सिंधु घाटी सभ्यता का आर्थिक जीवन, सामाजिक जीवन, धार्मिक जीवन

सिंधु घाटी सभ्यता का आर्थिक जीवन

सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) का उदय 5000 ई. पू. हुआ था। इस घाटी का क्षेत्र नील घाटी तथा टिगरिस दजला-फरात यूफरेटस के क्षेत्रफल से अधिक था। सिंध के लरकाना जिले में खुदाई स्वरूप प्राप्त हुए जिसे मोहनजोदड़ों के नाम से पुकारे जाने वाले एक भव्य नगर के अवशेष प्राप्त हुए।

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कुछ समय बाद वर्तमान पाकिस्तानी पंजाब के माॅटगोमरी जिले में हड़प्पा के अवशेष प्राप्त किये गये और यह माना गया कि मोहनजोदड़ों और हडप्पा के अवशेष समकालीन एवं एक ही सभ्यता के अवशेष हैं तथा ये दोनों स्थान एक बड़े राज्य की दो राजधानियाँ थे। अवशेषों की समानता के आधार पर उसे सिंधु घाटी सभ्यता नाम दिया गया। इस सभ्यता का क्षेत्र सिंधु नदी की घाटी से अधिक विस्तृत था। पूर्व से पश्चिम की ओर इसका फैलाव 1550 कि.मी. एवं उत्तर से दक्षिण की ओर 11000 कि.मी. था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा एक दूसरे से प्रायः 650 कि.मी दूर है और एक ही सभ्यता के अंग हैं। सिंधु घाटी सभ्यता केवल उत्तरी सिंध प्रदेश, गंगा नदी की घाटी तक था। इस सभ्यता का संबंध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में मिस्त्र की सभ्यता, सुमेरियन सभ्यता और सम्पूर्ण पंजाब एवं सिंध उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत की घाटियाँ, अधिकांश काठियाबाड़, राजस्थान और गंगा-यमुना के दोआब तथा दक्षिण पंथ के प्रारंभ स्थान तक के कुछ भाग में फैली हुई थी और उसका संपर्क प्रायः सम्पूर्ण उत्तरी भारत, पश्चिमी यूरोप एशिया तथा अफ्रीका की समकालीन सभ्यताओं से था। इस सभ्यता ताम्र-पाषाण काल की सभ्यताओं में स्थान दिया गया है।

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सिंधु घाटी सभ्यता एक नगर सभ्यता थी। इसके विकास में उन विभिन्न नस्लों के व्यक्तियों ने भाग लिया जो नगरों में एकचित हो गये। उन नस्लों में मुख्य नस्लें आदिम आग्नेय,मंगोलियन, अल्पाइन और भूमध्यसागरीय (जिन्हें भाषा के आधार पर द्रविड पुकारा गया है) थी। मोहनजोदड़ों की अधिकांश जनता द्रविड थी अतः इस सभ्यता के निर्माता द्रविड थे। कुछ लोग आर्य को सिंधु सभ्यता का समकालीन मानने लगे थे। किन्तु आर्य सिंधु घाटी के सभ्यता के कछ समय उपरांत या कहे कि लौह युग में भारत आये थे और इस सभ्यता के विकास में अपना योगदान दिया था। अतः कह सकते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता आर्य अनार्य (द्रविड) सभ्यताओं का प्रतिनिधित्व करती है।

पुरातत्व खोज में मिले शहर के खंडहर, आभूषण, बर्तन, मुहरें, खिलौने, मूर्तियों तथा अन्य विभिन्न वस्तुओं के आधार पर हम इस सभ्यता की विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस सभ्यता को सैंधव सभ्यता, हड़प्पा मोहनजोदड़ों पाषाण-धातु युगीन सभ्यता के नामों से भी जाना जाता है। पाकिस्तान में स्थित सिंधु नदी एवं उसकी सहायक रावी नदी के काँठें में ताम्रयुगीन नगर सभ्यता का विकास हुआ जिसके भग्नवेष इन दोनों स्थानों के टीले की खुदाई में मिले हैं। पहला अवशेष मोहनजोदड़ों के नाम से जाना जाता है, जो सिंधु नदी के दक्षिण तट पर स्थित है तथा दूसरा हड़प्पा जो पश्चिम पंजाब में रावाी नदी के तट पर स्थित है। दोनों स्थान इन दिनों पाकिस्तान में हैं तथा दोनों नदियों द्वारा धाराएं बदल दिये जाने के कारण अलग हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता में नगर और भवन निर्माण

