मांग की लोच का अर्थ एवं परिभाषा, प्रकार

किसी वस्तु की मांग, विशेष रूप से, उसकी कीमत, उपभोक्ता की आय तथा संबंधित वस्तु की कीमत पर निर्भर करती है। अतः ‘मांग की लोच’ से यह ज्ञात होता है कि किसी वस्तु की कीमत अथवा उपभोक्ता की आय अथवा संबंधित वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने से उस वस्तु की मांग की मात्रा में कितना परिवर्तन हुआ है। डूली के शब्दों में, ‘‘एक वस्तु की कीमत, उपभोक्ता की आय तथा संबंधित वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने से उस वस्तु की मांगी गई मात्रा में होने वाले परिवर्तन के माप को मांग की लोच कहा जाएगा।’’

मांग की लोच का अर्थ एवं परिभाषा

मांग की लोच, मांग के किसी संख्यात्मक निर्धारक में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन तथा इसके फलस्वरूप मांग की मात्रा में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन का अनुपात है। 

मार्शल के शब्दों में, ‘‘मांग की लोच की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि यह मांग की मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन को कीमत के प्रतिशत परिवर्तन से भाग देने पर प्राप्त होती है।’’

बोल्डग के अनुसार, ‘‘मांग की कीमत लोच कीमत में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप मांग में होने वाले परिवर्तन की प्रतिक्रिया को मापती है।’’

मांग की लोच के प्रकार

मांग की लोच कितने प्रकार की होती है, मांग की लोच मुख्य रूप से तीन प्रकार की हो जाती है-
  1. मांग की कीमत लोच 
  2. मांग की लोच और 
  3. मांग की आड़ी लोच।

मांग की कीमत लोच 

यदि अन्य बातें समान रहें एक वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने से उस वस्तु की मांगी गई मात्रा में होने वाले परिवर्तन के माप को मांग की कीमत लोच कहा जाता है। यह कीमत में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन तथा मांग में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन के अनुपात के बराबर होती है। यह इस बात को मापती है कि वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने से उसकी मांगी गई मात्रा में कितना परिवर्तन होता है। मांग की लोच उस अनुपात को प्रकट करती है जिस पर कीमत बढ़ने पर मांग में संकुचन तथा कीमत घटने पर मांग में विस्तार होता है। मांगी गई मात्रा और कीमत में विपरीत संबंध पाया जाता है। इसीलिए मांग की लोच को ऋणात्मक (-)  चिन्ह द्वारा व्यक्त किया जाता है। 

लिप्सी के शब्दों में, ‘‘चूंकि मांग वक्र का ढलान ऋणात्मक होता है, इसलिए कीमत और मात्रा में सदा विपरीत दिशाओं में परिवर्तन होगा। एक परिवर्तन धनात्मक तथा दूसरा ऋणात्मक होगा जो मांग की लोच के माप को ऋणात्मक बना देगा।’’ परंतु प्रथा के अनुसार ऋणात्मक चिन्ह को छोड़ दिया जाता है और मांग की कीमत लोच को संख्या में व्यक्त कर दिया जाता है। 

उदाहरण के लिए, यदि आइसक्रीम की कीमत में 10 प्रतिशत कमी इसकी मांगी गई मात्रा में 15 प्रतिशत वृद्धि  लाती है, तब मांग की लोच निम्नलिखित होगी- 

15% 
Ed = (–) ———— = 1.5
(–) 10%

ऋणात्मक चिन्ह को इसलिए छोड़ दिया जाता है ताकि कोई संदिग्धता पैदा न हो। यह कहना भ्रांतिपूर्ण हो सकता है कि (–) 4 का लोच गुणांक -2 से अधिक होगा, इस संभावित भ्रांति से बचा जा सकता है। यदि हम केवल यह कहें कि 4 का गुणांक 2 के गुणांक की तुलना में अधिक लोच को व्यक्त करता है। अतः मांग की कीमत लोच के  मूल्य से पहले घटाने (–) के  चिन्ह का सामान्यतया प्रयोग नहीं किया जाता।

