मन्नू भंडारी का जीवन परिचय || प्रमुख रचनाएं || साहित्यिक/काव्यगत विशेषताएं

मन्नू भंडारी का जीवन परिचय

मन्नू भंडारी का जीवन परिचय

श्रीमती मन्नू भंडारी नए दौर के कहानीकारों में अग्रणी स्थान रखती है। जन्म 3 अप्रैल 1931 . को मानपुरा राजस्थान में हुआ था। 

इनके पिता सुख सम्पतराय एक ख्यातिलब्ध विद्वान थे। उन्होंने ‘हिन्दी परिभाषिक कोश' के साथ-साथ विश्वकोश का भी कार्य सम्पन्न किया । वे राजनैतिक रूप से कांग्रेसी थे जो आजादी से पूर्व और बाद में सक्रिय रहे। घर पर होने वाली गोष्ठियों, चर्चाओं (जो अधिकांश राजनैतिक और साहित्यिक होती थी) का मन्नू पर गहरा प्रभाव पड़ा था। माता अनूप कुमारी बेहद शालीन घरेलू महिला थी । 

मन्नू जी अपनी आत्मकथा में लिखती हैं- "जन्मी तो मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के बम्हपुरी मोहल्ले के उस दो मंजिलें के मकान से जिसकी ऊपरी मंजिल में पिता जी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली बिखरी पुस्तकों, पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर डिक्टेशन देते थे।”” यहीं अजमेर (राजस्थान) में मन्नू जी की आरम्भिक शिक्षा सावित्रीबाई गर्ल्स हाई स्कूल अजमेर से हुई। सन् 1945 में इण्टरमीडिएट इसी स्कूल से पास किया। सन् 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास किया। स्नातक में हिन्दी विषय न होते हुए भी मन्नू जी की साहित्यिक रूचि ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में पत्राचार माध्यम से परास्नातक करने के लिए विवश किया। 1952 से 1961 तक वे कलकत्ता के बालीगंज विद्यालय, रानी बिड़ला कालेज तथा 1964 से दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा हाउस कालेज में अध्यापन कार्य किया ।

मन्नू की आरंभिक शिक्षा अजमेर विद्यालय से शुरू होती है। उसके बाद उच्च शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। डॉ. ब्रजमोहन शर्मा के अनुसार, "उनकी प्रारंभिक शिक्षा अजमेर के शिक्षा संस्थानों से संपन्न हुई। स्नातक स्तर की उपाधि वर्ष 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त की । तदन्तर थोड़े अंतराल के बाद बनारस विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 

ने मन्नू शुरू की शिक्षा अपने माता पिता के पास अजमेर में तथा उसके बाद की शिक्षा अपनी बहन के पास कलकत्ता में रहकर उच्च शिक्षा उतीर्ण की। बी.ए. में हिन्दी विषय नहीं रखा था। हिंदी में रूचि होने के कारण इन्होंने हिंदी में एम.ए. करना चाही। बहिस्थ के रूप में हिंदी विषय रखकर विश्वविद्यालय से परीक्षा पास की। अनीता राजूरकर के अनुसार "बी.ए. में उनका हिंदी विषय नहीं था, किंतु उन्होंने - हिंदी विषय लेकर काशी विश्वविद्यालय से बहिस्थ के रूप में एम.ए. किया ।" मन्नू ने एम.ए. तक ही शिक्षा प्राप्त की। उस के बाद हिंदी विषय में लिखना शुरू किया। स्नातकोत्तर करने के बाद मन्नू ने कुछ वर्ष तक अध्यापन कार्य किया और साथ-साथ कहानियां, उपन्यास, भी लिखने शुरू कर दिए।

मन्नू भंडारी का विवाह प्रसिद्ध कथाकार राजेंद्र यादव से हुआ । इन्होंने अपनी शादी में पुरानी परंपरावादी रूढ़ियों का खंडन करके प्रेम-विवाह किया। खासकर मारवाड़ी परिवार में तो इस प्रकार के विवाह को मान्यता नहीं दी जाती थी ।

मन्नू भंडारी का पूरा नाम महेंद्र कुमारी है। अपने भाई-बहिनों में सबसे छोटी होने के कारण सभी प्यार से "मन्नू" के नाम से बुलाते हैं। यही नाम इतना प्रचलित हो गया, जिससे आज भी यही नाम चल रहा है। अनीता राजूरकर के अनुसार " मन्नू भंडारी का पूरा नाम महेंद्र कुमारी है। उनके मैट्रिक के सर्टिफिकेट में महेंद्र कुमारी ही लिखा है। घर में सबसे छोटी होने के कारण सब प्यार से मन्नू पुकारते भी वे मन्नू भंडारी ही रही।"" पुरानी परंपराओं और रूढ़ियों के अनुसार जब लड़की का विवाह होता था, तो उसका नाम बदल देते है । मन्नू ने इन सब परंपराओं का खंडन किया और अपना नाम नहीं बदला। आज तक उनका नाम मन्नू ही प्रचलित है। 

मन्नू भंडारी की रचनाएं

उन्होंने उपन्यास, नाटक, एवं कहानियां रचकर बहुत ख्याति अर्जित की है । इनके साहित्य का विवरण इस प्रकार है - 
1 उपन्यास साहित्य
1. एक इंच मुस्कान, 1969 (राजेंद्र यादव के साथ मिलकर लिखा) 
2. आपका बंटी, 1971 (प्रथम स्वतंत्र उपन्यास)
3. कलवां, 1971
4. महाभोज, 1979
5. स्वामी, 1982
2 कथा साहित्य
1. मैं हार गई, 1957
2. तीन निगाहों की तस्वीर, 1959
3. यही सच है, 1966
4. एक प्लेट सैलाब, 1968
5. मन्नू भंडारी की श्रेष्ठ कहानियाँ 1969
6. त्रिशंकु 1978
7. मेरी प्रिय कहानियाँ, 1979
8. प्रतिनिधि कहानियाँ, 1980
9. दस प्रतिनिधि कहानियाँ, 2001
10. नायक खलनायक विदुषक
11. रानी माँ का चबूतरा
3 नाटक साहित्य
1. बिना दीवारों का घर, 1966
2. महाभोज, 1983 (नाटय रूपान्तरण)
4 पटकथा लेखन
1. रजनीगंधा
2. निर्मला
3. स्वामी
4. दर्पण
5 बाल - साहित्य
1. आँखों देखा झूठ, 1976 (बाल कहानियाँ)
2. आसमाता (उपन्यास)
3. कलवा, 1971 ( बाल उपन्यास)
6 आत्मकथा लेखन
1 एक कहानी यह भी, 2007

सन् 2008 में राजकमल प्रकाशन समूह ने मन्नू भण्डारी की 'सम्पूर्ण कहानियाँ' शीर्षक से उनकी सम्पूर्ण कहानियों का संकलन प्रकाशित किया है। इस संकलन की विशेषता यह है कि मन्नू जी की कहानियों को रचनात्मक क्रम में संकलित किया गया है, जिससे एक कथाकार के रूप में उनके विकासक्रम को समझने में आसानी होगी । यहाँ एक बात साफ कर देना चाहता हूँ कि मेरे शोध प्रबंध में विवेचन का क्रम इसी संग्रह पर आधारित रहेगा।

