निर्देशन के प्रतिमान का अभिप्राय

निर्देशन के प्रतिमान का अभिप्राय वह प्रारूप है जिसके अन्तर्गत निर्देशन की प्रक्रिया को संचालित किया जाता है। निर्देशक के विविध प्रतिमानों का स्वरूप समय-समय पर निर्देशन प्रक्रिया में हो रहे परिवर्तनों के कारण ही निकलकर आया है। प्रतिमानों की प्रमुख भूमिका निर्देशन प्रक्रिया को वस्तुनिषठ एवं सार्वभौमिक स्वरूप प्रदान करना है। शर्टजर एण्ड स्टोन ने अपनी पुस्तक ‘फण्डामैण्टल ऑफ गाइडेस’ में निर्देशन के 10 प्रतिमानों का उल्लेख किया है। ये प्रतिमान विभिन्न कार्यक्रमों में अलग-अलग मनोवैज्ञानिको द्वारा विकसित किये गये। सामान्यत: विकास के क्रम की दृष्टि से निर्देशन के प्रतिमानों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है।

निर्देशन के प्राचीन प्रतिमान

निर्देशन के विकास काल में जिन विद्धानों ने प्रतिमानों का विकास किया, उनमें पार्सन तथा ब्रिवर का मुख्य स्थान है :-

1. पार्सन का प्रतिमान - फ्रैकं पार्सन ने सन् 1908 ई0 में बॉस्टन नामक नगर में अपना व्यवसायिक निर्देशन केन्द्र स्थापित किया था। इन्होने ही व्यावसायिक निर्देशन शब्द का प्रतिपादन किया। पार्सन ने व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र में, सर्वप्रथम जो पुस्तक लिखी, वह है ‘बिजिंग ए वोकेशन’। पार्सन के प्रतिमान को जिन लोगों ने स्वीकार किया उनमें मेयर ब्लूम फील्ड प्रमुख थे। बाद में वे व्यावसायिक केन्द्र के अध्यक्ष भी बने तथा सन् (1911) में अमेरिका के हारवर्ड विश्वविद्यालय में व्यवसायिक निर्देशन का प्रथम पाठ्यक्रम भी आरम्भ किया।

पार्सन द्वारा प्रतिपादित प्रतिमान की विशेषता यह है कि इसमें व्यवसाय की आवश्यकता या मांग के अनुरूप व्यक्ति की अभियोग्यताओं का आकलन किया जाता हैं। पार्सन का मानना था कि यदि व्यक्ति को अपनी रूचियों व योग्यताओं के अनुरूप व्यवसाय प्राप्त हो जाता है तो इससे उस 110/ शिक्षा में निर्देशन एवं परामर्श व्यक्ति को न केवल व्यवसाय संतोष प्राप्त होगा बल्कि वह व्यक्ति समाज में भी सार्थ भूमिका का निर्वाह कर सकेगा। पार्सन ने अपने अनुभवों के आधार पर स्वीकार किया कि व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता है- अनुभवी व्यक्ति द्वारा व्यवसाय के चयन में सहायता प्राप्त करना। व्यक्ति की इसी आवश्यकता की पूर्ति के साधन के रूप में पार्सन ने व्यावसायिक निर्देशन का प्रतिपादन किया।

इस विश्लेषणात्मक अध्ययन के द्वारा व्यवसाय विशेष के चयन की व्यक्तिगत इच्छा से पहले व्यक्ति की अभियोग्यताओं को जानने का प्रयास किया। इससे निर्देशन प्रक्रिया के अन्तर्गत व्यक्ति में आत्मविश्लेषण शक्ति या क्षमता के विकास को ज्ञात करने का प्रयत्न किया जाता है। जिससे व्यक्ति अपने द्वारा चयनित व्यवसाय के अनुकूल ही अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के विकास पर ध्यान केन्द्रित कर सकें। इस प्रक्रिया में उसे (व्यक्ति) विभिन्न व्यवसाय स्थलों एवं उद्योगों में भेजा जाता है, जिससे वह वहां की वास्तविक परिस्थितियों से अवगत हो सके और उसी के अनुरूप सही निर्णय ले सकें।

