मंत्रणा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं महत्व

मंत्रणा एक मनोवैज्ञानिक पहलू है। मंत्रणा को बिना संस्था के माध्यम से भी सम्पन्न किया जा सकता है। इसके लिए रिलीफ फन्ड्स, फॉस्टर होम या होम मेकर की आवश्यकता नहीं होती है। मंत्रणा के अन्तर्गत सेवाथ्री को को ठोस सेवा न प्रदान करके केवल मार्गदर्शन करने का प्रयत्न किया जाता है। परन्तु वैयक्तिक सेवा कार्य में जब कार्यकर्ता तथा सेवाथ्री समस्या समाधान के लिए मिलते हैं तो ठोस सेवा की उपलब्धि का पुट अवश्य होता है।

मंत्रणा का परिचय 

मंत्रणा कला तथा विज्ञान दोनों हैं। इसके लिए न केवल यह आवश्यक है कि विषय-वस्तु का ज्ञान हो बल्कि आत्म ज्ञान, आत्म अनुशासन एवं आत्मिक विकास की विधाओं का भी ज्ञान हो। अभिव्यक्ति तब होती है जब मंत्रणादाता सेवाथ्री तथा अपने बीच संबंधों को सुदृढ़ करने के लिए विभिन्न निपुणताओं का उपयोग करता है तथा सेवाथ्री की स्वायत्ता बनाये रखने का समर्थन करता है। मंत्रणा के लिए यह आवश्यक है कि मंत्रणादाता अच्छा सम्प्रेषक हो और यह सम्प्रेषण सावधानी पूर्वक अवलोकन पर निभर्र होता है। 

परामर्श एक विशेष प्रकार का वयैक्तिक सम्प्रेषण है। जिसमें भावनाओं, विचारों, मनोवृत्तियों का प्रगटन होता है। जिनका प्रगटन नहीं हो पाता हे, उनकी खोजकर प्रगटन की स्थिति तैयार की जाती है और यदि को स्पष्टीकरण की जरूरत होती है तो स्थिति का विश्लेषण करके उसे सेवाथ्री को बताया भी जाता है।

अत: कहा जा सकता है कि -
  1. मंत्रणा में दो व्यक्ति होते हैं - एक सहायता चाहता है तथा दूसरा व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित होने के कारण सहायता देने में समर्थ होता है। 
  2. यह आवश्यक है कि दोनों व्यक्ति के बीच सम्बन्धों का आधार पारस्परिक स्वीकृति हो तथा दोनों ही उसे आदर एवं सम्मान करें। 
  3. मंत्रणादाता को मित्रवत व्यवहार करना चाहिए तथा उसमें सहयोग देने की भावना प्रबल हो। 
  4. परामर्श प्राप्त करने वाले में मंत्रणादाता के प्रति विश्वास तथा भरोसा हो।
  5. मंत्रणा के माध्यम से सेवाथ्री में आत्मनिर्भरता तथा उत्तरदायित्व को पूरा करने की भावना का विकास किया जाता है। 
  6. मंत्रणा के माध्यम से सेवाथ्री की सहायता उसकी क्षमताओं को ढूंढने तथा उन्हें पूरी तरह से उपयोग में लाने का प्रयास किया जाता है जिससे उसकी सभी क्षमतायें वास्तविक रूप में प्रकट होकर उसे समस्याओं के समाधान करने में तथा सुखमय जीवन बनाने में सफलता मिल सके। 
  7. यह केवल सलाह ही नहीं बल्कि इसके माध्यम से सेवाथ्री स्वयं समस्या का मार्ग ढूंढता है, मंत्रणादाता केवल उपाय बताता है। 
  8. मंत्रणा के माध्यम से व्यक्ति में परिवर्तन लाया जाता है जिससे समस्या का समाधान सम्भव होता है।
  9. इसका सम्बन्ध मनोवृत्तियों के बदलाव से भी होता है। 
  10. यद्यपि मंत्रणा प्रक्रिया में सूचना और वैकल्पिक ज्ञान का महत्व होता है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ,सांवेगिक भावनायें होती है जिस पर प्रक्रिया निर्भर होती है। 
मंत्रणा में कार्यकर्ता का ध्यान सेवा पर न होकर केवल समस्या पर ही रहता है। मंत्रणादाता किसी एक विशेष समस्या पर ही केन्द्रित रहता है। मंत्रणादाता किसी एक विशेष समस्या से संबंधित सहायता करने में निपुण होता है। जैसे - विवाह मंत्रणा, व्यावसायिक मंत्रणा, परिवार मंत्रणा, विद्यालय मंत्रणा आदि। उसका ज्ञान, दक्षता, निपुणता, योग्यता तथा समय, विशिष्ट सहायता प्रदान करने में ही उपयोग में लायी जाती है।