(i) मैं हार गई - 

इस संग्रह में बारह कहानियाँ संग्रहीत है:- (1) मैं हार गई, (2) श्मशान (3) अभिनेता, (4) जीती बाजी की हार, (5) गीत का चुबन, (6) सयानी बुआ, (7) पंडित गजाधर शास्त्री, (8) दो कलाकार, (9) एक कमजोर लड़की की कहानी, (10) दीवार, बच्चे और बरसात, ( 11 ) कील और कसक, ( 12 ) ईसा के घर इंसान । इस संग्रह की कहानियाँ किसी न किसी सामाजिक समस्या पर आधारित हैं। 

1. मैं हार गई— मैं हार गई मन्नू भण्डारी की पहली कहानी है। यह व्यंग्य प्रधान कहानी है जो भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में कहानी पत्रिका मे छपी थी। 

2. श्मशान– श्मशान कहानी में स्त्री और पुरूष के बीच उत्पन्न होने वाले आकर्षण की गहराई का व्यंग्यपूर्ण वर्णन किया गया है। 

3. अभिनेता- यह स्त्री-पुरूष संबंध पर आधारित कहानी है। इस कहानी में नायक दिलीप और नायिका रंजना है। ये दोनों कलाकार भी है । दिलिप विवाहित पुरूष है, फिर भी रंजना को झूठ बोलकर शादी का झांसा देता है। रंजना आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी स्त्री है। दिलीप भावनात्मक झांसा देकर आर्थिक शोषण भी करता है। लेकिन रंजना को एक दिन मेज की दराज में एक पत्र मिला, जिससे उसके सारे झूठ उजागर हो गये कि दिलीप कुँवारा नहीं है। यह जानकर रंजना के ऊपर जैसे वज्रपात होता है क्योंकि वह उसे काफी चाहने लगी थी। 

4. जीती बाजी की हार - यह मन्नू भण्डारी की एक ऐसी तीन सहेलियों की कहानी है जो शिक्षा के अभिमान से उपजे बौद्धिकता से ह्यूमन नेचर (मानवीय प्रकृति) को चुनौती देती है। अपने सहपाठिन अनेक लड़कियों की शादी, बच्चे एवं पति के रागात्मक संबंध के किस्से की खिल्ली उड़ती रहती है। इन्हें ऐसा करने वाली लड़कियाँ दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफ लगती है। ये तीन सहेलियाँ नलिनी, आशा और मुरला है जो एक ही कालेज में पढ़ती है । नलिनी और आशा चाहे अनचाहे में शादी के बंधन में बधती है और वे उसी रास्ते से गुजरती है जिसकी वे कभी खिल्ली उड़ती थी । नलिनी और आशा अपने पति का बखान मुरला से करती है। मुरला परम्परागत लड़कियों की श्रेणी में इन दानों के बदलाव से हतप्रभ है। तभी आशा ने उससे कहा कि एक दिन तुम्हें भी इस बंधन में बधना ही पड़ेगा? हाँ, ना के बीच दोनों शर्त लगाती है । अन्ततः मुरला शादी नहीं करती है। वह यह बाजी जीत जाती है। शर्त के मुताबिक आशा मुरला से इनाम माँगने के लिए कहती है, तब मुरला आशा की पाँच वर्षीय पुत्री को ही माँग लेती है । इस प्रकार मुरला बाजी जीत कर भी हार जाती है। 

5. गीत का चुम्बन- गीत का चुम्बन एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। इस कहानी में आधुनिक एवं परम्परागत मूल्यों के द्वन्द में फँसी स्त्री के अव्यक्त प्रेम की त्रासदी का सशक्त चित्रण हुआ है । 

6. सयानी बुआ- यह एक चरित्र प्रधान कहानी है। बुआ का पूरा दबदबा घर में चलता है। उनके अति अनुशासनप्रियता के चलते पूरे परिवार के सदस्यों की दिनचर्या यंत्रवत संचालित होती है जहाँ भावनाओं की कोई जगह नहीं है। पर इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि कहानी सम्वेदना के चरम विजय पर समाप्त होता है। 

7. पंडित गजाधर शास्त्री- यह चरित्र प्रधान कहानी है। पंडित गजाधर शास्त्री अपने आप को महान साहित्यकार होने के मुतमइनी में मस्त हैं। वे अक्सर आत्म प्रसंग में लगे रहते हैं। हकीकत तो यह है कि उन्हें साहित्य की सामान्य समझ भी नहीं है और वे खुद को महान साहित्यकार समझते हैं। गोपालराय की इस कहानी पर टिप्पणी है कि "यहाँ उन कहानीकारों का मजाक उड़ाया गया है जो मानते है कि वे अपनी यात्रा के हर क्षण में कहानी का प्लाट ढूँढ़ते रहते है और अपनी प्रतिभा की अद्वितीयता की डींग हाँका करते हैं।

8. दो कलाकार - यह कहानी दो स्त्री पात्रों की ही नहीं है बल्कि दो विचारधारा, दो अलग जीवन शैली एवं दो भिन्न सोच रखने वालों की कहानी है। जिसको मन्नू जी ने मनुष्यता के उच्चभूमि पर आधुनिक चकाचौंध में नया आयाम दिया है। दरअसल यह दो नहीं बल्कि तीन कलाकारों की कहानी है। जिसमें इन तीनों की कला विषयक मान्यतायें सामने आती है। एक है चित्रा(चित्रकार) जो मृत भिखारिन माँ के शरीर से लिपटकर रो रहे अबोध बच्चों का चित्र बनाती है और ख्याति प्राप्त करती है। दूसरी है अरूणा (समाज सेवी) जो भिखारिन के बच्चे को अपने घर पर पाल पोसकर नारकीय बेसहारा जीवन से मुक्त करती है और तीसरी कलाकार हैं स्वयं मन्नू जी जो दानों कलाकारों की कलाकृतियों को एक दूसरे के बरक्स रखकर उन कलाकृतियों के निर्माण प्रक्रिया पर दो कलाकार कहानी लिखती हैं। चित्रा जैसी नामी और सिद्ध कलाकार के बरक्स अरूणा की पहचान श्रेष्ठ कलाकारों के रूप में करके कला के प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करती है । जहाँ चित्रा की कला अनुभूति है वहीं अरूणा की कला स्वयं जीवन यर्थाथ है। वहीं मन्नू भण्डारी की कलाकारी 'कला - कला के लिए' के विरूद्ध कला में जीवनधर्मा स्वरों की पहचान कराने में हैं। चंचल चौहान ने ठीक ही लिखा है कि- "यह कहानी अर्थो के कई आयाम समेटे हुए है। ये आयाम सौन्दर्यशास्त्री और सामाजिक अर्थवत्ता के भी हो सकते है ।" 

