स्वतंत्रता का अर्थ, परिभाषा, स्वतंत्रता पर जे. एस मिल के विचार

स्वतंत्रता क्या है

स्वतंत्रता (Freedom) का अर्थ है नियंत्रणों से मुक्ति, अथवा उनका अभाव। किसी व्यक्ति को मुक्त अथवा कुछ करने में स्वतंत्र माना जा सकता है, जब उसके कार्य अथवा विकल्प दूसरे के कार्यों अथवा विकल्पों द्वारा बाधित अथवा अवरुद्ध न हों। 

स्वतंत्रता का अर्थ

स्वतंत्रता साधारण अर्थ में किसी भी बन्धन से मुक्ति है।  स्वतंत्रता हेतु अंग्रेजी में क शब्द प्रयुक्त होते है- लिबर्टी, इन्डिपेन्डन्स एवं फ्रीडम। लिबर्टी शब्द का मूल शब्द लिबरा है, जिसका तात्पर्य ‘तुला’ है। तराजू वस्तु के भार का माप करता है, अत: लिबर्टी इसी अर्थ में अपने आचरण एवं व्यवहार को मापने वाला कहा जा सकता है। 

‘इण्डिपेन्डेन्स’ शब्द का विलोम ‘डिपेन्डन्स’ होता है, जिसका अभिप्राय है पराश्रित या पराधीनता। अर्थात् जो कि अपने कार्य स्वयं न कर पाये और धीर-धीरे जब करने लगे तो यह डिपेन्डेन्स से इन्डिपेन्डेन्स हो गया।

फ्रीडम में मूल शब्द है फ्री अथात् स्वतंत्र, पर इस स्वतंत्रता में नियंत्रण है। स्वतंत्रता में मूल शब्द ‘तन्त्र‘ है। इसमें ‘स्व’ उपसर्ग तथा ‘ता’ प्रत्यय लगा हुआ है, इसका अभिप्राय है कि अपने नियमों व पिरनियमों में आबद्ध मुक्ति। स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यकित्व के सम्पूर्ण एवं प्राकृतिक विकास हेतु अति आवश्यक है। 

स्वतंत्रता अर्थात बिना रोक-टोक अपनी शक्तियों का उचित उपयोग पर वह दूसरों की क्रियाओं में बाधा न डाले। स्वतंत्रता का सही उपयोग के लिये बोधगम्यता एवं विचारशीलता अति आवश्यक है, अर्थात् विचारशीलता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है।

स्वतंत्रता की परिभाषा 

डी0वी0 ने लिखा कि ‘‘स्वतंत्रता किसी भी प्रकार के बन्धन से योग्यता का छुटकारा है।’’ 

अब्राहम लिंकन के शब्द बड़े ही मार्मिक है ‘‘दुनिया ने कभी स्वतंत्रता का सही अर्थ नहीं समझा। अमेरिकन लोगों के लिये तो इसका सही अर्थ समझना अधिक आवश्यक है।’’

स्वतंत्रता पर जे. एस मिल के विचार

जे एस मिल की पुस्तक आन लिबर्टी 1960 के दशक में अकादमिक बहसों में प्रभावशाली रही। मिल की पुस्तक को स्वतंत्रता.संबंधी नकारात्मक अवधारणा की एक व्याख्या के रूप में देखा जाता है। वैयक्तिक स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए मिल प्रथाओं और रिवाजों की तरफ अवमानना का भाव रखते थे। ऐसी भावना मिल उन सभी कानूनों और आदर्शौं के लिए भी रखते थे, जिन्हें तर्कसंगत और न्यायसंगत नही कहा जा सकता था। 

कभी कभी यह भी तर्क दिया जाता है कि मिल के अनुसार कोई भी स्वतंत्र कार्य, चाहे वह कितना भी अनैतिक हो, स्वतंत्रता अपने में सद्गुण का कुछ तत्त्व रखता है, क्योंकि वह स्वतंत्रतापूर्वक किया गया है। यद्यपि मिल ने व्यक्ति के कार्यों पर नियंत्रण को बुराई माना, उन्होंने नियंत्रणों को पूरी तरह अतर्कसंगत नहीं माना। फिर भी, उन्होंने महसूस किया कि समाज के भीतर स्वतंत्रता के पक्ष में एक परिकल्पना हमेशा रहती है। इसलिए अगर स्वतंत्रता पर कोई अवरोध लगाता है, तो उसका औचित्य भी उसी को बताना होगा।

