अकबर का संक्षिप्त परिचय
नाम | जलाल्लुद्दीन मुहम्मद अकबर |
राजकाल | 1556-1605 ई .तक |
जन्म | 15 अक्टूबर 1542 अमरकोट के हिन्दू सामन्त राणा बीरसाल के महल में हुआ |
पिता | हुमायूं, 27 जनवरी 1556 को मृत्यु हुई |
माता | हमीदा बानू बेगम |
राज्याभिषेक | 14 फरवरी 1556 ई. |
पुत्र | सलीम, (जहांगीर) |
मृत्यु | 16 अक्टूबर 1605 ई. |
उत्तराधिकारी | सलीम, जहांगीर के नाम से सिंहासन पर आसीन हुआ |
अकबर का राज्यारोहण
27 जनवरी 1556 को जब हुमायूं का निधन हुआ उस समय अकबर बैरम खां के पास कलानौर (पंजाब) में था वहीं तेरह वर्ष की अवस्था में 14 फरवरी 1556 को अकबर का राज्याभिषेक कर दिया और उसको मुगल सम्राट घोषित कर दिया ।अकबर की कठिनाईयां
साम्राज्य के विरोध- अकबर जिस समय शासक बना कठिनाइयों का अम्बार लगा हुआ था । पुराने दुश्मन हारे थे कुचले नहीं थे, सूरवंशीय सिकन्दर, इब्राहीम और आदिलशाह मुगलों को ललकार रहे थे । अफगान सत्ता को पुन: स्थापित करना चाहते थे । आदिल शाह के मंत्री हेमू ने आगरा व दिल्ली पर अधिकार कर लिया था व स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास करने लगा।
राजपूत शासक- गुजरात, मालवा स्वतत्रं हो चुके थे तथा कई राजपतू राजा भी शक्तिशाली हो गये थे । देश की जनता मुगलों को हेय की दृष्टि से देखती थी । आर्थिक संकट से खजाना खाली हो चुका था ।
पानीपत का दूसरा युद्ध 1556 ई.- बैरम खां की सहायता से अकबर ने चुनौतियों का सामना किया । पानीपत के दूसरे युद्ध में हेतु को पराजित करके 1556 ई. में पुन: दिल्ली आगरा पर अधिकार कर लिया ।अकबर का सरदारों के साथ संघर्ष
हेमू की पराजय के उपरानत अगले चार वर्ष तक मुगल राज्य की सत्ता अकबर के संरक्षक के रूप में बैरम खां के हाथ में रही । उसने दिल्ली-आगरा के समीपवर्ती क्षेत्र में मुगल सत्ता को संगठित करने का कार्य सफलता के साथ किया ।- अकबर के द्वारा सत्ता के स्वतंत्र प्रयोग की इच्छा,
- बैरम खां के आचरण से अकबर का असंतुष्ट होना तथा
- बैरम खां के दुश्मनों द्वारा सम्राट के कान भरना । अकबर ने बैरम खां को मक्का जाने का आदेश दिया, किन्तु अपने विरोधियों के आचरण से अपमानित होकर उसने विद्रोह कर दिया । पराजित होने पर उसने आत्मसमर्पण कर दिया, किन्तु अकबर ने उसे पुन: मक्का जाने का निर्देश दिया ।
आधम खां (1569 ई.)- आधम खां अकबर की धाय महंम अंगा का पुत्र था । मां के प्रभाव से उसने अपनी शक्ति बढ़ा ली थी । मालवा विजय के बाद उसके आचरण ने अकबर को नाराज कर दिया और जब सने अकबर व राज्य सत्ता को अपने पूर्ण नियंत्रण में लेने का प्रयास किया तो अकबर ने उसे मृत्यु दण्ड दे दिया ।
उजबेक सरदारों का विद्रोह (1561-67 ई.)- अकबर के शासन के आरम्भिक वर्षो में उजबेक अमीर बहुत प्रभावशाली थे । वह पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मालवा में सक्रिय थे । अपने प्रभाव एवं शक्ति के मद में वे दुस्साहसी हो गये थे तथा 1561-67 ई. के दौर में उन्होंने अनेक विद्रोह किए जिनका अकबर ने दमन किया ।
अकबर का साम्राज्य विस्तार
दिल्ली, आगरा विजय (1556 ई.)- 1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु हो गई । इस समय अकबर के अधिकार में सिर्फ पंजाब का छोटा सा क्षेत्र था । उसने संरक्षक बैरम खां के साथ पानीपत के द्वितीय युद्ध में हेमू को परास्त कर दिल्ली-आगरा को अपने अधिकार में ले लिया ।
ग्वालियर, अजमेर, जौनपुरुर (1556-60 ई.)- 1556 से 1560 ई. के भीतर ग्वालियर, अजमेर तथा जौनपुर पर विजय प्रापत की तथा उन्हें मुगल साम्राज्य में मिला लिया ।
