प्रयोगशाला विधि
जीव विज्ञान की शिक्षा प्रयोगशाला के बिना अपूर्ण हैं इस विधि के माध्यम से छात्र विषय
वस्तु को सरलता से ग्रहण करते हैं। माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक विद्यालय में प्रयोगशाला
अनिवार्य हैं यह विधि जीव विज्ञान शिक्षण की सरलतम विधि हैं। यह विधि शिक्षक के
संरक्षण में चलने वाली पद्धति हैं। इसके लिये प्रत्येक विद्यालय में एक प्रयोगशाला होती हैं,
जहां छात्र अध्यापक के नेतृत्व में प्रयोग करते हैं।
इस विधि में छात्रों को स्वयं प्रयोगशाला
में प्रयोग करनें का अवसर मिलता हैं छात्रों को शिक्षक आवश्यक निर्देश देकर प्रयोग हैंत ु
उपकरण तथा सामग्री देते हैं जिनकी सहायता से छात्र स्वयं निरीक्षण करते हैं परीक्षण
करते हैं अथवा Dissection करते हैं जीव विज्ञान विषय में मुख्य रूप से जन्तुओं का
Dissection, हड्डियों का अध्ययन, स्लाइड तैयार करना, पौधे तथा जन्तुओं को सुरक्षित
काटना तथा उनको रंगना, शरीर क्रिया सम्बन्धी प्रयोग, पौधे तथा जन्तुओं को सुरक्षित
रखना तथा जड़ना आदि कार्य किया जाता हैं।
यह सभी कार्य छात्र शिक्षक के संरक्षण में
प्रयोगशाला में करते हैं प्रयोग करने के बाद निरीक्षण, चित्र खींचना, प्रयोग सम्बन्धी निष्कर्ष
तथा विवरण छात्र अपनी प्रयोगात्मक पुस्तिका में करते हैं इसके उपरान्त शिक्षक इसका
मूल्यांकन करता हैं। इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता हैं तथा शिक्षक निरीक्षण
करते हैं इसके द्वारा छात्रों में प्रयोगात्मक योग्यता का विकास होता हैं। प्रयोगशाला में ही
यह विधि नहीं समाप्त हो जाती बल्कि तालाब, नदियां, झील, उद्यान, पहाड़, जंगलों कृषि
क्षेत्र जैव -संग्रहालय आदि भी प्रयोगशाला के अंग हैं।
इस विधि द्वारा खोज की प्रवृति भी जाग्रत होती हैं। उचित विधि के द्वारा किसी समस्या या
प्रयोग के परिणाम पर पहुँचना ओर खोज द्वारा प्राप्त तथ्यों का उल्लेख करना इसी विधि के
अंग हैं।
छात्रों को प्रयोगशाला के कार्यों को प्रयोगशाला में ही ईमानदारी से समाप्त करना चाहिए।
अपनी समस्या के समाधान के लिये छात्रों को भी प्रयोग के सुझाव देने चाहिए तथा इन प्रयोगों को विधिवत सावधानी के साथ ओर ठीक ठीक करना चाहिए। सरल ओर अप्रत्ययी प्रयोगों को प्राथमिकता देनी चाहिए ओर इनका प्रयोगात्मक महत्व दैनिक जीवन से संबंधित परिस्थितियों द्वारा समझाना चाहिए।
प्रयोगात्मक कार्य करने के उपरान्त छात्रों को संबंधित सामग्री तथा उपकरणों को सावधानी पूर्वक यथा स्थान रख देना चाहिए। मेज इत्यादि साफ कर देनी चाहिए, ताकि छात्रों के अगले समूह को कठिनाई न हो।
प्रयोगशाला में बातचीत न करें तथा संबंधित समस्या को अध्यापक से पूछे इससे शांतिपूर्ण वातावरण रहेगा तथा छात्रों की एकाग्रता बनी रहेंगी।
चीर फाड करने के उपरान्त जन्तु अथवा पेड़ पौधों को कूड़ादान या उचित स्थान पर फेंके, ताकि प्रयोगशाला स्वच्छ रहें।
इस विधि की सफलता के लिये प्रयोग कार्य की उत्तम योजना, प्रयोगों की विविधता, उपकरणों एवं यन्त्रों (सामग्री) की यथोचित मात्रा एवं क्रियाशीलता आवश्यक हैं प्रयोग सम्बन्धी सहायक पुस्तकें एवं अध्यापक का सहयोग, निर्देशन एवं पथ प्रदर्शन भी इस विधि की सफलता के लिये आवश्यक हैं।
प्रयोगशाला विधि के दोष
- अनेक प्रयोग वास्तविक कार्य नहीं होते हैं, इसलिये प्रायोगिक कार्य नीरस हो जाता हैं।
- नकल की सम्भावना अधिक हो जाती हैं, अतः छात्रों के परिणाम एवं निष्कर्षो पर निगरानी रखना आवश्यक हैं।
