अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का जीवन परिचय एवं प्रमुख रचनाएँ

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध हिंदी साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से हैं। हिंदी भाषा में खड़ी बोली को काव्य की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले ये ही थे। इन्हाने परंपरा से चली आ रही इस धारणा को समाप्त किया कि अवधी और ब्रज में ही महाकाव्य रचे जा सकते हैं। खड़ी बोली की क्षमता को उन्होंने प्रमाणित कर दिखाया। कई महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं से उन्हानें यह सिद्ध कर दिया कि अब खड़ी बोली में भी महाकाव्य रचे जा सकते हैं। खड़ी बोली में छोटी-बड़ी कई महत्वपूर्ण काव्य रचना करके वे इस भाषा के प्रथम महाकवि बने।

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का जीवन परिचय

अयोध्यासिंह उपाध्याय का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान पर सन् 1865 ई. को हुआ। देश में घट रही घटनाओं का उन पर असर हुआ। साहित्यिक रचना की प्रतिभा उनमें थी। सामाजिक, राजनीतिक, उथल.पुथल ने उनके दिलो दिमाग को प्रभावित किया। प्रथमतः: वे नाटक और उपन्यास लेखन की ओर आकर्षित हुए फिर धीरे धीरे कविता रचना की आरे बढ़े। सन् 1893 ई. उन्होंने ‘प्रद्यम्ु न विजय’ तथा सन् 1894 ई. में ‘रुक्मिणी परिणय’ नाटकों की रचना की। सन् 1834 में ही प्रथम उपन्यास ‘प्रेमकान्ता’ भी प्रकाशित हुआ। सन् 1899 ई. में ‘ठठे हिंदी का ठाठ’ तथा सन् 1907 ई. में ‘अधखिला फूल’ प्रकाशित हुआ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी में के अध्यापक पद पर भी काम किया। किंतु इस कार्य के लिए उन्होंने वेतन कभी नहीं लिया। आलोचना साहित्य की भी रचना की। कबीर वचनावली का सम्पादन करते हुए उन्हानें एक गद्य लेख लिखा जो आलोचनात्मक रूप से महत्वपूर्ण है। एक इतिहास गंथ्र ा ‘हिंदी भाषा और साहित्य का विकास’ की भी रचना की।

काव्य रचना की शुरुआत इन्हानें ब्रजभाषा से ही की। रस कलश की रचनाओं से हमें स्पष्ट पता चलता है कि ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था। किंतु समय की आवश्यकता को उन्होंने तुरंत समझ लिया और इसलिए खड़ी बोली में काव्य रचना आरंभ कर दी। सन् 1924 ई. में से हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रधान पद पर भी नियुक्त हुए। सन् 1947 में छिहत्तर वर्ष की आयु में इनका देहावसान हुआ।

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की प्रमुख रचनाएँ

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने गद्य पद्य दोनों में रचनाएँ कीं किंतु ख्याति उन्हें पद्य रचना में ही मिली। उनकी साहित्यिक रचनाएँ हैं।

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के नाटक

  1. प्रद्युम्न विजय (1893 ई. )
  2. रुक्मिणी परिणय (1894 ई.)

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के उपन्यास

  1. प्रेमकान्ता (1894 ई.)
  2. ठेठ हिंदी का ठाठ (1899 ई. )
  3. अधखिला फूल (1907 ई. )

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के काव्य

  1. रसिक रहस्य (1899 ई. )
  2. प्रेमाम्बवु ारिधि (1900 ई. ) 
  3. प्रेम प्रपंच (1900 ई. ) 
  4. प्रेमाम्बु प्रश्रवण (1901 ई. )
  5. प्रेमाम्बु प्रवाह (1909 ई.)
  6. प्रेम पुष्पहार (1904 ई.)
  7. उद्बोधन (1906 ई. )
  8. काव्योपवन (1909 ई.)
  9. प्रिय प्रवास (1914 ई.)
  10. कर्मवीर (1916 ई.)
  11. ऋतु मुकरु (1917 ई. )
  12. पद्य प्रसून (1925 ई.)
  13. पद्यम प्रमादे (1927 ई. )
  14. चोखे चौपदे (1932 ई.)
  15. वैदेही वनवास (1940 ई.)
  16. चुभते चौपदे
  17. रस कलश
हिंदी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी यगु अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य के क्षेत्र में इस समय एक परिवर्तन उपस्थित हुआ। पुरानी परंपरा को त्याग कर नई विचारधारा का समावेश हुआ। साहित्यकारों ने देखा कि केवल कल्पना लोक की बातों को लुभावने शब्दों से प्रस्तुत करना ही साहित्य नहीं है बल्कि जीवन की वास्तविकता पर आधारित साहित्य ही सच्चा साहित्य है। उस साहित्य का कोई मूल्य नहीं जिसमें कोई सच्चाई प्रकट न की गई हो और जिससे व्यक्ति एवं समाज का काइरे लाभ न हो। ईश्वर आदि की कल्पना कर बहुत दिनों से लुभावने साहित्य की रचना की गई। लेकिन ऐसे साहित्य से न तो व्यक्ति को लाभ हुआ और न ही समाज को। अत: सामाजिक आवश्यकता को सामने रख कर ही साहित्य रचना की शुरुआत हुई। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध भी इसी परिवर्तन काल के कवि हैं। उन्हानें तत्कालीन सामाजिक स्थिति को देखते हुए अपने काव्य की रचना की। 