9. एक कमजोर लड़की की कहानी - संस्कारों से आक्रान्त आधुनिक नारी की विडम्बना का नाम एक कमजोर लड़की की कहानी है। हमारे समाज में पुरूषों द्वारा निर्मित नैतिक नियम, पारिवारिक मर्यादा का भार आदि महिलाओं पर है हमारा समाज स्त्रियों को जन्मजात अबला मानता आया है इसलिए सबला बनाने के लिए पूरा जीवन पुरूष की छाया में रहना पड़ता है। इसका हिसाब पुरूष भावनात्मक या शारीरिक शोषण-पोषण के रूप में लेता देता आया है। हमारे समाज में एक स्त्री पहले पिता व भाई के संरक्षण में जीवन बिताती है उसके बाद पति और बच्चों के । इस कहानी की नायिका 'रूप' का जीवन विडम्बनापूर्ण है। तीन वर्ष की आयु में माँ का देहान्त हो जाता है। पिता दूसरी स्त्री के साथ विवाह करता है। संस्कार में बंधी 'रूप' न चाहते हुए भी मामा के घर जाने के लिए मजबूर होती है। रूप को मामा के घर ललित नाम के युवक से प्रेम हो जाता है। ललित पढ़ाई के सिलसिले में विदेश जाता है। वह रूप की कमजोरियों से वाकिफ है - "देखो मैं तुझे अपनी रूप सौंपकर जा रहा हूँ। इस विश्वास के साथ कि लौटूगाँ, तो मुझे उसी हालत में लौटा दोगी ।" ललित के विदेश जाने के बाद 'रूप' की शादी एक बड़े उम्र के वकील के साथ हो जाती है। पति सज्जन व्यक्ति है पर हमेशा कामों में व्यस्त रहते हैं। वे रूप को इच्छानुसार समय नहीं दे पाते इसी कारण रूप ललित के साथ एक रात भागने की योजना बनाती है । उसी रात को वकील साहब देर से आते है । रूप द्वारा देर रात आने का कारण पूछाने पर वे बताते हैं कि उनके किसी मित्र की पत्नी शिक्षित होते हुए भी किसी गैर आदमी के साथ भाग गई । 'तुम कितनी अच्छी हो।' यह सुनकार वह कमजोर पड़ जाती है। निखिल के साथ भागने का उसका पूरा प्लान रद्द हो जाता है।

10. दीवार, बच्चे और बरसात - यह कहानी मध्यवर्गीय समाज की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस कहानी में भारतीय स्त्रियों के प्रिय विषय - दूसरों के घरों की बातें, परनिन्दा को आधार बनाया गया है । प्रा० किशोर गिरड़कर ने लिखा है कि—–‘“मंडली जमाकर बड़ी दबी - ढकी जबान और रहस्यात्मक ढंग से पराये घरों की बातें उछालना, परनिन्दा करना आदि भारतीय स्त्रियों के लिए कोई नई बात नहीं है। औरतों की एक ऐसी मंडली, उसकी निन्दा करने वाली प्रवृत्ति और समूह की मानसिकता का रोचक वर्णन तथा संस्कारों को तोड़ने हेतु बाध्यनारी का चरित्राकंन दीवार, बच्चे और बरसात कहानी में हुआ है।

11. कील और कसक - यह कहानी विवाहोपरान्त संबंधों में गर्मजोशी के अभाव के परिणामस्वरूप उपजी परिस्थितियों पर आधारित है । जब किसी स्त्री का पति विवाह के बाद जीवन के विविध पक्षों पर सहभागिता नहीं करता है तो लाजमी है कि अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए स्त्री परपुरुष की तरफ आकर्षित हो ऐसी ही विडम्बना इस कहानी के केन्द्र में है । जहाँ अच्छे बुरे को महत्व न देकर नायिका प्रेमजाल में अपना सुध-बुध खो बैठती है। जब उसे उसके प्रेमी से दूर किया जाता है तो अतृप्त कामेच्छा उसके कलेजे में कील जैसे चुभती है। वस्तुतः यह कहानी नारी मनोविज्ञान को चित्रित करती है कि स्त्री और पुरूष के जीवन में एक सच्चा साथी होना चाहिए। 

12. ईसा के घर इंसान - ईसाई मिशनरी कालेज में प्रचारित नैतिक आदर्शो की विरूपताओं व धार्मिक कुप्रथाओं पर 'ईसा के घर इंसान' कहानी कुठाराघात करती है। मन्नू जी इसमें यह दिखाया है कि किस प्रकार से गिरजाघरों में पादरी युवतियों के मानसिक संस्कार की आड़ में उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाते है। न जाने कितनी युवतियाँ इस धार्मिक आडम्बर में होम हो चुकी है। लेकिन इस चारदीवारी में एंजिला नामक आजाद परिन्दा भी कैद हो गई। वह पुरजोर कोशिश करके स्वयं आजाद ही नहीं हुई बल्कि न जाने कितनी और शोषित लड़कियों का रोल मॉडल भी बनी। इसी मार्ग पर आगे चलकर अध्यापिका लूसी भी दीवार फांदकर भागने में सफल होती है। बगुला भगत बना फादर हाथ मलता रह जाता है।

(ii) तीन निगाहों की एक तस्वीर - 

मन्नू भण्डारी का यह दूसरा कहानी संग्रह 1959 में श्रमजीवी प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ संकलित है- 1. अकेली 2. तीन निगाहों की एक तस्वीर 3. अनथाही गहराइयाँ 4. खोटे सिक्के 5. घुटन 6. हार 7. मजबूरी 8. चश्मे। 

1. अकेली – यह एक वृद्धा की विडम्बनापूर्ण कहानी है। एकमात्र पुत्र के असामयिक निधन के उपरान्त पति सन्यासी हो जाता है । सोमा बुआ के जीवन में संन्यासी पति के सिवा कोई दूसरा नहीं है। ऐसी स्थिति में वह पूरे आस-पड़ोस को अपना समझती है। सभी के सुख दुःख में बढ़ चढ़कर भाग लेती है। दौड़-दौड़ कर बड़ी तत्परता से काम करती है और इसी अपनत्व की लालसा में ठगी जाती है। जब उसका पति कई महीनों बाद आता है तो पत्नी प्रेम का दिखावा करती है पर असलियत में उसका आगमन चुभता है क्योंकि पति उसके सामाजिक दायरे पर अंकुश लगाता है । पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में मन्नू भण्डारी ने एक वृद्धा स्त्री की त्रासदी को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है।

2. तीन निगाहों की एक तस्वीर- इस कहानी का परिवेश विडम्बनापूर्ण परिस्थिति पर आधारित है। कहानी की नायिका दर्शना का पति छय रोगी है। दर्शना उसकी पूरी सदाशयता से सेवा करती है लेकिन जैविक इच्छाओं की पूर्ति के लिए हरीश नामक लेखक से प्रेम करने लगती है। स्वतंत्रता के बाद स्त्री शिक्षा एवं आधुनिक भावबोध ने परम्परागत नैतिक मर्यादाओं के बरक्स निजी भावनाओं के महत्व को भी समझने की दृष्टि दी थी । इस दृष्टि के कारण ही वह यौन तृप्ति के लिए अन्य पुरूष पर आकृष्ट होती है। लेकिन जब यह पति को पता चलता है तो उसे घर से निकाल देता है। ऐसी स्थिति में दर्शना को अपना शेष जीवन नर्तकी के रूप में जीने के लिए विवश होना पड़ता है। दर्शना सहज मानवीय संबंधों की लालसा में ही अपना जीवन त्याग देती है। गोपाल राय ने लिखा है कि- " स्त्री की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि परम्परागत नैतिक संहिता की कसौटी पर कसते हुए समाज, जिसमें अपनी कही जाने वाली औरतें भी होती हैं उसकी मजबूरियों को नहीं समझता । तीन निगाहों की एक तस्वीर कहानी में गहरी संवेदना के साथ औरत की इसी मजबूरी का अंकन किया गया है ।"

