जनसंपर्क का अर्थ है जनता से संपर्क। शाब्दिक रूप से जनसंपर्क दो शब्दों के मिलने से बना है ये शब्द ‘जन’ या ‘लोक’ तथा सम्पर्क, जिससे पता चलता है कि ‘जनता’ से सम्पर्क बनाए रखना ही इसका उदेश्य है।’’
जनसंपर्क की परिभाषा
जनसंपर्क की परिभाषा अनेक विचारकों और लेखकों ने जनसंपर्क को
अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया है।
2. जे0एल0 मेकेनी की यह मान्यता है कि, ‘‘प्रशासन में जन-संपर्क, अधिकारी वर्ग तथा नागरिकों के मध्य पाये जाने वाले प्रधान एवं गौण सम्बन्धों द्वारा स्थापित प्रभावों एवं दृष्टिकोण की पारस्परिक क्रियाओं का मिश्रण है। यह मानते हैं कि ‘‘ जनसंपर्क प्रशासन के उस कार्य का एक भाग है जिसके अन्तर्गत वह इस बात का पता लगाता है कि उसके संगठन तथा कार्यक्रम के बारे में लोग क्या सोचते हैं?’’
3. जॉन डी. मिलेट के अनुसार, ‘‘ जनसंपर्क इस बात की जानकारी प्राप्त करता है कि लोग क्या आशा करते है तथा इस बात का स्पष्टीकरण देता है कि प्रशासन उन मांगो को कैसे पूरा कर रहा है?’’
4. एच.एल. चाइल्ड्स ने जनसंपर्क को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘‘विभिन्न जन-समूहों के मत को प्रभावित करने के लिए एक संगठन जो भी कार्य करता है वह सब जनसंपर्क है।
जनसंपर्क के उद्देश्य
जनसंपर्क के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार है :- जन आकांक्षाओं को जानने के लिए
- जनसेवाओं की उपलब्धियों को बताने के लिए
- जनमत तैयार करने हेतु
- कार्यक्रमों एवं नीतियों की प्रचार के लिए
जनसंपर्क के प्रमुख तत्व
मिलेट (Millett) ने जनसंपर्क के चार प्रमुख तत्वों का उल्लेख किया
है -
- जनसंपर्क में जनता की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जाती है।
- जनसंपर्क द्वारा जनता को यह सलाह दी जाती है कि उसकी इच्छाएं क्या होनी चाहिए।
- जनसंपर्क जनता तथा सरकार के कर्मचारियों के बीच सन्तोषजनक सम्बन्ध स्थापित करता है।
- विभिन्न सरकारी अभिकरण क्या कार्य कर रहे हैं इस सम्बन्ध में जनता को सूचित करने का काम भी जनसंपर्क द्वारा किया जाता है।
जनसंपर्क किसी निश्चित लक्ष्य को प्राप्त
करने के लिए जनता और सरकार के मध्य जीवित सम्बन्धों की स्थापना करता है
ताकि एक-दूसरे की भावनाओं को समझा जा सके।
प्राचीन समय में सूचना को डाक द्वारा भेजा जाता था जिसके लिए घोड़ों की व्यवस्था होती थी संदेशों को देश के कोने-कोने में वाक्यानवीसों के माध्यम से फरमान के रुप में भेजा जाता था जिसे दासियां राजा को पढ़कर सुनाती थी। कानून और संदेशों में जनता की प्रतिक्रिया निहित होती थी जनता की आवाज को सर्वोपरि माना जाता था जो जनसंपर्क की व्यवस्था का ही एक रूप था।
1500 ई. तक कवियों ने भी जनसंपर्क की अवधारणाओं को अपनी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु बनाया। इस काल में जनसंपर्क के प्रचार के लिए राजाज्ञा, ताम्रपत्र, शौर्य गाथाएं, मुनादी, मूर्ति स्थापना, मेले व जुलूस आदि जनसंपर्क के ही रूप थे।
भारत में जनसंपर्क के उदय के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नह मिलते परन्तु जनसंपर्क का विकास भी मानव विकास के साथी-साथी ही पला व बढ़ा माना जाता है। शिलालेखों पर तत्कालीन समाज की स्थापना व कार्य तथा उनमें अंकित सेनापतियों, महामन्त्रियों, सामंतों, राजपुरोहितों तथा विशिष्ट अधिकारियों की नियुक्तियों का उल्लेख भी जनसंपर्क का ही स्वरूप है जिसके द्वारा शासन व्यवस्था को चलाना तथा तमाम जानकारियाँ राजा को उपलब्ध करवाना था। जनसंपर्क के माध्यम से ही जनता से सम्पर्क साधा जाता था तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ जनता तक भेजी जाती थी।
इतिहास पर नजर डाली जाए तो आदिकाल से ही जनसंपर्क का काम तीन स्तंभो पर टिका है। किसी कार्य से सम्बन्धित जानकारी जनता तक पहुंचाना, इस जानकारी के अनुसार जनता को काम करने के लिए प्रेरित करना, और जनता की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए भावी कार्यक्रम बनाना।