                    मांग की मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन
    Ed = (–) ————————————
                    कीमत में प्रतिशत परिवर्तन 

मान लो कीमत में 10 प्रतिशत कमी होने के फलस्वरूप मांग में 20 प्रतिशत का विस्तार होता है। तब मांग की
लोच होगी -
 
 20% 
Ed = (–) ——— = 2        
(–)10%

मांग की कीमत लोच की सामान्य स्थितियाँ 

सामान्यतः मांग की कीमत लोच की तीन स्थितियाँ हो सकती हैं-
  1. मांग की लोच = इसे इकाई मांग की लोच कहा जाता है।
  2. मांग की लोच > 1  इसे इकाई से अधिक मांग की लोच कहा जाता है। मांग की इस कीमत लोच को इकाई से अधिक लोचदार भी कहा जाता है।
  3. मांग की लोच < 1  इसे इकाई से कम मांग की लोच कहा जाता है। इसे कम लोचदार मांग भी कहा जाता है। मांग की लोच की उपरोक्त सभी स्थितियों को निम्नलिखित चित्रों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

मांग की कीमत लोच की दो अंतिम सीमाएँ

मांग की कीमत लोच की दो अंतिम सीमाएँ शून्य तथा अनन्त -मांग की मूल्य सापेक्षता की दो अंतिम सीमाएँ 1. शून्य तथा 2. अनंत ।

1. मांग की शून्य कीमत लोच - मांग की लोच शून्य तब होती है जब कीमत में कोई भी परिवर्तन होने पर वस्तु की मांगी गई मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु की कीमत में चाहे कितना भी परिवर्तन क्यों न हो उसकी मांगी गई मात्रा में कोई विस्तार या संकुचन नहीं होता। इस स्थिति को पूर्णतया बेलोचदार मांग कहा जाता है।

2. मांग की अनन्त कीमत लोच - मांग की लोच अनन्त तब होती है जब कीमत में बहुत थोड़ा सा परिवर्तन होने पर भी किसी वस्तु की मांगी गई मात्रा में अनन्त परिवर्तन होता है। मांग की लोच अनन्त तब होती है जब किसी वस्तु की प्रचलित कीमत पर एक फर्म के उत्पादन की कितनी भी मात्रा की मांग की जाती है परंतु यदि फर्म कीमत में थोड़ी-सी वृद्धि कर देती है तो फर्म के उत्पादन की बिल्कुल भी मांग नहीं की जाती।

माँग की लोच के मापने की विधियाँ

माँग की लोच के माप से यह ज्ञात होता है किसी वस्तु की माँग (i) इकाई या(ii) इकाई से अधिक या
(iii) इकाई से कम लोचदार है। माँग की लोच के मापने की कई विधियाँ हैं-
  1. कुल व्यय विधि 
  2. आनुपातिक या प्रतिशत विधि 
  3. बिंदु लोच विधि 
  4. चाप लोच विधि 
  5. आय विधि 
1. कुल व्यय विधि - माँग की लोच मापने की कुल व्यय विधि का प्रतिपादन डा. मार्शल ने किया था। इस विधि के  अनुसार, माँग की लोच को मापने के  लिए यह मालूम करना चाहिए कि किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने से उस पर किए जाने वाले कुल व्यय में कितना परिवर्तन किस दिशा में होता है- 

2. प्रतिशत या आनुपातिक विधि - माँग की कीमत लोच को मापने की दूसरी विधि प्रतिशत अथवा आनुपातिक विधि कहलाती है। इस विधि के अनुसार, माँग की कीमत लोच का अनुमान लगाने के लिए माँग में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन को कीमत में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन से भाग कर दिया जाता है। 