हड़प्पा और मोहनजोदड़ों का नगर निर्माण एक समान योजना पर किया गया था। दोनों नगरों की पश्चिम दिषा में 9 से 15 मीटर तक ऊँचा और 360×180 वर्गमीटर के क्षेत्रफल का एक सुरक्षा स्थान अथवा गढ़ था जो एक दीवार से रक्षित था और जिसमें सार्वजनिक भवन बनाये गये थे। उससे नीचे नगर बनाये गये थे जिनमें से प्रत्येक का क्षेत्रफल कम से कम एक वर्ग मील था। दोनों नगर निर्माण कला की दृष्टि से अद्वितीय थे। नगर की स्वच्छता के लिए विशेष प्रबंध था। सड़कों के नीचे नालियाँ थी जो एक बड़े नाले में मिलती थी। इनमें प्रत्येक घर का गंदा पानी आता था। दोनों नगरों की मुख्य सड़क जो 2.70 से 10.20 मीटर तक चैड़ी थी जिससे नगर विभिन्न भागों (वार्डो) में बंट गये थे। सड़कें पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण की ओर जाती थी। सबसे चैड़ी और बड़ी सड़क मोहनजोदड़ों में थी । एक राजमार्ग भी होता था जिससे नगर की सड़कें और गलियां मिलती थी। नगर के विभिन्न भागों (वार्डो) में छोटी-छोटी गलियां थी जिनके दोनों ओर मकान बन े हुए थे। सड़क के दोनों ओर वृक्ष थे। 

नगर की सफाई के लिए सड़कांे के किनारे पर मिट्टी के बर्तन रखे जाते थे जिनमें कचरा एकत्र किया जाता था नगरों में गंदें पानी को निकालने के लिए नालियां और मोरियां बनाई गई थी मकानों की नालियां सड़क की नालियों में आकार मिलती थी। सड़क की नालियां ईटांे से ढंकी हुई थी। नालियां साफ करने तथा नालियों के पानी बाहर निकालने का प्रबंध भी था। सड़कांे पर रोशनी का प्रबंध भी किया जाता था, यह विभिन्न दीप-स्तम्भों के पाये जाने से ज्ञात होता है। प्रत्येक गली में एक सार्वजनिक कुआं था कोई भी मकान मुख्य सड़क को नहीं ढंक सकता था। नगर नदी किनारे होने के कारण उस समय बाढ़ से सुरक्षा बांध भी बनाये गये थे। यह नगर प्लान के अनुरूप बनाये  गये थे।

सिंधु घाटी के निवासियों की भवन निर्माण कला सादी और उपयोग पर आधारित थी, उसमें सुन्दरता एवं विशालता का अभाव था। मोहनजोदड़ांे और हड़प्पा में मकान बनाने के लिए केवल ईटों का प्रयोग किया गया था। ये ईटें 51×26×9 सेंटीमीटर के आकार की ओर पकी हुई होती थी। कुछ मकान दो-दो मंजिल तथा उससे अधिक भी थे। प्रत्येक मकान में आंगन होता था। मकानों की छतें लकड़ी की होती थी। मकानों में खिड़कियाॅ भी थी और ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए जीना अथवा सीढि़यां होती थी। दरवाजे बीच में न होकर कोने में बनाये जाते थे। मकानों के प्रवेष द्वार सड़क या गली की ओर हुआ करते थे। दरवाजे लकडि़यों से बनाये गये थे। सभी मकानों में कुएं भी थे। मकान छोटे-बड़े सभी चौकोर आकार के थे। 