पार्सन का यह मॉडल बाह्य रूप से अत्यन्त सरल एवं उपयोगी लगता है। यद्यपि वैज्ञानिकों द्वारा पार्सन के मॉडल के आधार पर किये गये अनुसंधानों से अनेक त्रुटियाँ सामने आई हैं। पार्सन प्रतिमान की आलोचना इस आधार पर की गई कि इसमें सिद्धान्त प्रारम्भ में ही व्यावहारिक स्वरूप ग्रहण कर लेता है, जिससे सिद्धान्त की वैध् ाता न्यून रह जाती है। वैज्ञानिकों ने पार्सन के प्रतिमान को विधि की दृष्टि से भी दोषपूर्ण माना। इस प्रतिमान की सार्वर्भामिक उपयोगिता के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिकों को संदेह है क्योंकि इस प्रतिमान का प्रतिपादन पार्सन ने केवल एक नगर के कुछ अप्रवासी युवाओं के आधार पर किया था।

2. ब्रीवर का प्रतिमान - ब्रीवर की पुस्तक ‘एजुकेशन एण्ड गाइडेन्स’ द्वारा उनके इस प्रतिमान की जानकारी होती है। ब्रीवर ने 1916-17 में हावर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य किया। तदुपरान्त कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में व्यावसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रम एवं व्यावसायिक निर्देशन का अध्यापन किया। ब्रीवर ने माध्यमिक विद्यालयों में कार्य करने पर बल दिया और माध्यमिक स्तर के लिए परामर्शदाताओं को तैयार करने के कार्य को प्रमुखता दी। निर्देशन को स्पष्ट करते हुए ब्रीवर ने लिखा है, ‘‘निर्देशन को बहुधा गलत ढंग से समझा जाता है। इसे ‘आत्म-निर्देशन’ के रूप में ही ढंग से जाना जा सकता है। इसे अभियोजन, सुझााव, निर्देशित करने अथवा किसी के उत्तरदायित्व निभाने के रूप में लेना भ्रामक है।’’

माध्यमिक विद्यालयों के अपने अनुभवों के आधार पर ब्रीवर ने कहा कि निर्देशन बालाकों को समझने और संगठित करने वाला कार्य है जिससे वे व्यक्तिगत व सहयोगी कार्यो में सुधार ला सकें। इस धारणा के पीछे ब्रीवर का स्पष्ट विचार था कि शिक्षा का उद्देश्य बालक को अर्थपूर्ण जीवन के लिए तैयार करना है जिससे वह ज्ञान व बुद्धिपूर्ण लक्ष्य को ग्रहण कर सकें। इस प्रकार शिक्षा व निर्देश ब्रीवर के अनुसार दो भिन्न वस्तुएं न थी वरन् परस्पर सम्बन्धित पूरक प्रक्रियाओं के रूप में उनका अस्तित्व है। ब्रीवर महोदय ने निर्देशन प्रतिमान का प्रतिपादन करते हुए सात मानकों का उल्लेख किया हे, जो इस प्रकार है :-
  1. प्राथ्री को किसी समस्या का समाधान, कार्य विशेष के सम्पादन अथवा लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ही निर्देशन प्रदान किया जाता है।
  2. निर्देशित होने वाले व्यक्ति (प्राथ्री ) के द्वारा उत्साह प्रदर्शन और निर्देशन की मांग को स्वीकार करना आवश्यक है।
  3. निर्देशन अथवा परामर्शदाता का व्यवहार मित्रवत्, सहानुभूतिपूर्ण एवं बुद्धिपूर्ण होना चाहिए।
  4. निर्देशन अनुभवी, ज्ञानी, बुद्धिमान होना भी आवश्यक है। 
  5. निर्देशन की पद्धतियां नवीन अनुभवों तथा ज्ञान प्राप्ति का अवसर सुलभ कराती है।
  6. निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति की निर्देशन में सहमति, निर्देशन का स्वेच्छानुसार उपयोग एवं स्वयं निर्णय लेने की स्वतंत्रता होनी आवश्क है।
  7. निर्देशन का समग्र लक्ष्य यह होता है कि व्यक्ति कालान्तर में ‘आत्म-निर्देशन’ की प्रक्रिया के पक्ष में ही जायें।
    ब्रीवर के प्रतिमान से दो धारणायें स्पष्ट होती है-पहली, शिक्षा व निर्देशन में सम्बन्ध तथा दूसरी, आत्म-निर्देशन जिसे निर्देशन के पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है।