परंपरा से चले आ रहे कृष्ण के ब्रह्म स्वरूप को छोड़कर उसे उन्हानें एक आदर्श व्यक्ति, एक आदर्श नेता तथा एक लोकोपकारक मानव के रूप में चित्रित किया। रीतिकालीन बनावटीपन के घरे से निकलकर वास्तविकता पर आधारित काव्य की रचना ही उनका मुख्य उद्देश्य रहा। उनका नायक कोई अदृश्य शक्ति सपंन्न महामानव नहीं बल्कि इसी धरती पर बसने वाला एक साधारण मानव है और उस साधारण मानव में जनता की भलाई करने की इच्छा है। कृष्ण के लोकोपकारी रूप की रचना के पक्ष में दिया गया उनका यह मतंव्य अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा उनकी प्रगतिशीलता का परिचालक है।

‘‘हम लोगों का यह संस्कार है वह यह कि जिनको हम अवतार मानते हैं उनका चरित्र जब कहीं दृष्टिगाचेर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते हैं जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरूपण हो। मैंने श्रीकृष्ण को इस गथ्र में एक महापुरुष की भांति अंकित किया है, बह्रा्र करके नहीं। मैंने भगवान श्रीकृष्ण का जो चरित्र अंकित किया है, उस चरित्र का अनुधावन करके आप स्वयं विचार करें कि वे क्या थे मने यदि लिखकर बताया कि वे ब्रह्म थे और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रही। आधुनिक विचार के लोगों को यह प्रिय नहीं कि आम पंक्ति-पंक्ति में तो भगवान श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चलें और चरित्र लिखने के समय . ‘‘कतर्मु कर्तुमन्यायकतुर्स मर्थ: प्रभु:’’ के रंग में रंग कर ऐसे कायारे का कतार उन्है। बनाएं कि जिनके करने में एक साधारण विचार के मनुष्य का भी घृणा होवे। संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन ही समझा जावे परंतु मैंने उसी विचार को सम्मुख रखकर इस ग्रन्थ को लिखा है, और कृष्ण चरित्र को इस प्रकार किया जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हों।’’

वास्तव में यह समय की मांग थी। उन्नीसवीं सदी में जो एक नवजागरण की लहर आई तो उस समय चिंतकों के लिए भी यह उद्देश्य सामने ला दिया कि सब प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने भी समय की नब्ज को पहचाना। समय की मांग और आवश्यकता के अनुरूप काव्य रचना की। उन्होंने कृष्ण के ब्रह्म स्वरूप को बिल्कुल ही नकार दिया। उनके काव्य का नायक एक ऐसा महापुरुष है जो जन-जन का कल्याण चाहता है। उसका चरित्र समाज का ही एक अंग है न कि विशिष्ट। उसे समाज के प्रत्येक सदस्य के दुख-दर्द का एहसास है। वह सबकी दुर्बलताओं का भी पहचानता है। समाज के उत्थान के लिए वह स्वयं ही कष्ट झेलने को सदा तत्पर है। उसके अंदर जो प्रेम है जो दया तथा सेवा भावना निहित है उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलती है। उसके आचरण, व्यवहार, रीति-नीति एवं समुचित कार्य से लोगों को सद्गति पर चलने की प्रेरणा मिलती है। 

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी की प्रमुख रचना है ‘‘प्रियप्रवास’’। इसमें हम हर जगह यह पायेंगे कि कवि ने कृष्ण को ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत किया है जो साधारण मानव होते हुए भी सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए ही कार्य करता है। निम्न उदाहरण को ध्यान से पढ़िए  -

अपूर्व आदर्श दिखा नरत्व का।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता।
सिखा उन्हानें वित्त की समुच्चता।
बना दिया सभ्य समग्र गोप को।
थोड़ी अभी यदि है उनकी अवस्था।
तो भी नितांत रत वे इस कमर् में हैं।

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उनके साहित्य में परिवर्तन का स्वर सब जगह है। कवि विभिन्न प्रवृत्तियों को समावेश कर एक नए समाज की कल्पना में मग्न है। वह किसी भी पुरातनपंथी व्यवस्था को समर्थन नहीं देता। सच्चा साहित्य वही है जो जन कल्याण पर आधारित हो। इस युग में ऐसे ही साहित्य को लोकप्रियता भी मिलती जो समाज के लिए उपयोगी होता। विभिन्न राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से संपूर्ण राष्ट्र में उथल-पुथल की स्थिति थी। साहित्य के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहा था। अंग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीय समाज में एक परिवर्तन का दारै शुरू हो गया था। विभिन्न सामाजिक संगठनों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं पर कुठाराघात हो रहा था। 

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