मोहनजोदड़ों में पाई गई सबसे बड़ी इमारत का क्षेत्रफल 69×24 वर्गमीटर है जो संभवतः एक महल होगा। हड़प्पा में पायी गई सबसे बड़ी इमारत एक अनाज का गोदाम घर स्वरूप है। जिसका क्षेत्रफल 51×41 वर्गमीटर है जो छोटे-छोटे भागों में बांटा हुआ है। दोनों नगरों में 6×3.6 वर्गमीटर के छोटे निवास ग्रह भी मिले हैं जो संभवतः मजदूरों के निवास गृह हो सकते हैं खुदाई में 90 फुट का एक विशाल सभा मंडप भी प्राप्त हुआ है जो आंगन बरामदा, स्नानकुंड आदि से युक्त रहा है।

मोहनजोदड़ों की सर्वप्रमुख विशेषता में यहां प्राप्त हुआ विशाल स्नान गृह है जिसका आकार 54×32 वर्गमीटर है और तैरने के तालाब का क्षेत्रफल 11×7 वर्गमीटर है, इसकी गहराई 2. 40 मीटर है। तालाब के किनारे सीढि़यां बनी हुई हैं और उसके चारों तरफ उठे हुए चबूतरे तथा बरामदे  हैं।

स्नानागार की दीवारों पर विशेष प्रकार का मिट्टी का प्लास्टर किया हुआ बरामदों के पीछे तीन तरफ गलीआरे और कमरे बनाये गये थे। पानी को निकालने तथा पुनः भरने का प्रबंध भी किया गया था साथ ही अन्य स्नानागृह भी बनाये गये थे जहां संभवतः गर्म पानी से नहाने की व्यवस्था थी और इन्हें हम्माम नाम से जाना जाता था। अर्थात उस समय के लोग गर्म जल से परिचित थे और उसका उपयोग करते थे। स्नान गृह के छः प्रवेश द्वार थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की नगर व्यवस्था तथा भवन निर्माण की व्यवस्था से ज्ञात होता है कि उस समय वहां श्रेष्ठ नगरपालिका की शासन व्यवस्था रही होगी। 

सिंधु घाटी सभ्यता का आर्थिक जीवन

सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों का जीवन कृषि पशुपालन और व्यापार पर निर्भर था। वे लोग विभिन्न व्यवसाय भी किया करते थे उनके द्वारा जौं, गेहूँ, कपास और विभिन्न प्रकार के फलों का उत्पादन किया जाता था। वे लोग चावल की खेती से परिचित नहीं थे। सिंचाई के लिए वे बाढ़ वर्षा तथा नदी के पानी का उपयोग करते थे और बडे़ पैमाने पर खेती आपसी सहयोग से की जाती थी।

भैंस, गाय, कुत्ता, बैल, भेड़, सुअर, नंदी, गधा, तोता और बाज उनके पालतू जानवर हुआ करते थे। हड़प्पा में पालतू बिल्ली पाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं। अर्थात उस समय वहां के लोगों को पशुपालन का ज्ञान था और वे दूध के अतिरिक्त शौक स्वरूप भी पशुपालन में रुचि रखते थे। वे हाथी और ऊंट से भी परिचित थे इसी समय घोड़े के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं जो संभवतः विदेशियों के द्वारा यहां लाये गये थे। इसका ज्ञान होते ही उनका व्यापार अधिक मूल्यवान बन गया था। उनका व्यापार भारत के अन्य भागों और विदेश से भी था। भारत में कश्मीर, मैसूर एवं नीलगिरी पहाड़ी के प्रदेशों में तथा विदेशों में मिश्र, क्रीट, सुमैर, मेसोपाटामिया आदि देशों से उनके व्यापारिक संबंध थे। जो उनकी आर्थिक सम्पन्नता का मुख्य कारण रहा है।