3. अनथाही गहराइयाँ - यह गरीब ज्ञानपिपासु विद्यार्थी की कहानी है। जिसे मुफ्त में पढ़ाने वाली शिक्षिका से असीम लगाव है। शिक्षिका का मिथ्या भ्रम जिसकी आत्महत्या का कारण बनाता है।

सुनंदा अध्यापिका है। उसका एक प्रिय शिष्य जो गरीबी की जहालत का शिकार है बावजूद इसके ज्ञान पिपासा उसमें है । इसी के चलते सुनन्दा उसके हर समस्या में मदद के लिए तत्पर है। पढ़ाई से लेकर आर्थिक मदद तक। वह बराबर उसके घर इस सिलसिले में आता-जाता है। शिवनाथ का आना भईया-भाभी को संशय में डाल देता है इसलिए वे उसे घर पर आने से मना कर देते है। कुछ दिनों के बाद शिवनाथ किसी समस्या के समाधान हेतु एक पुस्तक सुनन्दा को देता है जिसमें एक प्रेम पत्र था जिसे देखकर सुनन्दा बौखला जाती है और शिवनाथ को तमाचा मार देती है। जिससे मर्माहत शिवनाथ आत्महत्या कर बैठता है । यह सूचना चारों तरफ फैल जाती है। तीन दिन बाद एक लड़के ने इस प्रेम पत्र की गलतफहमी दूर की कि पुस्तक में जो प्रेम पत्र था, वह मेरा था। मेरे प्रेम पत्र शिवनाथ लिखा करता था इसलिए मजबूरन इस पत्र के लिए आप के पास आना पड़ा इस पर सुनन्दा ने उसे भला-बुरा सुनाया। सुनन्दा अपने कमरे में पहुँचकर अपने दोनों हाथ की नसें काट कर लहुलुहान कर लिया। वह अपने आप को खुद शिवनाथ का हत्यारन समझने लगी। 

4. खोटे सिक्के - इस कहानी की परिणति की समीक्षा के दौरान मैं पूँजीवाद की तुलना करते हुए सामंतवाद के पक्ष में अपने आप को पाता हूँ। क्योंकि आज के पूंजीवादी दौर में बड़े-बड़े उद्योग धन्धों में मजदूरों का हश्र जगजाहिर है । उनके हक से लेकर श्रम तक का शोषण अनवरत गति से चल रहा है। शोषण सामंतवादी व्यवस्था में भी था पर दोनों में अन्तर यह है कि सामंतवादी व्यवस्था में नौकर बूढ़ा हो गया या उसमें कार्य करने की क्षमता नहीं है । ऐसी स्थिति में वह जब तक जिन्दा है उसके जीने खाने की व्यवस्था सामंतवाद में होती थी जबकि पूँजीवादी व्यवस्था में यह नहीं है। इसमें जब तक मजदूर काम करने योग्य है उसकी पूछ बनी रहती है लेकिन जब वह मजदूरी करते वक्त घायल हो जाता है तब उसे थोड़ी सी रकम ऐन-केन-प्रकारेण देकर विदा कर दिया जाता है। बाकी बचे उसके जीवन के साथ वह नहीं खड़ा होता है। पूँजीवादी और सामंतवादी व्यवस्था में यही फर्क है। लाख निरंकुश होने पर भी सामंतवाद में कुछ संवेदना बची थी जबकि पूँजीवाद इससे मुक्त है । खोटे सिक्के कहानी में मन्नू ने दोनों पैर खो चुके मजदूर की इसी व्यथा की कथा को चित्रित किया है। 

5. घुटन— अलग-अलग परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करने वाली दो स्त्रियों के घुटन का मार्मिक चित्रण मनोवैज्ञानिक धरातल पर इस कहानी में हुआ है जिसमें प्रतिमा विवाहित है तो मोना विवाह की इच्छुक । विवाहित प्रतिमा का पति जल सेना में नौकरी करता है । चार-पाँच साल में एकाध महीने की छुट्टी पर घर आता है। शादी के लम्बे अर्से गुजरने के बाद भी भावनात्मक स्तर पर कोई ऐसा क्षण प्रतिभा के पास नहीं है जिसके सहारे वह जीवन बिताये। ऐसी स्थिति में उसकी काम भावना खंडित हो चुकी है। इसीलिए छुट्टी पर आये पति के मजबूत और फौलादी बाँहों में वह घुटन महसूस करती है । दूसरी तरफ है मोना जो घर की आर्थिक स्थिति अनुकूल न होने के कारण प्रेमी से शादी नहीं कर पाती। कारण केवल इतना ही है कि स्वार्थी माँ - कामकाजी बेटी की भावना को अपने स्वार्थ/बेबसी के लिए कुचल डालती है। 

6. हार- राजनीति को लेकर मन्नू की लिखी गई दूसरी कहानी है। इसमें दीपा राजनैतिक माहौल में पली-बढ़ी लड़की है। उसकी इसमें दिलचस्पी उसे एक राजनैतिक पार्टी का सक्रिय सदस्य बना देती है। दीपा अपना पूरा जीवन समाज सेवा व राजनीति को समर्पित करने का निश्चय करती है। इसी सिलसिले में विरोधी पार्टी के नेता शेखर से विवाह करती है। चुनाव में दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो जाते है। पार्टी के प्रति निष्ठा और इमानदारी के चलते इस चुनाव में अपने सब गहने भी पार्टी को समर्पित कर देती है । यहाँ तक की शेखर द्वारा दिया गया ‘प्रेम का प्रतीक' हार भी । वह जमकर चुनाव प्रचार में लगी है जबकि उसके पति व प्रतिद्वन्दी शेखर अपने मित्रों के बीच यह बात करते है कि "भाई मेरी जीत की सम्भावना ही मुझे खिन्न बनाये दे रही है । सोचता हूँ मैं हार गया, तो उस लज्जा को सह लूँगा । पुरूष हूँ और सहने का आदी । पर जीत गया, तो दीपा का क्या होगा। तुम देखते हो पगली हो गई है इसके पीछे। वह हार का धक्का बरदाश्त नहीं कर सकेगी और सच पूछो तो इसलिए चाहता हूँ कि मैं हार जाऊँ ।” 39 शेखर के इस विचार से प्रभावित होकर दीपा अपना ही वोट शेखर (पति) की पेटी में डाल आती है। “मधुरेश ने ठीक ही लिखा है कि 'हार' पुरूष की कल्पित उदारता के बावजूद स्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता के दुष्परिणाम की ओर संकेत करती है ।

