भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएं

“भाषा” शब्द संस्कृति की “भाष्” धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना या कहना अर्थात्, जिस माध्यम से बोला या कहा जाए उसे भाषा कहते हैं। भाषा के संबंध में भाषा वैज्ञानिकों ने अनेक परिभाषाएं दी हैं। वैसे कहा जाता है कि किसी भी शब्द को परिभाषा में बांधना संभव नहीं है। 

भाषा शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है। सामान्य रूप से भाषा उन सभी माध्यमों का बोध कराती है, जिनसे भावाभिव्यंजन का काम लिया जाता है। इस दृष्टि से पशु-पक्षियों की बोली भी भाषा है, इंगित भी भाषा है, सड़क की लाल-हरी बत्ती भी भाषा है और मनुष्य जो बोलता है वह भी भाषा है।

भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएं

ये प्रवृत्तियां हैं और भाषा की प्राकृतिक विशेषताएं कही जाती हैं -

  1. भाषा सामाजिक सम्पत्ति हैं,
  2. भाषा परम्परागत वस्तु है, 
  3. भाषा अर्जित सम्पत्ति है, 
  4. भाषा परिवर्तनशील होती है,
  5. भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न एवं नैसर्गिक है,
  6. भाषा अनुकरण से उपल्ब्ध की जाती है, 
  7. भाषा मानव जाति से पोषित होती है, 
  8. भाषा भाव-सम्प्रेषण का सर्वोत्तम माध्यम है, 
  9. भाष पैतृक सम्पत्ति नहीं अपितु सार्वजनिक सम्पत्ति है, 
  10. भाषा जटिलता से सरलता की ओर चलती है, 
  11. भाषा स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ती है, 
  12. भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं होती, 
  13. यह सश्लिष्टावस्था से वियोगावस्था की ओर बढ़ती है, 
  14. भाषा भौगोलिक रूप से स्थानीकृत होती है, 
  15. प्रत्येक भाषा का स्वतंत्र ढांचा होता है, 
  16. भाषा स्तरीकरण एवं मानवीकरण से प्रभावित होती है, 
  17. भाषा सर्वव्यापक है।

इन सभी मौलिक एवं प्राकृतिक विशेषताओं को निम्न प्रकार समझा जा सकता है -

1. भाषा सामाजिक सम्पत्ति है

भाषा एक सामाजिक सम्पत्ति है, निजी नहीं। समाज से इसका घनिष्ठतम् संबंध होता है। वस्तुतः यह कहना अत्युक्ति न होगा कि भारतवर्ष में प्रत्येक समाज की भाषा में भिन्नता होती है, यही कारण है कि एक गांव अथवा नगर एवं उपनगरों में भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के द्वारा भिन्न-भिन्न बोलियां बोली जाती हैं, बाह्य रूप से समान प्रतीत होने पर भी उनकी शब्दावलियों में पर्याप्त अन्तर होता है। मातृ-भाषा का तात्पर्य भी मात्र माता की भाषा से नहीं अपितु उस समाज की भाषा से होता है, जिसमें माता ने जन्म लिया है। भाषा सिखाने का आरम्भिक पाठ माता से भले ही प्रारंभ होता हो, किंतु अन्ततः उसे सिखाता समाज ही है जो अपने परिवार से लेकर विस्तृत जीवन के प्रत्येक अंश से सम्बद्ध व्यक्तियों तक फैला होता है। इस प्रकार भाषा समाज की सम्पत्ति है, जिसके भौतिक एवं साहित्यिक अन्य रूप भी हो सकते हैं किंतु ये सभी समाज के अन्य पक्ष होते हैं। भौतिक आधार भाषा का प्रेषण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को करता है और साहित्य भावों एवं विचारों को संचित करता है। किन्तु इनका अंतिम संबंध समाज से ही है। अतएव यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि भाषा की उत्पत्ति ही सामाजिकता के सृष्टि निर्वाह के लिए हुए हैं। भाषा के सामाजिक पक्ष को सिद्ध करने के लिए भाषा वैज्ञानिकों ने अनेक परीक्षण किये हैं। यदि हिन्दी भाषा समाज में उत्पन्न बच्चे का लाल-पालन प्रारंभ से ही अंग्रेजी-दम्पत्ति करें तो वह हिन्दी न जानकर अंग्रेजी ही सीखेगा और यदि किसी सभ्य समाज के बालक का पोषण आदिम जातियों के द्वारा हो तो उसे उनकी ही भाषा आयेगी।

