अधिकार क्या है ? अधिकारों से जुड़े मुख्य सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन

अधिकार

अधिकार दावे हैं, सामाजिक दावे व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक होते हैं। अधिकार मात्र उसी के हक नहीं हैं जो इन्हें अपने पास रखता है। प्राचीन और मध्य काल में कुछ लोग विशेषाधिकार प्राप्त थे। लेकिन इन विशेषाधिकारों को अधिकार का नाम नहीं दिया जा सकता। अधिकार, विशेषाधिकार नहीं होते क्योंकि ये पात्रता पर आधारित नहीं हैं। अधिकार और विशेषाधिकार में अंतर होता है; अधिकार वे दावे होते हैं जो वैसे ही हमें दूसरों पर मिलते हैं, जैसे दूसरों को हम पर; जबकि विशेषाधिकार हमें दूसरों को नकार कर मिलते हैं। अधिकार इस सन्दर्भ में सार्वभौमिक हैं कि ये सभी को सुनिश्चित किये जाते हैं, जबकि विशेषाधिकार सार्वभौमिक नहीं होते हैं और कुछ निश्चित लोगों को ही दिए जाते हैं।

अधिकार व्यक्ति को हक के रूप में प्राप्त होते हैं; जबकि विशेषाधिकार संरक्षण के रूप में प्राप्त होते हैं। अधिकारों की उत्पत्ति एक लोकतान्त्रिक समाज में होती है; जबकि विशेषाधिकार अलोकतांत्रिक समाज के लक्षण हैं। जैफरसन ने उद्घोषणा की थी कि व्यक्ति अपने निर्माता द्वारा कुछ अनुलंघनीय अधिकारों से प्रदत्त है और यह दर्शाता है कि अधिकार प्राकृतिक होते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य के पास अधिकार हैं क्योंकि वह प्राकृतिक तौर पर मनुष्य है। ऐसे व्यक्ति को अधिकार है अथवा होना चाहिए इस सन्दर्भ में तथ्यात्मक रूप से कोई विवाद नहीं है। लेकिन यह तथ्य इससे अधिक या कम कुछ भी नहीं कहता। इस तथ्य में कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। 

होलान्द परिभाषित करते हैं कि समाज के ताकत से दूसरे के कार्यों को प्रभावित करने की एक व्यक्ति की क्षमता अधिकार कहलाती है। उनकी परिभाषा अधिकार को मनुष्य की गतिविधि के रूप में परिभाषित करती है जिसे समाज ने प्रदान किया है, इसका आशय यह है कि होलान्द अधिकार को सिर्फ सामाजिक दावे के रूप में परिभाषित करते हैं। जबकि अधिकारों के अन्य पक्ष भी हैं, अधिकारों की किसी एक परिभाषा में उसे उचित स्थान नहीं प्राप्त हो पाता। 

वाइल्ड ने अधिकारों की अपनी परिभाषा में कहा है कि अधिकार सामाजिक दावों के पक्ष को अनौपचारिक उपचार प्रदान करते हैं; जब वे कहते हैं कि, “अधिकार, कुछ निश्चित गतिविधियों को करने के लिए आजादी हेतु औचित्यपूर्ण दावे हैं।” 

बोसांके और लास्की, अधिकारों की अपनी परिभाषा में समाज, राज्य और व्यक्ति के व्यक्तित्व का स्थान निर्धारण करते हैं, लेकिन वे भी अधिकारों के अंग के रूप में दायित्व के महत्वपूर्ण पक्ष को नजर अंदाज कर देते हैं। 

बोसांके कहता अधिकार है, “अधिकार एक दावा है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” 

लास्की के अनुसार, “अधिकार, सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियां हैं जिनके बिना व्यक्ति सामान्य तौर पर अपने बेहतर स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता।”

