शरीर के भीतर जो बेकार चीज होती है, जैसे- मल, मूत्र, पसीना, कफ, दूषित
सांस, दूषित रक्त, दूषित मांस, पीप आदि जो शरीर को विषाक्त व दूषित करते हैं, शरीर
का विनाश करते हैं, शरीर के लिए अनुपयोगी है, उसे ही दोष, विकार, मल या विजातीय
द्रव्य के नाम से जाना जाता है।
1. श्वांस के द्वारा- श्वास के साथ हवा में उड़ते रहने वाले छोटे-छोटे कीटाणु, धूलकण, धुँआ, दुर्गन्ध, हानिकारक गैस एवं अन्य विजातीय द्रव्य शरीर में चले जाते हैं।
2. मुँह के द्वारा- मुँह के द्वारा जल या अन्य खाद्य पदार्थ में कीटाणु और गन्दगी आदि शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और शरीर में विजातीय द्रव्य की वृद्धि करते हैं।
3. विषैले जंतुओं के काटने से- विषैले जंतुओं जैसे- साँप, बिच्छु, मच्छर, कीट-पतंग आदि काट खाने से उनका विष शरीर में प्रवेश कर जाता है और शरीर में विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है।
4. विषैले दवाओं के प्रयोग से- विषैले दवाओं, सुइयों, गैसों द्वारा भी विजातीय द्रव्य शरीर में प्रवेश कराया जाता है। ये विषैले द्रव्य हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य के रूप में संचित होते रहते हैं।
5. नशीले पदार्थों के सेवन द्वारा- नशीले पदार्थ, जैसे- तंबाकू, गांजा, चरस, सिगरेट, अफीम, शराब आदि के सेवन से भी हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा में वृद्धि होती है।
6. वंश परम्परा संस्कार- जिन माता-पिता के शरीर में विजातीय द्रव्य भरे रहते हैं उनके बच्चों में भी विजातीय द्रव्य प्रवेश कर जाते हैं।
7. अप्राकृतिक जीवनशैली द्वारा- अप्राकृतिक जीवनशैली अपनाने से हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा बढ़ने लगती है और हम रोगग्रस्त हो जाते हैं। विजातीय द्रव्य बढ़ने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं-
1. भोजन संबंधी गलत आदतें- स्वाद के वशीभूत होकर व्यक्ति आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं और बहुत ही चटपटा, मिर्च-मसालायुक्त, तैलीय आहार ग्रहण करते हैं। अम्लीय भोजन अधिक करते हैं। भोजन में क्षार की मात्रा कम रहती है। आहार ऐसा होने चाहिए कि उसमें क्षार की मात्रा 80 प्रतिशत तथा अम्ल की मात्रा 20 प्रतिशत हो क्योंकि हमारे शरीर में खून की बनावट इसी प्रकार की है। प्राकृतिक कच्चा आहार क्षारीय कहलाता है, जबकि अग्नि के संपर्क में बना खाद्य पदार्थ अम्लीय हो जाता है। जब यह अनुपात असंतुलित होने लगता है अर्थात जब शरीर के रक्त में क्षारत्व और अम्लत्व के इस 4 और 1 के अनुपात में कमी या अधिकता हो जाती है अथवा जब रूधिर में क्षारधर्मी खाद्य पदार्थों के कम उपयोग के कारण क्षारत्व की कमी और अम्लत्व की बढ़ती हो जाती है तो प्रकृति रक्त और शरीर के अन्य तंतुओं में से क्षारत्व को खींचकर शरीर के पोषण के काम में उसे लगाने के लिए बाध्य होती है, नतीजा यह होता है कि शरीर का रक्त और अन्य तंतु जिनसे क्षारत्व खींच लिया जाता है- निःसत्व, निर्बल और रोगी हो जाते हैं।
विजातीय द्रव्य क्या है, इसके बारे में लूई कूने ने कहा है कि ‘‘ विजातीय द्रव्य बिल्कुल