2. भाषा परम्परागत वस्तु है

भाषा एक परम्परागत वस्तु है, प्रत्येक समाज में सुर्दीघ परम्परा तक यह इसी प्रकार चतली रहती है समुद्र में मिलने वाली सतत् प्रवाहिनी सरिता की भांति यह सदा सर्वदा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। यही कारण है कि प्रत्येक क्षेत्र मंे किसी भाषा को बोलने वाले समाज की परम्परा सुदीर्घकाल से अनवरतज चलती रहती है। भले ही उसमें साहित्य का सर्जन कितने ही काल पर्यन्त हो अथवा न हो। इतना ही नहीं पंजाब आदि देश के अनेक भागों से जो लोग आकर अन्य भाषा वाले प्रान्तों में बसे हैं वे उस भाषा के लोगों के साथ वहां भी भाषा भी बोलना सीख लेते हैं, किन्तु उनके परिवारों में वही पारम्परिक भाषा ही चलती रहती है। सैकड़ों वर्ष पहले राजस्थान को त्यागकर उत्तरप्रदेश आदि हिन्दी भाषा ही व्यवहार करते हैं। अतः निर्भान्त भाषा में कहा जा सकता है कि भाषा परम्परा से अविच्छिन्न रूप से चली आने वाली वस्तु है, जो किसी समाज की अमूल्य धरोहर होती है।

3. भाषा अर्जित सम्पत्ति है

भाषा की एक मौलिक विशेषता यह भी होती है कि उसका अर्जन किया जा सकता है। वह एक सामाजिक सम्पत्ति है और प्रत्येक व्यक्ति परम्परा के द्वारा अपनी मातृभाषा सीख सकता है, किन्तु जहां वह परम्परा से प्राप्त होती है, वही उसको अर्जित भी किया जा सकता है। कोई भी भाषा-भाषी जब अन्य भाषा-भाषी लोगों के समाज में पहुंचता है, तो अपने अभ्यास के द्वारा वह उस भाषा का भी अर्जन कर लेता है और साथ ही वे लोग भी उसकी भाषा का अर्जन कर सकता है इसी प्रकार एक भाषा को जानने वाला व्यक्ति, उसी के माध्यम से अन्य भाषा भी सीख लेता है। आज हमारे देश के सभी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विद्यालयों में यह सुविधा प्राप्त है कि विद्यार्थी सभी भारतीय और विदेशी भाषाओं का ज्ञान सुगमता से प्राप्त कर सकता है। अतएव स्वयंसिद्ध है कि भाषा अर्जित सम्पत्ति भी है।

