उपन्यास किसे कहते हैं/प्रेमचंद के अनुसार उपन्यास की परिभाषा

उपन्यास

उपन्यास ऐसी विधा है जिसतें लेखक अपने विचार या बात उपन्यास माध्यम से व्यक्त करते हैं। उपन्यास एक सशक्त विधा है जिसमें लेखक आज के आधुनिक युग में क्या घटित हो रहा है जैसे भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अत्याचार, - जातिवाद, भेदभाव, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों को उल्लेखित करते हैं।

उपन्यास शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ उसके स्वरूप वैशिष्ट्य की पूर्णता स्पष्ट करता है। (उप+न्यास) अर्थात् पास में स्थित वस्तु या जीवनानुभूति । उपन्यास में जितना जीवन की निकटता, स्वच्छता और स्वभाविकता प्रतिपादन हो सकता है उतना किसी अन्य विधा में नहीं।

सर मोनियर विलियम्स के संस्कृत - अँग्रेज़ी शब्दकोश में 'उपन्यास' के कुछ अर्थ इस प्रकार दिये गए हैं- उल्लेख (mention) अभिकथन (statement) सम्मित (suggestion) उद्धरण (quotation) सन्दर्भ (reference) 

“हिन्दी साहित्य कोश में उपन्यास के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि - यह उप (समीप) तथा न्यास (थाती) के योग से बना है, जिसका अर्थ हुआ, "मनुष्य के निकट रखी हुई वस्तु अर्थात् वह वस्तु या कृति जिसको पढ़कर ऐसा लगे कि यह हमारे ही जीवन का प्रतिबिंब है, इसमें हमारी ही कथा, हमारी ही भाषा कही गई है।"

उपन्यास शब्द की व्युत्पत्ति

‘उपन्यास' शब्द संस्कृत के 'अस्' धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है रखना। इसमें ‘उप' और 'नि' उपसर्ग है तथा 'घञ' प्रत्यय का प्रयोग है। (उप+नि+अस+घञ= उपन्यास) इसका अर्थ उपस्थापन है। हिन्दी साहित्यकोश में उपन्यास शब्द को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है। " उपन्यास शब्द उप = समीप तथा न्यास = थाती के योग से बना है, जिसका अर्थ हुआ (मनुष्य) के निकट रखी हुई वस्तु, अर्थात् वह वस्तु या कृति जिसको पढ़कर ऐसा लगे कि यह हमारी अपनी ही है, इसमें हमारे जीवन का प्रतिबिम्ब है, इसमें हमारी ही कथा हमारी ही भाषा में कही गयी है ।''

उपन्यास शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में जीवन प्रकाश जोशी का कथन है कि “साहित्यिक दृष्टि से घूम-फिर कर 'उपन्यास' शब्द की व्युत्पत्ति हमें नवीन प्रतीत होती है और है भी उपन्यास आधुनिक काल में ही लिखी गयी नयी रीति शैली की कथात्मक रचना है। स्पष्ट रूप में कह सकते हैं कि उपन्यास शब्द की व्युत्पत्ति गद्य की उस नवीन कथा - प्रधान रचना के लिए हुई जिसमें नये ढंग से कुछ नयी साहित्यिक - सामग्री या जीवन-जनित कथावस्तु रखी जाए, स्थापित की जाये । "

उपन्यास की परिभाषा

किसी भी साहित्यांग की नियम-निष्ठ (format) परिभाषा देना कठिन है। उपन्यास को परिभाषाबद्ध करना और भी कठिन है, क्योंकि यह सर्वाधिक रूपांतरणीय रूप है। उपन्यास के बारे में परिभाषा निम्नलिखित हैं

उपन्यास के बारे में उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द की परिभाषा –“मैं उपन्यास को मानव–चरित्र का चित्रमात्र समझता हूँ । मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मुख्य विषय है ।"