3. बिंदु लोच विधि - माँग वक्र के किसी बिंदु पर माँग की लोच बिन्दु  लोच कहलाती है। लेफ्रटविच के अनुसार, ‘‘माँग वक्र के किसी बिंदु पर कीमत के सूक्ष्म परिवर्तन के फलस्वरूप जो लोच मापी जाती है उसे बिंदु लोच कहते हैं।’’ सरल माँग वक्र पर कीमत लोच, वक्र के ढलान तथा उस बिंदु, जिस पर माप किया जाता है, पर निर्भर करती है। अतः एक माँग वक्र के विभिन्न बिंदुओं पर कीमत लोच भिन्न होगी। इसलिए माँग वक्र के प्रत्येक बिंदु पर माँग की लोच अलग से मापी जाती है। चाप लोच कीमत परिवर्तन की औसत अनुक्रिया का एक माप है जो एक माँग वक्र पर दो बिंदुओं के बीच के भाग को प्रदर्शित करता है। एक माँग वक्र पर दो बिंदुओं के बीच के भाग को चाप कहा जाता है। जब मध्य बिंदु या औसत कीमत तथा मात्रा के प्रयोग करने से जो लोच प्राप्त होती है उसे चाप कीमत लोच कहा जाता है। 

5. आय विधि  - माँग की लोच ज्ञात करने की पाँचवीं विधि आय विधि है। एक फर्म को उसके उत्पादन की बिक्री से जो बिक्री मूल्य प्राप्त होता है, उसे फर्म की आय कहा जाता है। मान लीजिए 10 मीटर कपड़ा बेचकर एक फर्म को 50 रुपए प्राप्त होते हैं। इन 50 रुपयों को फर्म की कुल आय कहा जाएगा।

माँग की कीमत लोच को प्रभावित करने वाले तत्व 

वास्तविक जीवन में हम देखते हैं कि कुछ वस्तुओं की माँग की लोच इकाई होती है, कुछ वस्तुओं की माँग की लोच इकाई से अधिक या लोचदार होती है तथा कुछ वस्तुओं की माँग की लोच इकाई से कम अथवा बेलोचदार होती है। इसका कारण यह है कि माँग की लोच कई तत्त्वों द्वारा प्रभावित होती है। माँग की लोच को निर्धारित करने वाले मुख्य तत्त्व हैं- 

1. वस्तु की प्रकृति - अर्थशास्त्र में वस्तुओं का वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में किया जाता है, वे हैं (i) आवश्यकता की वस्तुएँ  (ii) आरामदायक वस्तुएँ और (iii) विलासिता की वस्तुएँ । सामान्यतया यह देखा गया है कि अनिवार्य वस्तुएँ जैसे नमक, मिट्टी का तेल, माचिस आदि की माँग इकाई से कम या बेलोचदार होती है। इसका कारण यह है कि एक उपभोक्ता इन वस्तुओं की एक निश्चित मात्रा खरीदता है, चाहे इनकी कीमत में वृद्धि हो अथवा कमी। इसलिए इनकी कीमतों में होने वाले परिवर्तन का इनकी माँग पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत विलासिता की वस्तुओं जैसे एयरकंडीशनर, नोट कीमती फर्नीचर आदि की माँग इकाई से अधिक अथवा लोचदार होती है। इसका कारण यह है कि इनकी कीमत में होने वाला परिवर्तन इनकी माँग को काफी प्रभावित करता है। आरामदायक वस्तुओं जैसे ट्रांजिस्टर, कूलर, पंखा आदि की कीमत लोच इकाई के बराबर या इकाई के  समीप होती है। 