4. भाषा परिवर्तनशील होती है

भाषा में एक प्राकृतिक गुण भी होता है कि वह सदैव विकास की ओर उन्मुख रहती है। सौ वर्ष पूर्व उसका जो स्वरूप था, वह आज नहीं रहा और जैसा आज है, वह सौ वर्ष बाद नहीं रहेगा। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत का स्वरूप पुराणों और स्मृतियों में नहीं देखा जा सकता। कालिदास आदि महाकवियों की भाषा में जो प्रांजलता थी, वह परवर्ती कवियों की बौद्धिकता मंे आकर लुप्त हो गयी। इसी प्रकार अंग्रेजी में भी चासंर और शेक्सपियर की भाषा में परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है। यही बात हिन्दी भाषा मंे भी देखी जा सकती है, जिसे अपनी लगभग एक हजार वर्ष की यात्रा में विकास के अनेक सौपान पार किये हैं। आरंभ में रासो काव्य में उसका जो रूप था, वह अमीर स्वुसरों के काल में नहीं रहा। अब्दुल रहमी खानखाना की कविताओं में उसके स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ गया था। लल्लूजी लाल, सदन मिश्र, मुन्शी सदासुखलाल एवं ईशाअल्ला खां ने अपने प्रत्यनों से उसका विकास किया। भारतेन्दु युग में वह कवितामय गद्य में व्यवहत होने लगी। महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्द्र शुक्ल के प्रयत्नों से उसने प्रांजलता प्राप्त की इससे कहा जा सकता है कि भाषा सतत् प्रयत्नशील है।

5. भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न एवं नैसर्गिक है

भाषा का प्रवाह प्राकृतिक रूप से बिना किसी व्यवधान के निरन्तर एक नदी की भांति होता रहता है। जैसा कि भाषा को कठोर बन्धनों में बांधने वालों को कबीर ने भी स्पष्ट कर दिया है कि - भाषा बहता नीर। भाषा कभी कृत्रिम बन्धन स्वीकार नहीं करती, अपना मार्ग बनाने वाली सरिता की भांति वह भी सतत् अग्रसर होती रहती है। जिस प्रकार नदी आगे बढ़ती रहती है और हजारों नदियां उसमें मिलकर एक्य स्थापित कर लेती हैं, उसी प्रकार भाषा भी अपने सम्पर्क में हजारों देशी-विदेशी भाषा के शब्दों को आत्मसात करती हुई बढ़ती चली जाती है। यही कारण है कि आज हिन्दी मंे अनेक विदेशी भाषाओं के शब्द हिन्दी की निजी सम्पत्ति बन गये हैं। यथा- लालटेन, चाकू, तोप, बन्दूक, गलीचा, लाश, मशालची, कमेटी, कापी, कुनैन, गाटर, हजार, टिकट, दर्जन, गमला, चाबी, कारतूस, बम आदि शब्द मूलतः हिन्दी के नहीं हैं किन्तु उसके प्रवाह में बहते हुए वे भी अपना स्वरूप त्यागकर हिन्दी के अभिन्न अंग बन गये हैं। अतः कहा जा सकता है कि भाषा का प्रवाह दु्रत एवं अविच्छिन्न गति से, नैसर्गिक रूप से होता रहता है।

6. भाषा अनुकरण से उपलब्ध की जाती है

भाषा में एक प्राकृतिक विशिष्टता यह भी होती है कि वह स्वतः किसी व्यक्ति को नहीं अपितु माता-पिता, भाई-बहन, अभिभावक एवं शिक्षक आदि के भाषण का अनुकरण करते हुए ही धीरे-धीरे अर्जित की जाती है। यही कारण है कि भाषा न जानने वाला बच्चा अपने व्यवहार में आने वाले व्यक्तियों को किसी भी शब्द का जैसा भी उच्चारण करता हुआ सुनता है, स्वयं भी वैसा ही बोलने लगता है। ग्रामीण-बच्चों एवं नगरीय बच्चों के शब्दोच्चारण में यही अन्तर रहता है। किसी भी प्रांत अथवा दूसरी भाषा बोलने वाला व्यक्ति यदि किसी अन्य भाषा-भाषी समाज में जाकर रहने लगता है तो उसके बच्चे प्रथम अपने परिवार द्वारा अपनी मातृभाषा को सीखते हैं, वे पुनः अपनी संगति में रहने वाले अन्य व्यक्तियों की भाषा का अनुकरण करते हुए उसे भी सीख लेते हैं तथा विद्यालय मंे जाकर पुस्तकों तथा शिक्षकों के अनुकरण से उसके शुद्ध संस्कृत एवं साहित्यिक रूप का भी ज्ञान कर लेते हैं।

