ब्रजभाषा उत्तर प्रदेश की प्रमुख बोली है। यह पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत परिगणित एक विभाषा या बोली है। इसकी उत्पत्ति शौरसैनी प्राकृत से हुई है।
इस प्रकार इस युग तक भाखा का आशय संस्कृति से भिन्न इतर भाषा थी। सम्भवत: जिसे मुस्लिमों द्वारा हिन्दी या हिन्दवी कहा जाता था उसे ही भारतीयों द्वारा भाखा कहा जाता था। इसके अतिरिक्त साधुओं की रचनाओं में भी ब्रजभाषा बोली के अनेक रूप मिलते हैं। ‘‘सन्तों की सधुक्कड़ी भाषा पर ब्रजभाषा का पर्याप्त प्रभाव दिखाई पड़ता है।’’ कालान्तर में जहाँ अन्य बोलियों का साहित्य दब गया और ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा मान लिया गया। यहीं से ब्रजी को भाषा या बोली का गौरव मिला और तुलसी के बाद भाखा या भाषा का प्रयोग ब्रजभाषा के लिये किया जाने लगा। इस प्रकार कबीर से तुलसी तक भाखा या भाषा का आशय केवल हिन्दी भाषा अथवा देशी बोलियाँ थी यथा- ‘‘संसकीरत कूप जल, भाखा बहुता नीर।’’ --- कबीर का भाखा का संस्कृत भाव चाहिये सांच। ---तुलसी
ताही तैं यह कथा यथामति भाषा कीनी नन्ददास।’’
ब्रजभाषा का यह स्वरूप 11वीं शती से ही निर्धारित होने लगा था ब्रजभाषा ब्रजमण्डल की बोली है। इसे भाखा, मध्यदेशी, अन्तर्वेदी, ग्वालियरी पिंगल नामों से पुकारा जाता है। इसका क्षेत्रफल 27 हजार वर्ग मील है तथा बोलने वालों की संख्या एक करोड़ से ऊपर है।
‘‘ब्रजभाषा ललित कलित कृष्ण की बोलि।
या ब्रजमण्डल में दुर्गा, ताकी घर घर केलि।।
यहीं से चहुँ दिसि विस्तरी, पूरब पश्चिम देश।
उत्तर दछिन लों गई, ताकी छटा विसेस।।’’
ब्रजभाषा का तो श्रीकृष्ण लीला के साथ इतना तादात्म्य हो गया है कि उनके लीला गान से भी पृथक इसका अपना अस्तित्व है। इस बात का ज्ञान केवल इने गिने लोगों को होगा। ब्रजभाषा की बातें करते ही तुरन्त सबके मन में- ‘‘मैया मैं नहि माखन खायौ’’
प्रतिध्वनित होने लगता है। मालूम नहीं पड़ता है कि किसी अन्य बोली का भी किसी महाविभूति की जीवन लीला में इतना तादात्म्य है ऐसा गौरव ब्रजभााा को ही प्राप्त है। इससे स्पष्ट है कि सल्तनत काल तक ब्रजभाषा बोली के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है।
मध्यकालीन में हिन्दी का प्रतिनिधित्व साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से ब्रजभाषा करती थी और राजकार्य में हिन्दुस्तानी जनता के लिये बादशाह की ओर से जो आज्ञा पत्र जारी किये जाते थे वे ब्रजभाषा में होते थे इसमें राज कार्य की बात तो विशेष उल्लेखनीय नहीं है क्योंकि ब्रजभाषा के सन्दर्भ में इसके प्रमाण कम मिलते हैं। मध्यकाल में ब्रजभाषा का स्वरूप केवल साहित्य के क्षेत्र में निर्मित हो रहा था। यही कारण है कि भक्तिकाल के पश्चात उत्तर मध्यकाल तक ‘भाषा’ या ‘भाखा’ का अर्थ ब्रजभाषा के रूप में रूढ़ हो गया और प्राय: सभी परवर्ती कवियों ने इसे बोली से भाषा के रूप में मान्यता दे दी और यदि सही अर्थों में कहा जाये तो जिसे हिन्दी कहा जाता है उसका सार्वदेशिक स्वरूप उत्तर मध्यकाल में ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप में ही निखरा।
इस प्रकार ब्रजभाषा का प्रभाव भारत विशेषकर उत्तर भारत वर्ष की समस्त बोली तथा भाषाओं पर पड़ा।
ब्रजभाषा और खड़ी बोली में अंतर
1. खड़ी बोली- हिन्दी का विकास संस्कृति, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश से होता हुआ खड़ी बोली के मानक रूप में अब स्वीकृत हुआ है। बोली के रूप में खड़ी नाम का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1800 में लल्लू लाल ने किया था इसके अतिरिक्त सदल मिश्र ने खड़ी बोली नाम का प्रयोग इसी अर्थ में किया खड़ी बोली में मूर्धन्य ध्वनियों की अधिकता हैं इन कड़ी ध्वनियों के कारण इसका खड़ी नाम पड़ा।