अधिकार की परिभाषा 

अधिकार की परिभाषा कह सकते हैं उनमें से कुछ अधिकार की परिभाषा हैं :-

1. कूण्टज एवं आडेनेल के अनुसार - अधिकार से तात्पर्य वैधानिक या स्वत्वाधिकार सम्बन्धी शक्ति से होता है।

2. हेनरी फयोल के अनुसार, ‘‘अधिकार हस्त आदेश देने का अधिकारन है और उसके पालन करवाने की शक्ति है।’’

3. डेविस के अनुसार, ‘‘अधिकार सत्ता निणर्य लेने एव आदेश देने का अधिकार है।’’

4. टरेरी के अनुसार, ‘‘किसी कार्य को करने , आदेश देने या दूसरों से काम लेने की शक्ति या अधिकार है।’’

5. एलेन के अनुसार, ‘‘भारापिर्त कार्यों के निष्पादन को संभव बनाने के लिए सौंपी गर्इ शक्तियों को अधिकार के नाम से सम्बोधित किया जाता है।’’

अधिकार के सिद्धांत

उत्पत्ति, अर्थ और प्रकृति की व्याख्या के सन्दर्भ में अधिकारों के अनेकों सिद्धांत हैं । प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत अधिकारों को मनुष्य की प्रकृति में निहित मानता है; विधिक अधिकारों का सिद्धांत अधिकारों की पहचान विधि रूप में करता है; अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत अधिकारों की उत्पत्ति रीतियों और परम्पराओं से मानते हैं। सामाजिक कल्याण सिद्धांत के अनुसार अधिकारों का प्रयोग व्यक्ति और समाज दोनों के हित में किया जाता हैं।

1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत

प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन मुख्य रूप से थॉमस हॉब्स (लेवियाथन 1651), जॉन लॉक (टू ट्रिटीज ऑन गवर्नमेंट 1690) और जे. जे. रूसो (द सोशल कॉन्ट्रैक्ट 1762) ने किया। इन समझौतावादियों ने सामाजिक समझौता सिद्धांत के प्रतिपादन के दौरान यह विचार दिया कि प्राकृतिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के पास प्राकृतिक अधिकार थे और ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को इंसान होने की वजह से दिए गये थे। इसलिए समझौतावादियों ने यह घोषित किया कि ये अधिकार अविच्छेद्य, अगोचर और अपरिहार्य हैं। प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत की विभिन्न आधारों पर आलोचना की जाती है। 

अधिकार केवल इस आधार पर प्राकृतिक नहीं हो सकते कि वे प्राकृतिक अवस्था में व्यक्तियों को प्राप्त थे। समाज की उत्पत्ति के पर्वू वे कभी भी अधिकार नहीं हो सकते। समाजपूर्व अवस्था में अधिकारों कि उपस्थिति की अवधारणा अपने आप में विरोधाभाषी है। यदि प्राकृतिक अवस्था में कुछ भी उपस्थित था तो वह था शारीरिक बल, न कि अधिकार। 

कुछ प्राधिकारियों के द्वारा अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें पूर्वानुमानित कर लिया गया है। प्राकृतिक अवस्था में राज्य उपस्थित नहीं था और राज्य की अनुपस्थिति में कैसे कोई व्यक्ति अधिकारों की उपस्थिति की कल्पना कर सकता था। आखिर प्राकृतिक अवस्था में लोगों के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा ? समझौतावादियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। यह अवधारणा कि प्राकृतिक अवस्था में  अधिकारों की उपस्थिति थी, अधिकारों को समाज के नियंत्रण से बाहर अधिकार और निरपेक्ष बना देती है।

