रस किसे कहते हैं इसकी परिभाषा

रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनंद' । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।

काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का 'स्थायी भाव' ही रस-दशा को प्राप्त होता है।

पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है।रस को 'काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व' माना जाता है।

रसकीपरिभाषा

आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के 'रस' को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम 'रस' का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था।

उनके अनुसार 'रस' की परिभाषा इस प्रकार है- 'विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:'- नाट्यशास्त्र, अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

रस के प्रकार

रस के ग्यारह भेद होते है-
  1. शृंगार रस
  2. हास्य रस 
  3. करूण रस 
  4. रौद्र रस 
  5. वीर रस 
  6. भयानक रस
  7. बीभत्स रस 
  8. अदभुत रस 
  9. शान्त रस 
  10. वत्सल रस
  11. भक्ति रस ।

रस के अंग

रस के चार अंग है-
  1. विभाव
  2. अनुभाव
  3. व्यभिचारी भाव
  4. स्थायी भाव।
(1) विभाव :-जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को 'विभाव' कहा जाता है। दूसरे शब्दों में- स्थायी भावों के उदबोधक कारण को 'विभाव' कहते हैं।
विभाव के भेद -विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्यीपन विभाव।
  1. आलंबन विभाव-जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन। जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
  2. उद्यीपन विभाव-जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्यीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।
(2) अनुभाव :-आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य 'अनुभाव' कहलाते है। दूसरे शब्दों में- मनोगत भाव को व्यक्त करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है।
अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है- (1) स्तंभ (2) स्वेद (3) रोमांच (4) स्वर-भंग (5 )कम्प (6) विवर्णता (रंगहीनता) (7) अश्रु (8) प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता) ।

अनुभाव के भेद -अनुभाव के चार भेद है- (क) कायिक (ख) मानसिक, (ग़) वाचिक और (घ) आहार्य।यों इसके अन्य भेद भी है।

(3) व्यभिचारी या संचारी भाव :-मन में संचरण करने वाले (आने-जाने वाले) भावों को 'संचारी' या 'व्यभिचारी' भाव कहते है। व्यभिचारी या संचारी भाव 'स्थायी भावों' के सहायक है, जो अनुकुल परिस्थितियों में घटते-बढ़ते हैं।

आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के चार सिद्धान्त माने हैं-
  1. देश, काल और अवस्था
  2. उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के लोग,
  3. आश्रय की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्तेजना के कारण अथवा वातावरण के प्रभाव
  4. स्त्री और पुरुष के अपने स्वभाव के भेद।
जैसे- निर्वेद, शंका और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पुरुषों के संचारी भाव है; गर्व आत्मगत संचारी है; अमर्ष परगत संचारी; आवेग या त्रास कालानुसार संचारी हैं। भरत के अनुसार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में उठनेवाले और आप-ही-आप विलीन होनेवाले बुदबुदों- जैसे ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भेदों के अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के संचारी दूसरे में भी आ सकते हैं। जैसे- गर्व 'शृंगार' (स्थायी भाव 'रति' का रस') में भी हो सकता है और 'वीर' में भी।

संचारी भावों की संख्या -संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
  1. हर्ष
  2. विषाद
  3. त्रास (भय/व्यग्रता)
  4. लज्जा (ब्रीड़ा)
  5. ग्लानि
  6. चिंता
  7. शंका
  8. असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख)
  9. मोह
  10. गर्व
  11. उत्सुकता
  12. उग्रता
  13. चपलता
  14. दीनता
  15. जड़ता
  16. आवेग
  17. निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)
  18. घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव)
  19. मति
  20. बिबोध (चैतन्य लाभ)
  21. वितर्क
  22. श्रम
  23. आलस्य
  24. निद्रा
  25. स्वप्न
  26. स्मृति
  27. मद
  28. उन्माद
  29. अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
  30. अपस्मार (मूर्च्छा)
  31. व्याधि (रोग)
  32. मरण
(4) स्थायी भाव :-मन का विकार 'भाव' है। भरत मुनि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में भावों की संख्या उनचास कही है, जिनमें तैतीस संचारी या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शेष आठ 'स्थायी भाव' है। भरत के अनुसार 'स्थायी भाव' ये है-
  1. रति,
  2. ह्रास
  3. शोक
  4. क्रोध
  5. उत्साह
  6. भय
  7. जुगुप्सा/घृणा
  8. विस्मय/आश्चर्य
  9. शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग)
  10. वात्सल्य रति
  11. भगवद विषयक रति/अनुराग
भरत ने बाद में शम या निर्वेद या शान्त को भी नवम 'स्थायी भाव' माना। बाद के आचार्यों ने भक्ति और वात्सल्य को भी 'स्थायी भाव' माना है। भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ (i) आस्वाद्यत्व, अर्थात व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट अनुरंजकता (ii) उत्कटत्व, अर्थात इतनी तीव्रता कि अन्य किसी सजातीय या विजातीय भावों में न दब या सिमट पाना (iii) सर्वजनसुलभत्व अर्थात संस्कार-रूप में हर मनुष्य में वर्तमान होना (iv) पुरुषार्थोपयोगिता, अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो की सिद्धि की योग्यता और (v) औचित्य, अर्थात भाव के विषय में आलम्बन आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही 'स्थायी भाव' हो सकते है। अतः मन के विकार को भाव कहते है और जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सुलभता, चार पुरुषार्थो की उपयोगिता और औचित्य के नाते हृदय में बराबर बना रहे, वह 'स्थायी भाव' है। ''वास्तविक 'स्थायी भाव' के उदाहरण तो रस की परिपक्व अवस्था में ही मिल सकते है, अन्यत्र नहीं। '' ''जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अविरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस रूप में व्यक्त होता है, उस आनन्द के मूलभूत भाव को 'स्थायी भाव' कहते है।''

2 Comments

  1. Sir abhi aap ko adsense me CPC or RPM kya mil raha hai?

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