मंत्रणा का अर्थ 

मंत्रणा का कार्य उतना ही प्राचीन है जितना कि हमारा समाज, स्वयं जीवन के प्रत्येक स्तर पर तथा दिन-प्रतिदिन के जीवन में मंत्रणा की आवश्यकता होती है। परिवार के स्तर पर बच्चों को माता-पिता मंत्रणा देते हैं, रोगियों को चिकित्सक मंत्रणा देते हैं, वकील अपने सेवाथ्री को मंत्रणा देता है, अध्यापक विद्यार्थियों को मंत्रणा देते है। 

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि समस्याओं की को सीमा नहीं है, जिनमें मंत्रणा की आवश्यकता न महसूस होती है।

मंत्रणा की परिभाषा

आप्टेकर के अनुसार, ‘‘ मंत्रणा उस समस्या-समाधान की ओर लक्षित वैयक्तिक सहायता है जिसका एक व्यक्ति समाधान कर सकने में स्वयं को असमर्थ पाता है और जिसके कारण निपुण व्यक्ति की सहायता प्राप्त करता है। जिसका ज्ञान, अनुभव तथा सामान्य स्थिति ज्ञान उस समस्या के समाधान करने के प्रयत्न में, उपयोग में लाया जाता है।’’

गार्डन हैमिल्टन के अनुसार, ‘‘मंत्रणा, तर्क-वितर्क के माध्यम द्वारा एक व्यक्ति की क्षमताओं तथा इच्छाओं को तार्किक बनाने में सहायता करता है। मंत्रणा का मुख्य उद्देश्य सामाजिक समस्याओं तथा सामाजिक अनुकूलन के लिए चेतना अहं को प्रोत्साहित करता है।’’

मंत्रणा के प्रकार

सामान्यत: मंत्रणा के दो प्रकार माने गये हैं - 1. निर्देशित मंत्रणा 2. अनिर्देशित मंत्रणा

1. निर्देशित मंत्रणा 

निर्देशित मंत्रणा के अन्तर्गत मंत्रणादाता सम्पूर्ण प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभाता है। वह सेवाथ्री को सलाह देता है तथा इसमें सेवाथ्री की समस्या, मुख्य केन्द्र-बिन्दु होती है न कि सेवाथ्री।

