संरचनावादी सम्प्रदाय की विशेषताएँ और शिक्षा में योगदान

मनोविज्ञान में संरचनावादी विचारधारा के प्रवर्तक विलियम वुन्ट और टिचनर हैं। इन्होंने 1879 ई. में जर्मनी में लिपशिग नगर में सबसे पहली मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की। इस प्रयोगशाला में मानसिक संरचना और क्रियाओं के प्रयोगात्मक अध्ययन का आरम्भ हुआ। 

संरचनावादियों के अनुसार मनुष्य की चेतना विभिन्न मानसिक क्षमताओं और क्रियाओं का योग है। इस विचारधारा में मन, चेतना अनुभव आदि की संरचना क्या और किस प्रकार है, यह बताने का प्रयत्न किया जाता है। संरचनावादी सम्प्रदाय एक ऐसी मनोवैज्ञानिक चिन्तन प्रणाली है जिसका अध्ययन क्षेत्र और विषय प्राणी के चेतन अनुभव का स्वरूप होता है। इसका प्रमुख लक्ष्य वैज्ञानिक विधि से चेतन अनुभवों का अध्ययन करना है। 

मनोविज्ञान आन्तरिक अनुभवों का सर्वेक्षण करता है। इस विचार से कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस सम्प्रदाय को ‘अन्तर्दर्शनवाद’ भी कहा है। यह अन्तर्दर्शन विधि पर आधारित है। इस विधि द्वारा चेतना के विभिन्न अंगों और अनुभवों का अध्ययन भली-भाँति किया जा सकता है।

संरचनावादी सम्प्रदाय की विशेषताएँ

  1. ये अनुभव का आधर तंत्रिका तंत्र को मानते हैं जो अनुभव प्राप्त करने में सहायता करता है। टिचनर के अनुसार व्यक्ति के अनुभवों की इकाई मानसिक त्तव है। अनुभव व्यक्ति की चेतन आन्तरिक संरचना है। चेतना किसी निश्चित समय में घटित होने वाली मानसिक क्रियाओं का योग है। 
  2. इसमें मन और चेतना के स्वरूप की जानकारी विश्लेषण द्वारा की जाती है। चेतना के तीन त्तव हैं- संवेदन, प्रतिभा और भाव। संवेदन का सम्बन्ध् प्रत्यक्षीकरण से, प्रतिभा का सम्बन्ध् विचारों से और भाव का सम्बन्ध् संवेगों से होता है। 
  3. मन और शरीर दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है ओैर दोनों मिलकर मानसिक प्रक्रियाओं के घटित होने की व्यवस्था करते हैं। 

संरचनावाद का शिक्षा में योगदान

इस विचारधारा का प्रभाव मनोविज्ञान पर ही नहीं शिक्षा पर भी पड़ा- 
  1. इस विचारधारा ने शिक्षा को मानसिक क्रिया और शिक्षा का उद्देश्य अनुभवों की वृद्धि माना है।
  2.  शिक्षा-मनोविज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन पर बल दिया। 
  3. मानसिक क्रियाओं के स्वरूप और रचना के क्रमबद्ध निरीक्षण पर बल दिया। 
  4. इस विचारधारा का मनोविज्ञान के वैज्ञानिक ढंग से विकसित होने में ऐतिहासिक महत्व है।

संरचनावाद की सीमाएँ

  1. इस सम्प्रदाय ने अन्तर्दर्शन विधि अपनाने के कारण मनोविज्ञान के एक सीमित क्षेत्र में ही कार्य किया। 
  2. इन्होंने मन की समग्रता की दिशा में कोई कार्य नहीं किया। 
  3. अभिप्रेरणा और व्यक्तित्व जैसे विषयों से सम्बन्ध्ति समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया। 
20वीं शताब्दी के आरम्भ में इसकी तीव्र आलोचना हुई, जिसमें प्रमुख आलोचक विलियम जेम्स थे। उनका विचार था कि चेतना के त्तवों का अध्ययन और विश्लेषण करना व्यर्थ है। इसके बदले हमें यह देखना चाहिए कि चेतना का हमारे शरीर के विभिन्न अंगों पर क्या प्रभाव पड़ता है। 

परिणामस्वरूप एक नवीन विचारधरा का जन्म हुआ जिसे ‘प्रकार्यवाद’ या ‘चेतना कार्यवाद’ कहा गया।

Post a Comment

Previous Post Next Post