7. मजबूरी - यह एक बूढ़ी अम्मा के पौत्र प्रेम की कहानी है जो इस बुढ़ापे में उनके अकेलेपन को दूर करने का माध्यम हैं और साथ ही साथ शहर में जा बसे पुत्र के प्रेम की निशानी भी। लेकिन बेटू से इतना लाड़-प्यार बहू को सुहाता नहीं। उसे लगता है कि इनके लाड - प्यार ने ही बेटू को जिद्दी बना दिया है।बेटू को जब माँ के साथ शहर जाना हुआ तो बूढ़ी अम्मा की हार्दिक इच्छा थी वह न जाये । पर बहू उसे किसी हाल में छोड़ने को तैयार न थी। पास-पड़ोस के लोग जब बेटू के बारे में पूछते हैं तो बेचारी अम्मा अपनी मजबूरी पर मुलम्मा लगाती हुई झूठ बोलती हैं- "गठिया के मारे मेरा उठना-बैठना तक हराम हो रहा था सो मैनें ही कह दिया की बहू अब पप्पू बड़ा हुआ सो बेटू को भी ले जाओं ।... बुढ़ापा है, कुछ भजन-पूजन ही कर लूँ ।"41 इस कहानी में मन्नू जी ने बेटू के माध्यम से बूढ़ी अम्मा का वात्सल्य प्रेम दर्शाया है।

8. चश्में— भोगवादी चश्में या दृष्टि के चलते निर्मल ने अपनी बीमार प्रेमिका शैल से शादी न करके किसी और से करता है । यथार्थ जीवन की सम-विषम परिस्थितियाँ निर्मल के इस भोगवादी प्रवृत्ति की निस्सारता का भान करा देती है। परिणामतः वर्तमान जीवन में वह अपने अतीत का स्मरण कर व्यथित व आन्दोलित हो उठता है । इस अन्तर्द्वन्द्व को मन्नू जी ने बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रित किया है। भाषा शिल्प एवं दृष्टि के नजरिये से यह कहानी संग्रह प्रथम कहानी संग्रह की तुलना में अधिक परिपक्व है ।

(iii) यही सच है-

 यह 1966 में अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित मन्नू भण्डारी का तीसरा कहानी संग्रह है । इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ संग्रहित है।
1. नकली हीरे
2. नशा
3. इन्कम टैक्स और नींद
4. रानी माँ का चबूतरा
5. क्षय
6. तीसरा आदमी
7. सजा
8. यही सच है।

1. नकली हीरे - अभिजात्यवर्गीय जीवन की चकाचौध संकीर्ण विचारधारा वाले व्यक्ति को इस कदर अंधा बना देती है कि वह अपने नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को तुच्छ समझने की भूल कर बैठता है । लेकिन जीवन मात्र इस चकाचौंध का नाम नहीं है। मनुष्यता का मापदण्ड मनुष्येत्तर प्राणियों से प्रेम तक फैला है। यही वह सत्य है जो समाज घर परिवार को बराबर स्निग्ध धारा से जोड़ता आया है। इसके बिना क्या जीवन सहज हो सकता है? मन्नू ने इसी परिवेश में दो बहनों सरन (अभिजात्य वर्ग) और इन्दु (मध्यवर्गीय) स्थिति में जीवन बिताने वाली नारियों के दाम्पत्य जीवन में प्रेम की प्रांजल धारा विशेष भौतिक संसाधन के अभाव में विशिष्ट और महत्वपूर्ण बना देती है। वहीं दूसरी तरफ पति से अपेक्षाकृत प्रेम न मिलने पर सब संसाधन होने के बावजूद सरन अपनी बहन इन्दु की अपेक्षा सुखी जीवन नहीं बिता सकी । यहाँ मन्नू ने दो विषम वर्गों की स्थिति में प्रेम के महत्व से यह बता देना चाहती है कि स्त्री-पुरूष संबंध में भौतिक सुख संसाधन विशेष महत्व नहीं रखता। इसके अभाव में भी प्रेम की गर्मजोशी जीवन को सुखमय बना देता है । प्रेम के अभाव में ही तो सरन को आज असली हीरे भी नकली लगने लगते है। 

2. नशा– नशा कहानी में भारतीय परम्परा व संस्कृति में ढली -पगी नारी का हृदय-स्पर्शी चित्रण हुआ है, जो अपने नाम के साथ पतिव्रता आदि का परम्परागत आदर्श छोड़ना नहीं चाहती।

कहानी की नायिका आनन्दी का पति शंकर शराब का लती है । जिसके कारण घर परिवार की सारी जिम्मेदारी आनन्दी पर है। इसके तीन बच्चों में केवल किशन ही रह गया। इस बच्चे के पालन- -पोषण की जिम्मेदारी आनन्दी पर थी। क्योंकि पिता नशे का लती है जब वह पीकर आता तब माँ को मारता पीटता था। पिता के रोजमर्रा की हरकतों से तंग आकर किशनू घर छोड़कर चला गया। उसने जीविकोपार्जन हेतु कपड़े की दुकान कर ली और शादी भी। बारह वर्ष के बाद किसनू माँ बाप को शहर लाने हेतु गाँव आया । पर पिता की हालत देखकर वह केवल माँ को साथ लेकर चला गया। आनन्दी मजदूरी करके जो पैसे लाती थी। उसका पति जोर-जबरजस्ती पैसा पीने के लिए ले ही लेता था। यह प्रक्रिया लम्बे समय तक चलने से आनन्दी की कमाई का एक हिस्सा पति के लिए आरक्षित हो गया था । या यों कहें की आनन्दी स्वेच्छा से उसे शराब के लिए पैसे देने लगी थी। हद तो तब हो गई जब वह किशनू के साथ शहर में रहते हुए उसके चोरी चुपके कताई बुनाई करके पति के लिए पैसे मनिआर्डर करने लगी। बात खुलने पर इसके लिए अपने ही पुत्र के सामने लज्जा का अनुभव करना पड़ा। लगता है आनन्दी को भी पति की इच्छाओं की पूर्ति करने का एक नशा सा हो गया है। मन्नू ने इस कहानी में परम्परागत भारतीय संस्कृति की नारी का वह चरित्र अंकित किया है, जिसके जेहन में पति कैसा भी है वह परमेश्वर ही मानती है ।

3. इनकम टैक्स और नींद - यह कहानी मध्यर्वीय समाज की उस संकीर्ण भावना को आधार बनाती है जिसका शिकार आज लगभग पूरा समाज है। मसलन कोई भी मध्यवर्गीय व्यक्ति आज के पूँजीवादी दौर में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए अर्थ संसाधनों व राजनैतिक हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। कभी-कभी यह डींग उसे बेचैन भी करती है। जैसे जो मध्यवर्गीय व्यक्ति अपने सामाजिक संबंधों (जिसमें वह डींग मार चुका होता है) अत्यधिक निकटता बढ़ने पर अपने हैसियत को बराबर छुपाने या उससे अमुक व्यक्ति को दूर रखने का खट्करम करता रहता है।

वस्तुतः यह कहानी कस्बाई और शहर के भेद के साथ-साथ दो पीढ़ियों के बीच आये मूल्यों में बदलाव को भी रेखांकित करती है । सभ्यता और संस्कृति परम्परा के रूढ़ि रूप भी होते है । परम्परा परिवर्तनशील होने के चलते सांस्कृतिक मूल्य भी समय सापेक्ष अपना रूप बदलते हैं जो भी समाज इस बदलाव में शामिल नहीं होता वह पीछे छूट जाता है। वह व्यक्ति व समाज हास्य-व्यंग्य का पात्र बनता है अर्थात् समाजिक पिछड़ेपन का शिकार होता है। इस कहानी के केन्द्र में मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया का चरित्र उद्दघाटित हुआ है जो अन्दर से खोखला होते हुए भी आत्मसम्मान को बनाये रखने के लिए अपनी प्रशंसा स्वयं करता है । इसी झूठी आत्म प्रशंसा के मिथ्या प्रदर्शन से क्षणिक निश्चिंतता का अनुभव करता है।