निर्देशित मंत्रणा की प्रक्रिया 0जी0 विलियम्स के अनुसार निर्देशित मंत्रणा में चरण होते हैं-
  1. विश्लेषण - विभिन्न यंत्रों व प्रविधियों के प्रयोग द्वारा विविध स्रोतों से तथ्य संकलन किया जाता है। सेवाथ्री को पर्याप्त रूप से समझने के लिए ये तथ्य आवश्यक होते हैं। 
  2. संश्लेषण - तथ्यों का संक्षिप्तीकरण तथा भली-भांति संगठित होना चाहिए जिससे सेवाथ्री के संबंध में सभी आवश्यक सूचनायें प्राप्त हो जाये, जैसे उसके गुण, समायोजन करने की क्षमता, उत्तरदायित्व की भावना, असमायोजन आदि।
  3. निदान - सेवाथ्री द्वारा बतायी ग समस्याओं की प्रकृति व कारण से संबंधित निष्कर्ष निकालना। 
  4. समस्या संबंधी - सेवाथ्री की समस्याओं के भविष्य में विकसित होने की प्रति लक्षणों से सेवाथ्री को अवगत कराना। 
  5. उपचारात्मक मंत्रणा - इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाओं में से कुछ या सभी प्रक्रियायें आती है : -
    1. सेवाथ्री के साथ संबंध स्थापना 
    2. सेवाथ्री के सम्मुख एकत्र तथ्यों की व्याख्या व निवर्चन करना। 
    3. सेवाथ्री के साथ क्रियात्मक कार्यक्रम करने की सलाह देना या योजना बनाना 
    4. क्रियात्मक येाजना को लागू करने में सेवाथ्री की सहायता करना 
    5. मंत्रणा या निदान में अन्य मंत्रणादाताओं की आवश्यकता होने पर सेवाथ्री को अन्य संस्था में संदर्भित करना। संक्षेप में, इस स्तर पर मंत्रणादाता सेवाथ्री के साथ अनुकूलन या पुन:अनुकूलन के लिए कार्य करता है। 
  6. अनुगमन - अनुगमन में मंत्रणादाता सेवाथ्री की किसी न समस्या या पुरानी समस्या के पुन: उत्पन्न न होने में सहायता करता है। वह सेवाथ्री को प्रदत्त मंत्रणा की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करता है। 

2. अनिर्देशित मंत्रणा 

अनिर्देशित मंत्रणा में सेवाथ्री की सहमति से समय व दिन निश्चित किया जाता है तथा मंत्रणादाता सेवाथ्री से संबंधित कुछ प्रारम्भिक टिप्पणियों- जैसे विद्यालय से हट कर उसकी गतिविधियां, उसकी रूचि आदि के प्रयोग से मंत्रणा सत्र को प्रारम्भ कर सकता है। 

यह सम्पूर्ण प्रक्रिया मंत्रणादाता व सेवाथ्री के मध्य अच्छी अन्तर्क्रिया को प्रेरित करता है व सुगम बनाता है तथा ऐसा होने से सम्पूर्ण मंत्रणा-प्रक्रिया सरल हो जाती है।
अनिर्देशित मंत्रणा की प्रक्रिया-  अनिर्देशित मंत्रणा की प्रक्रिया में चरण होते हैं-
  1. संबंध-स्थापना - यह चरण संपूर्ण मंत्रणा प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि मंत्रणा की सम्पूर्ण प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि मंत्रणादाता सेवाथ्री के साथ अच्छा संबंध स्थापित कर पाया है या नहीं। मंत्रणादाता का यह दायित्व होता है कि वह एक ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिसमें सेवाथ्री स्वयं को मानसिक बंधनों से स्वतंत्र अनुभव करे जिससे वह अपनी समस्याओं के संतोषजनक समाधान प्राप्त कर सके।
  2. समस्या का अन्वेषण - मंत्रणादाता सेवाथ्री के साथ की ग अन्तर्क्रिया के माध्यम से उसकी भावनाओं के संबंध में प्रतिक्रिया करता है। वह सेवाथ्री की नकारात्मक भावनाओं को अपनी शांत स्वीकृति के साथ स्वीकार करता है। वह सेवाथ्री को सहायता प्रदान करता है जिसमें सेवाथ्री अपनी भावनाओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति कर सके। मंत्रणादाता सेवाथ्री की वास्तविक समस्या की पहचान करने में भी सहायता करता है।
  3. समस्या के कारणों का अन्वेषण - जब सेवाथ्री अपनी वास्तविक समस्या की पहचान कर लेता है, तब मंत्रणादाता सेवाथ्री का मार्गदर्शन इस प्राकर करता है जिससे सेवाथ्री समस्या की गहनता समझ कर समस्या के कारणों को पहचान सके।
  4. वैकल्पिक समाधानों की खोज करना - जब सेवाथ्री को समस्या के सभी पहलुओं व कारणों की अच्छी समझ हो जाती है तब मंत्रणादाता सेवाथ्री की पुन: समायोजन की क्रियाविधि के क्रियान्वयन में सहायता करता है। मंत्रणादाता पूर्व-निर्मित समाधानों को नहीं प्रदान करता बल्कि वह यह प्रयास करता है कि सेवाथ्री स्वयं अपनी समस्या के समाधान खोजे व समायोजन की रणनीतियां विकसित करे। मंत्रणादाता यह सुनिश्चित करता है कि सेवाथ्री स्वयं के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रणनीति का चयन करें।
  5. सत्र की समाप्ति - जब मंत्रणादाता चर्चा के परिणामों से सन्तुष्ट हो जाता है तब अगला चरण सत्र की समाप्ति का होता है। इस चरण में मंत्रणादाता सेवाथ्री से समस्या के कारणों तथा पुन: समायोजन की रणनीतियों का पुन: अवलोकन करने के लिए कहता है। मंत्रणादाता सेवाथ्री को पुन: आश्वासन तथा प्रोत्साहन प्रदान करता है जिससे सेवाथ्री पुन: समायोजन की रणनीति का प्रयोग प्रभावशाली प्रकार से कर सके। मंत्रणादाता व सेवाथ्री साथ में आपसी सहमति से भविष्य में भेंट की योजना बनाते है जिससे रणनीति की प्रभावशीलता का मूल्यांकन भली-भांति किया जा सके।
  6. अनुगमन - यह मंत्रणा प्रक्रिया का अंतिम चरण होता है।