7. भाषा मानव-जाति से पोषित होती है

भाषा का अविष्कार मनुष्यों ने परस्पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए किया है। अतएव विश्व के प्रत्येक मानव समाज में किसी न किसी भाषा का प्रचलन अनिवार्य

रूप से होता है। इसका सीधा सम्बन्ध मानव जाति से होता है वैसा देखा भी जाता है कि सर्कस का शेर, बकरा, भालू, घोड़ा, हाथी भी रिंगमास्टर की भाषा को समझते हैं और वैसा ही व्यवहार भी करते हैं किन्तु उस भाषा के माध्यम से वे अपने विचारों की अभिव्यक्ति नहीं कर सकते। तोता-मैना तो मानव भाषा का उच्चारण भी कर लेते, किन्तु कुछ रहे हुए शब्दों का ही, भाषा का मर्म उनकी समझ में नहीं आ सकता। अतएव स्वयंसिद्ध है कि भाषा का पोषण जन-जीवन से ही होता है।

8. भाषा भाव सम्प्रेषण का सर्वोत्तम माध्यम है

यदि भाषा में दैवी उत्पत्ति सिद्धांत को न मानकर उसे मात्र मानवीय आविष्कार ही माना जाये तो यह अनुमान लगाना भी कठिन है कि जब भाषा का आविष्कार न हो सका था, उस आदिम युग में मनुष्य अपने विविध भावों की अभिव्यक्ति कैसे करता होगा? किन्तु यहां यह सोचकर दुखी होने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि पशु-पक्षियों की अपेक्षा मनुष्य ने विपुल मात्रा में बौद्धिक योग्यता लेकर जन्म लिया है, अतएव प्रारंभ से ही उसका कोई न कोई भाषा अवश्य नहीं होगी, भले ही वह असंस्कृत एवं अविकसित है। अस्तु मानव ने अनेक चेष्टाओं एवं संकेतों से भी अपने भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम प्रारंभ से ही खोज निकाला था। जैसे आंख दिखाकर किसी को धमकाना, हाथ के संकेत से बुलाना या रोकना, अधरोष्ठ एवं उंगली रखकर शान्त भाषा के बिना ही भाव-संप्रेषण करने में समर्थ हैं। किन्तु उनकी सीमा अतीतव संकुचित है, न तो उनसे सभी भाव विचारों एवं बौद्धिक प्रक्रियाओं की अभिव्यक्ति संभव है और न वे अधिक समय तक सतत् अभिव्यक्ति में सफल ही होते ही होते हैं। अतएव कहा जा सकता है कि भाषा ही सम्प्रेषण का सर्वाधिक श्रेष्ठ माध्यम है।

9. भाषा पैतृक सम्पत्ति नहीं अपितु सार्वजनिक सम्पत्ति है

कोई भी चल अथवा अचल सम्पत्ति किसी की पैतृक हो सकती है, हिमालय, गंगा, समुद्र देश प्रत्येक पर किसी न किसी का निजी अधिकार हो सकता है किंतु भाषा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर किसी भी जाति, समाज, राष्ट्र, सरकार अथवा धर्म सम्प्रदाय का अधिकार नहीं हो सकता। कोई भी सरकार अपने देश के किसी उत्पादन पर विदेशियों के लिए रोक लगा सकता है, किन्तु वह अपने देश की भाषा अथवा भाषाओं को सीखने अथवा प्रयोग करने से नहीं रोक सकती। विश्व की प्रत्येक भाषा पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। अतएव यह कहना युक्ति संगत प्रतीत होता है कि भाषा सार्वजनिक सम्पत्ति है, किसी की भी निजी एवं पैतृक सम्पत्ति नहीं हो सकती।