मिल के अनुसार, स्वतंत्रता का उद्देश्य था ‘व्यक्तित्व’ हासिल करने को बढ़ावा देना था। व्यक्तित्व का अभिप्राय व्यक्ति के विशिष्ट लक्षण से है, और आज़ादी का अर्थ है, इस व्यक्तित्व का बोध, यथा निजी विकास एवं आत्म निश्चय। मनुष्यों में व्यक्त्वि के गुण ने ही उन्हें निष्क्रिय की बजाय सक्रिय बनाया, साथ ही सामाजिक व्यवहार की वर्तमान रीतियों का समालोचक भी, ताकि वे जब तक परम्पराओं को तर्कसंगत न पायें उन्हें स्वीकार न करें। मिल के तानेबाने में स्वतंत्रता इसीलिए मात्र नियंत्रण. भाव के रूप में नहीं, बल्कि कुछ वांछित प्रवृत्तियों की सुविवेचित वृद्धि में नज़र आती है। यही बात है जिसके कारण मिल को अक्सर स्वतंत्रता की सकारात्मक संकल्पना की ओर आकर्षित होते देखा जाता है। 

स्वतंत्रता संबंधी मिल की संकल्पना का मूल विकल्प की धारणा में भी है। यह बात उनके इस विश्वास से प्रमाणित होती है कि वह व्यक्ति जो ‘अपने लिए स्वय की जीवन.योजना को चुनने’ का अधिकार दूसरों का े दे देता है ‘व्यक्तित्व’ अथवा आत्म-निश्चय संबंधी मानसिक शक्ति नहीं दर्शाता। ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्ति के पास वानर की तरह नकल करने की ही क्षमता है। 

दूसरी ओर, वह व्यक्ति है ‘जो स्वयं के लिए योजना चुनता है, अपनी सभी मानसिक शक्तियों को काम में लाता है’। अपने व्यक्तित्व को स्पष्टतया अनुभव करने के लिए, और उसके द्वारा स्वतंत्रता की स्थिति प्राप्त करने के लिए, यह आवश्यक था कि व्यक्तिजन दबावों अथवा मानदण्डों व प्रथाओं का विरोध करें जो आत्म-निश्चय में बाधक थे। मिल का, तथापि, यह विचार भी था कि विरोध करने व स्वतंत्र विकल्प चुनने की क्षमता रखने वाले लागे बहुत ही थाडे ़े हैं। शेष जन ‘वानर की तरह नकल’ में विश्वास रखने वाली विषयवस्तु हैं, जिसके द्वारा वे परतंत्रता की दशा में रहते हैं।

स्वतंत्रता संबंधी मिल की अवधारणा को इसी कारण संभ्रांतवादी के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व का उपभोग मात्र एक अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा ही किया जा सकता है, न कि व्यापक रूप से जन साधारण द्वारा।

अन्य उदारवादियों की ही भाँति, मिल ने व्यक्ति व समाज के बीच सीमा-निर्धारण पर बल दिया। वैयक्तिक स्वतंत्रता पर तर्कसंगत अथवा न्यायोचित प्रतिबंधों के बारे में बात करते हुए, मिल ने स्वयं संबंधी एवं अन्य संबंधी कार्यों के बीच भेद किया, यथावे कार्य जो सिर्फ व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते थे, और वे कार्य जो आम समाज को प्रभावित करते थे। किसी व्यक्ति पर किसी प्रतिबंध अथवा हस्तक्षेप को सिर्फ दूसरों को नुकसान से बचाने के लिहाज से ही सही ठहराया जा सकता था। उन कार्यों के संबंध में व्यक्ति को स्वयं प्रभावित करते थे, व्यक्ति संप्रभु था। कानूनी व सामाजिक बाधाओं की ऐसी समझ यह इशारा करती है कि व्यक्ति व समाज के बीच रिश्ता ’पिता पुत्र’ का नहीं है। व्यक्ति चूँकि अपने हितों का सर्वश्रेष्ठ पारखी होता है, कानून व समाज किसी व्यक्ति के ‘सर्वश्रेष्ठ हितों’ को प्रोत्साहन देने के लिए हस्तक्षेप नहीं कर सकते।