2. स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता- जिन वस्तुओं के जितने अधिक स्थानापन्न उपलब्ध होंगे, उनकी माँग की लोच भी उतनी ही अधिक होगी। जिन वस्तुओं के स्थानापन्न जैसे चाय का स्थानापन्न काॅफी, पेन का स्थानापन्न बाॅल पेन, मिल्कशेक का स्थानापन्न लस्सी, सैंडिलों का स्थानापन्न चप्पल आदि, ये उचित कीमत पर उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनकी माँग लोचदार होती है। इसका कारण यह है कि यदि किसी वस्तु की कीमत उसके स्थानापन्न की तुलना में कम हो जाती है तो लोग उस वस्तु की अधिक मात्रा खरीदेंगे। उदाहरण के लिए, यदि काॅफी, चाय की तुलना में, सस्ती हो जाती है तो काॅफी की माँग में काॅफी वृद्धि होगी, तथा चाय की माँग में काॅफी कमी हो जाएगी। जिन वस्तुओं के स्थानापन्न नहीं हैं जैसे सिगरेट, शराब आदि इनकी माँग बेलोचदार होती है। 

3. विभिन्न उपयोगों वाली वस्तुएँ - एक वस्तु के जितने अधिक उपयोग होते हैं उतनी ही उसकी माँग अधिक लोचदार होती है। वे वस्तुएँ जिनको विभिन्न उपयोगों में इस्तेमाल किया जाता है, इनकी माँग लोचदार होती है। उदाहरण के लिए, बिजली के विभिन्न उपयोग हैं। इसका प्रयोग बल्ब, हीटर, प्रेस गर्म करने आदि कई कार्यों में किया जाता है। यदि बिजली की कीमत बढ़ जाएगी तो इसका प्रयोग महत्त्वपूर्ण कार्यों जैसे रोशनी के लिए बल्ब जलाने में ही किया जाएगा। इस प्रकार कीमत में होने वाली वृद्धि की तुलना में बिजली की माँग में अधिक कमी होगी। 

4. माँग का स्थगन - जिन वस्तुओं की माँग को भविष्य के लिए स्थगित किया जा सकता है उनकी माँग लोचदार होती है। उदाहरण के लिए, यदि मकान बनाने की माँग को भविष्य के लिए स्थगित किया जा सकता है तो मकान की सामग्री जैसे ईंट, रेत, सीमेंट, चूना आदि की माँग लोचदार होगी। इसके विपरीत जिन वस्तुओं की माँग को भविष्य के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, जैसे भूख लगने पर भोजन और प्यास लगने पर पेय पदार्थ, तो इनकी माँग बेलोचदार होती है। 

5. उपभोक्ता की आय  - जिन लोगों की आय बहुत अधिक या बहुत कम होती है, उनकी माँग सामान्यतया बेलोचदार होती है। इसका कारण यह है कि कीमत के घटने या बढ़ने का, इन लोगों द्वारा की जाने वाली माँग पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत मध्य वर्ग के लोगों की माँग लोचदार होती है। इन लोगों द्वारा माँगी जाने वाली वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर उनकी माँग में अपेक्षाकृत कमी हो जाती है। 

6. उपभोक्ता की आदत - उन वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है जिनके लिए लोगों की आदत बन जाती है जैसे सिगरेट, काॅफी आदि। इसका कारण यह है कि इन वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर भी उपभोक्ताओं की माँग में कमी नहीं आती। 

7. किसी वस्तु पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात - आय का जितना अधिक अनुपात किसी वस्तु पर खर्च किया जाता है उतनी ही उस वस्तु के लिए माँग अधिक लोचदार होगी। जिन वस्तुओं पर उपभोक्ता अपनी आय का बहुत कम अनुपात खर्च करता है जैसे अखबार, टूथपेस्ट, बूट पालिश आदि, इनकी माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की कीमतें बढ़ने पर इनकी माँग में कमी नहीं होती। इसके विपरीत जिन वस्तुओं पर उपभोक्ता अपनी आय का काफी अधिक भाग खर्च करता है जैसे कपड़े, बढि़या भोजन, डैजर्ट कूलर, फल आदि, इनकी माँग लोचदार होती है। इनकी कीमत बढ़ने पर इनकी माँग कम हो जाती है क्योंकि उपभोक्ता इनकी स्थानापन्न वस्तुएँ खोजने लगता है। 