    निर्देशन के मध्यकालीन प्रतिमान

    1. प्राक्टर का प्रतिमान - इस प्रतिमान का प्रतिपादन विलियम एम0प्राक्टर ने किया। उनके अनुसार निर्देशन मुख्य रूप से वितरण एवं समायोजन में सहायता देना है। वितरण शब्द से यहॉ अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें बालक अपने आसपास के वातावरण को समझने की क्षमता विकसित करने हेतु प्रेरित किया जाता है और समायोजन वास्तव में परामर्शदाता द्वारा दी जाने वाली सहायता है जो कि व्यक्ति को अपने लक्ष्य के अनुरूप अपने तथा वातावरण के सम्बन्ध में प्राप्त ज्ञान को एकीकृत करने में सफल न होने पर दी जाती है उक्त दोनों कार्यो को करते हुये निर्देशन के लक्ष्य होगें।
    1. प्राथ्री को उपयुक्त लक्ष्यों के निर्धारण में सहयोग प्रदान करना।
    2. प्राथ्री में भविष्य में अपेक्षित क्रियाओं को सम्पादित करते हुये संतोष प्राप्ति की कुशलता विकसित करना।
    3. विद्यालयी क्रियाओं के साथ सामाजिक क्रियाओं एवं व्यक्तिगत सुख के लिये उपयुक्त उद्देश्यों के निर्धारण की दक्षता विकसित करना।
    4. प्राथ्री को निम्न क्षेत्रों से सम्बन्धित उपयुक्त सूचना प्राप्ति की कुशलता विकसित करना।
    अ) विद्यालयी एवं गैर विद्यालयी क्रियाकलाप में उसकी सफलता एवं संतोष के मार्ग एवं उपाय।
    ब) बालक की व्यक्तिगत रूचि एवं क्षमतायें।
    स) विद्याथ्री के चयन का निर्धारण करने वाली सभी वास्तविक क्षमतायें।
    द) विद्यालयी जीवन से इतर अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं रोजगार के अवसर।

    प्रतिमान की विशेषता - यह मुख्य रूप से व्यक्ति एव वातावरण के मध्य सतुलन एवं समायोजन पर ही केन्द्रित है। इसका विषय क्षेत्र सुकुचित है। इसमें निर्देशन को मुख्य रूप केवल समस्या से मुक्ति का साधन माना गया है और इसके साथ ही इस बात पर भी बल दिया जा रहा है कि निर्देशन का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को सुखी जीवन जीने हेतु आवश्यक सुविधा भी प्रदान करना है। वुण्ड्स का प्रतिमान-
    विलियम वुण्ड्स ने निर्देशन को नैदानिक प्रक्रिया के रूप में माना। 1879 में इन्होंने जर्मनी में अपनी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की। यह प्रतिमान अपने समय में बहुत प्रसिद्ध हुआ क्योंकि-
    1. तात्कालिक निर्देशन पद्धतियों की प्रकृति अस्पष्ट थी।
    2. इसमें व्यक्ति समग्र आन्तरिक विश्लेषण को केन्द्रिय महत्व दिया गया।
    3. निर्देशन के क्षेत्र में संगठनात्मक व्यवस्था को जन्म देने कार्य इसी प्रतिमान में हुआ।
    इस प्रतिमान की प्रमुख विशेषताए निम्नलिखित है-
    1. निर्देशात्मकता
    2.  सलाहकार
    3. प्रशासनिक
    4. चिकित्सा समूहों में निर्देशन क्रियाओं के विभाजन
    5. विद्यार्थियों को सर्वागीर्ण लाभ पहुचाने का लक्ष्य।
    इस प्रतिमान के प्रमुख सोपान है-
    1. विश्लेषण
    2. संश्लेषण
    3. निदान एवं उपचार
    4. अनुगामी कार्यक्रम
    यह प्रतिमान आर्थिक व कुशलता की दृश्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है।

