रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय, भाव पक्ष और कला पक्ष


रामधारी सिंह दिनकर प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति थे। रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार प्रान्त में सिमरिया नामक ग्राम में 30 सितम्बर 1908 ई. मे हुआ था। रामधारी सिंह दिनकर के पिता श्री रवि सिंह साधारण स्थिति से किसान थे। वे इतने सरल एवं साधु प्रवृति के व्यक्ति थे कि उनकी उदारता और सरलता की कहानियाँ सिमरिया में आज तक बड़े उत्साह से सुनाई जाती हैं। इनकी माता मनरूप देवी के वे द्वितीय पुत्र थे। 

रामधारी सिंह दिनकर जब एक वर्ष के थे तभी पिता का स्वर्गवास हो गया। आर्थिक विषमताओं के बीच क्षमतामयी माँ ने अपने लाल का लालन-पालन किया। यही कारण है कि कवि की समस्त आस्था माँ के व्यक्तित्व में केन्द्रीभूत हो गई। माँ की कल्पना उनके मानस में इतनी विराट होती गई जिसने जन्म-भूमि और भारत-माता का स्वरूप ग्रहण कर लिया। 

रामधारी सिंह दिनकर कुल तीन भाई थे। इनके बड़े भाई का नाम बसंत सिंह और छोटे भाई का नाम सत्यनारायण सिंह है। 

उनका विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था। पिता की मृत्यु के बाद इन तीनों बच्चों का पालन-पोषण इनकी माँ मनसा देवी ने किया। बड़े ही धैर्य के साथ इनकी माँ ने अपने पति के सारे कर्तव्यों का निश्ठापवूर्क पालन किया। 

अपनी करूणामयी जननी का गुणगान स्वयं रामधारी सिंह दिनकर करते हुए कहते हैं ‘‘माँ तो मूिर्तमयी करूणा है। उन्होंने हम लोगों के लिए अपने को होम कर दिया। मुझे एसेी घटना काईे याद नहीं, जिसमें मुझे लग ेकि मुझे काईे बड़ा अभाव देखना पड़ा था।’’ 

रामधारी सिंह दिनकर की शिक्षा 

रामधारी सिंह दिनकर की प्राथमिक शिक्षा गाँव में हुई। इसके बाद असहयोग आन्दालेन छिड़ जाने के बाद गाँव से तीन-चार मील दूर बारो नामक गाँव से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। यहाँ दिनकर हिन्दी के साथ उर्दू भी मुसलमान छात्रों के साथ पढ़ते थे, जिसका प्रभाव उनके चरित्र पर पड़ा। साम्प्रदायिक एकता, राष्ट्रीयता, जातीय सद्भावना, उत्साह और कर्मठता के गुण कवि को यहीं से प्राप्त हुए। बारो गाँव का मार्ग बहुत कठिन था, पूरा दिन वहाँ स्कूल में रहना भी असंभव था। इसका वर्णन स्वयं दिनकर अपने शब्दों में इस प्रकार करते हैं - ‘‘मेरा गाँव गंगा के उत्तरी तट पर बसा हुआ है और जिस माध्यमिक स्कूल में पढ़ता था, वह ‘माकेामघाट’ स्कूल गंगा के दक्षिणी तट पर अवस्थित है। स्कूल में हाजिर होने के लिए मुझे रोज गाँव से चलकर घाट तक आना पड़ता था और पसेजंर या माल जहाज से गंगा पार करना पड़ता था। मेरे गाँव से जहाज घाट बरसात के दिनों में दो मील की दूरी पर होता था लेकिन बाकी मौसम में वह चार से पाँच मील तक दूर हट जाता था। दिक्कत यह भी थी कि जिस जहाज से हमें गाँव लौटना पड़ता था, वह जहाज ढाई बजे दिन में माकेाम-घाट से खल जाता था, लिहाजा जिन लड़कों को गंगा घाट पर जाना होता, वे टिफिन के बाद स्कूल में नहीं रह पाते थे।’’ 

स्वयं दिनकर ने अध्यापकों की कमजोरी को दर्शाते हुए अपने शब्दों में लिखा है - ‘‘शिक्षक सभी अप्रशिक्षित थे। पढ़ाई का यह हाल था कि जिस साल मैंने मैट्रिक पास किया, उस साल केवल मैं ही पास हुआ बाकी मेरे साथी फले हो गए।’’ कवि को बचपन से ही कविता के प्रति रुचि थी जो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। 