जनसंपर्क के साधन और उपक्रम देश और काल के अनुसार ही बदलते रहे है। किसी जमाने में शिलालेखों, ताम्र पत्रों और कथा-कहानियों आदि के माध्यम से प्रचार किया जाता था। बाद में उसी काम के लिए समाचारपत्रों, चल-चित्रों आदि का प्रयोग किया जाने लगा। अंग्रेजी शासन काल में सरकार का व्यवहार जनता के प्रति द्वेषपूर्ण था, कोई भी अखबार भारतीय भाषा में नह निकलता था तथा सरकार जनता का विश्वास प्राप्त करने या जनता को प्रेरित व जागरुक करने के हक में नह थी शासन को जनमत पर नह वरन् जन दमन की नव पर खड़ा किया गया था।
समाज सुधारकों ने समाज की बुराइयों का अन्त जनसंपर्क के माध्यम से किया जैसे कबीर ने जात-पात का खण्डन कर एकेश्वरवाद को जन्म दिया, राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का अन्त किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मूर्तिपूजा का विरोध किया। स्वामी विवेकानन्द ने विश्वबन्धुत्व की बात कह गुरू नानक ने घर-घर भजन सुनाकर जनसंपर्क साधा, इनके अलावा विभिन्न गणमान्य लोगों ने भी समाज का उत्थान किया जैसे ज्योतिबा फुले ने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया और इसके साथी ही बाल, लाल, पाल ने भारतीय राजनीति में एक भुचाल सा ला दिया और तिलक ने तो यह तक कह दिया ‘‘स्वतत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है इसे मैं लेकर ही रहूंगा।’’ 1885 में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। उसी जमाने में भारत के विभिन्न प्रदेशों में समाज सुधार के आन्दोलन चले। इन्ह दिनों भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता, एक नए माध्यम के रूप में राष्ट्रीय क्षैतिज पर उभर संवैधानिक सुधारों के लिए जनमत संगठित होने लगा।
भारत में स्वतन्त्रता के लिए बहुत से अखबारों व पत्रकारों ने जन प्रतिनिधि की भूमिका निभाई, जिनकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ पंदुर्गा प्रसाद मिश्र तथा भारत मित्र के सम्पादक बाबू लाल मुकंद गुप्त ने अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से जनता को जागरुक किया जैसे तिलक ने केसरी तथा मराठा पत्र निकाले महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार-पत्र, डा. बी.आर.अम्बेडकर ने भी विशेष पत्र निकाले, गोखले ने वसीयतनामा पेश किया। इसके अलावा बहुत से उत्सव मनाए गए इन सब ने जनसंपर्क में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। विशेष क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, डा. रोशन सिंह, अस्फाक उल्ला खां आदि ने विभिन्न जातियों में जाकर जनसंपर्क साधा और विभिन्न नारे जैसे ‘वंदे मातरम’, ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ लगाये और समाज में चेतना पैदा की ।
भारतीय जनसंपर्क की सराहना इसलिए भी की जाती है क्योंकि तब साधनों का अभाव था और विदेशी सरकार अभिव्यक्ति के इस माध्यम को पसंद नह करती थी लेकिन पत्रकारिता ने लोगों में आदर्श तथा देशभक्ति को कूट-कूट कर भर दिया था।
1905 में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंग-भंग के विरोध में भारतीय प्रैस द्वारा की गई कोशिशों का ही परिणाम था कि सरकार को अपना फैसला वापिस लेना पड़ा। भगत सिंह, बिस्मिल व आजाद आदि क्रांतिकारियों ने भी प्रेस को ही जनसंपर्क का माध्यम बनाया तथा जनता को अंग्रेजी सरकार के कार्यों के प्रति जागरूक किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार और जनता के संबंधों में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भी शासन व्यवस्था की दूसरी शाखाओं के समान नए उद्देश्यों के अनुसार कार्यक्रम बनाए और उसी के अनुसार कर्मचारी भर्ती किए। इस प्रकार स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले जो सरकारी विभाग केवल विदेशी साम्राज्य की स्वार्थ सिद्धि माध्यम मात्र था अब जनकल्याणकारी राज्य का संदेश वाहक बन गया।
- जनसंपर्क लोक कल्याणकारी राज्य की प्रमुख अनिवार्यता है।
- जनसंपर्क जनता की भावनाओं और समस्याओं को समझने का एक साधन है।
- जनसंपर्क सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों का जनता पर पड़ने वाले प्रभावों, लाभों अथवा हानियों को जानने वाला एक माध्यम है।
- जनसंपर्क के द्वारा यह जानने का प्रयास किया जाता है कि जनता किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी संगठन से क्या-क्या अपेक्षाएं रखती है?