बेकार चीज है और शरीर को उसकी आवश्यकता नहीं है। स्वस्थ मनुष्य पर विजातीय
द्रव्य का प्रभाव नहीं पड़ता। शरीर अपने आप ही
विजातीय द्रव्य को फोड़ा-फुंसी, पसीना आदि के द्वारा बाहर निकालता रहता है।
विजातीय द्रव्य का कारण
विजातीय द्रव्य जिसे हम दोष, विकार, सड़ा हुआ मल,
बादी कहते हैं, ये हमारे अप्राकृतिक खान-पान व जीवनशैली अपनाने से होते हैं। ये हमारे
शरीर में दो रास्ते से प्रवेश करते हैं। पहला नाक द्वारा फेफड़ों में तथा दूसरा मुँह द्वारा पेट
में। वायु तथा पर्यावरण प्रदूषण के कारण फेफड़ों में पर्याप्त आवश्यक वायु न मिलने से
विजातीय द्रव्य एकत्रित हो जाते हैं जिसे हम कई प्रकार के रोग के नाम से जानते हैं।
गलत खान-पान से शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। जब आवश्यकता से अधिक भोजन किया जाता है और बहुत ही चटपटा, मिर्च मसाले वाला, तला-भूना, अम्लीय भोजन करते हैं तो शरीर इसको स्वभावतः मल, मूत्र तथा पसीना आदि के द्वारा बाहर नहीं निकाल पाता है। इस प्रकार ये विजातीय द्रव्य भीतर ही जमा होने लगते हैं। रक्त में मिलकर रक्त प्रवाह में विघ्न उत्पन्न करते हैं एवं पाचन तंत्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। ये विजातीय द्रव्य उसे बाहर निकालने वाले शरीर के कोठों के चारों ओर धीरे-धीरे जमा हो जाते हैं और उनके कार्य में रूकावट डालते हैं। फिर ये विभिन्न रोग उत्पन्न करने लगते हैं।
गलत खान-पान से शरीर की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। जब आवश्यकता से अधिक भोजन किया जाता है और बहुत ही चटपटा, मिर्च मसाले वाला, तला-भूना, अम्लीय भोजन करते हैं तो शरीर इसको स्वभावतः मल, मूत्र तथा पसीना आदि के द्वारा बाहर नहीं निकाल पाता है। इस प्रकार ये विजातीय द्रव्य भीतर ही जमा होने लगते हैं। रक्त में मिलकर रक्त प्रवाह में विघ्न उत्पन्न करते हैं एवं पाचन तंत्र को अव्यवस्थित कर देते हैं। ये विजातीय द्रव्य उसे बाहर निकालने वाले शरीर के कोठों के चारों ओर धीरे-धीरे जमा हो जाते हैं और उनके कार्य में रूकावट डालते हैं। फिर ये विभिन्न रोग उत्पन्न करने लगते हैं।
इसके आलावा भी और भी कई कारण हैं जिससे विजातीय द्रव्य का प्रवेश या
निर्माण हमारे शरीर में होने लगता है जिसमें कुछ हैं-
1. श्वांस के द्वारा- श्वास के साथ हवा में उड़ते रहने वाले छोटे-छोटे कीटाणु, धूलकण, धुँआ, दुर्गन्ध, हानिकारक गैस एवं अन्य विजातीय द्रव्य शरीर में चले जाते हैं।
2. मुँह के द्वारा- मुँह के द्वारा जल या अन्य खाद्य पदार्थ में कीटाणु और गन्दगी आदि शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और शरीर में विजातीय द्रव्य की वृद्धि करते हैं।
3. विषैले जंतुओं के काटने से- विषैले जंतुओं जैसे- साँप, बिच्छु, मच्छर, कीट-पतंग आदि काट खाने से उनका विष शरीर में प्रवेश कर जाता है और शरीर में विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है।
4. विषैले दवाओं के प्रयोग से- विषैले दवाओं, सुइयों, गैसों द्वारा भी विजातीय द्रव्य शरीर में प्रवेश कराया जाता है। ये विषैले द्रव्य हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य के रूप में संचित होते रहते हैं।