8. कीमत स्तर - बहुत अधिक कीमत और बहुत कम कीमत वाली वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है। अधिक कीमत वाली वस्तुएँ जैसे हीरे, जवाहरात, कीमती गलीचे आदि की माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की कीमतों में परिवर्तन इनकी माँग में बहुत थोड़ा परिवर्तन लाता है। इसी प्रकार जिन वस्तुओं की कीमत बहुत कम होती है जैसे माचिस, पोस्टकार्ड, सस्ती सब्जियाँ आदि इनकी माँग भी बेलोचदार होती है। इनकी कीमतों में परिवर्तन होने का इनकी माँग पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत जिन वस्तुओं की कीमत मध्यम श्रेणी की होती है, अर्थात् जो न तो बहुत सस्ती और न ही बहुत महँगी होती है, उनकी माँग लोचदार होती है। इन वस्तुओं की कीमत कम होने पर इनकी माँग में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि होती है। 

9. समय - अल्पकाल की तुलना में दीर्घकाल में माँग अधिक लोचदार होती है। समय की अवधि जितनी लंबी होती है उतना ही उपभोक्ता को नई कीमत के साथ समन्वय करने का समय मिल जाता है, इसलिए माँग अधिक लोचदार हो जाएगी। यदि समन्वय के लिए बहुत कम समय मिलता है तब माँग बेलोचदार होगी। अतः अल्पकाल में किसी वस्तु की माँग बेलोचदार और दीर्घकाल में लोचदार होती है। 

10. पूरक वस्तुएँ - वे वस्तुएँ जिनकी संयुक्त या पूरक माँग होती है, उनकी माँग सापेक्षतया बेलोचदार होती है जैसे कार और पेट्रोल, पेन और स्याही, कैमरा और फिल्म। पेट्रोल की कीमत बढ़ने पर भी पेट्रोल की माँग में कमी नहीं होगी, यदि कारों की माँग में कमी नहीं होती है।

माँग की कीमत लोच का महत्व 

माँग की कीमत लोच का सैद्ध ांतिक तथा व्यावहारिक महत्व है- 

1. एकाधिकार के अंतर्गत कीमत निर्धारण-एक एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत निर्धारित करते समय माँग की लोच को ध्यान में रखता है। यदि (i) माँग लोचदार है तो एकाधिकारी उस वस्तु की कीमत कम रखेगा। कीमत कम होने से वस्तु की बिक्री अधिक होगी और उससे प्राप्त होने वाली कुल आय अधिक होगी। (ii) यदि माँग बेलोचदार है तो एकाधिकारी उस वस्तु की कीमत अधिक रखेगा। कीमत के अधिक होने से उस वस्तु की बिक्री तो कम होगी परंतु उससे प्राप्त होने वाली कुल आय में वृद्धि होगी। 

2. कीमत विभेद -एकाधिकारी जब किसी वस्तु को विभिन्न क्रेताओं को विभिन्न कीमतों पर बेचता है, तो इस स्थिति को कीमत विभेद कहा जाता है। एक एकाधिकारी कीमत विभेद की नीति को उस समय अपना सकता है जब किसी वस्तु की माँग की लोच विभिन्न उपयोगों के लिए अथवा विभिन्न उपभोक्ताओं के लिए भिन्न-भिन्न होती है। वह उन उपभोक्ताओं से वस्तु की कीमत अधिक लेगा जिनकी उस वस्तु के लिये माँग बेलोचदार है और उन लोगों से उस वस्तु की कीमत कम लेगा जिनकी उस वस्तु के लिए माँग लोचदार है। 

उदाहरण के लिए, एक गृहस्थी के लिए बिजली की माँग बेलोचदार है, इसलिए बिजली कंपनियाँ घरेलू उपयोग के लिए बिजली की कीमत अधिक लेती हैं। इसके विपरीत एक उद्योग के लिए बिजली की माँग लोचदार है, यदि बिजली की कीमत अधिक होती है तो एक उद्योग अपनी मशीनों को चलाने के लिए बिजली के स्थान पर तेल, डीजल या कोयले का प्रयोग कर सकता है। इसलिए बिजली कंपनी/बोर्ड द्वारा उद्योगों को दी जाने वाली बिजली की कीमत कम ली जाती है। 