ब्रजभाषा और अवधी में कड़ापन अधिक होने के कारण उन्हें पड़ी (गिरी हुई) बोली कहा जाने लगा था। इसलिये इस भाषा को खड़ी बोली कहा गया कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इसे फोर्ट विलियम में ब्रज और बाँगरू की टेक देकर खड़ा किया गया इसलिए इसका नाम खड़ी बोली हुआ।
इस बोली के नामकरण के सन्दर्भ में एक जनश्रुति यह प्रचलित है कि मुहम्मद तुगलक ने गैर हिन्दोस्तानी गुलामों को निकालने के लिए ‘खड़ी’ शब्द का उच्चारण कराते हुए गुलामों का परीक्षण किया। चूँकि पूर्व बंगाल, कश्मीर तथा पठानी खड़ी शब्द ‘क’, ‘ख’ और ‘ड़’ का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते थे इसलिए वे गैर देहलवी माने गये हैं। गुलामों की श्रेणी में नहीं माने गये।
हिन्दी का नाम खड़ी कैसे पड़ा इस पर विद्वान एकमत नहीं हैं (ब्रजभाषा) की अपेक्षा यह बोली वास्तव में खड़ी सी लगती है, कदाचित इसी कारण इसका नाम खड़ी बोली पड़ा।’’ यह सही है कि ब्रजभाषा की सी कोमलता और मधुरता इसमें नहीं है उसकी तुलना में यह खड़ी-खड़ी लगती है।’’
2. ब्रजभाषा- हिन्दी पद्य साहित्य में ब्रजभाषा का महत्व सर्वमान्य है। साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा को काव्य क्षेत्र में महत्व प्रदान किया गया है। जब खड़ी बोली काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी तक भी ब्रजभाषा में काव्य रचना हो रही थी। ब्रजभाषा में लड़िका एकवचन और बहुवचन दोनों रूप में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार ‘घर’ शब्द ‘घरु’ ही है। खड़ी बोली के बिगड़े हुये रूप ही ब्रजभाषा में आते हैं। ब्रजभाषा में हिन्दी के समान ही विशेषणों में लिंग और वचन के अनुसार मूल और तिर्यक रूप में कोई अन्तर नहीं होता।
इस बोली के नामकरण के सन्दर्भ में एक जनश्रुति यह प्रचलित है कि मुहम्मद तुगलक ने गैर हिन्दोस्तानी गुलामों को निकालने के लिए ‘खड़ी’ शब्द का उच्चारण कराते हुए गुलामों का परीक्षण किया। चूँकि पूर्व बंगाल, कश्मीर तथा पठानी खड़ी शब्द ‘क’, ‘ख’ और ‘ड़’ का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते थे इसलिए वे गैर देहलवी माने गये हैं। गुलामों की श्रेणी में नहीं माने गये।
हिन्दी का नाम खड़ी कैसे पड़ा इस पर विद्वान एकमत नहीं हैं (ब्रजभाषा) की अपेक्षा यह बोली वास्तव में खड़ी सी लगती है, कदाचित इसी कारण इसका नाम खड़ी बोली पड़ा।’’ यह सही है कि ब्रजभाषा की सी कोमलता और मधुरता इसमें नहीं है उसकी तुलना में यह खड़ी-खड़ी लगती है।’’
2. ब्रजभाषा- हिन्दी पद्य साहित्य में ब्रजभाषा का महत्व सर्वमान्य है। साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा को काव्य क्षेत्र में महत्व प्रदान किया गया है। जब खड़ी बोली काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी तक भी ब्रजभाषा में काव्य रचना हो रही थी। ब्रजभाषा में लड़िका एकवचन और बहुवचन दोनों रूप में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार ‘घर’ शब्द ‘घरु’ ही है। खड़ी बोली के बिगड़े हुये रूप ही ब्रजभाषा में आते हैं। ब्रजभाषा में हिन्दी के समान ही विशेषणों में लिंग और वचन के अनुसार मूल और तिर्यक रूप में कोई अन्तर नहीं होता।
उदाहरण में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में अन्तर स्पष्ट हो जाता है।
- खड़ी बोली में जहाँ ‘ए’ ‘ओ’ पाया जाता है। ब्रजभाषा में ‘ऐ’ और ‘ओ’ मूलस्वरों की अपेक्षा कम विवृत हैं।
- खड़ी बोली के शब्द के अन्त में जहाँ पर ‘आ’ मिलता है, ब्रजभाषा में उसके स्थान पर ‘ओ’ मिलता है।
- छोटी बहन की नन्द की सास बीमार है (छोट्टी बाहण की नन्द की सासू बिजार है)
- लाला तुमने धन के लिए बेटे को घर से निकाल दिया (लाल्ला तमनै बेट्टे कूँ धण के खात्तर घरों से काढ़ दिया।
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