5. नशीले पदार्थों के सेवन द्वारा- नशीले पदार्थ, जैसे- तंबाकू, गांजा, चरस, सिगरेट, अफीम, शराब आदि के सेवन से भी हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा में वृद्धि होती है।
6. वंश परम्परा संस्कार- जिन माता-पिता के शरीर में विजातीय द्रव्य भरे रहते हैं उनके बच्चों में भी विजातीय द्रव्य प्रवेश कर जाते हैं।
7. अप्राकृतिक जीवनशैली द्वारा- अप्राकृतिक जीवनशैली अपनाने से हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य की मात्रा बढ़ने लगती है और हम रोगग्रस्त हो जाते हैं। विजातीय द्रव्य बढ़ने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं-
1. भोजन संबंधी गलत आदतें- स्वाद के वशीभूत होकर व्यक्ति आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं और बहुत ही चटपटा, मिर्च-मसालायुक्त, तैलीय आहार ग्रहण करते हैं। अम्लीय भोजन अधिक करते हैं। भोजन में क्षार की मात्रा कम रहती है। आहार ऐसा होने चाहिए कि उसमें क्षार की मात्रा 80 प्रतिशत तथा अम्ल की मात्रा 20 प्रतिशत हो क्योंकि हमारे शरीर में खून की बनावट इसी प्रकार की है। प्राकृतिक कच्चा आहार क्षारीय कहलाता है, जबकि अग्नि के संपर्क में बना खाद्य पदार्थ अम्लीय हो जाता है। जब यह अनुपात असंतुलित होने लगता है अर्थात जब शरीर के रक्त में क्षारत्व और अम्लत्व के इस 4 और 1 के अनुपात में कमी या अधिकता हो जाती है अथवा जब रूधिर में क्षारधर्मी खाद्य पदार्थों के कम उपयोग के कारण क्षारत्व की कमी और अम्लत्व की बढ़ती हो जाती है तो प्रकृति रक्त और शरीर के अन्य तंतुओं में से क्षारत्व को खींचकर शरीर के पोषण के काम में उसे लगाने के लिए बाध्य होती है, नतीजा यह होता है कि शरीर का रक्त और अन्य तंतु जिनसे क्षारत्व खींच लिया जाता है- निःसत्व, निर्बल और रोगी हो जाते हैं।
क्षारधर्मी खाद्य पदार्थों में सभी ताजे, पके और खट्टे फल, विशेषकर नींबू जाति के,
धारोष्ण दूध, ताजा मट्ठा, हरे साग, हरी सब्जियाँ छिलके सहित, मूली, प्याज,
शहद, गुड़, मक्खन, किशमिश, कच्ची गरी, मीठा दही, गन्ना, गाजर, हरा चना,
अंकुरित अन्न, सलाद आदि आते हैं। जबकि अम्लधर्मी खाद्य पदार्थों में मांस,
मछली, अंडा, पनीर, रोटी, दालें, सूखा मेवा, सफेद चीनी, मिश्री, मिठाइयाँ, चाय,
काॅफी, नशे के सभी चीजें, मुरब्बे, अचार, चटनी, खटाई, सिरका, तली-भूनी चीजें,
उबला हुआ दूध, खीर, चटपटे, डब्बों में बंद भोजन, नमक, तेल तथा अग्नि के
संपर्क में आयी अन्य वस्तुएँ। शरीर में जाकर भोजन क्षार अथवा अम्लजातीय पदार्थ में बदल जाता है।
2. आलस्य की अधिकता- आलस्य की अधिकता से हम अपने शरीर का उचित ध्यान नहीं रखते। मैले, गंदे रहते हैं, शरीर की क्रियाशीलता भी कम हो जाती है, स्वच्छता का ध्यान नहीं रख पाते हैं। आसन व्यायाम जो हमें करना चाहिए, वो भी नहीं कर पाते, फलस्वरूप हमारे शरीर में विकार उत्पन्न होने लगते हैं फिर रोग के रूप में प्रकट होते हैं।
