नाटक शिक्षण की विधियाँ, नाटक की किस विधि को अपनाया जाए ?

नाटक एक ऐसी अभिनय परक विद्या है जिसमें सम्पूर्ण मानव जीवन का रोचक एवं कुतुहल पूर्ण वर्णन होता है । यह एक दृश्य काव्य है । इसका आनन्द अभिनय देखकर लिया जाता है । नाट्यशास्त्र के एक विद्वान अभिनव भरत के शब्दों मेंः- ‘‘किसी प्रसिद्ध या कल्पित कथा के आधार पर नाट्यकार द्वारा रचित रचना के अनुसार, नाट्य प्रयोक्ता द्वारा प्रषिक्ष्ज्ञित नट जब रंगमंच पर संगीत तथा अभिनय आदि के द्वारा रस उत्पन्न करके दर्शकों का मनोविनाद करते हुए, उन्हें उपदेश और मानसिक शांति प्रदान करते है, तब इस क्रिया को ‘‘नाटक’’ या ‘‘रूपक’’ कहते है।
नाटक एक दृष्य काव्य है इसमें अभिनय होता है। 

नाटक का अर्थ

अभिनय देखकर दृष्टा आनंद का अनुभव करते है। इसे सुना और देखा जा सकता है नट किसी अन्य व्यक्ति विष्ेाष की विभिन्न अवस्थाओं का अपने अभिनय द्वारा अनुकरण करता है। यह अनुकृति ही नाट्य है और अभिनय कार्य ही नाटक है। नाटक ‘नट’् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है ,अवस्कंदन अर्थात् शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का परिचालन। यह परिचालन कर्ता नट तथा उसके द्वारा दृष्टव्य कार्य नाटक कहलाता है। मुझे स्मरण हो रहा है कि नट द्वारा दिखाए नाट्य अभिनय को बचपन में अनेकानेक बार देखे, लेकिन अब नट कला विरले ही स्थानों पर दिखाई देती है।

नाटक की परिभाषा

(1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार :- "यह एक बड़ी विलक्षण बात है कि आधुनिक गद्य का प्रवर्तन ही नाटकों से होता है।"

(2) डॉ. सुरेश अवस्थी के अनुसार :- “प्रसाद के बाद पहली बार हिन्दी को एक नाटककार मिला था जिसने हिन्दी रंगमंच के लिए एक नया दर्शक पैदा किया था।”

(3) डॉ. नरनारायण के अनुसार :- "नाट्य रचना में मुख्यतः तीन ही तत्वों का योगदान महत्वपूर्ण समझा जाता है वस्तु, संवाद और रंगनिर्देशन । ये तत्व ही - अपने भीतर शेष सभी अन्य तत्वों को समाहित कर लेते हैं।”38

नाटक के प्रमुख तत्व 

1. कथावस्तु, 2. पात्र एवं चरित्र-चित्रण, 3. संवाद या कथोपकथन, 4. भाषा-शैली, 5. देशकाल एवं वातावरण, 6. उद्देश्य, 7. संकलन त्रय, 8. अभिनेयता ।

नाटक शिक्षण की विधियाँ

इस समय नाटक पढ़ाने की कई विधियाँ प्रचलित हैं, उनमें से कुछ प्रमुख विधियाँ इस प्रकार हैं:-

1) व्याख्या प्रणाली:- इस विधि के द्वारा नाटक के सम्पूर्ण कथानक की योजना पर, नाटक की वे भिन्न-भिन्न घटनाओं पर नाटक के भिन्न-भिन्न पात्रों तथा उनके चरित्र पर, नाटक की भाषा आदि पर नाटक की पृष्ठभूमि पर नाटक के विचार-सौन्दर्य पर तथा नाटक से संबंधित अन्य विषयों पर प्रश्नोत्तर किए जाते हैं और इस प्रश्नोत्तर के आधार पर नाटक की विशेषताएँ सामने लाई जाती हैं । इस प्रणाली द्वारा विद्यार्थी नाटक के गुण-दोष समझने में समर्थ हो सकते हैं । यह प्रणाली बड़ी पुरानी है, परन्तु इसका उपयोग केवल उच्च कक्षाओं में ही हो सकता है । प्राथमिक तथा माध्यमिक कक्षाओं से यह प्रणाली सफल नहीं हो सकती ।

