अल्पाधिकार अपूर्ण प्रतियोगिता का एक महत्वपूर्ण रूप है। अल्पाधिकार उस स्थिति को कहा जाता है जिसमें किसी वस्तु
के दो या दो से अधिक (परन्तु बहुत अधिक नहीं) उत्पादक या विक्रेता होते हैं। यद्यपि कुछ या अधिक फर्मों के मध्य कोई
सीमा निर्धारण कठिन है। परन्तु यदि एक वस्तु के उत्पादकों की संख्या दो से दस तक हो तो इस स्थिति को अल्पाधिकार
कहा जाता है। जब कुछ विक्रेताओं की वस्तुएं समान हो तो उसे शुद्ध अल्पाधिकार कहा जाता है। दूसरी ओर जब विभिन्न
विक्रेताओं या फर्मों की वस्तुएं विभेदीकृत परन्तु एक-दूसरे के निकट स्थानापन्न हैं तो इसे अपूर्ण अल्पाधिकार कहा जाता है।
2. पूर्ति पर नियंत्रण - इस बाजार में प्रत्येक फर्म उत्पादों का काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है । वह बाजार में कुल पूर्ति का काफी बड़ा अनुपात होता है। परिणामस्वरूप फर्म को कुछ अंश तक एकाधिकार शक्ति प्राप्त होती है और वह कीमत तथा कुल बाजार पूर्ति पर कुछ नियंत्रण कर सकती है।
3. फर्मों की परस्पर निर्भरता - इस बाजार में क्योंकि फर्मों की संख्या थोड़ी कम होती है और प्रत्येक फर्म का कीमत अथवा पूर्ति पर कुछ हद तक नियंत्रण होता है। एक फर्म के द्वारा कीमत और उत्पादन में किए गए परिवर्तनों का विरोधी फर्मों पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार अल्पाधिकार बाजार में व्यावसायिक फर्मों की रणनीतियाँ अन्य फर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ पैदा करती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि अल्पाधिकार बाजार में फर्मों में परस्पर निर्भरता पाई जाती है।
अल्पाधिकार का अर्थ
अल्पाधिकार से अभिप्राय बाजार की उस परिस्थिति से है जब किसी उद्योग में सीमित मात्रा में फर्में होती है। प्रत्येक फर्म ऐसे उत्पाद का उत्पादन करती है जो कि अन्य फर्मों के उत्पाद का निकट स्थानापन्न या समरूप हो सकता है। इस तरह के अल्पाधिकार को विशुद्ध अल्पाधिकार का नाम दिया जाता है। यदि अल्पाधिकार फर्में विभेदीक्रत उत्पाद का उत्पादन करें तो इस परिस्थिति को विभेदीकरण अल्पाधिकार का नाम दिया जाता है। अल्पाधिकार में प्रत्येक फर्म प्रतिस्पर्धी फर्मों के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए अपनी कीमत उत्पादन मात्रा की नीति निर्धारित करती है।अल्पाधिकार की विशेषताएँ
1. थोड़े विक्रेता - अल्पाधिकार बाजार में थोड़े अथवा कम संख्या में विक्रेता होते हैं। विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक फर्म का बाजार में भाग इतना बड़ा होता है कि वह कीमत को और विरोधी फर्मों की व्यावसायिक रणनीति को प्रभावित कर सकते हैं।2. पूर्ति पर नियंत्रण - इस बाजार में प्रत्येक फर्म उत्पादों का काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है । वह बाजार में कुल पूर्ति का काफी बड़ा अनुपात होता है। परिणामस्वरूप फर्म को कुछ अंश तक एकाधिकार शक्ति प्राप्त होती है और वह कीमत तथा कुल बाजार पूर्ति पर कुछ नियंत्रण कर सकती है।