बढ़ई, कुम्हार, जुलाहा, सुनार, जौहरी, शिल्पी, चिकित्सक, मकान निर्माता बुनकर आदि के द्वारा विभिन्न व्यवसाय किये जाते थे। इन्हें कुम्हार की चाक और गोल पहिये का भी ज्ञान था जिसकी सहायता से बर्तन, खिलौने आदि का निर्माण किया जाता था। यातायात के लिए लकड़ी की गाडि़यां बनाते थे जिन्हें बेलांे के द्वारा खींचा जाता था। इनके भोजन एवं व्यापार में अनाज के साथ-साथ शूकर-गो मांस, खजूर, फल, भेड़ों और जल-जन्तुओं के मांस,मछली आदि भी शामिल रहते थे। जंगली पशुओं में वे भैंसा, बंदर, भालू, चीता, गंडे ा, घडि़याल, कछुआ, खरगोश और मगरमच्छ से परिचित थे और उनका षिकार करते थे। इन पशुओं के चित्र यहां से प्राप्त मुहरों और ताम्रपत्र पर उत्र्कीण हैं।

वे लोग तोल, वजन आदि के लिए विभिन्न बांटों का उपयोग करते थे, जो आपस में 1,2,4,8,16,32 और 64 के अनुपात में हुआ करते थे। सबसे अधिक 16 इकाई के बांटों का प्रयोग अधिक होता था। नापने के लिए नाप का प्रयोग स्पष्ट रूप से नहीं मिलते है परंतु 16.8 सेंटीमीटर एवं 9 स्पष्ट भागों में विभाजित थे। कुछ वस्तुएं इस बात को स्पष्ट करती है कि वे अपने आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर धनवान बनकर नगर-जीवन का निर्माण कर सके थे।

सिंधु घाटी सभ्यता का सामाजिक जीवन

सिंधु घाटी की सभ्यता के निवासियों का सामाजिक जीवन बहुत उन्नत किन्तु सादा और सरल था। समाज में अधिकांश व्यक्ति उच्च एवं मध्यम श्रेणी के थे। नगर-निर्माण से ज्ञात होता है कि उस समय मजदूर के पास भी दो कमरे वाले मकान प्राप्त थे। उन्हें जीवन की अन्य सुविधाएं भी प्राप्त थी। समाज के विभिन्न वर्गों की चार श्रेणियाँ हुआ करती थी। प्रथम बुद्धिजीवी वर्ग जिसमें पुरोहित, चिकित्सक, ज्योतिष आदि आते थे। द्वितीय-योद्धा वर्ग जो सैनिक वर्ग था। तृतीय वर्ग में व्यापारी, शिल्पियों, कलाकारी आदि का था। चतुर्थ वर्ग श्रमिक वर्ग हुआ करता था। जिसमें किसान, मजदूर, मछली पकड़ने वाले, गृह सेवक आदि सम्मिलित थे। समाज के वर्गीकरण का आधार विभिन्न आर्थिक व्यवसाय थे।

स्त्री और पुरुषों की वेषभूषा लगभग समान हुआ करती थी। वे कमर के नीचे धोती और कमर से ऊपर बायें कंधे से दायें कंधे के नीचे दबने वाले शाल को उपयोग करते थे स्त्रियों के सिर पर पंखे के समान एक वस्त्र हुआ करता था। इनके वस्त्र ऊनी तथा सूती हुआ करते थे। इन्हें वस्त्रों की सिलाई का ज्ञान था क्योंकि अवशेषों में सुइयों की प्राप्ति हुई है। स्त्री एवं पुरुषों के लंबे बाल रखते थे और बालों में सोने, ताँबे आदि के पीन बनाये जाते थे।

स्त्रियाँ चोटी बनाती थी और पुरुष दाढ़ी रखा करते थे। पुरुष उस्तरे का उपयोग जानते थे। आभूषणों का प्रयोग स्त्री एवं पुरुषों दोनों के ही द्वारा समान रूप से किया जाता था। आभूषण सोना, ताँबा, चाँदी, कोढ़ी, सीप तथा हड्डियों और कीमती पत्थरों का भी उपयोग आभूषण बनाने के लिए होता था, कण्ठहार, भुजबंद, अंगूठी, बुन्दें, चूडि़याँ, कमरबंद या तगड़ी प्रमुख आभूषण थे जिनका उपयोग स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा किया जाता था। यहां के निवासियों का भोजन गहे ंू, जांै, फल, मछली, पशुओं का मांस, खजूर आदि था। उनके हथियार ताँबे के हुआ करते थे जिसमें भाला, कटार, धनुष बाण आदि थे। इनकी नांच गाने में भी रुचि थी जिनका प्रमाण खंडहरों की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों से चलता है। बच्चों के लिए खिलौने बनाये जाते थे। नाच-गाना, जुआ, खेलना, चैपड़, गेंद, पशु-पक्षियों को पकड़ना आदि इनके मनोरंजन के साधन हुआ करते थे। यातायात के लिए बैलगाडि़यों का प्रयोग करते थे और इनकी बैल गाडि़यों की छत लकड़ी से ढ़की हुआ करती थी। इन लोगों को मानवीय चिकित्सा का भी ज्ञान था वे शीलाजीत का प्रयोग करते थे पशुओं की हड्डियों, वृक्ष के पत्ते, वृक्ष की छालें से दवाईयाँ बनाई जाती थी।