- जनसंपर्क के द्वारा यह बताने का प्रयास किया जाता है कि को संगठन जनसाधारण के लिए क्या-क्या कार्य कर रहा है और वह उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है ?
- जनसंपर्क एक ऐसा माध्यम है जिसमें क सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठन तथा जनता एक-दूसरे की भावनाओं के अनुकूल व्यवहार करने के लिए एक-दूसरे को राजी करने का प्रयास करते हैं।
भारत में जनसंपर्क का इतिहास
जनसंपर्क की उत्पत्ति के विषय में विचार करें तो पता चलता है कि जनसंपर्क कला की शुरूआत मानव जीवन के संकेतों के साथी ही पनपने लगी थी रामायण काल, महाभारत काल, प्राचीन काल, मध्यकाल, मौर्यकाल, मुगलकाल तथा वर्तमान काल तक यह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। भितीलेख, शिलालेख, ताम्रपत्र, मठ, मन्दिर, भवनकला आदि जनसंपर्क कला के फलने-फूलने का प्रमाण है। वर्षों पहले जो घटनाएं घटी आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक हमें आज भी पुरानें ग्रन्थों, धर्मग्रन्थों, पुस्तकों तथा काव्यों के माध्यम से उस समाज से जोड़े हुए है।प्राचीन समय में सूचना को डाक द्वारा भेजा जाता था जिसके लिए घोड़ों की व्यवस्था होती थी संदेशों को देश के कोने-कोने में वाक्यानवीसों के माध्यम से फरमान के रुप में भेजा जाता था जिसे दासियां राजा को पढ़कर सुनाती थी। कानून और संदेशों में जनता की प्रतिक्रिया निहित होती थी जनता की आवाज को सर्वोपरि माना जाता था जो जनसंपर्क की व्यवस्था का ही एक रूप था।
1500 ई. तक कवियों ने भी जनसंपर्क की अवधारणाओं को अपनी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु बनाया। इस काल में जनसंपर्क के प्रचार के लिए राजाज्ञा, ताम्रपत्र, शौर्य गाथाएं, मुनादी, मूर्ति स्थापना, मेले व जुलूस आदि जनसंपर्क के ही रूप थे।
भारत में जनसंपर्क के उदय के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नह मिलते परन्तु जनसंपर्क का विकास भी मानव विकास के साथी-साथी ही पला व बढ़ा माना जाता है। शिलालेखों पर तत्कालीन समाज की स्थापना व कार्य तथा उनमें अंकित सेनापतियों, महामन्त्रियों, सामंतों, राजपुरोहितों तथा विशिष्ट अधिकारियों की नियुक्तियों का उल्लेख भी जनसंपर्क का ही स्वरूप है जिसके द्वारा शासन व्यवस्था को चलाना तथा तमाम जानकारियाँ राजा को उपलब्ध करवाना था। जनसंपर्क के माध्यम से ही जनता से सम्पर्क साधा जाता था तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ जनता तक भेजी जाती थी।
इतिहास पर नजर डाली जाए तो आदिकाल से ही जनसंपर्क का काम तीन स्तंभो पर टिका है। किसी कार्य से सम्बन्धित जानकारी जनता तक पहुंचाना, इस जानकारी के अनुसार जनता को काम करने के लिए प्रेरित करना, और जनता की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए भावी कार्यक्रम बनाना।
जनसंपर्क के साधन और उपक्रम देश और काल के अनुसार ही बदलते रहे है। किसी जमाने में शिलालेखों, ताम्र पत्रों और कथा-कहानियों आदि के माध्यम से प्रचार किया जाता था। बाद में उसी काम के लिए समाचारपत्रों, चल-चित्रों आदि का प्रयोग किया जाने लगा। अंग्रेजी शासन काल में सरकार का व्यवहार जनता के प्रति द्वेषपूर्ण था, कोई भी अखबार भारतीय भाषा में नह निकलता था तथा सरकार जनता का विश्वास प्राप्त करने या जनता को प्रेरित व जागरुक करने के हक में नह थी शासन को जनमत पर नह वरन् जन दमन की नव पर खड़ा किया गया था।
