भीष्म साहनी का जीवन परिचय एवं प्रमुख रचनाएँ

भीष्म साहनी का जीवन परिचय

भीष्म साहनी का जीवन परिचय 

भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त, 1915 में पंजाब के रावलपिण्डी में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है । इनके पिता का नाम श्री हरवंशलाल तथा माता का नाम लक्ष्मी देवी था। इनके बड़े भाई प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी थे । उनकी पाँच बहनें भी थीं । पश्चिमी पंजाब में स्थित रावलपिण्डी में उन दिनों स्वामी दयानंद सरस्वती का बहुत प्रभाव था । उन्हीं के प्रभाव में आकर हरवंशलाल कट्टर आर्यसमाजी हो गए थे । परंतु वे समाज-सुधार में भी गहरी रुचि रखते थे । 

भीष्म साहनी लिखते हैं, “पिताजी ने जिंदगी गरीबी से शुरु की । वह आशावादी, पुरुषार्थ-प्रेमी आर्यमाजियों में से थे, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण की उपज माने जाते हैं । जिन्हें विश्वास था कि मनुष्य का चरित्र अच्छा हो, वह कर्मशील हो तो अपने भाग्य का निर्माण स्वयं कर सकता है ।” 

स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर, भीष्म साहनी जी अपने पिता के साथ व्यापार में उनका हाथ बँटाने लगे । साथ ही स्थानीय कॉलेज से अपनी पढ़ाई भी जारी रखी । देश-विभाजन के बाद वे पत्रकारिता तथा ‘इप्टा' नाटक-मंडली से जुड़ गए । लेकिन अपने मुम्बई प्रवास के दौरान कुछ दिनों तक बेकारी का सामना उन्हें करना पड़ा । बाद में, वे अम्बाला के एक कॉलेज और उसके बाद अमृतसर के खालसा कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में काम करने लगे । फिर स्थाई रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में साहित्य के अध्यापक हुए। 

सन् 1957 से सन् 1963 तक मास्को में 'विदेशी भाषा प्रकाशन गृह' (फ़ॉरेन लैंग्वेज पब्लिकेशन हाउस) में अनुवादक के रूप में कार्यरत रहे । यहाँ उन्होंने टालस्टॉय, आस्ट्रोवस्की आदि कई प्रसिद्ध लेखकों की दो दर्जन रुसी किताबों का हिंदी में अनुवाद किया । 

सन् 1965 से सन् 1967 तक उन्होंने ‘नई कहानियाँ' नामक पत्रिका का संपादन किया । प्रगतिशील लेखक संघ और एफ्रो-एशियाई लेखक संघ से भी वे जुड़े रहे । 

सन् 1993 से सन् 1997 तक वे ‘साहित्य अकादमी' के कार्यकारी समिति के सदस्य रहे ।

28 वर्ष की आयु में, सन् 1943 में भीष्म साहनी का विवाह 20 वर्षीय शीला जी के साथ हुआ । भीष्म साहनी दहेज-प्रथा के सख़्त विरोधी थे । इसका प्रमाण इसी बात से मिल जाता है है कि अपनी सगाई के समय, शगुन के तौर पर, उन्होंने अपने पिता से सिर्फ सवा रुपये लेने का आग्रह किया था । दोनों का वैवाहिक जीवन खुशहाल एवं संतोषप्रद रहा । भीष्म साहनी जी स्त्रियों के शिक्षित होने एवं नौकरी करने के प्रबल समर्थक थे । यही कारण रहा कि उन्होंने शीला जी को भी नौकरी करने के लिए प्रेरित किया । वे महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष स्थान देने के हिमायती थे । देश-विभाजन के बाद शीला जी ने न सिर्फ अपने बिखरे परिवार को समेटने में, बल्कि रेडियो पर नौकरी करके आर्थिक रूप से भी भीष्म साहनी के कदम से कदम मिलाकर चलीं । भीष्म जी की रचनाओं पर टीका-टिप्पणी कर उन्हें आवश्यक भाषाओं के भी अच्छे ज्ञाता थे । जिन दिनों भीष्म साहनी जी ने अपनी शिक्षा पूरी की, उन दिनों देश में राष्ट्रीय उथल-पुथल आरंभ हो चुका था और अपने चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ रहा था । 

भीष्म साहनी जी के अनुसार, “मैं स्कूल में था, जब भगत सिंह और उनके साथी फाँसी पर झूल गये थे । जितेनदास ने 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद दम तोड़ दिया था । 

स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर, भीष्म साहनी जी अपने पिता के साथ व्यापार में उनका हाथ बँटाने लगे । साथ ही स्थानीय कॉलेज से अपनी पढ़ाई भी जारी रखी । देश-विभाजन के बाद वे पत्रकारिता तथा ‘इप्टा' नाटक-मंडली से जुड़ गए । लेकिन अपने मुम्बई प्रवास के दौरान कुछ दिनों तक बेकारी का सामना उन्हें करना पड़ा । बाद में, वे अम्बाला के एक कॉलेज और उसके बाद अमृतसर के खालसा कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में काम करने लगे। फिर स्थाई रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में साहित्य के अध्यापक हुए। 

भीष्म साहनी का निधन 13 जुलाई, 2003 में उनकी हुआ ।

भीष्म साहनी के उपन्यास और अन्य रचनाएँ

भीष्म साहनी के सात उपन्यास प्रकाशित हुए – 'झरोखे', ‘कडियाँ’, - ‘तमस’, ‘बसंती’, ‘मय्यादास की माड़ी’, ‘कुंतो’ और ‘नीलू नीलिमा नीलोफ़र’ । उनके बारह कहानी–संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें 'पहला पाठ', 'भटकती राख', 'पटरियाँ” आदि उल्लेखनीय हैं । 

‘हानूश’, कबीरा खड़ा बाजार में', 'माधवी', 'रंग दे बसंती चोला' आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं ।  भीष्म साहनी के पंजाबी चेतना प्रधान हिंदी उपन्यास हैं – “तमस”, “मय्यादास की माड़ी” तथा “कुंतो” ।

भीष्म साहनी का सम्मान

भीष्म साहनी को उनकी साहित्य-साधना के लिए अनेकों राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए । 'तमस' उपन्यास के लिए सन् 1976 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया । सन् 1974 में भाषा विभाग, पंजाब द्वारा शिरोमणि लेखक पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया । एफ्रो-एशियाई लेखकसंघ की ओर से ‘लोटस’ पुरस्कार उन्होंने प्राप्त किया । 

सन् 1980 में दिल्ली साहित्य कला परिषद् की ओर से सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार उन्हें मिला । सन् 1983 में ‘सोवियत लैण्ड नेहरु’ पुरस्कार से वे सम्मानित हुए । इसके अतिरिक्त उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ की ओर से भी सम्मानित किया गया । हिंदी अकादमी, दिल्ली की ओर से और संगीत नाटक अकादमी की ओर से भी उन्हें सम्मानित किया गया । 

सन् 1997 में उनकी साहित्य-सेवा के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’ की उपाधि प्रदान की गई ।

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