बेन्थम के अनुसार, प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत ‘शब्दाडम्बरपूर्ण बकवास’ हैं। लास्की ने भी प्राकृतिक अधिकारों के सम्पूर्ण विचार को अस्वीकार कर दिया है। प्राकृतिक अधिकार के रूप में अधिकारों की अवधारणा झूठी मान्यताओं पर आधारित है। बर्क ने अधिक अर्थपूर्ण बात की ओर इशारा किया है कि हम एक ही समय में अधिकारों के नागरिक और गैरनागरिक स्वरूप का लाभ नहीं  ले सकते हैं। तात्विक रूप में प्राकृतिक अधिकार जितने उत्तम हैं, अभ्यास के रूप में इन्हें पहचानना उतना ही कठिन है। अधिकार इस अर्थ में प्राकृतिक हैं कि वे एक ऐसी परिस्थिति हैं जिनमें व्यक्ति को स्वयं को अहसास करने की आवश्यकता होती है। 

लास्की के द्वारा अधिकारों के महत्व की अनुभूति का पता तब चलता है जब वह कहता है कि ‘अधिकार इस अर्थ में प्राकृतिक नहीं हैं कि उन्हें स्थायी और अपरिवर्तनीय सूची में संकलित किया जा सकता है, बल्कि वे इस अर्थ में प्राकृतिक हैं कि नागरिक जीवन की सीमितताओं में तथ्य अपनी मान्यता की मांग करते हैं।

2. विधिक अधिकारों का सिद्धांत

विधिक अधिकारों का सिद्धांत और अधिकारों का विधिक सिद्धांत दोनों का अर्थ एक ही है। अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धांत जो कि अधिकारों को राज्य की उत्पत्ति के रूप में मानता है, कम या अधिक रूप में विधिक अधिकारों के दूसरे रूप में माना जा सकता है। इन सिद्धांतों के समर्थकों में लास्की, बेन्थम, हीगल और ऑस्टिन का नाम लिया जा सकता है। इस सिद्धांत के महत्वपूर्ण लक्षण निम्न हैंः
  1. राज्य अधिकार को परिभाषित करता है और अधिकारों पर बिल लेकर आता है। अधिकार न तो राज्य से पूर्व आते हैं और न ही पूर्वकालिक हैं। क्योंकि कि राज्य ही अधिकारों का स्रोत है।
  2. राज्य ही अधिकारों के कानूनी स्वरूप का निर्धारण करता है, अधिकारों की गारंटी देता है और राज्य ही अधिकारों के उपभोग को लागू करता है।
  3. कानून ही अधिकारों का निर्माण करते हैं और उन्हें बनाये रखते हैं, इसलिए जब कानून की सामग्री में परिवर्तन होता है तो अधिकारों के तत्व भी बदल जाते हैं।
हेरोल्ड लास्की (1893.1950, अंग्रेज लेबर पार्टी और एक राजनीतिक सिद्धान्तकार) के पास अधिकारों की व्यवस्था को लेकर एक निर्धारित दृष्टिकोण है जिसकी व्याख्या उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ (प्रथम प्रकाशन 1925 में आया और उसके बाद उसका परिशोधित संस्करण हर वर्ष में दो बार आती रही) में प्रस्तुत है। अधिकारों की प्रकृति के सन्दर्भ में लास्की के विचार हैं
  1. अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियां हैं जो एक व्यक्ति को समाज के सदस्य के रूप में प्रदान की जाती हैं।
  2. वे व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहयोगी होते हैं। या फिर कहा जा सकता है कि वे सामाजिक परिस्थितियां जिनके बिना कोई भी व्यक्ति अपने सर्वोत्तम स्वरूप को नहीं पा सकता।
  3. वे सामाजिक इसलिए हैं कि वे कभी सामाजिक कल्याण के विरुद्ध नहीं हो सकतीं। समाज की उत्पत्ति के पूर्व इनका कोई अस्तित्व नहीं था।
  4. राज्य इन्हें बनाये रखते हुए, इन्हें पहचान देता है और इनकी रक्षा करता है।
  5. अधिकार कभी निरपेक्ष नहीं होते। निरपेक्ष अधिकार विरोधाभाषी शब्द हैं। अवधारणाएँ 
  6. ये प्रकृति से परिवर्तनशील हैं, अतः समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप उनमें परिवर्तन होता रहता है।
  7. ये कर्तव्यों के सहगामी हैं; असल में कर्तव्य अधिकारों से पूर्व आते हैं; अधिकारों के प्रयोग का तात्पर्य है, कर्तव्यों का प्रयोग। यदि लास्की अधिकारों के प्रदाता होते तो वे किसी व्यक्ति को अधिकार इस क्रम में देतेः काम का अधिकार, पर्याप्त मजदूरी का अधिकार, काम के उचित घंटे का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, अपने शासक को चुनने का अधिकार और इनके बाद अन्य अधिकार।
लास्की का तर्क यह है कि आर्थिक अधिकारों को पहले दिए बिना कोई व्यक्ति अपने राजनीतिक अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक समानता निरर्थक है। ‘जहाँ घोर असमानता है, वहां व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध दास और स्वामी का है। इसी के सामान महत्वपूर्ण परन्तु इसके निचले क्रम में स्थित है शिक्षा का अधिकार। शिक्षा किसी व्यक्ति को उसके अधिकारों के सदुपयोग करने में सहायता प्रदान करती है। एक बार आर्थिक और सामाजिक (शैक्षिक) अधिकारों से निबटान के बाद इसकी अत्यधिक संभावना हो जाती है कि व्यक्ति अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग ईमानदारी के साथ करेगा। 