उपन्यास को परिभाषाबद्ध करने के प्रयत्न में डॉ. भगीरथ मिश्र ने लिखा है कि, “युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली में स्वभाविक जीवन की एक पूर्ण, व्यापक झाँकी प्रस्तुत करनेवाला गद्यकाव्य उपन्यास कहलाता है।” 

उपन्यास के बारे में डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन की व्याख्या है कि, " उपन्यास वह कल्पनामूलक उचित विस्तारयुक्त गद्यमय आख्यान है जिसमें चरित्र और कार्य हो हमारे सच्चे, जीवन को प्रस्तुत करते हैं, एक सूत्र में प्रस्तुत हो।”

उपन्यास एक अत्यन्त विकासशील विधा है । हो सकता है कल उसके क्षेत्रविस्तार गंभीरता को और भी नव्यतर दृष्टिकोण मिले तब उसकी परिभाषा का पुनः संस्कार भी हो।

उपन्यास का उद्देश्य एवं महत्व

उपन्यास मानव–जीवन की व्याख्या है और मानव जीवन का अध्ययन विश्लेषण करना ही उपन्यास का मूल ध्येय है। पात्रों की स्वायत्त सत्ता को उभारना उपन्यास का परम उद्देश्य है प्रतीकात्मक नहीं, यथार्थ होता है। उपन्यास की जीवन महाकाव्य की भाँति उपन्यास वर्तमान युग की वास्तविकताओं, जटिलताओं, उसकी परिवर्तनशील चेतना को अभिव्यक्त करने में सर्वाधिक सक्षम है।

आधुनिक युग में उपन्यास की बढ़ती शक्ति को देखकर आचार्य रामचंद्र शुक्लजी ने यों लिखा था “वर्तमान जगत् में उपन्यासों की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके विभिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास इसका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं।"

उपन्यास साहित्य मानव जीवन की सम्पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करता है।

इसलिए जेम्स ने उपन्यास को 'जीवन का दर्पण' कहा तो बालजाक ने 'मनुष्य के यथार्थताओं से बना नीड़ा' तथा प्रेमचन्द ने 'मानव चरित्र का चित्र' कहा है। अतः निरपवादित परिभाषा देने की अपेक्षा विभिन्न परिभाषाओं में प्रायः सर्वमान्य विशेषताओं को देख लेना अधिक सुलभ - संगत होगा, और वे ये हैं

★ उपन्यास का माध्यम गद्य है 

★ यह उसे काव्य से पृथक करता है। उपन्यास अपेक्षतया बड़े आकार का होता है पृथक् करता है। - यह उसे कहानी से

★ उपन्यास में कल्पित कथा होती है यह तत्व उसे इतिहास, जीवनी, आत्मकथा, पत्रकारिता आदि से पृथक करता है तथा उसकी रोचकता का मुख्य आधार है ।

★ उपन्यास का दृष्टिकोण यथार्थोन्मुखी है।

★ उपन्यास में पात्रों का चरित्रांकन अनिवार्य है।

★ उपन्यास में वर्णन अनिवार्य है है। - इसके अभाव में वह नाटक हो जाता उपन्यास जैसे सर्वाधिक निबन्ध काव्यरूप में उपन्यासकार की एकल दृष्टि (Single Vision) अपरिहार्य है यही उपन्यास के समस्त संयोजन की मूल शक्ति है और यह दृष्टि उसकी अपनी होती है उसके व्यक्तित्व की परिचायका भी । उपन्यास में किसी न किसी प्रकार की रोचकता भी अनिवार्य है क्योंकि पाठकों के रंजन के बिना और सब कुछ व्यर्थ हो सकता है।