- यह निश्चित नहीं कि वैज्ञानिक विधियों से समस्या का हल करना सीखा जाये, अतः बाद के जीवन में इसकी उपयोगिता संदिग्ध हैं।
- कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं, जिन्हें प्रदर्शन विधि द्वारा अच्छी प्रकार समझाया जा सकता हैं।
- छात्रों की सक्रियता न हो तो यह विधि असफल होती हैं।
- नाजुक उपकरणों का छात्रों द्वारा ट ूटने का भय रहता हैं।
- सम्पूर्ण पाठ्यक्रम की प्राप्ति इस पद्धति द्वारा सम्भव नहीं हैं।
- जीव विज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर कम बल दिया जाता हैं।
- उन प्रकरणों के लिये उपयोगी नहीं हैं। भावी जीवन में भी अधिकांश बालकों के लिये इसका कोई उपयोग नहीं रह पाता।
- यह विधि व्यक्ति सापेक्ष हैं अतः इसके द्वारा विज्ञान शिक्षण की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती।
- छात्रों के लिये योजना बनाने, व्यक्तिगत रूप से उनके कार्य का निरीक्षण करने एवं उपकरण की देखभाल करने से व्यर्थ में ही अध्यापक का बहुत सा समय नष्ट हो जाता हैं।
प्रयोगशाला विधि में ध्यान रखने योग्य बातें
छात्र जिस जन्तु, पौधे (तने, जड़, पती) की चीर फाड, पहचान करना, प्रयोग आदि कार्य करें उसकी जानकारी तथा तैयारी प्रारम्भ में ही कर लें।छात्रों को प्रयोगशाला के कार्यों को प्रयोगशाला में ही ईमानदारी से समाप्त करना चाहिए।
अपनी समस्या के समाधान के लिये छात्रों को भी प्रयोग के सुझाव देने चाहिए तथा इन प्रयोगों को विधिवत सावधानी के साथ ओर ठीक ठीक करना चाहिए। सरल ओर अप्रत्ययी प्रयोगों को प्राथमिकता देनी चाहिए ओर इनका प्रयोगात्मक महत्व दैनिक जीवन से संबंधित परिस्थितियों द्वारा समझाना चाहिए।
प्रयोगात्मक कार्य करने के उपरान्त छात्रों को संबंधित सामग्री तथा उपकरणों को सावधानी पूर्वक यथा स्थान रख देना चाहिए। मेज इत्यादि साफ कर देनी चाहिए, ताकि छात्रों के अगले समूह को कठिनाई न हो।
प्रयोगशाला में बातचीत न करें तथा संबंधित समस्या को अध्यापक से पूछे इससे शांतिपूर्ण वातावरण रहेगा तथा छात्रों की एकाग्रता बनी रहेंगी।
चीर फाड करने के उपरान्त जन्तु अथवा पेड़ पौधों को कूड़ादान या उचित स्थान पर फेंके, ताकि प्रयोगशाला स्वच्छ रहें।
इस विधि की सफलता के लिये प्रयोग कार्य की उत्तम योजना, प्रयोगों की विविधता, उपकरणों एवं यन्त्रों (सामग्री) की यथोचित मात्रा एवं क्रियाशीलता आवश्यक हैं प्रयोग सम्बन्धी सहायक पुस्तकें एवं अध्यापक का सहयोग, निर्देशन एवं पथ प्रदर्शन भी इस विधि की सफलता के लिये आवश्यक हैं।
प्रयोगशाला विधि के गुण
- इस विधि द्वारा दिया गया ज्ञान रूचिकर तथा स्थायी होता हैं, साथ ही विद्यार्थी यर्थाथता से परिचित होकर स्वयं करके सीखता हैं।
- यह समस्या हल करने की उत्तम विधि हैं समस्या का हल प्रयोगों के आधार पर किया जाता हैं।
- छात्रों में निर्णय शक्ति, तर्क, निरीक्षण आदि गुणों का विकास होता हैं।
- सीखने के उत्तम अवसर छात्र को प्राप्त होते हैं।
- छात्र क्रियाशील रहता हैं तथा उसमें आत्मविश्वास पैदा होता हैं।
- छात्र विभिन्न उपकरणों का स्वयं प्रयोग करते हैं इसमें उन्हें यंत्रों की क्रियाविधि का प्रत्यक्ष ज्ञान होता हैं इसके अतिरिक्त छात्रों में प्रयोग कोशल का विकास भी होता हैं।
- इससे विद्यार्थी में वैज्ञानिक प्रवृति उत्पन्न होती हैं छात्र निरीक्षण करने, तर्क करने प्रयोग करने, स्वतंत्र चिन्तन करने में दक्षता प्राप्त करना हैं।