3. संयुक्त पूर्ति वाली वस्तु का कीमत निर्धारण -संयुक्त पूर्ति वाली वस्तुएँ वे वस्तुएँ हैं जिनका उत्पादन एक साथ होता है जैसे-रुई तथा बिनौला, तेल तथा खल आदि। इन वस्तुओं की कीमत निश्चित करने में माँग की लोच को ध्यान में रखा जाता है। उदाहरण के लिए, यदि रुई की माँग बेलोचदार है और उसकी तुलना में बिनौले की माँग लोचदार है तो रुई की कीमत अधिक रखी जाएगी और बिनौले की कीमत कम रखी जाएगी। 

4. कर नीति - नए कर लगाते समय वित्त मंत्री को माँग की लोच को ध्यान में रखना पड़ता है। (i) जिन वस्तुओं की माँग लोचदार है उन पर अधिक कर लगाने से करों से होने वाली आय बढ़ने के स्थान पर कम होगी। इसका कारण यह है कि अधिक कर लगाने से उनकी कीमत में वृद्धि होगी, कीमत में वृद्धि होने से उनकी माँग कम हो जाएगी। (ii) जिन वस्तुओं की माँग बेलोचदार है, उन पर वित्त मंत्री अधिक कर लगा सकता है, अधिक कर लगाने से उनकी कीमत तो बढ़ेगी परंतु माँग में विशेष कमी नहीं होगी। अतः कर आय अधिक मात्रा में प्राप्त हो सकेगी। 

5. करों के भार का वितरण -माँग की कीमत लोच द्वारा यह भी निर्धारित किया जा सकता है कि अप्रत्यक्ष करों जैसे बिक्री कर, उत्पादन कर आदि का उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं पर कितना-कितना भार पड़ेगा। यदि किसी वस्तु की माँग बेलोचदार है तो अप्रत्यक्ष करों का अधिक भार अपेक्षाकृत उपभोक्ताओं पर पड़ेगा। इन करों के फलस्वरूप वस्तु की कीमत में वृद्धि होगी परंतु माँग में बहुत थोड़ी कमी होगी। इसके विपरीत यदि वस्तु की माँग लोचदार है तो उपभोक्ताओं को अप्रत्यक्ष करों का भार अपेक्षाकृत कम उठाना पड़ेगा। 

6. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार -अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रा में भी माँग की लोच की धारणा का बहुत अधिक महत्व है। एक देश अपने निर्यातों की कीमत में वृद्धि करके तब ही लाभ प्राप्त करेगा जब आयात करने वाले देशों में इन निर्यातित वस्तुओं की माँग बेलोचदार है। यदि आयात करने वाले देश में इनकी माँग लोचदार है तब निर्यातकर्ता देश इन निर्यातित वस्तुओं की कीमत कम देगा और अपने कुल निर्यातों को बढ़ाएगा और इस तरह से लाभ प्राप्त करेगा। इसी प्रकार एक देश उन वस्तुओं को कम कीमत पर आयात करेगा जिनकी माँग उसके लिए लोचदार है। 

7. निर्धनता का विरोधाभास -जिनका संबंध कृषि से है वे भली भाँति जानते हैं कि कई कृषि पदार्थों की अच्छी फसल होने के बावजूद भी मुद्रा के रूप में उनसे प्राप्त होने वाली आय बहुत कम होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी वस्तु उत्पादन में वृद्धि होने से उससे प्राप्त आय बढ़ने के स्थान पर पहले से कम हुई है। इस अस्वाभाविक अवस्था को निर्धनता का विरोधाभास कहा जाता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश कृषि पदार्थों की माँग बेलोचदार होती है। जब इन वस्तुओं की पूर्ति बढ़ने पर इनकी कीमत में कमी हो जाती है तब इनकी माँग में विशेष वृद्धि नहीं होने पाती। इसके फलस्वरूप इनकी बिक्री से प्राप्त आय कम हो जाती है।