3. फर्मों की परस्पर निर्भरता - इस बाजार में क्योंकि फर्मों की संख्या थोड़ी कम होती है और प्रत्येक फर्म का कीमत अथवा पूर्ति पर कुछ हद तक नियंत्रण होता है। एक फर्म के द्वारा कीमत और उत्पादन में किए गए परिवर्तनों का विरोधी फर्मों पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार अल्पाधिकार बाजार में व्यावसायिक फर्मों की रणनीतियाँ अन्य फर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ पैदा करती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि अल्पाधिकार बाजार में फर्मों में परस्पर निर्भरता पाई जाती है।
4. उत्पादों का स्वरूप - उत्पादों के स्वरूप के आधर पर अल्पाधिकार को शुद्ध और विभेदीकृत अल्पाधिकार श्रेणियों
में बाँटा जा सकता है। शुद्ध अल्पाधिकार वह है जिसमें प्रतियोगी फर्मों द्वारा पैदा किए गए उत्पाद
समरूप होते हैं। विभेदीकृत अल्पाधिकार बाजार में समरूप अथवा विभेदीकृत वस्तुओं का उत्पादन
होता है।
5. बिक्री लागतों की भूमिका - अल्पाधिकारी उत्पादों की कीमत नीति में विज्ञापन, प्रचार एवं बिक्री बढ़ाने की अन्य विधियों
की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने और अधिक लाभ
कमाने की प्रेरणा से अल्पाधिकारी बाजार में फर्में यह सब काम करती हैं।
6. कीमत जड़ता - अल्पाधिकारी फर्में बहुत सोच समझकर प्रतिस्पर्धी फर्मों के साथ विचार-विमर्श कर एवं एक
आयोजित रणनीति के अंतर्गत ही अपने उत्पादों की कीमत निर्धारित करती हैं। अतः एक बार जब
ऐसी कीमत निश्चित कर दी जाती है तो इसे बार-बार बदला नहीं जाता अल्पाधिकारी फर्म अपने
उत्पाद की कीमत कम भी नहीं करना चाहती क्योंकि वह जानती है कि प्रतिक्रिया में प्रतिस्पर्धी फर्में
भी कीमतें कम कर देंगी और कीमत युद्ध आरंभ हो जाएगा। इसी तरह अल्पाधिकार फर्में कीमत
बढ़ाएगी तो उस फर्म का उत्पाद बाजार में बिक नहीं पाएगा। परिणामस्वरूप अल्पाधिकार फर्मों की
कीमतों में सापेक्ष रूप से बदलाव नहीं आते।
7. समूह व्यवहार - अल्पाधिकारी फर्म द्वारा लिए जाने वाले उत्पादन की मात्रा एवं कीमतों से संबंधित निर्णय से
सभी प्रतिस्पर्धी फर्में प्रभावित होती हैं। इस परस्पर निर्भरता के कारण सभी फम्रें परस्पर सहयोग पर
भी विचार करती हैं। आपसी समझौते एवं सहयोग के सहारे सभी फर्में अध्कि लाभ कमाने का
प्रयास करती हैं। इसीलिए प्रायः अल्पाधिकारी फर्मों द्वारा व्यक्तिगत निर्णय ना लेकर सामूहिक निर्णय
लिए जाते हैं।
8. सुनिश्चित माँग वक्र - अल्पाधिकार की अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि अल्पाधिकारी फर्म कभी भी अपनी बिक्री
का सम्पूर्ण पूर्वानुमान नहीं लगा सकती। ऐसी फर्म अपने उत्पाद के माँग वक्र की प्रकृति एवं स्थिति
के बारे में सुनिश्चित नहीं हो सकती। किसी एक फर्में द्वारा जब अपने उत्पाद की कीमत अथवा
उत्पादन की मात्रा बदली जाती है तो प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धी फर्में भी युत्तिफसंगत कदम उठाती है।
परिणामस्वरूप अल्पाधिकार का माँग वक्र सुनिश्चित नहीं हो सकता।
अल्पाधिकार के स्रोत
अल्पाधिकार प्रमुऽतः उन्हीं कारणों से उत्पन्न होता है जो कि एकाधिकारी बाजार को जन्म देते हैं।1. बड़े पैमाने के उत्पादन की बचतें - फर्मों की संख्या थोड़ी होने के कारण वह बड़े पैमाने पर उत्पादन करती हैं और सम्पूर्ण
बाजार माँग बहुत कम इकाई लागत पर पूरा कर सकती है। इस तुलना में बड़ी संख्या में उत्पादक
