14वां शिखर सम्मेलन सितम्बर 2006 में क्यूबा की राजधानी हवाना में हुआ था। 14वां शिखर सम्मेलन, हवाना (2006) लेटिन अमेरिकी जगत में यह तीसरा किन्तु हवाना में होने वाला दूसरा सम्मेलन था। अब
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य बदल चुका था राष्ट्रपति क्रास्त्रो इतनी रूग्ण अवस्था में थे कि उनकी अनुपस्थिति
में राउल क्रास्त्रों ने सारा काम किया। 1979 में शीतयुद्ध का दौर था अगोंला व मोंजाबिक जैसे देशों
की स्वतंत्रता का प्रश्न खड़ा था ओर उस समय क्रास्त्रो ने सोवियत संघ को इस आंदोलन का
प्राकृतिक मित्र कहा था लेकिन अब ना तो शीतयुद्ध था ना ही सोवियत संघ न ही उपनिवेशीकरण का
मुद्दा। अब नये मुद्दे सामने आये जैसे सीमा पारीय आतंकवाद, संयुक्त राष्ट्र संघ का पुर्नगठन, सामान्य व
सार्वभौम निरस्त्रीकरण, पश्चिमी एशिया का संकट तथा सबसे बढ़कर एक ध्रुवीयता की स्थिति में
अमेरिकी प्रभुत्व।
इस अवसर पर वेनेजुएला ने दक्षिण दक्षिण सहयोग की बात उठाई, दक्षिण के बैंक की स्थापना का सुझाव दिया जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश व विश्व बैंक के नियंत्रण से मुक्त हो। इस नाते एक आयोग का भी गठन किया जावे जिसकी अध्यक्ष्यता फिडेल क्रास्त्रों को दी जावे। कुछ अन्य वक्ताओं ने भी एक ध्रुवीय विश्व में अमेरिकी प्रभुत्व की निंदा की क्योंकि इससे अनैक देशों की प्रभुसत्ता का हनन हो रहा है।
एक बार फिर आंदोलन की प्रासंगिकता का सवाल उठा। भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने स्पश्ट शब्दो में कहा कि यदि आज के संदर्भ में इसे प्रासंगिक होना है तो आंतकवाद के मुद्दे पर दोहरा मापदण्ड नहीं अपनाये जा सकते। हमें सारी दुनिया को यह संदेष देना चाहिये कि हम इस अभिषाप को मिटाने के लिये कृत संकल्प है। असहनषीलता या चरम पंथ की शक्तियां दुनिया के देषों का उनकी गंभीर समस्याओ (गरीबी, अज्ञानता, असमानता) से ध्यान नहीं हटा सकता। सभ्यताओ के संघर्ष के सिद्धान्त को अमान्य ठहराते हुये उन्होने गुटनिरपेक्ष देशों से आग्रह किया कि अंतर्राष्ट्रीय व पराराष्ट्रीय मुद्दों से निपटने का दृढ़ निश्चय करे।
भूमण्डलीकरण, पाश्चात्य देशों के साथ स्वच्छ व्यापारिक संबंध, विदेशी पूंजी का निवेश, विकास कार्य हेतु ऋणों की उपलब्धता, भयंकर रोग, पर्यावरणीय प्रदूषण तथा आतंकवाद। यह भी कहा गया कि अब यह आंदोलन अपने सदस्यों के लिये ऐसा मंच बन रहा है कि वह अपनी नई नीतियां या योजनाएं बना सकें। तथा परस्पर विचार विमर्श से उन्हे संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अन्र्तराश्ट्रीय निकायो के माध्यम से क्रियान्वित कर सकें।
लेकिन इस सम्मेलन में कुछ कटु अनुभव भी उजागर हुये। मोरक्को व कुछ अन्य मुस्लिम देशों के अनुचित आग्रह के कारण पश्चिमी सहारा की मुक्ति का मामला टाल दिया।
संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के इस निर्णय को लागू नहीं किया गया कि 20 वीं सदी के अंत तक लोक निर्णय के पष्चिमी सहारा को राज्य का दर्जा दिया जावें। लम्बे समय तक उसका बड़ा भाग मोरक्को व मेंस्डेनिया के कब्जे में रहा। अफगानिस्तान के इस आग्रह को अंतिम घोषणा में स्थान नहीं दिया गया कि कोई राज्य तालीबान को सहायता नहीं देगा। यह आशंका व्यक्त की गई कि मलेशिया को सम्मेलन की अध्यक्षता मिलने के समय से ही इस सम्मेलन में इस्लामी शक्तियोंं की ओर झुकाव बढ़ रहा है। भारत ने इस सुझाव का विरोध किया कि किन्ही विषेश क्षेत्रों को ही परमाणु युक्त घोशित किया जाये या इस आंदोलन के पूर्व वर्तमान व भावी अध्यक्षों का कोई त्रिगुट बनाया जाये।
संक्षेप में सम्मेलन में भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के इस वक्तव्य को पुष्टि किया कि यह विश्व शांति हेतु महान आंदोलन है, इसका सार अंतर्राष्ट्रीय शांति सुरक्षा को बनाये रखना व उसे प्रबल करना है। शीतयु़द्ध के दोर में इस आंदोलन ने दोनों महाशक्तियों के कृत्यों पर प्रहार किया था। अब शीतयुद्धोतर काल में एक मात्र महाशक्ति अमेरिकी के प्रभुत्व पर प्रबल व स्पष्ट प्रहार किया जाना स्वाभाविक है। भाग लेने वाले देशों ने यह दर्शाया कि वह अपने चिंतन व क्रियाशीलता का स्वतंत्र तरीके से प्रयोग कर सकते है ओर इस नाते वे किसी महाशक्ति के अविवेकपूर्ण प्रयासों से नियंत्रित नहीं हो सकते। एक बार फिर इस बात की पुष्टि हुई कि यह आंदोलन सर्वसम्मिति व सहमति के आधार पर काम करता है तथा विविध विचारो का समान समायोजन करता है। इस आशय को भी दोहराया गया यदि इस आंदोलन को सार्थक बनाये रखना है तो इसको पुन: जीवित एवं सबलित करते रहना चाहिये। इस आंदोलन ने उनकी प्रतिक्रियाओं का प्रबल उत्तर दिया जो यह कहते हे कि शीतयुद्ध के बाद की अवधि में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रही है।
सम्मेलन का उद्घाटन करते हुये क्यूबा के राष्ट्रपति राउल क्रास्त्रों ने कि इस
आंदोलन की रक्षा हेतु सभी सदस्य राज्यों को एकजुट होना चाहिये। यह सारे सिद्धान्त अंतर्राष्ट्रीय विधि
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में रखे हुये है। नये परिदृष्य की ओर संकेत करते हुये उन्होने ने कहा कि
एक धु्रवीय युग में गुट निरपेक्ष देष आक्रमण का शिकार हो रहे है। जिनके पीछे सामरिक संसाधनों की
खोज हेतु न बुझने वाली भूख देखी जा सकती है ओर उसी ने अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को क्षति
पहुंचाई है। आंतकवाद का खतरा है लेकिन उससे निपटने का यह मतलब नही है कि लोकतंत्र का
बचाव या दुष्ट राज्य का दमन करने की दुहाई देकर किसी देष के घरेलू मामलो में हस्तक्षेप किया
जाये। आवश्यकता इस बात की है कि 1955 में बांडुग सम्मेलन में स्वीकृत सूत्रों को ध्यान में रखकर
अंतर्राष्ट्रीय विधि को लागू किया जाये। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था को बदला जाये। थोडे़ से धनी व
विषाल निर्धन देषों की खाई को मिटाया जाये,पोशणीय विकास के लक्ष्य को सिद्ध किया जावे। तथा
सामान्य व सार्वभोम निषस्त्रीकरण की दिषा में निरंतर प्रगति की जाये।