3. अनियमित भोग विलास- अनियमित भोग विलास से मनुष्य कमजोर और अस्वस्थ हो जाता है। उसकी जीवनीशक्ति क्षीण हो जाती है, शरीर अंदर से खोखला होने लगता है। पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, आँख, गाल धंस जाते हैं। नाना प्रकार के रोग शरीर में उत्पन्न होने लगता है। सिर के बाल एवं पकने लगते हैं, असमय में ही बुढ़ापा आने लगता है। आज की पीढ़ी के नवयुवकों में यह अधिकता देखा जाता है। विभिन्न रोगों की उत्पत्ति के पूर्व हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य संचित रहता है, फिर रोग के रूप में प्रकट होता है।
8. जीवनीशक्ति की कमी- शरीर में जितनी अधिक जीवनीशक्ति होती है, उसके अंदर रोगों से लड़ने की उतनी ही अधिक सामर्थ्य होती है। दुर्बल अंगों और दुर्बल व्यक्तियों में ही रोग पैदा होते हैं और पनपते हैं। शक्तिहीन शरीर में, उसमें पड़े हुए कूड़े-कचरे, विकार, मल या विजातीय द्रव्य को बाहर निकालकर निर्मल बनाने की शक्ति नहीं रहती।
9. मिथ्योपचार- मिथ्योपचार का शाब्दिक अर्थ है कि मिथ्या उपचार अर्थात गलत तरीके से रोगी का उपचार करना। प्राकृतिक चिकित्सा में रोग का मूल कारण विजातीय द्रव्य को माना जाता है
2. आलस्य की अधिकता- आलस्य की अधिकता से हम अपने शरीर का उचित ध्यान नहीं रखते। मैले, गंदे रहते हैं, शरीर की क्रियाशीलता भी कम हो जाती है, स्वच्छता का ध्यान नहीं रख पाते हैं। आसन व्यायाम जो हमें करना चाहिए, वो भी नहीं कर पाते, फलस्वरूप हमारे शरीर में विकार उत्पन्न होने लगते हैं फिर रोग के रूप में प्रकट होते हैं।
3. अनियमित भोग विलास- अनियमित भोग विलास से मनुष्य कमजोर और अस्वस्थ हो जाता है। उसकी जीवनीशक्ति क्षीण हो जाती है, शरीर अंदर से खोखला होने लगता है। पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, आँख, गाल धंस जाते हैं। नाना प्रकार के रोग शरीर में उत्पन्न होने लगता है। सिर के बाल एवं पकने लगते हैं, असमय में ही बुढ़ापा आने लगता है। आज की पीढ़ी के नवयुवकों में यह अधिकता देखा जाता है। विभिन्न रोगों की उत्पत्ति के पूर्व हमारे शरीर में विजातीय द्रव्य संचित रहता है, फिर रोग के रूप में प्रकट होता है।
8. जीवनीशक्ति की कमी- शरीर में जितनी अधिक जीवनीशक्ति होती है, उसके अंदर रोगों से लड़ने की उतनी ही अधिक सामर्थ्य होती है। दुर्बल अंगों और दुर्बल व्यक्तियों में ही रोग पैदा होते हैं और पनपते हैं। शक्तिहीन शरीर में, उसमें पड़े हुए कूड़े-कचरे, विकार, मल या विजातीय द्रव्य को बाहर निकालकर निर्मल बनाने की शक्ति नहीं रहती।
9. मिथ्योपचार- मिथ्योपचार का शाब्दिक अर्थ है कि मिथ्या उपचार अर्थात गलत तरीके से रोगी का उपचार करना। प्राकृतिक चिकित्सा में रोग का मूल कारण विजातीय द्रव्य को माना जाता है
10. आकस्मिक दुर्घटना- स्वस्थ व्यक्ति को अचानक चोट लगने से
अथवा आकस्मिक दुर्घटना, त्वचा, मांस, शिरा, हड्डी आदि के टूटने-फटने से
अभिघातज रोगों की उत्पत्ति होती है। शल्यक्रिया भी इसी श्रेणी में आती है क्योंकि
चीर-फाड़ भी तो सीधा बाह्य प्रहार ही है। इन सभी के कारण हमारे शरीर में
विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है और शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।