आलोचकों का मत है कि राज्य निश्चित रूप से अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करता है। लेकिन वह अधिकारों का निर्माण नहीं करता, जैसा कि इस सिद्धांत के समर्थक हमारा विश्वास बनाने की कोशिश करते है। यदि हम मान भी लेत े हैं कि अधिकारों को राज्य ने बनाया है, तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि जिस प्रकार राज्य ने हमें अधिकार दिए हैं, वैसे ही वह हमसे ये अधिकार छीन भी सकता है। निश्चित तौर पर यह विचार राज्य को निरंकुश बना देगा और ऐसी परिस्थिति में हमारे पास सिर्फ वे अधिकार होंगे जो राज्य हमें देना चाहेगा ।

3. अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत 

अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धांत को निदेशात्मक सिद्धांत भी कहा जाता है, इस बात को मानकर चलता है कि राज्य एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है। इसकी मान्यता है कि अधिकारों की उत्पत्ति रीतियों और परम्पराओं से हुई है। रुढि़वादी बर्क का मानना है कि लोगों के पास अन्य सभी चीजों से ऊपर एक अधिकार होता है, जिसका प्रयोग वे समय की लम्बी यात्रा के बावजूद अबाध्य रूप से  प्रयोग में लाते हैं। इसलिए माना जाता है कि प्रत्येक अधिकार एक लम्बे परिक्षण की प्रक्रिया पर आधारित होते हैं। रीतियों और परम्पराओं के माध्यम से लम्बे समय तक और लगातार प्रयोग में आने से ये स्थायी हो जाते हैं और अधिकारों का स्वरूप धारण कर लेते हैं। अठारहवीं शताब्दी में एडमंड बर्क की लेखनी के मध्य से इस सिद्धांत का उद्भव हुआ और बाद के काल में इसे समाजशास्त्रियों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। 

ऐतिहासिक सिद्धांत का इस अर्थ में अत्यधिक महत्व है कि यह अधिकारों के विधिक सिद्धांत की आलोचना करता है। ऐतिहासिक सिद्धांत के समर्थकों का तर्क है कि जो लम्बे समय तक प्रयोग में होते हैं राज्य द्वारा उन्हें ही अधिकारों के रूप में मान्यता दे दी जाती है। ऐतिहासिक सिद्धांत की भी अपनी सीमाएं हैं क्योंकि हमारी सभी परम्पराएँ अधिकार का स्वरूप धारण नहीं कर सकतीं । सती प्रथा और भ्रूणहत्या जैसी रीतियाँ अधिकार का हिस्सा नहीं हो सकतीं। हमारे सभी अधिकारों का उद्भव परम्पराओं के रूप में नहीं  हुआ है। उदाहरण स्वरूप सामाजिक सुरक्षा का सिद्धांत किसी भी रीति या परंपरा का हिस्सा नहीं रहा है।

