक्ति के गुणों एवं कार्यों का वर्णन इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वाले उससे प्रभावित होकर प्रेरणा ग्रहण करें तथा गम में डूब जाएं। मरसिया रोने-रुलाने का उपादान है। इससे दया, प्रेम, सौहार्द, सहानुभूति तथा करुणा आदि की भावना का उदय होता है। मरसिया लिखने वाले शायरों में मोमिन, हाली, इकबाल, माजिक, चकवस्त तथा फैज आदि प्रमुख हैं। इमाम हुसैन की सहादत पर लिखे गए मरसिया में नाटकीयता एवं प्रबंधात्मकता है।

रुबाई - चार मिसरों अर्थात् पंक्तियों की रचना को रुबाई कहते हैं। इसमें पहले, दूसरे और चौथे मिसरे का रदीफ और काफिया एक होता है। पहले मिसरे में विषय का श्रीगणेश होता है। दूसरे तीसरे में विवेचन-विस्तार होता है चौथे में नाटकीय ढंग से मार्मिकता के साथ सार का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। अर्थ के घनत्व के कारण रुबाई लोकप्रिय विधा रही है। इस क्षेत्रा के शायरों में अनीस लखनवी, शाद, अजीमावादी, जोश मलीहावादी तथा फिराक गोरखपुरी आदि प्रमुख रहे हैं। फिराक की रुबाइयों का संग्रह रूप है। उमर खैय्याम की मधुशाला के आधार पर हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला लिखकर हालावाद चलाया।

नज़्म - आधुनिक काल की प्रमुख विधा नज़्म है। सन् 1867 ई. में मुहम्मद हुसैन आजाद ने नज्म को नई भावना एवं चेतना प्रदान की। सन् 1874 ई. में नज्म का विकसित रूप आया। इस वर्ष अंजुमने उर्दू की ओर से लाहौर में मुशायरा हुआ था। आजाद ने नज्म की वकालत की तथा देश एवं समाज से संबंधित नज्में पढ़कर श्रोताओं का दिल जीत लिया। नज्म के छोटी और लंबी दो रूप हैं। नज्म कारों में हाली, दुर्गा सहाय सरूर, ज्वाला प्रसाद बर्क, इकबाल, चकबस्त, जोश मलीहावादी, फैज, फिराक तथा अली सरदार जाफरी आदि प्रमुख हैं। इनकी नज्मों में राष्ट्रीयता का स्वर गूंजा तथा प्रगतिशील चेतना की अभिव्यक्ति भी हुई। नज्म की लोकप्रियता ने गजल को दबा दिया। इसे अतुकांत कविता भी कहा गया। गजल का प्रचलन अब भी है किंतु समसामयिक जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति का सशक्त एवं लोकप्रिय माध्यम आधुनिक काल में नज्म ही है। नज्म में भी आजाद नज्म (अतुकांत कविता) का विशेष महत्व है।

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