इसके अतिरिक्त उपन्यास का पृथक वैशिष्ट्य इसमें भी है कि वह सभी साहित्य विधाओं से सर्वाधिक बहुग्राही एवं सर्वाधिक लचीली विधा है और उनमें से किसी का आश्रय लेकर भी अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है। उसमें सबका विलय हो सकता है किन्तु वह किसी में नहीं समा सकती। इन सब विशेषताओं को मिलाकर उपन्यास की स्थूल परिभाषा देने की गलती करें तो कहा जा सकता है कि उपन्यास वैयक्तिक दृष्टि से वास्तवाभासी कल्पित कथा - पात्रों को लेकर जीवन में एकांगी या बहुरंगी गतिशील यथार्थ को अंकित करने में नित्य नवल रूप धारण करने में समर्थ, अपेक्षतया बड़े आकार का, रोचक वर्णनात्मक गद्य रूप है |

उपन्यास के तत्व

i. कथानक

कथानक उपन्यास का मूलभूत अंग है । प्रायः हिन्दी भाषा में कथानक को अंग्रेज़ी 'प्लॉट' के पर्यायवाची शब्द - रूप में ही प्रयुक्त किया जाता है। कथानक घटनाओं का वह संगठनात्मक स्वरूप है जिसके सहारे उपन्यास का सृजन होता है। घटनाओं का संयोजन जिज्ञासा के आधार पर इस प्रकार किया जाता है कि कथावस्तु एक सूत्र में बंधी हुई अपनी निश्चित दिशा की ओर अग्रसर होती रहती है।

कथावस्तु के बारे में डॉ. सुरेश सिन्हा का कथन यह है कि "यह एक भ्रान्तिमूलक धारणा हल होगी कि उपन्यासों में कथावस्तु का होना अनिवार्य नहीं होता है।” 

कथानक उपन्यास की रीढ़ है जिसके सहारे उसका मूल ढाँचा स्थिर रह सकता है। कथानक का आधार कहानी है और कहानी में घटनाओं का संग्रह होता है। घटनाओं का संकलित स्वरूप ही कथानक होता है । कथावस्तु में घटनात्मक विवरणों का एक बृहत लेखा जोखा होता है इसलिए उसका संबंध घटना–विन्यास संबंधी अनेक विशेषताओं से होता है । इन विशेषताओं को कथावस्तु के गुण कहा जाता है। संबद्धता, मौलिकता, औपन्यासिक सत्यता, निर्माण कौशल, रोचकता, व्यापकता, स्वाभाविकता आदि कथावस्तु के गुण होते हैं ।

ii. चरित्र चित्रण या पात्र

कथानक के पश्चात् उपन्यास का द्वितीय प्रमुख एवं महत्वपूर्ण अंग चरित्र या पात्र है। उपन्यास की घटनाएँ जिनसे सम्बन्धित होती हैं या जिनको लेकर उनका घटित होना दिखाया जाता है, वे पात्र कहलाते हैं। इन्हीं पात्रों के क्रियाकलापों से कथानक या कथावस्तु का निर्माण होता है । उपन्यासकार जीवन के यथार्थ चित्रण के लिए ऐसे पात्रों का निर्माण करता है जो हमारे आसपास की दुनिया के हैं ।

विद्वानों का विचार है कि उपन्यास में चरित्र चित्रण यथार्थवादी होना चाहिए। उपन्यासकार द्वारा निर्मित पात्रों की क्रियायें उनकी चारित्रिक विशेषताओं से उत्पन्न होनी चाहिए । उपन्यासों में पात्रों का चरित्र-चित्रण दो प्रकार से किया जाता है। प्रथम अप्रत्यक्ष रूप से और दूसरा विश्लेषणात्मक रूप से। अप्रत्यक्ष चरित्र-चित्रण पात्रों के स्वगतकथन अथवा कथोपकथन में एक दूसरे पात्र के सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करने से होता है। साथ-ही-साथ चरित्रों के क्रियाकलाप आदि से भी उनके चरित्र का चित्रण किया जाता है । 