    2. जोन्स तथा मेयर का प्रतिमान- जोन्स एवं मेयर के प्रतिमान की आधारभूत मान्यता है कि निर्देशन निर्णय लेने में सहायता है। अस्तु मेयर के ही शब्दों में- ‘‘निर्देशन की परिस्थिति तभी उत्पन्न होती है जब विद्याथ्री को चुनाव विवेचन तथा समायोजन के लिए सहायता की आवश्यकता होती है। इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध निर्णय लेने की प्रक्रिया से है।जोन्स तथा मेयर का मानना है कि निर्णय लेने की समस्या तभी उत्पन्न होती है जब-
    1. व्यक्ति यह नही जानता कि किन सूचनाओं की आवश्यकता उसे हैं।
    2. किन सूचनाओं की उसे आशा रखनी चाहिए।
    3. क्या उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग करने में वह असमर्थ है। उपरोक्त परिस्थिति में निर्णय लेने वाले प्रतिमान के कुछ तथ्य महत्वपूर्ण माने जाते है-
      3. स्ट्रैंग का प्रतिमान- स्ट्रैंग के निर्देशन प्रतिमान की केन्द्रीय धारणा चयन प्रक्रिया पर आधारित है। चयन अर्थात् अनेक व्यवस्थाओं या स्रोतों में से विकल्पों का चयन। इस आधार पर स्ट्रैंग ने यह प्रतिपादित किया कि निर्देशन प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को जानने, शैक्षिक अवसरों को जानने तथा विद्याथ्री को उपयुक्त विकल्प के चयन में सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है। इस प्रकार प्रतिमान में निहित मान्यताए निम्नलिखित है-
      1. विद्याथ्री को समय-समय पर विशिष्ठ व्यवसायिक सहायता की आवश्यकता होती है; जिससे वे स्वयं को भली प्रकार से समझने में समर्थ हो सकें।
      2. यह विशेष सहायता शैक्षिक प्रकृति की होती है।
      3. विद्यार्थियों में सीखने की अन्त: र्निहित प्रतिमा होती है और वे स्वयं के लिए योजना बनाने में समर्थ होते है।
      4. विद्यार्थियों को सहायता प्रदान करने के कार्य में अनेक विधियों मतों तथा तकनीकों का समावेष करना चाहिए।
      उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि स्ट्रैंग के प्रतिमान की धारणा अधिक व्यापक है तथा इस प्रतिमान में परामर्शदाता को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है किन्तु आलोचको की यह मान्यता है कि यह प्रतिमान किसी स्थायी दर्शन पर आधारित नही है और नही परामर्शदाता विभिन्न विधियों में निपुण होता है अत: इसकी व्यावहारिकता संदिग्ध है।

      निर्देशन के आधुनिक प्रतिमान 

      1. हॉयट का प्रतिमान- हॉयट ने अपने इस प्रतिमान का प्रतिपादन 1962 में किया था। इस प्रतिमान की आधारभूत मान्यताएं निम्नलिखित हैं :-
      1. इस प्रतिमान में निर्देशन कार्यक्रम को विद्यालयी सेवा या सहयोग के यप में स्वीकार किया गया है। 
      2. इसमें परामर्शदाता वह केन्द्रीय तत्व है जिस पर निर्देशन कार्यक्रम के संचालन का समग्र दायित्व रहता है।
       इस प्रतिमान में यह माना गया है कि परामर्श सेवाओं की सफलता तभी सम्भव है जबकि इसके लक्ष्य, विद्यालय के उद्देश्यों के साथ ही अंगीकृत किए जाएं। यही कारण है इसमें परामर्शदाता की शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को महत्वपूर्ण माना गया है। इस प्रतिमान मे विशेष बल इस तथ्य पर दिया गया है कि परामर्शदाता अपने को शिक्षाविद् माने तथा शिक्षकों को प्रोत्साहित करना, इसका प्रमुख कार्य है।

       इसमें शिक्षा व निर्देशन को सहगाती प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया तथा शिक्षक व परामर्शदाता के मध्य विरोध की स्थिति को न्यून रखने का प्रयास किया गया। इस प्रकार इस प्रतिमान से शिक्षण एवं शैक्षिक प्रशासन के मध्य भी समायोजन स्थापित करने मे सहायता प्राप्त होती है तथा विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्यि का उत्तरदायित्व कुछ व्यक्तियों तक सीमित न रहकर, सम्पूर्ण व्यवस्था पर आ जाता है।