इस समय के लोग मृतकों को भूमि में गाढ़ते थे और कभी-कभी शरीर को पशु-पक्षियों को खाने के लिए छोड़ दिया जाता था। कुछ समय बाद ये लोग मृतकों के अवशेषों को घड़े में बंद करके गाड़ने लगे थे और मृत व्यक्तियों की पंसद की चीजे उस व्यक्ति या मृत शरीर के साथ रख दी जाती थी।

घरों में उपयोग किये जाने वाले बर्तन आदि सामग्रियों के लिये ताँबें, काँसे, मिट्टी लकड़ी का उपयोग किया जाता था मिट्टी की वस्तुओं को पकाकर उपयोग में लाया जाता था और उन पर पाॅलिष और चित्रकार की जाती थी। इन्हें विभिन्न धातुओं का ज्ञान भी था जैसे-सोनार, चाँदी, ताँबा, काँसा, टीन, सीसा आदि। धार्मिक भावनाओं का भी उदय इनमें हो गया था। इस प्रकार इन लोगों का सामाजिक जीवन संघर्षमय नहीं था ये शांत प्रकृति के विलासी एवं सुखी व्यक्ति थे।

सिंधु घाटी सभ्यता का धार्मिक जीवन

सिंधु घाटी के लोग मातृदेवी या प्रकृति की देवी की पूजा किया करते थे मूर्तियों तथा मुद्राओं पर अंकित चित्रों से ज्ञात होता है कि षिव की पूजा अमूर्त और मूर्त रूप में की जाती थी उनके द्वारा लिंग और यौनी की भी पूजा की जाती थी। अग्नि, पशु, नदी, जल, वृक्ष, कबूतर, नाग की भी पूजा का प्रचलन था। धार्मिक पर्वो पर य े लोग स्नान करने को पवित्र मानते थे। बलि देने की प्रथा भी थी।

सिंधु घाटी सभ्यता की कला

इनको भवन-निर्माण कला का ज्ञान था। मिट्टी के बर्तनों पर चित्रकारी और पाॅलिष की जाती थी। बुनने, कातने की कला से परिचित थे। सुंदर आभूषण, खिलौने आदि का कलात्मक ज्ञान इन्हें था। मूर्तिकला, नृत्यकला से परिचित थे क्योंकि कई नृत्य अवस्था में मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। मुहरों पर अंकित नंदी-बैल की सुंदर आकृतियां कलात्मकता का परिचय देती हैं।

पशुपति-शिव कांसे की मूर्ति भी कलात्मक ज्ञान को प्रदर्शित करती है। इस समय लख्े ान कला का भी आविष्कार हो चुका था, किन्तु इनकी लिपि चित्रकला की अवस्था में थी। इनके लिखने की दिषा दायें से बांये हुआ करती थी। लिपि के लगभग 400 चिन्ह् मुद्राओं आदि पर अंकित थे। संक्षिप्त में कहे कि ये लोग कला प्रेमी थे किन्तु इनकी कला कल्पनाओं पर आधारित न होकर वास्तविक वातावरण पर आधारित थी।