इस अवसर पर वेनेजुएला ने दक्षिण दक्षिण सहयोग की बात उठाई, दक्षिण के बैंक की स्थापना का सुझाव दिया जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश व विश्व बैंक के नियंत्रण से मुक्त हो। इस नाते एक आयोग का भी गठन किया जावे जिसकी अध्यक्ष्यता फिडेल क्रास्त्रों को दी जावे। कुछ अन्य वक्ताओं ने भी एक ध्रुवीय विश्व में अमेरिकी प्रभुत्व की निंदा की क्योंकि इससे अनैक देशों की प्रभुसत्ता का हनन हो रहा है।
एक बार फिर आंदोलन की प्रासंगिकता का सवाल उठा। भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने स्पश्ट शब्दो में कहा कि यदि आज के संदर्भ में इसे प्रासंगिक होना है तो आंतकवाद के मुद्दे पर दोहरा मापदण्ड नहीं अपनाये जा सकते। हमें सारी दुनिया को यह संदेष देना चाहिये कि हम इस अभिषाप को मिटाने के लिये कृत संकल्प है। असहनषीलता या चरम पंथ की शक्तियां दुनिया के देषों का उनकी गंभीर समस्याओ (गरीबी, अज्ञानता, असमानता) से ध्यान नहीं हटा सकता। सभ्यताओ के संघर्ष के सिद्धान्त को अमान्य ठहराते हुये उन्होने गुटनिरपेक्ष देशों से आग्रह किया कि अंतर्राष्ट्रीय व पराराष्ट्रीय मुद्दों से निपटने का दृढ़ निश्चय करे।
यह आदोंलन दुनिया के धार्मिक या सांस्कृतिक
विभाजन को स्वीकार नहीं करता। बल्कि यह कामना करता है कि सभी धर्मो, नस्लों,जातियों व
विचारधाराओं के बीच सही सूझबूझ का सेतु बनाया जाना चाहिये।
14वां गुटनिरपेक्ष सम्मेलन की खास बाते
सम्मेलन के अंत में 92 पृष्ठ वाली
राजनैतिक घोषणा अपनाई गई। जिसकी खास बाते निम्न है -
- बहुपक्षवाद व संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के आधार पर इस आंदोलन का पुन: सबलिकरण हो सकता है। अत: यह कामना की गई कि सभी सदस्यों के बीच एकता व एकजुटता बनी रहे जिससे वह अधिक सक्रिय भूमिका निभा सके।
- विकासशील देशों में सतत विकास के लक्ष्य को सिद्ध किया जायें।
- आंतकवाद की कड़ी निंदा की गई। हां यह अवश्य कहा गया कि स्वतंत्रता आंदोलनों व राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के लिये चलने वाले संघर्ष को आंतकवाद से अलग किया जावे। सभी देशों का यह दायित्व है कि वह आंतकवाद को किसी प्रकार की नैतिक, भौतिक, राजनीतिक व कूटनीतिक सहायता देने से दूर रहें।
- लोकतंत्र सबसे अच्छी व्यवस्था है लेकिन हर देश का अधिकार है कि वह अपने ढंग से उसे परिभाषित करे व कोई बड़ा देश अपने देश का नमूना अन्य देश पर न थोपे।
- संयुक्त राष्ट्र संघ का पुर्नगठन किया जावे, सुरक्षा परिषद का विस्तार हो तथा चार्टर में यह प्रस्ताव रखा जावे कि यदि किसी देश ने वीटो शक्ति का प्रयोग किया तो महासभा अपने 2/3 बहुमत से उसे हटा सकें।
- लेबनान पर इजरायल के आक्रमण की निंदा की गई।
- यह आग्रह किया गया कि अमेंरिका व ईरान के बीच परमाणु विवाद शांतिपूर्ण तरीके से निपटाये जावे।
- फिलीस्तीन की समस्या का शांतिपूर्ण तरीके से निपटारा हो।
- विश्व में परमाणु निषस्त्रीकरण की आवश्यकता पर इसमें भी जोर दिया गया।