इसी प्रकार, यह धारणा कि किसी कार्य पर सिर्फ़ तभी नियंत्रण लगाया जा सकता है यदि वह दूसरों को हानि पहुँचाता हो, इस धारणा को नकारता है कि कुछ कार्य अन्तर्भूत रूप से अनैतिक होते हैं और इसी कारण इस बात पर ध्यान दिए बग़ैर कि वे किसी और को प्रभावित करते हैं, अवश्य ही सज़ा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, मिल का तानाबाना ‘उपयोगितावाद’ को अप्रासंगिक कह कर घोषित करता है, जैसा कि अवधारणाएँ बैन्थम द्वारा कहा गया है, जो कि हस्तक्षेप को सही ठहरायेगा यदि वह आम हित को अधिकतम सीमा तक बढ़ाता है। तथापि, मिल के विचार में व्यक्तिव समाज के बीच सीमांकन कठोर नहीं है क्योंकि सभी कार्य दूसरों को किसी न किसी तरीके से प्रभावित करते ही हैं। मिल का मानना यह भी था कि उसका सिद्धांत दूसरों के आत्म संबंधी व्यवहार की तरफ किसी नैतिक उदासीनता का धर्मोपदेश नहीं करता। साथ ही उन्होंने महसूस किया कि अनैतिक व्यवहार को हतोत्साहित करने के लिए अनुनय का प्रयोग किया जाना चाहिए।

इसी तरह, मिल सामाजिक लाभ को प्रोत्साहन देने हेतु स्वतंत्रता को एक सहायक के रूप में देखते थे। यह बात विचार, चर्चा एवं अभिव्यक्ति की संपूर्ण स्वतंत्रता तथा सभा व संस्था हेतु अधिकार के लिए उसके तर्कों के विषय में खासतौर पर सही है। मिल ने महसूस किया कि खुली चर्चा पर से सभी प्रतिबन्ध हटा लिए जाने चाहिए, क्योंकि विचारों की खुली प्रतिस्पर्धा से सच्चाई उजागर होगी। यह उल्लेख किया जा सकता है कि स्वतंत्रताओं संबंधी आज की सूची में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को शायद एक लोकतांत्रिक आदर्श के रूप में आर्थिक स्वतंत्रता की जगह अधिक महत्त्व दिया जाता है।

स्वतंत्रता पर महान व्यक्तियों के विचार

बर्लिन को छोड़कर, जिसकी पुस्तक शायद स्वतंत्रता विषयक समकालीन पुस्तकों में सबसे महत्त्वपूर्ण है, अन्य विचारक भी हैं जिन्होंने वैचारिक विभाजन के दोनों पक्षों पर विचारकों द्वारा व्यक्त विचारों पर विस्तार से स्वतंत्रता संबंधी धारणा पर चर्चा की है। मिल्टन फ्रीडमैन, मिल व बर्लिन की ही भाँति, एक उदारवादी थे जिसने अपनी पुस्तक कैपिटलिज़्म एण्ड फ्रीडम में  पूंजीवादी समाज के एक महत्त्वपूर्ण  पहलू के रूप में स्वतंत्रता की धारणा को विकसित किया। आदान प्रदान की स्वतंत्रता, स्वतंत्रता का एक आवश्यक पहलू था। इस स्वतंत्रता को प्रोत्साहन देने के लिए फ्रीडमैन चाहते थे कि राज्य कल्याण व सामाजिक सुरक्षा से अपना ध्यान हटा ले और स्वयं को कानून व व्यवस्था कायम करने, सम्पत्ति अधिकारों की रक्षा करने, अनुबंध लागू करने आदि हेतु समर्पित कर दे। 

