राज्य के नीति निदेशक तत्व का वर्णन

 
राज्य के नीति निर्देशक तत्व

हमारे संविधान की एक प्रमुख विशेषता नीति निदेशक तत्व है। विश्व के अन्य देशों के संविधान में आयरलैंड के संविधान को छोड़कर अन्य किसी देष के संविधान में इस प्रकार के तत्व नहीं है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य के संगठन की व्यवस्था एवं अधिकार पत्र का वर्णन ही नहीं किया है, वरन् वह दिषा भी निश्चित की है जिसकी और बढ़ने का प्रयत्न भविष्य में भारत राज्य को करना है। संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का, और इसलिये उन्होंने नीति निदेशक तत्व में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो सकती है। 

नीति निर्देशक सिद्धांतों की उत्पत्ति कराची प्रस्ताव के बाद हुई थी और 1920 में भारत में सामाजिक एवं राष्ट्रीय विचारों के प्रादुर्भाव के कारण हुई थी। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। ये प्रावधान लोगों के सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के लिये महत्वपूर्ण थे।

नीति निदेशक तत्व 

संविधान की धारा 38 से 51 तक में राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन तत्वों को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है- 

1. आर्थिक सुरक्षा निदेशक तत्व

भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था और इस दृष्टि से अधिकांश निदेशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के संबंध में व्यवस्था की गई है। संविधान में इस प्रकार के निम्न तत्वों का उल्लेख है- 
  1. राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा। 
  2. राज्य दष्े ा के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हित हो सके। 
  3. राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हितों किसी प्रकार की हानि हो। 
  4. राज्य प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा ।
  5. राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग नहीं होने दगे ा । 
  6. मूल संविधान में कहा गया था कि राज्य बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा करेगा। 42वंे संविधान संशोधन द्वारा उसे इस प्रकार संशोधित किया गया हैः राज्य के द्वारा बच्चों को स्वस्थ रूप में विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्रदान की जायेगी, उन्हें स्वतंत्रता और सम्मान की स्थिति प्राप्त होगी, बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा की जायेगी।
  7. राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सके, शिक्षा पा सके एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीनता आदि दर्शाओ में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें।
  8. राज्य ऐसा प्रयत्न करेगा कि व्यक्तियों को अपनी अनुकूल अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथा स्त्रियों को प्रसूतावास्था में कार्य न करना पड़े । 
  9. राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कृषि और उद्योग में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन निर्वाह के लिए यथोचित वेतन मिल सके, उनका जीवन स्तर ऊपर उठ सके, वे अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके। 
  10. राज्य का कर्तव्य होगा कि गांवों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दे। 
  11. वैज्ञानिक आधार पर कृषि का संचालन करना ही राज्य का कर्तव्य होगा। 
  12. राज्य पशु पालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा और गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का प्रयत्न करेगा। 
  13. नवीन अनुच्छेद 391 के अनुसार राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा न्याय की प्राप्ति में सहायक हो और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गो के लिए निःषुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति या अन्य किसी प्रकार से व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रह सके। 
  14. राज्य उचित व्यवस्थापन या अन्य प्रकार से औद्योगिक संस्थानों के प्रबंध में कर्मचारियों को भागीदार बनाने के लिए कदम उठायेगा । 44वें संविधान संशोधन (अप्रैल 1979) द्वारा आर्थिक सुरक्षा संबंधी निदेशक तत्वों में एक और तत्व जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल व्यक्तियों की आय और उनके सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों संबंधी भेदभाव को कम से कम करने का प्रयत्न करेगा वरन् विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों संबंधी भेदभाव को भी कम से कम करने का प्रयत्न करेगा। 

2. सामाजिक हित संबंधी निदेशक

इस संबंध में राज्य के निम्नलिखित कर्तव्य निश्चित किये गये हैं-
  1. राज्य लोगों के जीवन स्तर को सुधारने और स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयत्न करेगा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए औषधि में प्रयोग किये जाने के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक, द्रव्यों तथा अन्य पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध लगायेगा। 
  2. राज्य जनता के दुर्बल अंगों के विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनु जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा। 

3. न्याय, शिक्षा और प्रजातंत्र संबंधी निदेशक तत्व

भारत में सुगम और सुलभ न्याय व्यवस्था, शिक्षा के प्रसार और प्रचार तथा प्रजातंत्र की भावना के विकास के लिए भी कुछ निदेशक तत्वों का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है- 
  1. न्याय की प्राप्ति हेतु राज्य सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनायेगा और अपनी सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का प्रयत्न करेगा। 
  2. शिक्षा के संबंध में यह प्रस्तावित किया गया है कि विधान के लागू होने के 10 वर्ष के समय में राज्य 14 वर्ष के बालकों के लिए निःषुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा। 
  3. प्रजातंत्र की भावना के विकास के लिए निदेशक तत्वों में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन की ओर कदम उठायेगा और इन्हें इतने अधिकार प्रदान किये जायेंगे कि वे स्वायत्ता शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सके। 