छोटे पैमाने पर उत्पादन ऊँची इकाई लागत पर करते हैं। पैमाने की बचतों के कारण बाजार में
वर्तमान फर्मों को निश्चित लागत लाभ प्राप्त होता है। यह बाजार में संभावित फर्मों के प्रवेश पर रोक
का भी काम करती है।
2. भारी पूंजी आवश्यकता - कई उद्योगों जैसे लोहा और इस्पात, भारी इंजीनियरिंग उद्योग, रसायन, ऽाद इत्यादि उद्योगों में
पूंजी गहनता बहुत अधिक होती है। उन उद्योगों में ना केवल शुरू का पूंजी ऽर्च बहुत भारी होता है,
उनमें कार्यात्मक तथा रखरखाव की लागत भी काफी ऊँची होती है। इस तरह नई फर्मों के प्रवेश पर
भारी पूंजी आवश्यकता एक दुर्गम रोक है और बाजार में थोड़ी संख्या में फर्में काम करती रहती हैं।
3. उत्पाद विभेदीकरण - उत्पाद विभेदीकरण बाजार में फर्मों के प्रवेश पर एक प्रमुख रोक है। बाजार में वर्तमान फर्में
संभवतः उत्पाद की विभिन्न किस्मों को तैयार करती हैं। यदि नई फर्मों की अपनी उत्पाद किस्में ना
हो तो वह अन्य फर्मों से ग्राहकों को आकर्षित नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप थोड़ी संख्या में फर्मों
का कार्य करना जारी रह सकता है और बाजार की संरचना अल्पाधिकारिक बनी रहती है।
4. विलय और स्वामित्व अधिग्रहण - कई बार बाजार में विभिन्न फर्मों का आपस में विलय हो जाता है अथवा एक बड़ी और
वित्तीय दृष्टि से सुदृढ़ फर्म प्रतियोगिता को समाप्त करने के लिए अन्य फर्म का स्वामित्व अधिग्रहण
कर लेती है। ऐसे प्रबंध से बाजार में ढाँचें का दो प्रकार से रूपांतरण हो जाता है, पहला इनसे फर्मों
में प्रतियोगिता समाप्त हो जाती है और दूसरा उनसे उत्पादन के केंद्रीयकरण में वृद्धि हो जाती है।
फर्मों के ऐसे संयोग नई फर्मों के प्रवेश पर प्रभावपूर्ण अवरोध् लगाकर अधिक लाभ पैदा करने में
सफल हो जाते हैं। परिणामस्वरूप बाजार में फर्मों की संख्या कम रहती है जिससे अल्पाधिकार का
उदय होता है।
अल्पाधिकारी बाजार के माॅडल
- कूनों, बरद्रेन्ड़ तथा एजवर्थ द्वारा प्रतिपादित प्रतिष्ठित माॅडल
- कीमत नेतृत्व माॅडल
- कपट सन्धायी अल्पाधिकारी माॅडल
- विकुंचन मांग अल्पाधिकारी माॅडल
1. कूर्नो माॅडल -
आज से 150 वर्ष पूर्व आॅग्सटीन कूर्नो ने अल्पाधिकारी बाजार के व्यवहार का माॅडल प्रस्तुत
किया था यह माॅडल तीन मान्यताओं पर आधरित है-
- केवल दो ही फर्में बाजार में हैं अर्थात् द्वैदाध्किार है।
- दोनों फर्मों का मुख्य उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना है।
- प्रत्येक फर्म दूसरी फर्म के उत्पाद को देखकर उत्पादन करती है अर्थात् प्रत्येक फर्म दूसरी फर्म की क्रिया को देखकर प्रतिक्रिया करती है।
- द्वैद्वाध्किार - दो फर्मों की बाजार में उपस्थिति
- माँग वक्र का एक सरल रेखा के रूप में होना
- दोनों पफर्मों के लिए सीमांत लागत का शून्य माना जाना
- कूर्नो के माॅडल की भांति एक फर्म नेतृत्व फर्म है। पहले वह उत्पाद को निर्धारित करेगी उसके बाद दूसरी फर्म उसका अनुसरण करती है।
- फर्मों के मध्य सहकारिता नहीं है तथा दोनों फर्म स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं।
- दोनों फर्म समरूप वस्तु का विक्रय करती हैं।
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