भूमण्डलीकरण, पाश्चात्य देशों के साथ स्वच्छ व्यापारिक संबंध, विदेशी पूंजी का निवेश, विकास कार्य हेतु ऋणों की उपलब्धता, भयंकर रोग, पर्यावरणीय प्रदूषण तथा आतंकवाद। यह भी कहा गया कि अब यह आंदोलन अपने सदस्यों के लिये ऐसा मंच बन रहा है कि वह अपनी नई नीतियां या योजनाएं बना सकें। तथा परस्पर विचार विमर्श से उन्हे संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अन्र्तराश्ट्रीय निकायो के माध्यम से क्रियान्वित कर सकें।
लेकिन इस सम्मेलन में कुछ कटु अनुभव भी उजागर हुये। मोरक्को व कुछ अन्य मुस्लिम देशों के अनुचित आग्रह के कारण पश्चिमी सहारा की मुक्ति का मामला टाल दिया।
संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के इस निर्णय को लागू नहीं किया गया कि 20 वीं सदी के अंत तक लोक निर्णय के पष्चिमी सहारा को राज्य का दर्जा दिया जावें। लम्बे समय तक उसका बड़ा भाग मोरक्को व मेंस्डेनिया के कब्जे में रहा। अफगानिस्तान के इस आग्रह को अंतिम घोषणा में स्थान नहीं दिया गया कि कोई राज्य तालीबान को सहायता नहीं देगा। यह आशंका व्यक्त की गई कि मलेशिया को सम्मेलन की अध्यक्षता मिलने के समय से ही इस सम्मेलन में इस्लामी शक्तियोंं की ओर झुकाव बढ़ रहा है। भारत ने इस सुझाव का विरोध किया कि किन्ही विषेश क्षेत्रों को ही परमाणु युक्त घोशित किया जाये या इस आंदोलन के पूर्व वर्तमान व भावी अध्यक्षों का कोई त्रिगुट बनाया जाये।
संक्षेप में सम्मेलन में भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के इस वक्तव्य को पुष्टि किया कि यह विश्व शांति हेतु महान आंदोलन है, इसका सार अंतर्राष्ट्रीय शांति सुरक्षा को बनाये रखना व उसे प्रबल करना है। शीतयु़द्ध के दोर में इस आंदोलन ने दोनों महाशक्तियों के कृत्यों पर प्रहार किया था। अब शीतयुद्धोतर काल में एक मात्र महाशक्ति अमेरिकी के प्रभुत्व पर प्रबल व स्पष्ट प्रहार किया जाना स्वाभाविक है। भाग लेने वाले देशों ने यह दर्शाया कि वह अपने चिंतन व क्रियाशीलता का स्वतंत्र तरीके से प्रयोग कर सकते है ओर इस नाते वे किसी महाशक्ति के अविवेकपूर्ण प्रयासों से नियंत्रित नहीं हो सकते। एक बार फिर इस बात की पुष्टि हुई कि यह आंदोलन सर्वसम्मिति व सहमति के आधार पर काम करता है तथा विविध विचारो का समान समायोजन करता है। इस आशय को भी दोहराया गया यदि इस आंदोलन को सार्थक बनाये रखना है तो इसको पुन: जीवित एवं सबलित करते रहना चाहिये। इस आंदोलन ने उनकी प्रतिक्रियाओं का प्रबल उत्तर दिया जो यह कहते हे कि शीतयुद्ध के बाद की अवधि में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रही है।
संदर्भ -
- Schuman, International Politics, New York, 1948
- Narman A. Grabner, Cold war Diplomacy, 1962.
- Libson, Europe in the 19th and 20th Centuries, London, 1949
- D.F. Fleming, The Coldwar and its origins, 2 vol, 1961
- J.W. Spenier, American Foreign Policy since world War II, 1960
- Robert, D. Worth, Soviet Russia in World Politics, 1965