10. भाषा जटिलता से सरलता की ओर चलती है

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि भाषा का क्रमिक विकास होता रहता है। इस विकास में उसकी जटिलता से सरलता की ओर उन्मुख रहने की प्रवृत्ति भी सदैव ही बनी रहती है। व्याकरण की ओर उन्मुख रहने की प्रवृत्ति भी सदैव ही बनी रहती है। व्याकरण उसे जितने भी जटिल बौद्धिक नियमों से बांधने का प्रयास करता है, साहित्यिक उसे जितनी भी प्रांजलता की ओर ले जाते हैं, परंतु सरलता की ओर ही बढ़ाता रहता है। प्रयत्न लाघव आदि आदि अनेक कारणों से जटिल भाषा सदैव सरल होती रहती है। यही कारण है कि संस्कृत के अनेक शब्द जटिलता के कारण नूतन सरल स्वरूप धारण किये हुए हैं यथा - स्वर्णकार - सुनार, भूमर - मोती, चन्द्रमा - चन्दा।

11. भाषा स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ती है

अपनी प्रारम्भावस्था में भाषा निश्चय ही स्थूल एवं अप्रौढ़ रहती है। उसमें सूक्ष्म भावों एवं विचारों की गहनता तथा विज्ञान, गणित, दर्शन जैसे विषयों की सूक्ष्मता बौद्धिकता को अभिव्यक्त करने की सामथ्र्य नहीं होती। परन्तु जैसे-जैसे उसका निरन्तर विकास होता जाता है, वैसे ही वैसे वह सूक्ष्मता तथा प्रौढ़त्व की ओर अग्रसर होने लगती है। यह सिद्धांत सभी भाषाओं पर सभी कालों में समान रूप से चरितार्थ होता है।

12. भाषा का कोई अंतिम स्परूप नहीं होता

जिस वस्तु का निर्माण पूर्ण हो जाता है, उसका अन्तिम स्वरूप होता है। भाषा पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता, क्योंकि वह आज भी अपने अंतिम स्वरूप में नहीं है और न ही भूत में भी उसने कभी अंतिम स्वरूप प्राप्त किया था। हां, यह बात दूसरी है कि यदि कोई भाषा मृत हो जाए, उसका प्रचलन बिल्कुल बन्द हो जाए और लोग उसके स्वरूप को अंतिम समझ लें। किन्तु यह भी सत्य नहीं है, क्योंकि भाषा न कभी मृत होती है और न उसके प्रवावह में विच्छिन्नता ही आती है। नदी के प्रवाह को जिस प्रकार कोई चट्टान आगूे आकर अवरूद्ध कर देती है एवं नदी यदि अवरोध को अपने सामने से हटा नहीं पाती तो मार्ग बदलकर आगे बढ़ने लगती है, उसी प्रकार भाषा भी कभी मृत नहीं होती, संस्कृत भला ही आज मृत भाषा कही जाये किन्तु यह सत्य नहीं, क्योंकि आज अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं, वरन् अनेक विदेशी भाषाओं में भी संस्कृत का वैभव स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। अतएव यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि भाषा कोई अंतिम स्वरूप नहीं।

13. यह संश्लिष्टावस्था से विश्लिष्टावस्था की ओर बढ़ती है

प्राचीन विद्वानों को विश्वास था कि भाषा वियोगावस्था से संयोगावस्था की ओर बढ़ती है। पुनः उन्होंने ऐसा भी सोचा कि सम्भवतः अपने जीवन में वह दोनों ही अवस्थाओं से गुजरती रहती है। किन्तु आधुनिक विद्वानों ने इस भ्रम को पूर्णतया निर्मूल सिद्ध करते हुए, अब यह सिद्ध कर दिया है कि भाषा सदैव संश्लिष्टावस्था से विश्लिष्टतावस्था कीओर अग्रसर होती है। जैसे प्राचीन भारतीय संस्कृत भाषा की विभक्तियां और जटिल सामाजिकता, उससे उत्पन्न होने वाली भाषाओं ने स्वीकार नहीं की और संस्कृत की वियोगावस्था ही उन्हें स्वीकार्य रही।