4. रानी माँ का चबूतरा - यह कहानी शहरी जीवन से संबंधित होने के बावजूद आंचलिकता की सोंधी खुशबू समेटे हुए है। यह भाव एवं शिल्प दोनों दृष्टि से मन्नू जी की बेजोड़ कहानियों में से एक है

6. तीसरा आदमी- तीसरा आदमी कहानी दाम्पत्य जीवन में तीसरे (बच्चे) व्यक्ति के न आ पाने के कारण दाम्पत्य जीवन बोझिल हो उठा है। पत्नी डॉक्टर से अपना चेकअप करा चुकी है और पति से भी डॉक्टर की सलाह लेने का आग्रह करती है। परन्तु पुरुष वर्चस्व की मानसिकता के चलते पति तैयार नहीं होता है। उसका स्वयं सिद्ध तर्क यह है कि वह ठीक है उसमें कोई गड़बड़ी नहीं है पर उसके अवचेतन मन में नपुंसकता की हीनग्रन्थि पनप चुकी है। घर पर आये पत्नी के लेखक मित्र आलोक का गर्मजोशी से स्वागत सत्कार एवं खुलकर देश समाज पर बहसें करना पति के संशय का कारण बनता है। पति का द्वन्द्व एक तरफ तीसरा आदमी (बच्चा) न दे पाने के कारण है तो वहीं दूसरे तरफ तीसरा आदमी (लेखक मित्र) आ जाने के कारण संशय का शिकार हो जाता है। इसी परिवेश और संदर्भ में मन्नू ने दाम्पत्य जीवन की दुश्वारियों को चित्रित किया है।

7. सजा- मन्नू जी की यह कहानी भारतीय न्याय व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य है। इसमें एक तरफ अदालती कार्यवाही में हो रहे विलम्ब को निशाना बनाया गया है तो दूसरी तरफ अर्थाभाव में परिवार की दारूण दशा एवं विघटन का अंकन हुआ है। यह कहानी आशा के पिता को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण परिवार को बिना अपराध के ही सजा भोगने पर विवश करती है।

8. यही सच है— यह कहानी प्रेम त्रिकोण की नई जमीन तैयार करती है। क्योंकि अब तक प्रेम त्रिकोण में एक पुरुष के बीच दो स्त्रियों की अवधारणा नई कहानी का प्रिय विषय रहा है। पर मन्नू जी ने दो पुरूषों के बीच एक स्त्री के सात्विक प्रेम की अवधारणा का भिन्न-भिन्न परिवेश और संदर्भों में मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है, जो यथार्थ के स्वभाविक बुनियाद पर आधारित है। कहानी की नायिका दीपा, निशीथ और संजय के बीच अलग–अलग परिवेश में परिस्थिति के दबाव और लगाव के बीच उपजे प्रेम को ही सच मान बैठती है। एक आधुनिक युवती दीपा के परम्परागत नैतिक-अनैतिक वर्जनाओं से मुक्त प्रेम के स्वाभाविक अन्तर्द्वन्द्व के विश्लेषण में मन्नू जी ने पूर्ण सफलता प्राप्त की है । कहानी का पाठक भी इस अन्तर्द्वन्द्व में अंत तक बना रहता है कि आखिर दीपा किसका वरण करेगी, क्योंकि इसमें खलनायक की भूमिका है ही नहीं, दोनों प्रेमी है।

(iv) एक प्लेट सैलाब - 

सन् 1968 में प्रकाशित मन्नू भण्डारी का यह चौथा संग्रह है। इस संग्रह में नौ कहानियाँ संग्रहित है, जो निम्नलिखित है
1. बाँहों का घेरा
2. संख्या के पार
3. कमरे, कमरा और कमरे
4.एक प्लेट सैलाव
5.छत बनाने वाले
6.एक बार और
7.बन्द दरवाजों का साथ 
8. ऊँचाई
9.नई नौकरी

1. बाँहों का घेरा - यह अतृप्त प्रेम की पूर्ति के लिए निरंतर प्रयासरत नारी के द्वन्द्व और भटकन की कहानी है । 

2. संख्या के पार - संख्या के पार एक ऐसी युवती की करूण कथा है, जिसकी विधवा माँ उसे नाना-नानी के पास छोड़कर किसी अन्य पुरूष के पास भाग गई। वर्षों बाद जब प्रमीला के दयनीय दशा व दुख का पता उसकी माँ को चलता है तो वह उससे मिलने के लिए प्रयत्न करती है। परिणामतः घर परिवार में (जो मिलने देने के पक्ष में नही था ) उत्पन्न हुए वातावरण और विवश माँ के क्षणिक दुलार का भावपूर्ण चित्रण इस कहानी में हुआ है। मन्नू जी यहाँ यह दिखा देना चाहती हैं कि मनुष्य के भावों का व्यापार धन और पैसे से नहीं किया जा सकता क्योंकि वह संवेदना का विषय है।

3. कमरे, कमरा और कमरे - यह एक नारी प्रधान कहानी है । एक मध्यमवर्गीय नारी नील विषम परिस्थिति भरे माहौल में बीमार अम्मा की सेवा ही नहीं बल्कि यह सब करते हुए अपनी पढ़ाई-लिखाई बड़ी तन्मयता से पूर्ण करती है। परिणामतः दिल्ली के महिला कालेज में अध्यापिका की नौकरी मिल जाती है। ग्रामीण परिवेश की शर्मिली और अन्तर्मुखी नीलू के व्यक्तित्व को दिल्ली जैसे चकाचौध भरे शहर ने एकदम बदल दिया। अब वह पहले वाली शर्मिली, अर्न्तमुखी आदि नहीं रही । यहाँ उसका परिचय श्रीनिवास नामक पूँजीपति विधुर से होता है अतः नील उसके साथ उसके फ्लैट पर रहने लगती है। आज यह चलन भारत के महानगरों में बड़ी तेजी से विकसित हो रहा है। 'लिव इन रिलेशनशिप' में एक पूँजीपति के साथ रहते हुए नीलू का मध्यमवर्गीय चेतना इच्छित विस्तार को प्राप्त करता है लेकिन एक दूसरा मन उसके व्यक्तित्व को संकुचन की तरफ इशारा भी करता है । किस तरह श्रमशील युवती भौतिक संसाधनों का गुलाम बन चुकी है जिसे मन्नू जी ने प्रतीकों में व्यक्त किया है। यथा—“ऊपर तेजी के साथ पंखा चला रहा था, बगल में श्रीनिवास के खर्राटों की हल्की-सी आवाज आ रही थी और इन दोनों की मिली जुली आवाजों में पेपर-वेट के नीचे फरफराते कागजों की आवाज दब सी गई थी । "