माँग की आय लोच 

अन्य बातें अर्थात् वस्तु विशेष की कीमत, संबंधित वस्तुओं की कीमतें तथा उपभोक्ता की रुचि आदि के स्थिर रहने पर एक उपभोक्ता की आय में निश्चित प्रतिशत परिवर्तन होने के फलस्वरूप किसी वस्तु विशेष की माँग में जो प्रतिशत परिवर्तन आता है उसके अनुपात को माँग की आय लोच कहा जाता है। 

माँग की आय लोच की श्रेणियाँ

माँग की आय लोच तीन प्रकार की होती है- 

1. माँग की धनात्मक आय लोच - किसी वस्तु की माँग की आय लोच उस अवस्था में धनात्मक होती है जब उपभोक्ता की आय के बढ़ने से वस्तु की माँग बढ़ जाती है और आय के घटने से माँग कम हो जाती है। माँग की आय लोच सामान्य पदार्थों के लिए धनात्मक होती है।  माँग की धनात्मक आय लोच तीन प्रकार की हो सकती है- 

(i) माँग की इकाई आय लोच - माँग की धनात्मक आय लोच उस अवस्था में इकाई होती है जब आय में जितने प्रतिशत परिवर्तन हो माँग की मात्रा में भी उतने ही प्रतिशत परिवर्तन हो। 

(ii) माँग की इकाई से कम आय लोच अथवा आय बेलोचदार माँग - माँग की धनात्मक आय लोच इकाई से कम उस अवस्था में होती है जब माँग में होने वाला प्रतिशत परिवर्तन आय में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन से कम है।

(iii) माँग की इकाई से अधिक आय लोच या आय लोचदार माँग - माँग की धनात्मक आय लोच उस अवस्था में इकाई से अधिक होती है जब माँग में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन आय में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन से अधिक होते हैं। 

2. माँग की ऋणात्मक आय लोच - माँग की आय लोच उस अवस्था में ऋणात्मक होती है जब उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने से किसी वस्तु की माँग में कमी होती है तथा उपभोक्ता की आय में कमी होने से वस्तु की माँग में वृद्धि होती है। माँग की ऋणात्मक आय लोच निम्नकोटि की वस्तुओं की होती है। उदाहरण के लिए, घटिया अनाज, मोटा कपड़ा आदि की माँग की आय लोच ऋणात्मक होती है। 

 3. माँग की शून्य आय लोच - किसी वस्तु की माँग की आय लोच उस समय शून्य होती है जब उस वस्तु के क्रेता की आय में परिवर्तन आने पर उस वस्तु की माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता। 

माँग की आड़ी लोच 

किन्हीं दो संबंधित वस्तुओं की माँग की मात्रा और कीमत में होने वाले परिवर्तन में परस्पर संबंध होता है। एक वस्तु की कीमत में परिवर्तन दूसरी वस्तु की माँग की मात्रा में परिवर्तन का कारण बन सकता है, जैसे-चाय की कीमत में परिवर्तन होने पर काॅफी की माँग में परिवर्तन आ जाता है। एक वस्तु की माँग की मात्रा और दूसरी वस्तु की कीमत के परिवर्तन का पारस्परिक संबंध माँग की आड़ी लोच द्वारा मापा जा सकता है। 

संदर्भ -
  1. microeconomics - oxford university press, 2007।
  2. microeconomics - Sipra Mukhopadhyay, Any Books, 2011।

3 Comments

  1. Dhanraj meena ☺️ Mp ke Bhopal se You Tuber Hun

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  2. Mai salman khan hu....🤣🤣

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  3. mai akshay Kumar hu

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