श्री गापेालकृश्ण जी के वार्तालाप से प्रस्तुत उनके शब्दों में करें तो ‘‘मैं न तो सुख में जन्मा था, न सुख में पल कर बड़ा हूँ। किन्तु, मुझे साहित्य में काम करना है यह विश्वास मरे भीतर छुटपन से ही पैदा हो गया था इसलिए ग्रेज्युएट होकर जब मैं परिवार के लिए राटेी अर्जित करने में लग गया था तब भी, साहित्य की साधना मेरी चलती रही।’’

रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

काव्य-रेणुका, हुँकार, रसवन्ती, कलिंग विजय, बापू, नीम के पत्ते, कुरूक्षेत्र, नील कुसुम, उर्वशी ।

गद्य-मिट्टी की ओर, अर्द्ध-नारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय।

रामधारी सिंह दिनकर का भाव पक्ष

रामधारी सिंह दिनकर जी राष्ट्रीय भावनाओं के कवि हैं। इन्होंने देश की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थतियों पर लेखनी चला। इनके विद्रोही स्वर ललकार व चुनौती के रूप में प्रस्फूटित होकर देश पर बलिदान होने की पे्ररणा देते हैं। इन्होंने समाज की अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक असमानता के प्रति रोष प्रकट किया जो प्रगतिवादी रचनाएँ कहलायीं। इन्होंने शोषण, उत्पीड़न, वर्ग विषमता की निर्भीकता से निंदा की ।

‘‘छात्रि ! जाग उठ आडम्बर में आग लगा दे।
पतन ! पाप, पाखंड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।’’ 

इनके काव्य में राष्ट्र प्रेम, विश्व प्रेम, प्रगतिवाद, भारतीय सभ्यता संस्कृति से प्रेम, युद्ध शांति, आधुनिक काल का पतन, किसान मजदूर की दयनीय दशा, उच्चवर्ग की शोषण नीति तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के सभी विषयों का सजीव चित्रण है और समता, समानता के स्वप्न हैं। उन्होंने देशप्रेम से प्रेमोन्मत होकर कहा है- ‘‘ले अंगडा, हिल उठे धरा, कर निज विराट स्वर में निनाद। तू शैल राट। हुँकार भरे। फट जाये कुहा, भागे प्रमाद।’’

रामधारी सिंह दिनकर का कला पक्ष

रामधारी सिंह दिनकर जी राष्ट्रीय कवि हैं, जो अतीत के सुख स्वप्नों को देखकर उनसे उत्साह व प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वर्तमान पर तरस व उनके प्रति विद्रोह की भावना जाग्रत करते हैं। इसलिये उन्हें क्रान्तिकारी उपादानों से अलंकृत किया है। भाषा-भाषा शुद्ध संस्कृत, तत्सम, खड़ी बोली सम्मिलित है। शैली ओज एवं प्रसाद गुण युक्त है। नवीन प्रयोगों द्वारा व्यंजना शक्ति भी बढ़ा । 

छंद-रचनाओं में मुक्तक एवं प्रबन्ध दोनों प्रकार की शैलियों का योग है। अलंकार-काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य में स्थान

अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण ‘रामधारी सिंह दिनकर जी’ अत्यन्त लोकप्रिय हुए। उन्हें भारतीय संस्कृति एवं इतिहास से अधिक लगाव था। राष्ट्रीय धरातल पर स्वतन्त्रता की भावना का स्फुरण करने वाले कवियों में ‘रामधारी सिंह दिनकर जी’ का अपना विशिष्ट स्थान है।

रामधारी सिंह दिनकर का केन्द्रीय भाव

कवि ने ‘परशुराम का उपदेश’ कविता द्वारा देशवासियों में ओज और वीरता का भाव भरा है। अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठाना मानव का धर्म है। अत्याचार और अन्याय सहना कायरों का काम है। मानव को प्रकृति से अनेक नैसर्गिक शक्तियाँ प्राप्त हुईं है, जिनकी पहचान हो जाने पर उसकी भुजाओं में अत्यधिक बल आ जाता है कि एक-एक वीर सैकड़ों को परास्त कर पाता है। अब समय आ गया है कि प्रत्येक भारतवासी अपनी शक्ति को पहचाने और एक जुट होकर शत्रु पर टूट पड़े। इसलिए कवि देशवासियों से कहता है-’बाहों की विभा सँभालो।’ कविता में स्थान-स्थान पर अलंकारों, लाक्षणिक प्रयोगों और प्रतीकों के प्रयोग से कवि ने काव्य सौंदर्य को बखूबी उभारा है।

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