4. प्राचीन स्मारकों की रक्षा संबंधी निदेशक तत्व

इन तत्वों द्वारा प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व के स्थानों और राष्ट्रीय महत्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को सौंपा गया है। राज्य का कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह प्रत्येक स्मारक, कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्थानों को जिससे संसद ने राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर दिया हो रक्षा करने का प्रयत्न करेगा। 42वें संवैधानिक संशोधन में कहा गया है कि राज्य देष के पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद-48 अ) 

5. अन्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा संबंधी तत्व

हमारे देष का आदर्ष सदैव ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का रहा है और हमने सदैव ही शांति तथा ष्जीओ और जीने दोष् के सिद्धांत को अपनाया है। इसी आदर्श को हमारे संविधान के अंतिम निदेषक तत्व में इस प्रकार बताया हैः राज्य अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र में निम्नलिखित आदर्शों को लेकर चलने पर प्रयत्न करेगा 
  1. अन्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा में वृद्धि। 
  2. राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मानपूर्ण संबंध स्थापित करना । 
  3. राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अन्तराष्ट्रीय कानून और संधियों के प्रति आदर का भाव बढ़ाना। 
  4. अन्तराष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना ।
 निदेषक तत्वों के इस वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि इन तत्वों के आधार पर भारत में वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना हो सकेगी और हमारा देष एक ऐसा लोक कल्याणकारी राज्य बन सकेगा जिसमें प्रत्यके व्यक्ति को स्वतंत्रता, समता तथा सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके। 

राज्य के नीति निदेशक तत्वः- 
  1. अनुच्छेद 38- राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनायेगा । 
  2. अनुच्छेद 39(क)-समान न्याय और निःषुल्क विधिक सहायता। 
  3. अनुच्छेद 40-ग्राम पंचायतों का संगठन। 
  4. अनुच्छेद 41-कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार। 
  5. अनुच्छेद 42-काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध । 
  6. अनुच्छेद 43-कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि । 
  7. अनुच्छेद 43 (क)-उद्योगों के प्रबंध में श्रमिकों का भाग लेना । 
  8. अनुच्छेद 44-नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता। 
  9. अनुच्छेद 45-बालकों के लिए निःषुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध । 
  10. अनुच्छेद 46-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि। 
  11. अनुच्छेद 47-पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य । 
  12. अनुच्छेद 48-कृषि और पशुपालन का संगठन । 
  13. अनुच्छेद 48 (क)-पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन एवं वन्य जीवों की रक्षा । 
  14. अनुच्छेद 49-राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण। 
  15. अनुच्छेद 50-कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण । 
  16. अनुच्छेद 51-अन्र्तराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।

राज्य के नीति निर्देशक तत्व के उद्देश्य 

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक अवस्था का निर्माण करना है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार - ‘‘राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का पालन करके भारत की भूमि को स्वर्ग बनाया जा सकता है।’’  एम. सी. छागला के अनुसार - भारतीय संविधान का लक्ष्य न केवल राजनीतिक प्रजातन्त की स्थापना है, अपितु जनता को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान कर कल्याण कारी राज्य स्थापित करना भी है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हमारा संविधान भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक वांछित नीति निर्देशों का वर्णन करता है। ये प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के रूप में जाने जाते हैं।

राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत केन्द्रीय एवं राज्य की सरकारों को दिए गए निर्देश हैं। ये देश के प्रशासन में मूल भूमिका निभाते हैं। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। आर्थिक न्याय की स्थापना एवं कुछ लोगों के हाथों में धन के संचय को रोकने के लिए इन्हें संविधान में शामिल किया गया है। इसलिए को सरकार इसकी अवहेलना नहीं कर सकती। दरअसल ये निर्देश भावी सरकारों को इस बात को ध्यान में रख कर दिए गए हैं कि विभिन्न निर्णयों एवं नीति-निर्धारण में इसका समावेश हो। 

‘‘राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। जिसमें न्याय स्वतंत्रता व समानता प्रदान की जाती है। एवं लोग प्रसन्न एवं समृद्धिशाली होते हैं।’’

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की आलोचना

आलोचकों ने राज्य की नीति-निर्देशक सिद्धांतों को बेहतर नहीं माना है। इन उच्च आदर्शों को संविधान में शामिल करने के औचित्य पर भी सवाल उठाया गया है। माना जाता है कि ये निर्देश मात्र शुभकामनाएं हैं जिनके पीछे को कानूनी मान्यता नहीं है। सरकार इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं है। आलोचकों का मानना है कि इन सिद्धांतों को व्यवहारिक धरातल पर नहीं उतारा जा सकता है। 

इन सबके बावजूद ये नहीं कहा जा सकता है कि ये सिद्धांत पूणरूपेण अर्थहीन हैं। इसकी अपनी उपयोगिता और महत्व है। नीति-निर्देशक सिद्धांत धु्रवतारा की तरह है जो हमें दिशा दिखलाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य सीमित संसाधनों के बावजूद जीवन के हर पहलू में यथाशीध्र सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक न्याय की स्थापना करना है। 

