समन्वय का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं एवं सिद्धांत

साधारण शब्दों में समन्वय का अर्थ सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति हेतु किये जाने वाले सामूहिक प्रयासों में तालमेल बनाये रखना है। समन्वय एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है जिसे विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न ढंग से स्पष्ट किया है। 

समन्वय की परिभाषा

समन्वय की कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएं हैं :-

कुन्टज तथा ओडोनेल (Koontz and O'Donell) के अनुसार, ‘‘समन्वय समूह लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु व्यक्तिगत प्रयत्नों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रबन्ध का सार है।’’

मूने तथा रेले (Mooney and Reiley) के अनुसार, ‘‘किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाने वाली क्रियाओं में एकता बनाये रखने के लिए सामूहिक प्रयासों की सुव्यवस्था को समन्वय कहते हैं।’’

टीड (Tead) के अनुसार, ‘‘समन्वय किसी संगठन के समस्त विभिन्न साधक अंगों के कार्यों एवं शक्तियों के सुचारू रूप से संचालन हेतु प्रयास है जिसका उद्देश्य यह होगा कि लक्ष्यों की पूर्ति न्यूनतम फूट और अधिकतम सहयोगात्मक प्रभाव पूर्णता के साथ हो सके।’’

हेनरी फेयोल (Henri Fayol) के अनुसार, ‘‘किसी प्रतिष्ठान के कार्य संचालन को सुविधाजनक एवं सफल बनाने के लिए उसकी समस्त क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करना ही समन्वय है।’’

मेक फारलैण्ड (Mc Farland) के अनुसार ‘‘समन्वय एक वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से एक कार्यकारी (Executive) अपने अधीनस्थ के सामूहिक प्रयासों में एक सुव्यवस्थित स्वरूप का विकास करता है और सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु क्रियाओं में एक रूपता लाता है।’’

हैमेन (Haimann) के अनुसार, ‘‘समन्वय किसी क्रिया को उचित राशि, समय एवं निष्पादन की किस्म प्रदान करने हेतु अधीनस्थों के प्रयासों की क्रमानुसार संयोजन (Orderly Synchronizing) है ताकि उनके संयुक्त निर्धारित उद्देश्य अर्थात् उपक्रम के सामान्य लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सके।’’

ब्र्रेच (Brech) के अनुसार, ‘‘समन्वय से आशय विभिन्न सदस्यों में क्रियाशील क्रियाओं (Working activities) का उपयुक्त आवंटन करके तथा यह निश्चय करके कि सदस्य उन क्रियाओं को सदभावनापूर्वक कर रहे हैं संगठन में सन्तुलन एवं समूह भावना बनाये रखना है।’’

जार्ज आर. टेरी (George R. Terry) के अनुसार, ‘‘समन्वय निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हेतु प्रयासों का क्रमानुसार संयोजन (Synchronization) है जिससे निष्पादन की उपयुक्त मात्रा, समय और निर्देशन से क्रियाओं में सामंजस्य एवं एकता स्थापित हो जाय।’’

कून्ट्ज एवं ओडोनेल, समन्वय निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत प्रयासों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रबन्ध का सार है।

जेम्स डी. मूने, समन्वय प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है तथा संगठन का एक प्रथम सिद्धान्त है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य कोई सहायक सिद्धान्त नहीं है। इसका तो साधारण अर्थ यह है कि शेष सभी सिद्धान्त समन्वय में शामिल हैं।

थियो हेमेन, समन्वयक प्रबन्ध की पृथक और भिन्न क्रिया नहीं है। यह तो अन्य सभी प्रबन्धकीय कार्यों जैसे नियोजन, संगठन, कर्मचारियों की नियुक्ति, निर्देशन ओर नियंत्रण का एक अंग है।

न्युमेन, समन्वय प्रबन्ध की एक पृथक और अविच्छिन्न क्रिया नहीं है क्योंकि यह प्रशासन के विभिन्न स्वरूपों का एक अंग है।