यथा - 

रामः द्विचक्रिकया गृह गच्छति - (संस्कृत)
राम साइकल के द्वारा घर को जाता है - (हिन्दी)

14. भाषा भौगोलिक रूप से स्थानीकृत होती है:

भाषा में यह भी एक प्राकृतिक विशेषता होती है कि वह भौगोलिक रूप से स्थानीकृत होती है। अर्थात प्रत्येक भाषा अथवा बोली की भौगोलिक सीमाएं होती हैं। इस विषय में यह कथन पूर्णतया सत्य सिद्ध होती है कि -

चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी

ये लोकोक्तियां स्पष्टः सिद्ध करती है कि भाषा भौगोलिक रूप से स्थानीकृत होती है। भाषा का स्वरूपगत भेद भी इसी कारण होता है।

15. प्रत्येक भाषा का स्वतंत्र ढांचा होता है:

प्रत्येक भाषा की एक निजी संरचना होती है, जो उसे अन्य भाषाओं में भिन्नता प्रदान करती है और उसके एक स्वतंत्र ढांचे का निर्माण करती है। यथा प्राचीन भाषाओं में तीन वचन, तीन लिंग देखे जाते हैं, किन्तु हिन्दी में दो वचन, दो लिंग हैं, अंग्रेजी में दो वचन और चार लिंग हैं, गुजराती में तीन ही लिंग हैं, हिन्दी

में भूतकाल के छह भेद हैं किन्तु रूसी में केवल दो ही। इस प्रकार स्वर एवं व्यंजन ध्वनियों में भी अन्तर होता है। उर्दू भाषा में सभी ध्वनियां व्यंजन होती हैं। इसी प्रकार कही कोई ध्वनि नहीं होती तो कहीं कोई। यथा ग्रीक इतिहास में चन्द्रगुप्त का नाम सान्द्रकोत्तस एवं रूसी में नेहरू को नेारू लिखा जाता है।

16. भाषा स्तरीकरण एवं मानवीकरण से प्रभावित होती है

भाषा में परस्पर विरोधी दो प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं, प्रथम विविधता और परिवर्तन की, द्वितीय एकता और स्थिरीकरण की। परिवर्तन भाषा का अनिवार्य क्रम है, फलस्वरूप भाषा में विविधता का संचार होता है। पिफर भी यदि भाषा के उपर परिवर्तन को रोकने के उपाय न होते रहे तो भाषा इतनी शीघ्र परिवर्तित हो जाए कि एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी की भाषा को समझ ही न सके। अतएव मनुष्य सदा उसको स्थिर और मानकीकरण के नियमों से बांधकर परिवर्तन के वेग को मंद करता रहता है।

17. भाषा सर्वव्यापक है

भाषा में एक प्राकृतिक गुण यह भी देखा जा सकता है कि भाषा सर्वव्यापक है। मनुष्य के लौकिक एवं अलौकिक आन्तरिक एवं बाह्य वैयक्तिक एवं सामाजिक चिन्तन और अभिव्यंजना सबका परिणाम भाषा ही है, जो उसकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करता है।

संक्षेप में कह सकते हैं कि भाषा मनुष्य का अर्जित व्यवहार है, उनमें अनेक प्राकृतिक विशेषताएं हैं, वह किसी की पैतृक सम्पत्ति नहीं।

संदर्भ - 
1. डाॅ. भोलानाथ तिवारी - भाषा विज्ञान - 2002 - प्रकाशक किताब महल, 22 ए सरोजनी नायडू मार्ग इलाहाबाद।
2. डाॅ. बदरीनाथ कपूर - परिष्कृत हिन्दी व्याकरण - 2006 - प्रकाशन प्रभात प्रकाशन 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली।
3. डाॅ. कपिलदेव द्विवेदी - भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र - 1992 - विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
4. डाॅ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री - भाषा शास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूपरेखा - 1990 - विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।

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