4. एक प्लेट सैलाब - महानगरीय जीवन को समकालीन संवेदना के धरातल पर भिन्न–भिन्न अर्न्तद्वन्द्वों में उलझी मानसिकताओं के सैलाब का यथार्थ चित्रण मन्नू जी ने इस कहानी में किया है। नवीन - प्राचीन मूल्यों की टकराहट, तनाव, विघटन के साथ-साथ पूँजीवादी परिवेश की अर्थनीतियों के फलस्वरूप बढ़ते हुए यांत्रिकीकरण एवं उदारीकरण की विसंगतियों के जाल में फँसे व्यक्तियों के असंतोषों के सैलाब का चित्रण हुआ है । प्रा० किशोर गिरड़कर ने लिखा है कि "एक प्लेट सैलाब में एक भीड़ भरे टी हाऊस में भिन्न-भिन्न मानसिकताओं में उलझे हुए समूहों का वर्णन है। 

5. छत बनाने वाले - इस कहानी में नगरीय एवं ग्रमीण जीवन संघर्ष एवं मूल्यबोध के अन्तर को स्पष्ट सपाट बयानी के लहजे में व्यक्त किया गया है।

6. एक बार और– यह नारी जीवन के प्रथम प्रेम के न भूल पाने की विवशता की कहानी है। शेष जीवन जीने की परम्परागत प्रतिबद्धता के चलते नायिका को अन्य पुरूष से समझौता करने की असफल कोशिश करती है परन्तु रागात्मक संवेदना की उच्चता से न जुड़ पाने के कारण क्या यह समझौता टिक पायेगा ? यही इस कहानी का विषय है । 

7. बन्द दराजों के साथ - यह आधुनिक जीवन शैली के मद्देनजर स्त्री-पुरूष संबंधों पर आधारित एक सशक्त कहानी है । 

8. ऊँचाई– इस कहानी में आधुनिक जीवन मूल्यों के आलोक में स्त्री-पुरूष संबंध के नये भाषिक जमीन की तलाश की सफल कोशिश हुई है आधुनिक मूल्यबोध यहाँ इतना प्रखर और स्वीकार्य होते दिखाया गया है जहाँ न पुराने मूल्यों के टूटने के अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति बनती है, और न ही उसे छिपाने का प्रयत्न हुआ है। यहाँ एक प्रकार से भावना की उस ऊँचाई के स्वीकार्य का साहस व्यक्त हुआ है जिसके खुलने पर इस पितृसत्तात्मक समाज में संबंध टूटने की पूर्ण सम्भावना होती है। लेकिन मन्नू जी ने इस विषम परिवेश में भावना की उस उदात्तता को व्यक्त किया जहाँ संबंध विच्छेदित न होकर और और मजबूत होते है।

9. नई नौकरी - आधुनिक युग में उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों को घर से बाहर नौकरी पेशे के लिए इजाजत देता है । लेकिन पति या परिवार की आर्थिक स्थिति पुनः सुदृढ़ होने पर स्त्रियों को घर की चारदीवारी में कैद करने की जुगत में लगा रहता है । इसी परिवेश और संदर्भ में मन्नू भण्डारी ने आधुनिक सुशिक्षित स्त्री के अन्तर्द्वन्द्व को व्यक्त किया है।

(v) त्रिशंकु– 

मन्नू भण्डारी का यह पाँचवाँ कहानी संग्रह है। यह सर्वप्रथम 1978 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में दस कहानियाँ संग्रहित है।
1. दरार भरने की दरार
2. रेत की दीवार
3. अ - लगाव
4. आकाश के आइने में 
5. आते-जाते यायावर 
6. शायद
7. असामयिक मृत्यु
8. तीसरा हिस्सा 
9. स्त्री सुबोधिनी
10. त्रिशंकु ।

1. दरार भरने की दरार- आधुनिक भावबोध के आलोक में परम्परागत स्त्री-पुरूष संबंध की अवधारण में परिवर्तन एवं टूटने की चरमराहट में अहं की भूमिका का सफल मनोवैज्ञानिक चित्रण दरार भरने की कहानी में हुआ है
'दरार भरने की दरार' की नायिका अपने सहेली के जीवन में पड़े दरार को पाटने का उपक्रम करती है जो अन्ततः सफल नहीं हो पाती है। सहेली के आग्रह पर उसे पति के फ्लैट से अलग दूसरे फ्लैट में स्थापित कराने हेतु अनेक समस्याओं से जूझती है। आधुनिक युग में आज दाम्पत्य जीवन आपसी अहं के कारण प्रभावित हो रहे हैं। अपने-अपने अहं को लेकर दम्पत्ति इस कदर अडिग है कि दाम्पत्य टूट जाए पर अहंभाव न झुके । मन्नू जी ने आधुनिक नारी के उस मनोजगत में झांका और इस निर्णय पर पहुँचीं कि जिस नारी के पास जीविका के लिए कोई साधन न हो उसका अहं जरूर झुक सकता है पर आत्मनिर्भर नारी का नहीं ।

2. रेत की दीवार- रेत की दीवार कहानी योग्यता के निर्धारित मानको को पूर्ण करने के बावजूद भटकते बेरोजगार युवक के अन्तर्द्वन्द्व की गाथा है, तो वहीं दूसरी तरफ मध्यवर्गीय घर की उस त्रासदी का भी अंकन है जो अपने पुत्र को ऊँची शिक्षा दिलाने में तिल-तिल टूट जाता है। इन्हीं परिवेश और संदर्भ में यह काहानी यथार्थ की जमीन पर उतरती है।

3. अ–लगाव– वर्ग और जाति के जागरण व हक की तरफदारी करने वाले विवेक सम्मत आधुनिक युवा विशेषकर की कहानी है, जो सामंतवाद और पूँजीवाद के गठजोड़ से उपजे नवपूँजीपति जोरावर सिहं (मुखिया) के राजनैतिक षड़यंत्र का शिकार होता है। इसी राजनैतिक हथकंडे और उसके दांव-पेच का विस्तार महाभोज उपन्यास में आगे हुआ है।

4. आकाश के आइने में (एखाने आकाश नाई) - 'ऐखाने आकाश नाई’ आर्थिक रूप से स्वतंत्र ऐसे दम्पत्ति की कहानी है जो चाहकर भी स्वतंत्र जीवन यापन नहीं कर सकते । संयुक्त परिवार का बोझ उनके कंधे पर है-परिवार के सामने अपने उत्तरदायित्व से वे विमुख नहीं हो सकते। ,,लेकिन पूँजीवादी अर्थतंत्र की नई नीति के चलते व्यक्ति को परम्परागत काम (जो अब घाटे का और हीन समझा जाने लगा है ) छोड़कर शहर की तरफ भागने को मजबूर कर दिया है। ऐसे में संयुक्त परिवार को टूटने से नहीं रोका जा सकता। 