4. समाज कल्याण सिद्धांत

समाज कल्याण सिद्धांत का मानना है कि अधिकार समाज कल्याण की परिस्थिति होते हैं। इस सिद्धांत का तर्क है कि राज्य को केवल उन्हीं अधिकारों को मान्यता देनी चाहिए जो समाज कल्याण को बढ़ावा देने में सहायता प्रदान करते हैं। समाज कल्याण सिद्धांत के आधुनिक समर्थकों में रोस्को पौण्ड और चाफी का नाम लिया जा सकता है, जबकि बेन्थम को अठारहवीं शताब्दी के समर्थकों में गिना जा सकता है। 

इस सिद्धांत की मान्यता है कि समाज द्वारा उतने ही अधिकारों का निर्माण किया जाता है जितना कि समाज कल्याण के अंतर्गत शामिल किया जाता है। अधिकार सामाजिक हित की परिस्थितियां हैं, अर्थात् ऐसे दावे जो सामान्य हित से नहीं जुड़े हैं और इस कारण समाज द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं, वे अधिकारों का स्वरूप धारण नहीं कर सकते। समाज कल्याण सिद्धांत भी दोषमुक्त नहीं है। यह समाज कल्याण को शामिल करता है जो कि अत्यंत ही अस्पष्ट अवधारणा है। 

बेन्थमवादी सिद्धांत ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ अलग अलग लोगों में भिन्नता लिए हुए है। जब अंततः राज्य ही निर्णयकर्ता हो जाता है कि किसे समाज कल्याण मानना है, तो फिर इसमें और अधिकारों के विधिक सिद्धांत में कोई भिन्नता नहीं रह जाती है। 

वाइल्ड जैसे आलोचकों का मानना है कि यदि अधिकार सामाजिक लाभ को ध्यान में रखकर ही बनाये गए हैं, तो एक अक्षम और असहाय व्यक्ति आततायी इच्छा पर निर्भर हो जाएगा।

अधिकारों के मार्क्सवादी सिद्धांत

अधिकारों के मार्क्सवादी सिद्धांत ने इतिहास के विशेष काल को आर्थिक व्यवस्था के सन्दर्भ में समझा। एक विशेष सामाजिक.आर्थिक संरचना में विशेष प्रकार के अधिकारों की व्यवस्था होती है। राज्य, जोकि समाज के संपन्न लोगों के हाथ का उपकरण है, एक वर्गीय उपकरण है और यह जो कानून बनाता है वह भी वर्गीय हितों से प्रेरित होते हैं। इसलिए सामंती राज्य सामंती कानूनों, अधिकारों की व्यवस्था की रक्षा (उदाहरण-विशेषाधिकार) के माध्यम से सामंती व्यवस्था का पक्ष लेता है। इसी तरह पूंजीवादी राज्य पूंजीवादी कानूनी अधिकारों की व्यवस्था की रक्षा के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था का पक्ष लेता है। 

मार्क्स के अनुसार जो वर्ग समाज की आर्थिक संरचना को नियंत्रित करता है वह राजनीतिक शक्ति पर भी नियंत्रण रखता है, और यह वर्ग इस राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सर्व-समाज के हित में करने के बजाय अपने हितों की रक्षा करने और उसे बढ़ाने में करता है। जब पूंजीवादी समाज समाजवादी समाज में परिवर्तित हो जाता है, तो समाजवादी राज्य सर्वहारा कानूनों के माध्यम से मजदूर-वर्ग के अधिकारों/हितों की रक्षा और वृद्धि करता है। समाजवादी समाज, पूंजीवादी समाज की तरह न होकर एक वर्गविहीन समाज होता है। इसका राज्य और कानून किसी वर्ग विशेष के अधिकारों की रक्षा नहीं करता बल्कि वर्गविहीन समाज में रहने वाले सभी लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है। 