मंत्रणा का महत्व

 वैज्ञानिक उन्नति तथा भौतिकवादी दृष्टिकोण का बढ़ता हुआ महत्व इस बात की ओर इंगित करता है कि व्यक्ति आंतरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार की समस्याओं से निरंतर उलझता रहेगा तथा पीड़ित होता रहेगा। इस पीड़ा का निराकरण कभी तो अपने प्रयत्नों से कर लेता है, लेकिन कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब उसकी समझ में नहीं आता है कि कौन सी दिशा का अनुसरण करे जिससे आंतरिक तथा बाह्य कष्ट को दूर करते हुए सुखमय जीवन व्यतीत कर सके। उसमें असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है, आत्मविश्वास कम हो जाता है तथा नैराश्य के लक्षण दिखा देने लगते हैं। ऐसे अवसरों पर जब तक बाह्य सहायता नहीं प्राप्त होती है तब तक व्यक्ति व्याकुल, बेचैन तथा असमंजस की स्थिति में बना रहता है। ऐसे समय में मंत्रणा का महत्व व आवश्यकता प्रतीत होती है।

मंत्रणा का महत्व आपातकाल, दुर्घटना, जीवनक्षय, अपंगुता, जीवन को संकट में डालने वाली बीमारी तथा रोग, कार्यमुक्ति अथवा नौकरी से निकाल दिया जाना, वैवाहिक संघर्ष तथा इसी प्रकार की अन्य स्थितियां उत्पन्न होने पर समझ में आता है। इसके अतिरिक्त युवकों को उस समय मंत्रणा की आवश्यकता अधिक होती है जब वे विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् कार्य जगत में प्रवेश करते है।  बाल अपराध तथा दुव्र्यसनी व्यक्तियों के लिए भी ये सेवायें बहुत महत्वपूर्ण व लाभकारी है।  

इसके अतिरिक्त वृद्धों तथा रोगियों को भी इन सेवाओं से लाभ होता है। उच्च शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, सामाजिक शिक्षा के लिए भी मंत्रणा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

मंत्रणादाता अपना योगदान मुख्य रूप से निम्न योगों में करता हैं -
  1. शैक्षिक 
  2. वैयक्तिक तथा सामाजिक 
  3. जीवनवृत्ति विकास

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