आर.सी.डेविस, समन्वय नियंत्रण का एक व्यापक साधन या रूप है। पीटरसन एवं प्लोमेन, समन्वय उच्च प्रबन्ध का एक अविच्छिन्न कार्य (Distinctive task) है।

हेनेरी फियोल, समन्वय प्रबन्ध का एक कार्य है।

जार्ज आर. टेरी, समन्वय को प्रबन्ध का आधारभूत कार्य मानना भूल होगी। इस दृष्टि से समन्वय का सम्बन्ध नियोजन, संगठन, निर्देशन और नियंत्रण के साधनों से है। अत: इन चारों कार्यों का उचित क्रियान्वयन समन्वय की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

समन्वय की विशेषताएं

  1. समन्वय सामूहिक प्रयासों को एकत्रित रखता है- समन्वय विभिन्न व्यवसायिक गतिविधयों में एकता लाकर उन्हें उद्देश्यपूर्ण गतिविधि के रूप में सामान्य लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है।
  2. प्रयासों की एकात्मकता को सुनिश्चित करता है : समन्वय व्यक्तियों के प्रयासों म एकता लाता है तथा विभिन्न विभागों को जोड़ने की शक्ति का कार्य करता है।
  3. सतत् प्रक्रिया है : समन्वय एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया।
  4. सभी प्रबन्ध का उत्तरदायित्व है : समन्वय प्रत्येक प्रबंधक का कार्य है। सभी स्तर के प्रबंधकों को समन्वय कार्य करना पड़ता है।
  5. एक व्यापक कार्य है: विभिन्न विभागों की क्रियाएँ प्रकृति से एक दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए समन्वय की आवश्यकता प्रबंध के सभी स्तरों पर होती है।
  6. एक ऐच्छिक कार्य है : एक संगठन में सदस्य स्वेच्छा से एक दूसरे से सहयोग करत हैं।

समन्वय के सिद्धांत

समन्वय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है-
  1. प्रत्यक्ष सम्पर्क 
  2. प्रारम्भिक स्थिति में समन्वय 
  3. पारस्परिक सम्बन्ध 
  4. निरन्तरता 
  5. गतिशीलता
  6. आत्म समन्वय 
  7. समय सिद्धांत
1. प्रत्यक्ष सम्पर्क - समन्वय का यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि एक उपक्रम में समन्वय की स्थापना व्यक्तियों में व्यक्तिगत और समतल सम्बन्धों द्वारा ही होनी चाहिए। व्यक्तियों के मध्य विचारों, आदर्शों एवं लक्ष्यों का प्रत्यक्ष व्यक्तिगत सम्प्रेषण द्वारा आसानी से आदान प्रदान किया जा सकता है। और सामान्य एवं व्यक्तिगत लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। 

प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा जहॉं एक ओर उपक्रम के उद्देश्य एवं कार्य विधियों को आसानी से स्पष्ट किया जा सकता है वहॉं दूसरी ओर भ्रम एवं अस्पष्टता का तुरन्त निवारण भी किया जा सकता है। प्रत्यक्ष सम्पर्क के अभाव में लिखित सम्प्रेषण से सन्देश का गलत अर्थ लगाया जा सकता है और व्यक्तियों में विपरीत विचारधारा उत्पन्न हो सकती है।

2. प्रारम्भिक स्थिति में समन्वय -  समन्वय का यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि समन्वय की स्थापना नियोजन तथा नीति निर्धारण की प्रारम्भिक स्थिति में ही होनी चाहिए। जैसा कि हमें विदित है कि प्रबन्ध के सोचने के कार्य के पश्चात करने का कार्य प्रारम्भ होता है। अत: समन्वय की स्थापना का कार्य प्रारम्भिक स्तर (नियोजन एवं नीति निर्धारण) पर ही किया जाना चाहिए, अन्यथा क्रियान्वयन कार्य की विभिन्न क्रियाओं में समन्वय स्थापित करना एक दुष्कर कार्य हो जाता है। 

