आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय और रचनाएँ

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय
आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन् 1886 में हुआ। आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य के सर्वोत्कृष्ट गद्यकार हैं। उनका ’हिंदी साहित्य का इतिहास‘ अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ है। ’हिंदी शब्द सागर‘, ’भ्रमर गीत सार‘, ’जायसी ग्रंथावली‘, ’तुलसी साहित्य‘, आदि विविध ग्रंथों का उन्होंने संपादन किया। 

हिंदी की सैद्धांतिक समीक्षा के मानदण्डों की स्थापना के संदर्भ में शुक्ल जी का अप्रतिम योगदान रहा है। वे मूलतः आलोचक और विचारक थे। 1904 ई. से उनके निबंध ’सरस्वती‘ और ’आनन्द कादम्बिनी‘ आदि प्रमुख पत्रिकाओं में छपते रहे। प्रौढ़ निबंधों का संग्रह चिंतामणि भाग एक व दो प्रकाशित हुआ। 

चिंतामणि भाग 1 पर उन्हें ’मंगलाप्रसाद पारितोषिक‘ प्राप्त हुआ।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में हुआ था। बाल्यकाल से ही आपने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया एवं इंटरमीडिएट तक शिक्षा प्राप्त की। तभी से आपकी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ सजग रहीं। 26 वर्ष की उम्र में’ हिन्दी-शब्द-सागर’ के सहकारी संपादक हुए एवं नौ वर्षों तक ‘नागरी प्रचारिणी’ पत्रिका के संपादक भी रहे।  आचार्य रामचंद्र शुक्ल की माता का नाम निवासी था और इनके पिता जी का नाम चंद्रबली शुक्ल था।

हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में आप हिन्दी विभाग में अध्यापक हो गए और बाद में विभागाध्यक्ष भी बनाए गए। सन् 1937 तक आप वहीं रहे। फिर अवकाश ग्रहण कर साहित्य-सेवा करने लगे। 

सन् 1940 में 56 वर्ष की उम्र में शुक्ल जी स्वर्गवासी हुए।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाएँ

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाओं के नाम है-
  1. त्रिवेणी
  2. रस-मीमांसा
  3. चिन्तामणि’ भाग-1 व 2
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा 

शुक्ल जी की भाषा अत्यंत परिमार्जित, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। भाषा भावानुकूल होने के कारण सजीव व स्वाभाविक है। तत्सम शब्दों की बहुलता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की शैली

शैली पर शुक्ल जी के व्यक्तित्व की छाप है। वे समीक्षात्मक, विवेचनात्मक शैली का प्रयोग करते हैं । वे पहले किसी गंभीर बात को संक्षेप में कहते हैं, फिर उसकी विशद व्याख्या करते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्य में स्थान

‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ जैसी रचना ने शुक्ल जी को अमर बना दिया है । उनके द्वारा लिखे निबंध संपूर्ण भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान पाने के योग्य हैं ।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का केन्द्रीय भाव

क्रोध मनुष्य के ह्रदय में स्थित वह भाव है जो दूसरे द्वारा सताए जाने पर या इच्छा के अनुकूल काम न करने पर या अपने पराये की भावना उत्पन्न होने पर स्वत: ही पैदा होता है। क्रोध की आवश्यकता लोकहित के लिए भी होती है। ऐसी स्थिति में अक्सर वह साहित्य का रूप ले लेता है। क्रोध कभी-कभी घातक भी सिद्ध होता है। 

इससे बनते काम बिगड़ जाते हैं, क्रोध करने से मानसिक शांति भंग हो जाती है, ऐसे समय में मानसिक संतुलन बनाए रखना अति आवश्यक हो जाता है। किसी भी प्रकार से क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए ।

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