अनुक्रम
अनुशासन शब्द अंग्रेजी के ‘डिसीप्लीन’ शब्द का पर्याय है कि जो कि
‘डिसाइपल’ शब्द से बना है। जिसका अर्थ है- ‘शिष्य’’ शिष्य से आाज्ञानुसरण की
अपेक्षा की जाती है। हिन्दी ने संस्कृत की ‘शास्’ धातु से यह शब्द बना है। इसका
अभिप्राय है नियमों का पालन, आज्ञानुसरण नियंत्रण। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से
अनुशासन की प्रक्रिया में नियमों का पालन, नियंत्रण आज्ञाकारिता आदि अर्थ निहित
है।
अनुशासन की परिभाषा
पर्सीनन के अनुसार- ‘‘अनुशासन एक नियम के प्रति किसी भी भावनाओं और शक्ति के आत्मसपर्ण में निहित हेाता है। यह अव्यवस्था पर आरोपित किया जाता है, तथा अकौशल एवं निरथर्कता के स्थान पर कौशल एव मितव्ययता उत्पन्न करता है, हो सकता है हमारे स्वभाव का अंश इस नियंत्रण को प्रतिनियंत्रित करे किन्तु इसकी मान्यता अन्तत: ऐच्छिक स्वीकृति पर हेाती है।’’
जॉन डी0वी0 के अनुसार -’’विद्यालय में प्रदत्त सूचनाओं एवं छात्र चरित्र के विकास के मध्य की दूरी वस्तुत: इसलिये है कि विद्यालय एक सामाजिक संस्था नहीं बना पाया है।’’
उनके अनुसार - ‘‘जिन कार्यो को करने से परिणाम या निष्कर्ष निकलते हैं उनको सामाजिक एवं सहयोगी ढंग से करने पर अपने ही रूप का अनुशासन उत्पन्न होता है।’’
अनुशासन सिद्धांत
अनुशासन को स्थापित करने के तीन सिद्धांत है। नारमन, मैकमन एवं एडम्स महोदय के
अनुसार- दमनात्मक, प्रभावात्मक एवं मुख्यात्मक तीन सिद्धांत है-
- दमनात्मक सिद्धांत
- प्रभावात्मक सिद्धांत
- मुक्त्यात्मक सिद्धांत
1. दमनात्मक सिद्धांत-
इसका तात्पर्य है कि अनुशासन स्थापित करने के लिये अध्यापक को पिटा एवं शारीरिक दण्ड तथा बल आदि का प्रयोग करना चाहिये। इस सिद्धांत के मानने वाले यह मानते हैं कि डण्डा हटाने पर बच्चा बिगड़ता है। अत: वे बच्चों पर अध्यापक को सब अधिकार देते हैं। इसमें कठोर व निर्मम दण्ड भी सम्मिलित है। यह सिद्धांत बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परवाह नहीं करता परन्तु प्रकृतिवादी व यथार्थवादी शिक्षा दर्शन ने इस प्रकार के अनुशासन का विरोध किया है। कमेनियम में ऐसे स्कूलों को कसाखाना कहा और ऐसे ढंग से अनुशासन स्थापित करना अमनोवैज्ञानिक ठहराया।यह सिद्धांत लोकतन्त्रात्मक शिक्षा व्यवस्था के
विपरीत है। इस सिद्धांत से अध्यापक की असफलता परिलक्षित हेाती है, क्येांकि
शिक्षक अपनी शिक्षण एवं व्यवहार से विद्यार्थियों को प्रभावित कर अनुशासित नहीं कर
पाता है। यह सिद्धांत अब पुरातनयुगीन मानी जा रही है।
इन तीनों आर्दशों का अपना - अपना महत्व परिलक्षित होता है। अति से बात बिगड़ती हैं। हम केा मध्यम भाग निकाले जिससे कि उसमें अनुशासन के साथ स्वतंत्रता के उचित प्रयोग की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सके।
2. प्रभावात्मक सिद्धांत-