मार्क्सवादी कहते हैं कि राज्य जोकि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन का उपकरण है, समाजवाद की स्थापना करेगा, जो कि ‘सभी से उसकी योग्यता के अनुसार और सभी को उनके कार्य के अनुसार’ के सिद्धांत पर आधारित है। सभी के लिए अधिकारों की व्यवस्था इस स्वरूप का अनुपालन करेगीः पहले आर्थिक अधिकार (कार्य, सामाजिक सुरक्षा), उसके बाद सामाजिक अधिकार (शिक्षा) और राजनीतिक अधिकार (मताधिकार)। 

अधिकारों का मार्क्सवादी सिद्धांत आर्थिक कारकों पर ज्यादा जोर देता है। आर्थिक कारक अकेले समाज को आधार प्रदान नहीं करते हैं और न ही अधिरचना केवल आर्थिक आधार का प्रतिरूप होती है। गैर आर्थिक शक्तियां भी अधिरचना के निर्माण में निर्धारक भूमिका का निर्वहन करती हैं।

अधिकार का महत्व

अधिकार का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट है :-
  1. प्रत्येक संगठन के संचालन के लिए अधिकार का होना आवश्यक है। 
  2. अधिकार के बल पर ही अधिकारी अधीनस्थ से काम करा सकता है। 
  3.  कार्यों के श्रेष्ठतम निष्पादन के लिए अधिकारों का ही भारार्पण किया जाता है।
  4. अधिकार से निर्णयन कार्य सरल एवं सुगम हो जाता है। 
  5. अधिकारों की प्राप्ति से कार्मिक के मनोबल में वृद्धि होती है। 
  6. अधिकारों की उपस्थिति, उत्तरदायित्व को अपरिहार्य कर देती है। 
  7. अधिकारों से पहलपन की भावना का सृजन होता है। 
  8. अधिकारों के बल पर ही अनुशासनहीनता की स्थिति में अधीनस्थ को दण्डित किया जा सकता है।

    अधिकार की सीमाएँ

    संगठन के प्रत्येक स्तर के प्रबंधकों के पास अलग अलग सीमा तक अधिकार होते हैं। शीर्ष प्रबन्ध के पास अधिक तथा मध्य प्रबंधक के पास शीर्ष प्रबन्धक से कम अधिकार होते हैं। इसलिए अधिकारों का प्रयोग करते समय प्रबंधकों द्वारा इसकी सेवाओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। अधिकार की कुछ प्रमुख सीमायें निम्नलिखित हैं-
    अधिकारी को अपने अधीनस्थ को ऐसा आदेश नहीं देना चाहिए जिसका पालन असम्भव हो जैसे आसमान से तारे तोड़ लाओ। अधिकार का प्रयोग करते समय सम्बन्धित अन्य व्यक्तियों की प्रक्रियाओं को ध्यान में रखना चाहिए।
    प्रबंध को अधीनस्थ को ऐसे आदेश नहीं देना चाहिए जो उसकी सीमा के बाहर हो।
    1. तकनीकी सीमाओं के परे कार्य हेतु आदेश नहीं देना चाहिए। 
    2. आदेश देते समय आर्थिक सीमाओं को ध्यान में रखना चाहिए। 
    3. प्रबंधकों को आदेश देने से पूर्व पद की सीमाओं को ध्यान में रखना चाहिए। 
    4. कोई भी आदेश संगठन में प्रचलित नियमों के विरूद्ध नहीं होना चाहिए। प्रबन्धकीय सोपान में ऊपर से नीचे आने पर अधिकारों पर बन्धन बढ़ते जाते हैं।

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