5. आते जाते यायावर - आते जाते यायावर कहानी एक रूढ़िबद्ध परम्परावादी विचारधारा का गुलाम पर छद्म आधुनिकता का चोंगा ओढ़े पुरूष की कहानी है, जो आधुनिक जीवन मूल्य प्रेम और सेक्स की उन्मुक्तता का पक्षधर है लेकिन शादी के लिए कौमार्य के मापदण्ड पर खरी सीधी-साधी परम्परागत भारतीय लड़की को चुनता है।
कहानी की अविवाहित नायिका मिताली (अध्यापिका) का परिचय नरेन से होता है। दोनों में दोस्ती और शारीरिक संबंध भी स्थापित हो जाते हैं पर शादी के नाम पर इनकार कर जाता है। मन्नू जी इस कहानी के माध्यम से यह बताना चाहती है कि स्त्रियों को इस छद्म चोंगाधारियों से सावधान रहना पडेगा। शिल्प की दृष्टि से यह मन्नू की कमजोर कहानियों में एक है ।

6. शायद– पूँजीवादी अर्थतंत्र में परम्परागत पेशे की अप्रासंगिकता के कारण व्यक्ति घर परिवार की उपभोक्तावादी अनिवार्यता की पूर्ति हेतु शहर की तरफ भागता है परन्तु पूँजीवादी संस्कृति व साहचर्यता के अभाव में खूनी रिश्ते किस तरह भाव - शून्य होते जाते हैं यह कहानी इसी बदलाव पर आधारित है। सालों बाद नायक को अपना खुद का घर पराया या मेहमान नवाजी जैसा लगने लगता है। मन्नू की यह कहानी पूँजीवादी परिवेश ( नाकारात्मक पक्ष) में मनुष्यता से मशीनीकरण के बदलाव को रेखांकित करती है।

7. असामयिक मृत्यु - इस कहानी में मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की असामयिक मृत्यु के बाद उजड़े परिवार की दारूण गाथा का चित्रण हुआ है। किस प्रकार से एक परिवार के पालन-पोषण करने वाले मुखिया के मृत्यु के बाद बच्चों के भविष्य और सपनों की भी मृत्यु हो जाती है। कहानी में 44 वर्षीय महेश बाबू की मृत्यु हार्टअटैक से ऑफिस में काम करते-करते हो जाती है।

8. तीसरा हिस्सा - आधुनिक परिवेश में विघटित नैतिक मूल्य और उससे उपजे चरणचापी चाटुकार संस्कृति के दुष्प्रभाव से प्राभावित व्यक्ति किस प्रकार - निराश, कुंठित और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाता है, इसका हताश-1 व्यंग्यात्मक चित्रण इस कहानी में हुआ है कहानी के नायक पाक्षिक पत्रिका के सम्पादक शेरा बाबू आर्थिक संकट से त्रस्त है जिसके चिड़चिड़ाहट व कोपभाजन का शिकार परिवार होता है। मन्नू जी ने शेरा बाबू के चिड़चिड़ाहट भरे भाव को व्यापक सन्दर्भों में व्यक्त किया है। यथा—“लानत है स्याले इन सम्पादकों पर । दोगले और बे-पेंदी के। अच्छा है बेटा, तुम यही करो। जो शक्ति स्थान पर बैठा है, उसके चरण चापो और अपनी सात पुश्तों को तार लेने का सिलसिला बिठा लो । अरे कम से कम कुछ करके चरण थकने तो देते इनके फिर चरण चांपते । पर इतना सबर किसको ? लेखक, सम्पादक, अध्यापक सब के सब चले जा रहे लाइन लगाकर। जय कुर्सी मैया । यह तो शेरा बाबू ही स्याला उल्लू का पट्ठा है, जो सिद्धान्तों की दुम पकड़े-पकड़े सबका लतियाव सहता रहता है। एक दिन ऐसे ही दफा हो जायेगा....कोई दो आँसू बहाने भी नहीं आयेगा।'''' 

9. स्त्री सुबोधिनी- आधुनिक परिवेश में प्रगतिशील मूल्य के नकाबपोशी के छल से मार खाई एक ऐसी स्त्री की आत्मपरक गाथा है जो अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व खो चुकी है। अगर कुछ शेष है तो त्रासदी की पीड़ा से उपजा अन्तर्द्वन्द्व जो उसे स्त्री जागरण की निर्णायक भूमिका के लिए तैयार करता है।

10. त्रिशंकु - यह आधुनिक जीवन मूल्यों की तरफदारी का दंभ भरने वाले एक ऐसे माता-पिता के दोहरे नकाब के उद्दघाटन की कहानी है जो जवान होती बच्ची को तमाम रूढ़ियों को तोड़ते हुए हमउम्र विजातीय लिंगों से मिलने का स्वतंत्र आकाश देते हैं और अपने सामाजिक दायरे में इस प्रगतिशीलता का श्रेय भी लेते है। लेकिन बच्ची को परम्परागत वर्जनाओं की सीमा लाघने का अंदेशा मात्र प्रगतिशीलता की कलई खोल देता है । पुनः बच्ची पर परम्परागत अंकुश लगाने की कोशिश शुरू होती है। इन दो विरोधी ध्रुवों के बीच नायिका त्रिशंकु के द्वन्द्व में फंसे बिना नही रहती । अन्ततः पुरानी वर्जनाओं और नई सम्भावनाओं के संघर्ष में एक मुक्तिकामी नारी के स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश की ओर अग्रसर होती है।

(vi) आँखों देखा झूठ (बाल कहानी संग्रह) - 

यह मन्नू जी का बालोपयोगी कहानी संग्रह है। इस संग्रह में पंचतंत्र, राजा-रानी, कंजूस, धूर्त तंत्रमंत्र की हकीकत आदि के आधार पर बच्चों को नैतिकता, साहस, आदर्श आदि की सुशिक्षा प्रदान की गई है। इस संग्रह में आठ कहानियाँ संग्रहित हैं जो निम्न है— 1. आँखों देखा झूठ 2. दुर्भाग्य की हार 5. संकट की सूझ 6. आवाजें 3. वशीकरण 4. बढ़ता हुआ यश 7.नहले पे देहला 8. हिम्मती सुमेरा ।

मन्नू भंडारी के उपन्यास

महाभोज और आपका बंटी ।

मन्नू भंडारी की भाषा शैली

आपकी भाषा सब जगह सरलता, सहजता और बोलचाल का गुण लिए हुए है। वाक्य छोटे और तद्भव और देशज शब्दावली के साथ-साथ बोलचाल की अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का प्रयोग हुआ है।

मन्नू भंडारी का साहित्य मेंं स्थान

अपनी सहज सरल शैली के कारण मन्नू भंडारी का स्थान नए कहानीकारों में विशिष्ट है।

सन्दर्भ :
1. साहित्य का परिवेश— सं0 अज्ञेय, पृ0 6 कुछ विचार - प्रेमचन्द, पृ0 20
2.कथाकार- मन्नू भण्डारी - डॉ० अनीता राजूरकर, पृ0 4
3. कथाकार- मन्नू भण्डारी - डॉ० अनीता राजूरकर, पृ0 4 एक कहानी यह भी— मन्नू भण्डारी, पृ0 18–19
4. एक कहानी यह भी—- मन्नू भण्डारी, पृ0 102
19. मन्नू भण्डारी : कथा सृजन की अंतर्यात्रा - प्रा० किशोर गिरडकर, पृ0 20
20. श्मशान– सम्पूर्ण कहानियाँ- मन्नू भण्डारी, पृ0 28
21. हिन्दी कहानी का इतिहास (भाग-2) - गोपाल राय, पृ0 130

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