3. पारस्परिक सम्बन्ध - समन्वय के सिद्धान्त के अनुसार किसी स्थिति विशेष में सभी घटक एक दूसरे से सम्बन्धित होते है। उदाहरण के लिए, ‘अ’ और ‘ब’ एक साथ कार्य करते हैं तो ऐसी स्थिति में दोनों एक दूसरे से प्रभावित होते हैं।अन्य शब्दों में ‘अ’’ब’ से प्रभावित होता है। और ‘ब’ ‘अ’ से प्रभावित होता है। इसी प्रकार समस्त उपक्रमों में कार्य करने वाले एक व्यक्ति स्वयं दूसरों से प्रभावित होते हैं और दूसरों को स्वयं भी प्रभावित करते हैं। 

अत: स्पष्ट है कि एक उपक्रम के सभी घटकों में पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।

4. निरन्तरता - मेरी पार्कर फोलेट ने ठीक ही कहा है कि, समन्वय एक निरन्तर प्रक्रिया है। अत: उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं में समन्व्य स्थापित करने के लिए उच्च अधिकारियों को सदैव प्रयास करते रहना चाहिए। समन्वय की स्थापना न तो एक दो दिन में ही हो जाती है और न ही अवसरों पर छोड़ी जा सकती है। यह तो प्रबन्ध का एक ऐसा कार्य है जिसे प्रबन्धक को निरन्तर करते रहना चाहिए। 

यद्यपि कभी कभी विशेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए समन्वय स्थापित करने वाली समितियों की स्थापना की जाती है। लेकिन वे निरन्तर प्रयत्न का स्थान ग्रहण नहीं कर सकती। 

अन्य शब्दों में इन समितियों की स्थापना समन्वय के लिए किये जाने वाले प्रयासों की इतिश्री नहीं हो जाती। मेरी पार्कर फोलेट द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त समन्वय की स्थापना के समय निम्न सिद्धान्तों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

5. गतिशीलता - समन्वय के इस सिद्धान्त के अनुसार बाहरी वातावरण और आन्तरिक क्रियाओं एवं निर्णयों में परिवर्तन होने के कारण व्यावसायिक परिस्थितियों में भी यदा कदा परिवर्तन होता रहता है। अत: समन्वय की तकनीकों में भी परिवर्तन करते रहना चाहिए। 

6. आत्म समन्वय - आत्म समन्वय के अन्तर्गत उपक्रम के अधिकारियों के मध्य जहॉं एक ओर पारस्परिक सम्प्रेषण की मात्रा काफी हो जाती है वहॉं दूसरी ओर प्रत्येक अधिकारी अन्य अधिकारियों की सुविधानुसार अपनी योजना, कार्य पद्धतियॉं आदि में परिवर्तन करने का किसी न किसी रूप में विरोध करता है। अत: योग्य नेतृत्व द्वारा आत्म समन्वय की स्थापना की जानी चाहिए।

7. समय सिद्धांत - समन्वय का यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक कार्य सही समय पर किया जाना चाहिए। अत: समन्वय की स्थापना यथा समय कर लेनी चाहिए। यदि निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु किये जाने वाले प्रयासों में यथा समय समन्वय स्थापित नहीं किया गया तो प्रयासों का दुरुपयोग होता ओर असफलता का सामना करना पड़ता। यथा समय स्थापित किया गया समन्वय जहां एक ओर प्रयासों की सफलता में वृद्धि करता है वहां दूसरी ओर निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति भी करता है। 

कहा गया है कि, समस्या का सही समय निवारण या रोकथाम उसके उपचार से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसलिए समय रहते समन्वय बड़ी असफलता को रोक सकता है। 

अर्थात भविष्य में होने वाली असफलताओं को उचित समन्वय के द्वारा वर्तमान में ही सुधारा जा सकता है। 

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