11. रोगोत्पादक जीवाणु- यदि शरीर में जीवन की शक्ति कम है और पहले से ही विजातीय द्रव्य शरीर में भरा हो तो रोगोत्पादक जीवाणु विजातीय द्रव्य की मात्रा को और भी बढ़ा देते हैं।
12. कब्ज- कब्ज सभी रोगों की जड़ है, यह आधुनिक सभ्यता का रोग है। मल जब बड़ी आंत में जमा हो जाता है और किसी कारण से अपने रास्ते से बाहर नहीं निकलता बल्कि वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा करता है तो उसे कब्ज होना कहते हैं। खान-पान का असंयम कब्ज का मूल कारण है। कब्ज होने का अभिप्राय मोटे तौर पर यह है कि शरीर से मल निष्कासन की एक महत्वपूर्ण क्रिया मंद पड़ गयी है। फलस्वरूप विजातीय द्रव्य की मात्रा शरीर में बढ़ने लगती है और शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
11. रोगोत्पादक जीवाणु- यदि शरीर में जीवन की शक्ति कम है और पहले से ही विजातीय द्रव्य शरीर में भरा हो तो रोगोत्पादक जीवाणु विजातीय द्रव्य की मात्रा को और भी बढ़ा देते हैं।
12. कब्ज- कब्ज सभी रोगों की जड़ है, यह आधुनिक सभ्यता का रोग है। मल जब बड़ी आंत में जमा हो जाता है और किसी कारण से अपने रास्ते से बाहर नहीं निकलता बल्कि वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा करता है तो उसे कब्ज होना कहते हैं। खान-पान का असंयम कब्ज का मूल कारण है। कब्ज होने का अभिप्राय मोटे तौर पर यह है कि शरीर से मल निष्कासन की एक महत्वपूर्ण क्रिया मंद पड़ गयी है। फलस्वरूप विजातीय द्रव्य की मात्रा शरीर में बढ़ने लगती है और शरीर में विभिन्न रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
विजातीय द्रव्य से युक्त व्यक्ति के लक्षण
जिनके शरीर में विजातीय द्रव्य भरा
रहता है उनके लक्षण अलग से दिखते हैं। जिन अंगों में विजातीय द्रव्य जमा रहता है वे
अपना स्वाभाविक कार्य उचित रूप से पूरा नहीं कर सकते हैं। वहाँ रक्त प्रवाह में रूकावट
होने लगती है और इससे शरीर का पूरा पोषण नहीं हो पाता है। जहाँ विजातीय द्रव्य बहुत
अधिक जमा हो जाता है, वहाँ अंग छूने पर ठण्डे जान पड़ते हैं। पहले पहल शरीर के
अग्रभाग हाथ-पैर ठंडे जान पड़ते हैं, पर जल्दी ही दूसरे अंगों के हिस्सों पर भी इसका
असर होने लगता है।
विजातीय द्रव्य गैस रूप में मस्तिष्क में पहुँच जाता है, वहाँ सिर में दर्द होने लगता है। बीच के जो शारीरिक अवयव हैं वे विजातीय द्रव्य को ऊपर चढ़ने से रोकते हैं, फलस्वरूप पारस्परिक संघर्ष के कारण सिर गर्म हो उठता है और अगर मल अधिक होता है तो उसकी गर्मी से बुखार भी हो जाता है।
शारीरिक अस्वस्थता के अतिरिक्त ऐसे मलभारयुक्त लोगों की आकृति भी बिगड़ने लगती है। मुखाकृति खराब होकर मस्तक भी बैडोल हो जाता है। गर्दन अपेक्षाकृत छोटी या बड़ी दिखलायी पड़ती है। अनेक लोगों का मुँह फूला हुआ जान पड़ता है। ऐसे फूले शरीर को कुछ लोग स्वस्थता, पुष्टता या शक्ति का चिन्ह समझते हैं परन्तु उनका यह विचार सर्वथा भ्रमपूर्ण होता है। यह लक्षण शक्ति की वृद्धि के न होकर मल भरे जाने के होते हैं।