कुछ सिद्धांतों को तो सफलतापूर्वक लागू भी किया गया है। वास्तव में को भी सरकार इन निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकती है क्योंकि वे जनमत का दर्पण हैं, साथ ही ये संविधान की प्रस्तावना की भी आत्मा है। इन्हें लागू करने की दिशा में उठाए गए कुछ कदम इस प्रकार है- 
  1. भूमि सुधार लागू किये गये हैं तथा जागीदारी एवं जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है। 
  2. बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हुआ है एवं हरित क्रांति द्वारा कृषि उत्पादन में काफी बढ़ोतरी हु है।
  3. महिलाओं के कल्याण के लिए राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गयी है। 
  4. व्यक्ति की भूसंपत्ति की सीमा तय करने के लिए भू-हदबंदी लागू की गयी है। 
  5. रजवाड़ों को दिए जाने वाले प्रिवी पर्स का उन्मूलन किया गया है। 
  6. जीवन बीमा, साधारण बीमा एवं अधिकांश बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। 
  7. आर्थिक विषमता कम करने के लिए संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से िनकल दिया गया है। 
  8. निर्धनों की सहायता के लिए सरकार द्वारा जन-वितरण प्रणाली के माध्यम से सहायता दी जाती है। 
  9. स्त्री और पुरूष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन के लिए नियम बनाये गये हैं। 
  10. छुआछूत का उन्मूलन किया गया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वगोर्ं के उत्थान के लिए कारगर प्रयास किए गये हैं। 
  11. 73वें और 74वें संविधान संशोधन (1991एवं 1992क्रमश:) के द्वारा पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देते हुए और अधिक सशक्त बनाया गया है। 
  12. ग्रामीण क्षेत्र में समृद्धि लाने के लिए लघु उद्योग एवं ग्रामीण उद्योग तथा खादी ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित किया गया है। 
  13. भारत अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए संक्रिय रूप से संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करता है। 
केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लिए गए उपरोक्त कदम यह दर्शाते हैं कि भारत में एक पक्षनिरपेक्ष समाजवादी एवं लोककल्याणकारी राज्य की नीव डालने के लिए क नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू किया गया है। यह सच है कि सभी नीति-निर्देशक सिद्धांतों को पूर्णतया लागू करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू किये जाने के रास्ते में को बाधाएं हैं। इनमें से मुख्य है:- 
  1. राज्यों में राजनीतिक इच्छा शक्ति का आभाव, 
  2. लागों में जागरूकता एवं सगठन का आभाव, 
  3. सीमित संसाधन।

मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अंतर

मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अंतर
मौलिक अधिकारनीति-निदेशक तत्व
1. मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है, यदि नागरिक के किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो वह न्यायालय की शरण ले सकता है।इस प्रकार मौलिक अधिकारों को न्यायालय नीति निदेशक तत्वद्वारा लागू कराया जा सकाता है।1. नीति-निदेशक तत्वों को लागू करवाने के लिए न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती और न ही न्यायपालिका सरकार को उन्हें लागू करने के आदेश दे सकती है।

2. मौलिक अधिकारों की प्रकृति नकारात्मक है ये राज्य के अधिकारों पर प्रतिबध लगाते हैं, अनुच्छेद 13 में कहा है कि राज्य ऐसा को कानून नहीं बनायेगा जो मौलिक अधिकारों द्वारा दिये गये अधिकारों को छीनता है। 2. नीति निदेशक सिद्धांतों की प्रकृति को सकारात्मक कहा गया है, जो राज्य को कुछ करने के आदेश व निर्देश देते है।

3. मौलिक अधिकारों का विषय व्यक्ति है, अर्थात् मौलिक अधिकार व्यक्तियों को प्राप्त है, इन्हें प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका में भी अपील की जा सकती है।3. नीति-निर्देशक सिद्धांतों का विषय राज्य है अर्थात् ये राज्य के लिए निर्देश है न किसी व्यक्ति के लिये। 
4. मौलिक अधिकारों का क्षेत्र राज्य में निवास करने वाले नागरिकों तक ही सीमित है। 4. नीति-निर्देशक सिद्धांतों का क्षेत्र मौलिक अधिकारों से व्यापक है। नीति-निदेशक सिद्धांतों का क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय है। 
5. मौलिक अधिकारों को सीमित अथवा स्थगित किया जा सकता है।5. नीति-निदेशक सिद्धांतों को कभी-कभी किसी अवस्था में सीमित नहीं किया जा सकता है।
6. मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तिगत व्यक्तित्व का विकास करने के अधिकार है।6. नीति-निदेशक सिद्धांत समाज के विकास पर बल देते है।
 7. मौलिक अधिकार मुख्यत: विभिन्न स्वतंत्रताओं पर बल देते है। 7. नीति-निदेशक तत्व समाजिक व आर्थिक अधिकारों पर बल देता है। 
8. मौलिक अधिकारों की सरकार द्वारा अवहेलना की जा सकती है।



8. नीति-निदेशक सिद्धांत मूलत: जनमत पर आधारित होने के कारण को भी सरकार इनकी अवहेलना नहीं करती है। अन्यथा आगामी निर्वाचन में जनता का विश्वास खोने का भय बना रहता है।
9. मौलिक अधिकारों का कानूनी महत्व है।9. निर्देशक सिद्धांत नैतिक आदेश माना है। 

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