फ्रीडमैन के अनुसार, न सिर्फ़ व्यक्तिजनों के बीच स्वतंत्र व स्वैच्छिक आदान-प्रदान हेतु स्वतंत्रता अनिवार्य थी साथ ही ऐसी स्वतत्रता सिर्फ एक पूँजीवादी समाज में ही प्राप्त की हो सकती थी। इसके अतिरिक्त, यह आर्थिक स्वतंत्रता ही थी, जिसने राजनीतिक स्वतंत्रता हेतु कालोचित व आवश्यक परिस्थिति प्रदान की।

अपनी पुस्तक द काॅन्स्टिट्यूशन आफ़ लिबर्टी (1960) में, एफ.ए. हयेक ने स्वतंत्रता संबंधी एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जो राज्य की नकारात्मक भूमिका पर बल देता है। हयेक के अनुसार, एक स्वतंत्रता की स्थिति तब प्राप्त होती है, जब एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मनमानी इच्छा के अधीन नहीं रहता। हयेक इसको ‘वैयक्तिक स्वतंत्रता’ कहते हैं और साथ ही, राजनीतिक स्वतंत्रता समेत स्वतंत्रता के अन्य रूपों से वैयक्तिक स्वतंत्रता की श्रेष्ठता व निरपेक्षता को विहित करते हुए इसे स्वतंत्रता के अन्य रूपों से अलग मानते हैं। हयेक अनुमोदित करत े है ं कि स्वतत्रं ता का मलू अर्थ ‘नियत्रं णों का अभाव’ के रूप में सुरक्षित रहना चाहिए। स्वतंत्रता के नाम पर राज्य-हस्तक्षेप के बढ़ने का अर्थ होगा, उस वास्तविक स्वतंत्रता का हस्तांतरण जो कि नियंत्रणों से व्यक्ति की मुक्ति में निहित होती है।

स्वतंत्रता संबंधी माक्र्सवादी धारणा द्वारा प्रभावित विचारकों के एक अन्य समूह ने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्वतंत्रता जिस प्रकार आधुनिक पूंजीवादी समाजों में व्यवहार की जाती है, अकेलेपन को जन्म देती है। ऐरिक फ्रोम (1900.1980) ने स्पष्ट किया कि आधुनिक समाजों में अलगाव व्यक्ति के उसकी रचनात्मक क्षमताओं व सामाजिक संबंधों से पृथक होने के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न हुआ। इस पृथक्करण ने व्यक्ति में उसके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हुए उसमें भौतिक व नैतिक अलगाव पैदा किया। केवल न्याय रचनात्मक एवं सामूहिक कार्य द्वारा ही व्यक्ति समाज के प्रति स्वयं को पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। 

हर्बर्ट माक्र्युज़ ने भी अपनी पुस्तक वन डाइमैन्शनल मैनः स्टडीज़ इन दि आइडिआलॅिज आफ  एडवान्स्ड इण्डस्ट्रियल सोसाइटी (1968) में पूँजीवादी समाजों में पृथक्करण की प्रकृति संबंधी अच्छी छानबीन की है। माक्र्युज़ दृष्ढ़तापूर्वक कहते हैं कि पूंजीवादी समाजों में व्यक्ति की रचनात्मक बहुआयामी क्षमताएँ निष्फल हो जाती हैं। मनुष्य स्वयं को सिर्फ अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में निरन्तर लगे एक उपभोक्ता के रूप में ही व्यक्त कर सकता है।

सन्दर्भ -
  1. बैरी, नाॅर्मन, ऐन इण्ट्रोडक्शन टु माॅडर्न पॅलिटिकॅल थिअरी , मैकमिलन, लंदन, 2000 (अध्याय 8: लिबर्टी)
  2. हेवुड,एण्ड्रयू, पॅलिटिकॅल थिअरी, मैकमिलन, लंदन, 1999 (अध्याय 9: फ्रीडम, टाॅलेरेशन एण्ड लिबरेशन)

2 Comments

Previous Post Next Post