छाती ऊँची-नीची हो जाती है, पेट आगे को लटकने लगता है, टांगें खम्भे के समान दिखाई देने लगती हैं। कुछ लोगों के मल अधिक मात्रा में शरीर के भीतरी भागों में ही रहता है, इसलिए उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और खाल लटक जाती है। गर्दन को इधर-उधर फेरने से खाल तनने लगती है। मुख का रंग फीका, पीला अथवा बहुत लाल हो जाता है। शरीर का रंग यदि बहुत चमकने लगे तो यह भी विजातीय द्रव्य इकट्ठा होने का लक्षण है।
विजातीय द्रव्य से भरे शरीर की मुख्य पहचान यह है कि
विजातीय द्रव्य गैस रूप में मस्तिष्क में पहुँच जाता है, वहाँ सिर में दर्द होने लगता है। बीच के जो शारीरिक अवयव हैं वे विजातीय द्रव्य को ऊपर चढ़ने से रोकते हैं, फलस्वरूप पारस्परिक संघर्ष के कारण सिर गर्म हो उठता है और अगर मल अधिक होता है तो उसकी गर्मी से बुखार भी हो जाता है।
शारीरिक अस्वस्थता के अतिरिक्त ऐसे मलभारयुक्त लोगों की आकृति भी बिगड़ने लगती है। मुखाकृति खराब होकर मस्तक भी बैडोल हो जाता है। गर्दन अपेक्षाकृत छोटी या बड़ी दिखलायी पड़ती है। अनेक लोगों का मुँह फूला हुआ जान पड़ता है। ऐसे फूले शरीर को कुछ लोग स्वस्थता, पुष्टता या शक्ति का चिन्ह समझते हैं परन्तु उनका यह विचार सर्वथा भ्रमपूर्ण होता है। यह लक्षण शक्ति की वृद्धि के न होकर मल भरे जाने के होते हैं।
छाती ऊँची-नीची हो जाती है, पेट आगे को लटकने लगता है, टांगें खम्भे के समान दिखाई देने लगती हैं। कुछ लोगों के मल अधिक मात्रा में शरीर के भीतरी भागों में ही रहता है, इसलिए उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और खाल लटक जाती है। गर्दन को इधर-उधर फेरने से खाल तनने लगती है। मुख का रंग फीका, पीला अथवा बहुत लाल हो जाता है। शरीर का रंग यदि बहुत चमकने लगे तो यह भी विजातीय द्रव्य इकट्ठा होने का लक्षण है।
विजातीय द्रव्य से भरे शरीर की मुख्य पहचान यह है कि
- उसके शरीर के किसी न किसी भाग में दर्द रहेगा, सिरदर्द, कमरदर्द, पीठ में दर्द या और भी किसी अंग में दर्द रहेगा।
- कब्ज या अतिसार होगा।
- मलत्याग के पूर्व या बाद में कमजोरी होगी।
- काम करने में कष्ट का अनुभव होना या थोड़ा भी काम करने, मेहनत करने या चलने से कष्ट होना एवं हांफ चढ़ना।
- शरीर का भार एकाएक कम या अधिक होना।
- हृदय में भारीपन, दबाव का अनुभव, वक्षस्थल को कष्ट या उसके आसपास के हिस्से में कष्ट का अनुभव होना।
- शरीर में कमजोरी, शरीर के ऊपरी हिस्से अथवा नीचे के हिस्से में गर्मी की कमी। कभी-कभी एकाएक शरीर का ठंडा हो जाना।
- वाणी में विकार, कफ का लगातार दो-तीन सप्ताह तक निकलना, भूख का कम लगना, उदर के दायीं ओर पीड़ा होना तथा भारीपन रहना,
- बार-बार मूत्र त्याग करके जाना,
- बार-बार सर्दी, जुकाम होना,
- किसी कार्य में मन न लगना,
- सुस्ती रहना, थकान अनुभव होना आदि विजातीय द्रव्य से भरे शरीर के लक्षण हैं।
- विजातीय द्रव्य से भरे व्यक्ति को नींद नहीं आती, मन बुझा-बुझा, निराशा से भरा होता है, कई प्रकार के मानसिक विकार भी हो जाते है।
- भय, निराशा, काम, क्रोध, आशंका, अहंकार आदि उसे घेर लेते हैं।
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