लेखन शिक्षण का अर्थ, उद्देश्य, गुण, विधि, प्रविधियाँ

आधुनिक समय में व्यक्ति अपने मनोभावों का प्रकटीकरण भाषा के माध्यम से दो रूपों में करता है। 1. मौखिक भाषा के माध्यम से 2. लिखित भाषा के माध्यम से । मौखिक रूप के अन्तर्गत भाषा का ध्वन्यात्मक रूप एवं भावों की मौखिक अभिव्यक्ति है। जब इन ध्वनियों को प्रतीकों के रूप में व्यक्त किया जाता है, और इन्हें लिपिबद्ध करके स्थायित्व प्रदान करते हैं, तो वह भाषा का लिखित रूप कहलाता है। भाषा के इस प्रतीक रूप की शिक्षा, प्रतीकों को पहचान कर उन्हें बनाने की क्रिया अथवा ध्वनि को लिपिबद्ध करना लिखना है।

लेखन शिक्षण के उद्देश्य

लेखन शिक्षण का अर्थ जानने के पश्चात यह जरूरी हो जाता है कि हम लेखन शिक्षण के उद्देश्यों को भली-भाँति जाने।
  1. सोचने एवं निरीक्षण करने के उपरान्त भावों को क्रमबद्ध रूप में व्यक्त कर सकेगा। 
  2. सुपाठ्य लेख लिख सकेगा। 
  3. शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिख सकेगा। 
  4. ध्वनि, ध्वनि समूहों, शब्द, सूक्ति, मुहावरों का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। 
  5. विराम-चिन्हों का यथोचित प्रयोग कर सकेगा। 
  6. अनुलेख, अतिलेख, तथा श्रतुलेख लिख सकेगा। 
  7. व्याकरण सम्मत भाषा का प्रयोग करने में सक्षम होंगे। 
  8. वह वाक्यों में शब्दों, वाक्यांशों तथा उपवाक्यों का क्रम अर्थानुकूल रख सकेगा। 
  9. विभिन्न रचना वाले वाक्यों का शुद्ध गठन करेगा। 
  10. अभीष्ट सामग्री ही प्रस्तुत करेंगे।
  11. क्रमबद्धता बनाये रखेंगे। 
  12. भाव की दृष्टि से अभिव्यक्ति में संक्षिप्तता ला सकेंगें। 
  13. विद्यार्थी लिखित अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों की तकनीक का विधिवत् पालन करने में समर्थ होंगे। 
  14. वह लिखित अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों के माध्यम से अभिव्यक्ति कर पाने में सक्षम होंगे।

लेखन शिक्षण के गुण

  1. लेखन, सुन्दर, स्पष्ट एवं सुडौल हो।
  2. उसमें प्रवाहशीलता एवं क्रमबद्धता हो 
  3. विषय (शिक्षण) सामग्री उपयुक्त अनुच्छेदों में विभाजित हो। 
  4. भाषा एवं शैली में प्रभावोत्पादकता हो। 
  5. भाषा व्याकरण सम्मत हो। 
  6. अभिव्यक्ति संक्षिप्त, स्पष्ट तथा प्रभावोत्पादक हो।

लेखन शिक्षण की प्रविधियाँ

लेखन शिक्षण कब से प्रारम्भ किया जाये, शिक्षाशास्त्रिायों में मतैक्य नहीं है। प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्राी फ्रोबेल ने पढ़ने की क्रिया पहले और लिखने की क्रिया को बाद में रखने का सुझाव दिया है। वहीं दूसरी तरफ श्रीमती मारिया माण्टेसरी ने ‘लिखाने सिखाने को पहले, तत्पश्चात् पढ़ना सिखाने का समर्थन किया है।’ इन दोनों मतों से भिन्न एक तीसरा मत भी है। इसे दोनों मतों का समन्वयक कह सकते हैं क्योंकि अधिकांश शिक्षाविशारदों का मत है कि पढ़ना-लिखना साथ साथ चलना चाहिए। 

अतः कहा जा सकता है, लेखन-शिक्षा अन्तिम सोपान है,। जब भाषा शिक्षक को यह विश्वास हो जाये कि बच्चे की हाथ की मांसपेशियाँ सुदृढ़ हो चुकी है, और वह लिखने में सक्षम है, तब थोड़े-थोड़े समय लेखन का अभ्यास कराना चाहिए।

लेखन की शिक्षण विधि

1. माण्टेसरी विधिः मान्टेसरी ने लिखना सिखाने में आँख, कान और हाथ- तीनों के समुचित प्रयोग पर बल दिया है। उनके मतानुसार पहले बालक को लकड़ी अथवा गत्ते या प्लास्टिक के बने अक्षरों पर ऊँगली फेरने को कहा जाये, फिर उन्हें पेंसिल को उन्हीं अक्षरों पर घुमवाना चाहिए। पेंसिल प्रायः रंगीन होनी चाहिए। इसी प्रकार बालक अक्षरों के स्वरूप से परिचित होकर उन्हें लिखना सीख जाता है।