इस सिद्धांत को शिक्षक के व्यक्तित्व के पभ््र ााव पर आधारित किया है। अध्यापक एवं विद्यार्थियों के मध्य एक आदर्श नैतिक सम्बंध स्थापित किया जाता है। इसमें शिक्षकों से उच्च कोटि का आचरण एवं व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। हमारे देश में वैदिकालीन शिक्षा में शिक्षक (गुरू) अपने आचरण एवं क्रियकलापों से ही छात्रों केा अनुशासित रखकर अनुकरण करवाते थे। इससे गुरू-शिष्य के मध्य मधुर सम्बंध स्थापित हेाते थे। इसे मध्यमार्ग माना जाता है, परन्तु यह सत्य है कि शिक्षक प्रभाव का विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा है यह कहा नहीं जा सकता कभी-कभी विद्याथ्र्ाी अपनी निजता खो देते हैं। इन बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।3. मुक्त्यात्मक सिद्धांत-
इस सिद्धांत आधार बालक की स्वतत्रं पकृति है। प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्री इसके प्रबल समर्थक है। रूसो बर्डस्वर्थ, हक्सले, माण्डेसरी और फ्राबेल भी इसके प्रयोग के लिये समर्थन देते हैं। बर्डस्वर्थ ने माना है कि बालक में अपने पर नियंत्रण रखने के सभी गुण है और हमें उसको स्वाभाविक वातावरण में प्रतिक्रिया करने के लिये अभिप्रेरित करना चाहिये। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था से शारीरिक दण्ड पर प्रतिबंध इस दर्शन का ही परिणाम है। यह माना जाता है कि-- स्वतत्रंता बालक को स्वाभाविक उन्नति का अवसर देती है।
- स्वतंत्रता संवेगों एवं भावनाओं को सुदृढ़ बनाकर मानसिक विकृति को रोकता है।
- स्वतंत्रता से बच्चों को संतुलित मानसिक स्वास्थ्य मिलता है।
- यह बच्चों में आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता उत्पन्न करता है।
- यह बच्चों में सही एंव गलत का अन्तर देखने का दृष्टिकोण उत्पन्न करता है, क्येांकि गलत उसे कष्ट देता है, जिससे वह सीख जाता है।
इन तीनों आर्दशों का अपना - अपना महत्व परिलक्षित होता है। अति से बात बिगड़ती हैं। हम केा मध्यम भाग निकाले जिससे कि उसमें अनुशासन के साथ स्वतंत्रता के उचित प्रयोग की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सके।
रॉस ने इस सम्बंध में अपने
विचार देते हुये लिखा है-’’सच्ची स्वतंत्रता के लिये नैतिक एवं सामाजिक नियंत्रण की
आवश्यकता है इसके लिये प्रभाव की विधि सर्वाधिक उपर्युक्त है एवं वांछनीय है इससे
सच्चा अनुशासन स्थापित होता है।’’ इस प्रकार हम प्रभावात्मक अनुशासन को मूल
मानकर मुक्त्यात्मक अनुशासन को क्रियशीलत करें और दमनात्मक अनुशासन की मात्र
छाया ही दिखायी दे।
अनुशासनहीनता के कारण
अनुशासन स्वतंत्रता को सार्थता प्रदान करती है और वातावरण को अराजकता के स्थान पर सुव्यवस्था देती है जो पूर्व में यह जानने की आवश्यकता है कि अनुशासनहीनता के कारक कौन से है। हम इनको समवेत रूप से विशेष विन्दुओं के अन्तर्गत देखेंगे-
अनुपयुक्त वातावरण -
वातावरण भी अनुशासनहीनता का प्रमुख कारक है।- शिक्षा प्रणाली का उद्देश्यपरक न होना।
- विद्यालयों/महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों की शिथिलता व उदासीनता।
- अध्यापकों की उदासीनता व रूचि व प्रेरणा में कमी।
- शिक्षण विधियों का स्तरानुकुल, रोचक, उपयोगी व प्रभावी न होना।
- कक्षाओं में अत्यधिक छात्रों की संख्या के कारण शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रभावी न होना।
- विभिन्न शैक्षिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर उचित निर्देशन न दिया जाना।