विश्लेषणात्मक विधि में लेखक अपने पात्रों का चरित्र - वर्णन स्वयं करता है। इस पद्धति के अनुसार लेखक एक विशेष प्रकार के चरित्र निर्मित करता है और उस चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। कथानक की तरह पात्रों की चरित्र चित्रण में भी अपनी विशेषताएँ होती हैं । चरित्र चित्रण में अनुकूलता, स्वभाविकता, सप्रमाणता, यथार्थता, सहृदयता, मौलिकता, अंतर्द्वन्द्व, बौद्धिकता आदि विशेषताएँ होनी चाहिए।

iii. कथोपकथन

उपन्यास का तीसरा मूल तत्व कथोपकथन अथवा संवाद है । कथोपकथन का मूल उपयोग पात्रों के मनोवेग, उनकी प्रवृत्तियाँ, उनकी इच्छा–अभिलाषा, राग-द्वेष आदि को सजीव अभिव्यक्ति प्रदान करता है । " इस तथ्य के द्वारा हम उपन्यास के पात्रों से विशेष परिचित होते और दृश्य - काव्य की सजीवता और वास्तविकता का बहुत कुछ अनुभव करते हैं । सुन्दरदास, विनोद मंदिर, पृ. 105 ) (साहित्यालोचन, डॉ. श्याम

कथानक का विस्तार करना, पात्रों की व्याख्या करना और लेखक के उद्देश्य को स्पष्ट करना आदि कथोपकथन के प्रमुख उद्देश्य होते हैं। कथोपकथन के लिए सम्बद्धता, अनुकूलता, मनोवैज्ञानिकता, भावात्मकता, उपयुक्तता, स्वाभाविकता, संक्षिप्तता, उद्देश्यपूर्णता आदि गुण आवश्यक होते हैं कथोपकथनों का विशेष महत्व होता है । 

iv. देश-काल और वातावरण

उपन्यास की स्वभाविकता की दिशा में वातावरण या देश-काल की रक्षा का प्रमुख स्थान होता है । देशकाल के अन्तर्गत किसी भी राष्ट्र या समाज की वेशभूषा, रीति-रिवाज एवं सामाजिक - राजनीतिक परिस्थितियाँ आदि सम्मिलित हैं। आज का उपन्यास चूँकि यथार्थ की भाव-भूमि पर खड़ा है अतः कथानक को अधिक स्वभाविक बनाने के लिए उचित वातावरण आवश्यक होता है। उपन्यास में वातावरण का प्रायः कथा-काल और कथा – प्रकारानुसार चयन किया जाता है। सामाजिक उपन्यासों की अपेक्षा ऐतिहासिक उपन्यासों में देश - काल का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त आंचलिक उपन्यासों के लिए तो देश-काल अथवा वातावरण जीवनी तत्व है

v. उद्देश्य

उपन्यास का अन्तिम तत्व उद्देश्य है । आनन्द माना है। अरस्तू ने काव्य का उद्देश्य जबकि उपन्यास के क्षेत्र में मनोरंजन, उपदेशवादिता या समाज-सुधार उसके प्रारम्भिक उद्देश्य रहे हैं। विश्व की सभी भाषाओं के प्रारम्भिक उपन्यासों में मनोरंजन का तत्व प्रमुख रहा है । किन्तु धीरे-धीरे यह तत्व जीवन के यथार्थ चित्रण की ओर उन्मुख होता आया है। कुछ विद्वानों ने शिल्प को ही कला का उद्देश्य माना है। हिन्दी उपन्यास में प्रारम्भिक युग का उद्देश्य विशुद्ध मनोरंजन या समाज सुधार रहा है। प्रेमचन्द युग में उपन्यासों का उद्देश्य एक ओर आदर्श समाज की कल्पना कर रहा है और दूसरी ओर यथार्थ की। जीवन की कोई एक समस्या अथवा जीवन का कोई एक कोण उपन्यास का उद्देश्य बनता जा रहा है।

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