2. रूपरेखानुकरण विधिः इस विधि में शिक्षक श्यामपट्ट या स्लेट पर चाँक या पेंसिल से बिन्दु रखते हुए शब्द या वाक्य लिख देता है और उन निशानों पर पेंसिल से लिखने के लिए बोलता है, जिससे शब्द, वाक्य या वर्ण उभर आये। इस प्रकार अभ्यास के माध्यम से वह वर्णों को लिखना सीख जाता है।

3. स्वतंत्र अनुकरण विधिः शिक्षक इस प्रविधि में श्यामपट्ट, अभ्यास पुस्तिका, या स्लेट पर अक्षरों को लिख देता है। कहा जाता है कि उन अक्षरों को देखकर उनके नीचे स्वयं इसी प्रकार के अक्षर बनाये। प्रारम्भ में बच्चे इस विधि से लिखना सीखते है।

4. जेकाॅटाॅट विधिः इस प्रणाली (विधि) में शिक्षक बालकों द्वारा पढ़े हुए वाक्य को स्वयं लिखकर लिखने के लिए दे देता है। एक-एक शब्द लिखकर अध्यापक द्वारा लिखित शब्द से मिलाते हुए स्वयं संशोधन करते चलते है। और पूरा वाक्य लिखने के पश्चात् शिक्षक मूल वाक्य को बिना देखे हुए उन्हें लिखने को कहता है, स्वयं लिखते हैं।

लिखना सिखाने में ध्यान देने योग्य बातें

लिखना सिखाते वक्त अध्यापक को निम्न तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
  1. बैठने का ढ़ंगः लिखते समय रीढ़ की हड्डी सीधी रहे। झुक्कर लिखने की आदत न पड़ने पाये। 
  2. अभ्यास पुस्तिका की आँखों से दूरीः अभ्यास पुस्तिका को आँखों से लगभग 1 फुट की दूरी पर रखकर लिखें। 
  3. कलम पकड़ने की विधिः पहली और दूसरी ऊँगली के बीच में कलम रखकर उसे अँगूठे से पकड़ना चाहिए, कलम की निब को लगभग एक इंच से ऊपर पकड़ना चाहिए। 
  4. पढ़नाः लिखने के साथ-साथ पढ़ना भी हो, नहीं तो लिखना निरर्थक हो जायेगा। 
  5. उपयुक्त वातावरणः समय, स्थान आदि की उपयुक्तता पर शिक्षक को ध्यान रखना चाहिए।
  6. सुडौल अक्षरः अक्षरों को सुन्दर बनाने का प्रयत्न करे। अक्षर पूरे लिखे जाये, तभी वह सुडौल होंगे। 
  7. शिरारेखाः शिरारेखा अक्षर का आवश्यक अंग है। अतः इस का प्रयोग किया जाना चाहिए। 
  8. बायें से दायेंः सभी वर्णों, वाक्यों के लिखने का क्रम बायें से दायें रहे। 
  9. सीधी लिखाईः अध्यापक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वर्णों की खड़ी रेखाएं तिरछी ना होकर सीधी हो। 
  10. नमूना उपयुक्त होः अध्यापक द्वारा बनाए गए शब्द व अक्षर (माॅडल) आदर्श हो, जिनके आधार पर लिख सके। 
  11. लिपि-प्रतीकः अनुस्वार, विसर्ग, हलन्त, मात्राओं के प्रयोग में सावधानी रखनी चाहिए। छोटे-छोटे लिपि प्रतीकों की भूल से लेख विकृत हो जाता है। 
  12. अभ्यासः लिखना एक कला है, अतः बौद्धिक एवं मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए अभ्यास करवाये।
अभ्यास को आगे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है- 1. सुलेख 2. अनुलेख 3. श्रुतलेख ।

1. सुलेखः सुन्दर लेख को सुलेख कहते हैं। लिखना सिखाते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए,  लिखावट खराब न होने पाये। सुलेख शिक्षित व्यक्ति का आवश्यक लक्षण है। 

2. अनुलेखः सुन्दर लिखावट के लिए प्रतिलेख और अनुलेख का भी आश्रय लिया जाता है। अनुलेख का अर्थ है- किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना अनुलेख के लिए अभ्यास पुस्तिका की प्रथम पंक्ति में मोटे और सुन्दर ढंग के अक्षर, शब्द या वाक्य लिखे होते हैं, उनके नीचे की पंक्तियाँ रिक्त रहती है। इस विधि में छपे हुए अक्षरों के नीचे देखकर स्वयं अक्षर बनाता है। अनुलेख का प्रारम्भिक कक्षाओं में विशेष महत्त्व है। कक्षा तीन तक अनुलेख का अभ्यास कराना चाहिए। 

3. श्रुतलेखः ‘श्रुतलेख’ सुना हुआ लेख है। इस विधि में अध्यापक बोलता जाता है, छात्रा सुनकर अभ्यास-पुस्तिका या तख्ती पर लिखता जाता है। श्रुतलेख में सुन्दर लिखावट का महत्त्व नहीं हैं। महत्ता भाषा की शुद्धता का हो जाता है। श्रुतलेख वर्तनी-शिक्षण के लिए आवश्यक है। सुनकर लिखने में एक निश्चित गति से लिखना का अभ्यास हो जाता है।

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