समाज सुधारकों ने समाज की बुराइयों का अन्त जनसंपर्क के माध्यम से किया जैसे कबीर ने जात-पात का खण्डन कर एकेश्वरवाद को जन्म दिया, राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का अन्त किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मूर्तिपूजा का विरोध किया। स्वामी विवेकानन्द ने विश्वबन्धुत्व की बात कह गुरू नानक ने घर-घर भजन सुनाकर जनसंपर्क साधा, इनके अलावा विभिन्न गणमान्य लोगों ने भी समाज का उत्थान किया जैसे ज्योतिबा फुले ने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया और इसके साथी ही बाल, लाल, पाल ने भारतीय राजनीति में एक भुचाल सा ला दिया और तिलक ने तो यह तक कह दिया ‘‘स्वतत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है इसे मैं लेकर ही रहूंगा।’’ 1885 में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। उसी जमाने में भारत के विभिन्न प्रदेशों में समाज सुधार के आन्दोलन चले। इन्ह दिनों भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता, एक नए माध्यम के रूप में राष्ट्रीय क्षैतिज पर उभर संवैधानिक सुधारों के लिए जनमत संगठित होने लगा।
भारत में स्वतन्त्रता के लिए बहुत से अखबारों व पत्रकारों ने जन प्रतिनिधि की भूमिका निभाई, जिनकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ पंदुर्गा प्रसाद मिश्र तथा भारत मित्र के सम्पादक बाबू लाल मुकंद गुप्त ने अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से जनता को जागरुक किया जैसे तिलक ने केसरी तथा मराठा पत्र निकाले महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार-पत्र, डा. बी.आर.अम्बेडकर ने भी विशेष पत्र निकाले, गोखले ने वसीयतनामा पेश किया। इसके अलावा बहुत से उत्सव मनाए गए इन सब ने जनसंपर्क में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। विशेष क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, डा. रोशन सिंह, अस्फाक उल्ला खां आदि ने विभिन्न जातियों में जाकर जनसंपर्क साधा और विभिन्न नारे जैसे ‘वंदे मातरम’, ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ लगाये और समाज में चेतना पैदा की ।
भारतीय जनसंपर्क की सराहना इसलिए भी की जाती है क्योंकि तब साधनों का अभाव था और विदेशी सरकार अभिव्यक्ति के इस माध्यम को पसंद नह करती थी लेकिन पत्रकारिता ने लोगों में आदर्श तथा देशभक्ति को कूट-कूट कर भर दिया था।
1905 में लार्ड कर्जन द्वारा किए गए बंग-भंग के विरोध में भारतीय प्रैस द्वारा की गई कोशिशों का ही परिणाम था कि सरकार को अपना फैसला वापिस लेना पड़ा। भगत सिंह, बिस्मिल व आजाद आदि क्रांतिकारियों ने भी प्रेस को ही जनसंपर्क का माध्यम बनाया तथा जनता को अंग्रेजी सरकार के कार्यों के प्रति जागरूक किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार और जनता के संबंधों में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भी शासन व्यवस्था की दूसरी शाखाओं के समान नए उद्देश्यों के अनुसार कार्यक्रम बनाए और उसी के अनुसार कर्मचारी भर्ती किए। इस प्रकार स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले जो सरकारी विभाग केवल विदेशी साम्राज्य की स्वार्थ सिद्धि माध्यम मात्र था अब जनकल्याणकारी राज्य का संदेश वाहक बन गया।
भारत में जनसंपर्क के परंपरागत साधन
- लोककलाएं- चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, हस्तकला।
- लोकनृत्य - कठपुतली नृत्य, समूह नृत्य, विवाह,जन्मादि अवसर पर किये गये नृत्य।
- लोकगीत - विभिन्न क्षेत्रों के परम्परागत गीत विवाह, जन्म, मुण्डन, जन्मदिन और त्यौहारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीत।
- लोकनाट्य - नौटंकी, तमाशा, भव, रास, जात्रा, अंकिया नाटक आदि।
- लिखित स्वरूप - ताम्रपत्र शिलालेख, कला पत्रक।
- लोक गाथाएं- प्रषस्ति परक काव्य तथाशौर्य गाथाएं।
- अन्य साधन- डुगडुगी पीटना, मुनादी करना, हरकारों द्वारा सन्देष, कारिन्दों द्वारा घोशणाएं, सभाएं, यज्ञ, स्वयंवर आदि।
- सामाजिक तथा धर्मिक पर्व- उत्सव, त्यौहार, मेले,प्रदर्शनियां, कीर्तन आदि। शिकार किये गये पशुओं के कारण किया गया सामूहिक भोजन।
- धार्मिक आयोजन- मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और आश्रमों में होने वाले धार्मिक उत्सवों के अवसर पर लोग भारी संख्या में एकत्रित होते हैं तथा संवाद करते हैं।
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