2) आदर्श नाट्य शैली:- इस प्रणाली की विशेषता यह है कि अध्यापक स्वयं की कक्षा के सामने नाटक के सभी पात्रों को कायिक तथा वाचिक अभिनय कराता है, वह नाटक के सम्वादों को इस ढंग से पढ़ता है कि प्रत्येक चरित्र का आभास विद्यार्थियों को हो जाता है । पात्रों के अनुसार प्रेम, हास्य, करूणा तथा क्रोध आदि के भाव उनके चेहरे पर प्रकट हो जाते हैं । इस प्रणाली के द्वारा बालकों को मनोविनोद तो पर्याप्त मात्रा में हो जाता है, परन्तु शिक्षा की दृष्टि से कोई लाभ नहीं पाता, क्योंकि बालकों को कोई क्रिया तो करनी पड़ती । वे चुपचाप सुनते तथा देखते रहते हैं जब तक कि बालक किसी कार्य को स्वयं न करेंगे तब तक कोई लाभ नहीं हो सकता ।

3) प्रयोग प्रणाली:- इस प्रणाली को हम निम्नलिखित दो भागों में विभाजित कर सकते हैंः-

क) रंगमंच अभिनय प्रणाली:- इस विधि के अनुसार यथासंभव विद्यार्थी पूरे नाटक को वास्तविक रंगमंच पर उपस्थित करते हैं । इस पद्धति की सबसे बड़ी कमी यह है कि इस पर धन का व्यय बहुत होता है । सभी विद्यालयों के लिए ऐसा कर सकना संभव नहीं । हाँ वर्ष में दो-चार बार कुछ नाटक वास्तविक रंगमंच पर खेले जा सकते हैं ।

ख) कक्षाभिनय प्रणाली:-इस प्रणाली की सबसे बड़ी विषेषता यह है कि अध्यापक द्वारा नाटक के विभिन्न पात्रों के कार्य कक्षा के विभिन्न बालकों में बाँट दिए जाते है। कोई बालक किसी पात्र का अभिनय करता है तथा कोई बालक किसी का । विद्यार्थी को जिस पात्र का अभिनय करना होता है उससे संबंधित सम्वादों को ध्यानपूर्वक पढ़ता है तथा उसके अनुसार ही कायिक तथा वाचिक अभिनय करता है । रंगमंच अभिनय प्रणाली की अपेक्ष्ज्ञा इस प्रणाली में समय और धन की बहुत बचत हो सकती है ।

नाटक की किस विधि को अपनाया जाए ?

सबसे उत्तम विधि तो यह होगी कि अध्यापक कुछ विशेष घटनाओं को अपने आदर्श अभिनय के द्वारा कक्षा के सामने

उपस्थित करें। इसके बाद फिर इन बातों को तथा शेष घटनाओं को कक्षा-अभिनय के द्वारा पूरा कराए । व्यर्थ का अंग-संचालन न हो । नाटक के सभी गहन भाव इसके द्वारा स्पष्ट हो और बालक भी उनका अनुकरण कर सकने में समर्थ हो ।

इस बात का ध्यान रखा जाए कि नाटक का उतना ही अंष (एक अंक या दृष्य) लिया जाए, जिसका अभिनय एक चक्र में किया जा सके ।

संदर्भ -

1. बी.एल. शर्मा- हिन्दी शिक्षण - आर. लाल बुक डिपो- 2009
2. डाॅ. शमशकल पाण्डेय- हिन्दी शिक्षण- अग्रवाल पब्लिकेशन- 2012
3. डाॅ. एस.के. त्यागी - हिन्दी भाषा शिक्षण- अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा-2-2009

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