- समय-सारिणी के निर्धारण में आवश्यकता, रूचि थकान एवं मनोरंजन जैसे तथ्यों को ध्यान न दिया जाना।
- परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता की कमी के कारण उचित मूल्यांकन न कर पाने के कारण छात्रों में असन्तोष।
- शिक्षण संस्थाओं में सामुदायिक क्रियाकलापों को महत्व नहीं दिये जाने से विद्यार्थियों का समाज से अलगाव।
- नैतिक शिक्षा का अभाव होने के कारण उचित नैतिकता का अभाव।
दूषित सामाजिक वातावरण -
सामाजिक वातावरण बालक के सम्पूर्ण क्रियाकलाप को प्रभावित करते हैं और यह भी विद्यार्थियो में अनुशासन की भावना को प्रभावित करते हैं।- समाज में व्याप्त दोष (जातिगत भेदभाव, धार्मिक कट्टरता एवं क्षेत्रवाद)।
- अश्लील साहित्य एंव चित्र का प्रचार-प्रसार।
- बढ़ती जनसंख्या के कारण बिलगाव।
- सामाजिक आदर्शों के प्रति विरक्तता।
- आदर्श, पड़ोस, साथियों का अभाव।
अनुपयुक्त पारिवारिक वातावरण -
बच्चे अपने परिवार से वंशानुक्रम के गुण तथा पारिवारिक वातावरण के प्रभाव की उपज हेाते हैं। परिवार का वातावरण अनुपयुक्त हो तो उनका सम्पूर्ण जीवन प्रभावित होता है। परिवार के निम्न कारण अनुशासनहीनता को जन्म देता है।- पारिवारिक कलह (माता-पिता, दादा-दादी, बच्चों एवं अन्य) सम्बन्धों के मध्यम मधुर सम्बधं का अभाव।
- माता-पिता के द्वारा अपने बच्चों को पूरा ध्यान न दिया जाना, उपेक्षा करना।
- परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति सम्मान जनक न होना।
- विद्यार्थियों के प्रत्येक व्यवहार के प्रति अधिक उदारता का नकारात्मक प्रभाव।
- बच्चों पर अनावश्यक नियंत्रण से कुण्ठा की उपज।
- परिवार में लैंगिक भेदभाव।
- घर में स्थान की उचित व्यवस्था की कमी।
शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक कारण-
विशिष्ठ आयु में निम्न शारीरिक व मनोवैज्ञानिक स्थितिया अनुशासनहीनता का कारण हेाती है।- किशोरावस्था का असंतुलित विकास।
- शारीरिक कमजोरी (लम्बी बिमारी, जन्मजात)।
- जन्मजात गलत व्यवहार की आदत।
- व्यवहार के शोधन एवं मागान्र्तीकरण एवं परिमार्जन हेतु उपयुक्त परिस्थितियों का अभाव।
- भावनाओं एवं विचारों को उचित प्रश्रय न मिलने से कुण्ठा की उत्पत्ति।
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ReplyDeleteThanks
Deletevery very helpful and useful material
ReplyDeleteThanks Ajay
Deleteपरिभाषा और डाले, और अच्छा होगा, क्योकि अधिक होगा बेहतर होगा
ReplyDeleteधन्यवाद ranbir
DeleteUseful for every b. Ed students
ReplyDeleteI'm b.ed student . Your matter is good effective
ReplyDeleteit is very useful to ou
ReplyDeletethanks.
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ReplyDeleteThank you google
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ReplyDeletevery very useful content
ReplyDeletesir mujhe "Discipline or the time table as the reproduction of norms in society"please sir kuch matter bhejiye
ReplyDeleteThanks
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