      2. लिटिल तथा चैपमैन का प्रतिमान - निर्देशन का विकासात्मक चरित्र इस प्रतिमान की विशेषता है। इसकी धारणा अन्य प्रतिमानों की अपेक्षा अधिक विस्तृत है क्योंकि इस प्रतिमान में व्यक्तिगत, व्यावसायिक, शैक्षिक, सामाजिक अनुभवों तथा विद्याथ्र्ाी के जीवन की समस्त अवस्थाओं में सहायता करने के विचार पर अधिक बल दिया गया है।

      लिटिल तथा चैपमैन ने अपनी पुस्त्क ‘डेवलेपमेन्टल गाइडेन्स इन सैकेन्ड्री स्कूल’ में इस प्रतिमान की विस्तृत व्याख्या की। यद्यपि निर्देशन को विकास के उपागम के रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय हरमन जे0 पीटरसन को है तथा इसके विकास में योगदान है, लिटिल तथा चैपमैन का। विकासात्मक निर्देशन प्रतिमान में आत्मज्ञान के आधार पर व्यक्तिगत पूर्णता तथा प्रभावकता अर्जित करने पर विशेष बल दिया गया है। निर्देशन द्वारा विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। इस कारण लिटिल तथा चैपमैन ने परामर्शदाता, अध्यापक, प्रशासक, विशेषज्ञ तथा अन्य कार्यकर्ता के सम्मिलित प्रयासों को निर्देशन कार्यक्रम का अभिन्न अंग माना है। निर्देशन, विकास व शिक्षा के साथ निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।

      3. मैथ्यूसन का प्रतिमान- मैथ्यसू न ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गाइडेन्स पॉलसी एण्ड प्रैक्टिस’ में चार ऐसे क्षेत्रों को बताया, जिनका सम्बन्ध निर्देशन की आवश्यकताओं से हैं, वे चार क्षेत्र हैं :-
      1. मूल्यांकन तथा स्वंय को समझने की आवश्यकता। 
      2. स्वंय तथा वातावरण की मांगों तथा वास्त्विकताओं के मध्य समायोजन करने की आवश्यकता। 
      3. वर्तमान तथा भविष्य की स्थितियों के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता। 
      4. व्यक्तिगत क्षमताओं को विकसित करने की आवश्यकता।
      मैथ्यूसन ने अपने प्रतिमान में निर्देशन के स्वरूप को विकासात्मक माना। उनके अनुसार :-
      1. निर्दशन से व्यक्ति को अधिक सूचनायें प्राप्त होती है। 
      2. वह स्वंय की योग्यताओं को निर्धारित के अनुसार गत्यात्मक बनाने का प्रयास करता है। 
      3. निर्देशन की सहायता से व्यक्ति, लम्बे समय तक अपने विकास की योजना बना सकता है।
      मैथ्यूसन ने निर्देशन के अन्तर्गत विद्यालय के समस्त कर्मचारियों के सहयोग तथा उस व्यक्ति की स्वंय की सहभागिता को आवश्यक बताया है।

      4. शोलेन का प्रतिमान- एडवर्ड ए0 शाले ने ने 1962 मे इस प्रतिमान का प्रतिपादन किया। इस प्रतिमान में निर्देशन को ‘सामाजिक पुनर्निमार्ण’ के रूप में स्वीकृत किया गया। शोलेन ने पांचवें दशक के अन्त में पाया कि निर्देशन के क्षेत्र में विशेषज्ञों का बहुत प्रभाव है। इसके अतिरिक्त निर्देशन को जटिल बनाने के प्रयासों में होड़ लगी थी। अत: ऐसे में शोलेन द्वारा प्रतिपादित प्रतिमान एक आंदोलन के रूप में सामने आया, जिसमें निर्देशन को विभिन्न जटिलताओं से मुक्त कर, सरल व समाज के अनुकूल बनाने पर विशेष बल दिया गया।

      इस प्रतिमान की मुख्य भूमिका सामाजिक रूप से स्वीकृत मांगों के अनुरूप व्यक्तिगत विकास में सहयोग से सम्बन्धित थी। इसमें विद्यार्थियों द्वारा शांतिपूर्णा जीवन, संयम व मूल्यपरक जीवन अपनाने पर बल दिया गया। इस प्रतिमान की मुख्य विशेषता शिक्षा और समाज के बीच रचनात्मक सम्बन्ध बनाने से थी। समाजिक विचार के कारण ही शोलेन के प्रतिमान की आदर्श प्रतिमान माना गया।

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