सिंधु घाटी सभ्यता


सिंधु घाटी सभ्यता समय की मुहरें

इस समय की मुहरे पकी हुई मिट्टी तथा पत्थर की हुआ करती थी। ये धनवानों के घरों में हुआ करती थी किन्तु इनका उपयोग सिक्के के रूप में नहीं होता था। खुदाई से लगभग 2000 मुहरें प्राप्त हुई हैं जिन पर पशुओं के चित्र ऊपर पार्श्व में तथा नीचे कुछ लिपि के चिन्हों द्वारा कुछ लिखा गया है जिसे आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। मुद्राओं का आकार भी भिन्न-भिन्न है संभवतः ये पैतृक धरोहर के रूप में उपयोग की जाती होगी।

सिंधु घाटी सभ्यता के अस्त्र-शस्त्र एवं सुरक्षा

खुदाई में विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए हैं जैसे हथियार कुल्हाड़ी, गदा, भाला, कटार, बिना धार की तलवार, धनुषबाण आदि तांबे और पत्थर के हुआ करते थे जिनका उपयोग षिकार करने, अपनी रक्षा करने में किया करते थे। ये शांतिप्रिय हुआ करते थे नगर निवासी थे किन्तु युद्ध कौशल का ज्ञान भी रखते थे।

सिंधु घाटी सभ्यता में धातु

इन्हें मुख्य रूप से सोना, चांदी तांबा, कांसा टीन तथा सीसा का ज्ञान था ये टीन और तांबें को मिलाकर कांसा तैयार करना जानते थे। इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था। 

सिंधु घाटी सभ्यता में मृतक संस्कार

मृतक संस्कार तीन प्रकार से किये जाते थे। इनकी धारणा थी कि विधिवत संस्कार करने से मृतक की आत्मा सुखमय होगी। मृतक संस्कार इस प्रकार थे-
  1. मृतक शरीर को पृथ्वी में गाड़ दिया करते थे। शव के साथ आराम की वस्तुएं भी गाड़ दी जाती थी।
  2. पक्षियों को खाने के लिए फेंक दते थे और अवषिष्ट शरीर को मिट्टी के बर्तन में रख पृथ्वी में गाड़ दिया जाता था।
  3. मृतक शरीर को जला भी दिया जाता था जो बाद में अधिक रूप से प्रचलित हो गई थी।

सिंधु घाटी सभ्यता का राजनीतिक जीवन

सिंधु घाटी सभ्यता व्यापारिक कुलीन तंत्र न होकर एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार थी। योजनाबद्ध नगर-निगम, नापने-तौलने के समान साधन, योजनाबद्ध सड़कों का निर्माण आदि। इस कथन के प्रमाण मान े जाते हैं। यहां श्रेष्ठ नगरपालिका शासन व्यवस्था के संकेत भी मिलते हैं। एक धर्म राज्य पर आधारित यह सभ्यता रही है। सम्पूर्ण घाटी की दो राजधानियां हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों थी। दुर्ग भवन के अवशेषों से ज्ञात होता है कि इनमें अधिकारी गण रहा करते थे और प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करते हांेगे। शासक तथा शासित दोनों ही शांत प्रकृति के रहे होगें। समाज में सभी समान रूप से रहते थे। और सुरक्षा के लिए हथियारों का उपयोग किया जाता था।

सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पाई गई सात परतें स्पष्ट करती हैं कि इस सभ्यता का अंत कई बार हुआ था यहां के निवासियों ने कई बार निर्माण किया था। ये लोग रूढि़वादी थे और सिंधु नदी की बाढ़े और उसके प्रवाह का मार्ग इसके विनाश के कारण रहे। भौगोलिक परिवर्तन से भी इस सभ्यता का विनाश हुआ परंतु इस सभ्यता का पूर्ण विनाश का कारण विदेशी, आक्रमण विशेषकर आर्यों का आक्रमण प्रमुख था। घोड़ों और रथों का उपयोग करने वाले आर्य-आक्रमणकारियों से यहां के निवासी सफल विरोध नहीं कर सके और आर्यों ने इस सभ्यता को नष्ट कर दिया। अथवा कह सकते हैं कि आर्यों ने अपनी शक्ति से यहां के निवासियों को अपने पृथक अस्तित्व को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की।

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