मालवा (1560-62 ई.)- अफगान सरदार बाजबहादुर मालवा का शासक था ।अकबर ने आधम खां तथा मीर मुहम्मद के नेतृत्व में एक सेना मालवा पर चढ़ाई करने के लिए भेजी। मालवा नरेश हार गया किन्तु मुगलों का मालवा पर अधिकार अस्थायी रहा । बाजबहादुर की प्रेयसी रूपमती ने विषपान करके मुगल शत्रुओं से अपने सतीत्व की रक्षा की । 1562 ई. में अकबर ने पुन: एक सेना मालवा पर आक्रमण करने हेतु भेजी । इस समय बाजबहादुर ने अकबर से सन्धि कर ली और मालवा मुगल साम्राज्य में विलीन कर लिया गया ।
गोंडवाना (1564 ई.)- अकबर के समय में गोंडवाना या गढ़ा-कटंगा के राज्य का शासक वीरनारायण था । उसके अल्पवयस्क होने के कारण उसकी विधवा माता चन्देल राजवंश की पुत्री दुर्गावती राज्य कार्य को दख रही थी । वह कुशल सेनापति एवं प्रशासिका थी । अपने पड़ोसी राज्यों से उसने अनेक युद्ध किये थे ।
अकबर ने आसफ खां को गोंडवाना पर आक्रमण कर उसे मुगल साम्राज्य में मिलाने का आदेश दिया । आसफ खां ने 1564 ई. में गोंडवाना पर आक्रमण किया । दुर्गावती ने बड़ी वीरता के साथ आसफ खां का सामना किया, किन्तु वह पराजित हुई तथा उसने आत्महत्या कर ली । गोंडवाना की विजय से मुगलों को अपार सम्पत्ति लूट में प्राप्त हुई ।कुछ ही समय में रणथम्भौर, कार्लिजर, जोधपुर, जैसलमेर तथा बीकानेर के राज्य भी अकबर की अधीनता में आ गए, किन्तु मेवाड़ का प्रतिरोध समाप्त नहीं हुआ । राणा उदयसिंह के बाद जब उसका पुत्र राणा प्रताप शासक बना तो अकबर ने उससे संबंध स्थापित करने हेतु कई मिशन भेजे, किन्तु संधि की शर्तो पर सहमति नहीं हो सकी तथा अकबर को युद्ध का रास्ता अपनाना पड़ा । 1576 ई. में हल्दी घाटी की पराजय के उपरान्त राणा प्रताप ने जंगल व पहाड़ों को अपना निवास बनाया तथा मुगलों के साथ अनवरत संघर्ष जारी रखा । अकबर के शासनकाल में मेवाड़ को पूरी तरह अपने अधिकार में न किया जा सका ।
अकबर का साम्राज्य बड़ा विस्तृत था । वह पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के तटवर्ती भागों तक विस्तृत था । यह साम्राज्यों 15 प्रान्तों में विभक्त था - (1) इलाहाबाद, (2) आगरा, (3) अवध, (4) अजमेर, (5) अहमदाबाद (6) बिहार, (7) बंगाल, (8) दिल्ली, (9) काबुल, (10) लाहौर, (11) मालवा दक्षिण के प्रदेश, (12) बरार, (13) मुल्तान, (14) खानदेश, (15) अहमद नगर ।
अकबर की शासन व्यवस्था
अकबर एक कुशल प्रशासक था । उसने प्रशासन के क्षेत्र में नवीन सुधारों के द्वारा एक संगठित राज्य प्रबन्ध की बुनियाद स्थापित की । उसने प्रशासकीय ढांचे को नीवन स्वरूप प्रदान किया ।अकबर निंरकुश होकर भी प्रजा का हितैषी था । महल के झरोखे पर बैठकर वह लोगों को दर्शन करता था, उनकी फरियाद भी सुनता था । गुप्त मंत्रणा के लिए अलग कक्ष निर्धारित था। वह धर्म निरपेक्ष सम्राट था, बिना पक्षपात तथा भेदभाव के अनुदान देता था ।
- वकील या प्रधानमंत्री- वकील या पध्रानमंत्री का स्थान सम्राट के बाद होता था, प्रधानमंत्री सम्राट तथा प्रशासन के बीच कड़ी का काम करता था ।
- दीवान या वजीर- राजस्व विभाग का पम्र ख अधिकारी था । वह राज्य की आय और व्यय के लिए उत्तरदायी होता था ।
- मीर बख्शी- वह सैन्य विभाग का प्रमख अधिकारी था । वह गुप्तचर विभाग की भी देख-रेख करता था । मीर बख्शी सैनिकों की भर्ती करता था तथा सैनिक-’असैनिक अधिकारियों के वेतन वितरण करता था ।
- मुख्य सदर (धार्मिक सलाहकार)- मुख्य सदर का कार्य सम्राट को धार्मिक मामले में सलाह देना था । वह धार्मिक कार्य में दान दी गई भूमि की देख-देख करता था । ‘काजी-उल-कजात’ तथा ‘सद्र-उस-सुदूर’ दोनों का एक ही पद था । न्याय प्रशासन का भार इसी पर होता था ।
- मीर साँमा- वह शाहीहरम का प्रमुख अधिकारी होता था । सम्राट के अंगरक्षकों की नियुक्ति करना, हरम में भोजन सामग्री की व्यवस्था करना और अन्य सामग्रियों की आपूर्ति का भार इसी पर होता था ।
- अन्य अधिकारी - (1) मीर आतीश (तोपखाने का अधिकारी), (2) दरोगा-ए-डाक, (3) दरोगा-ए-टकसाल ।
प्रान्तीय प्रशासन- अकबर का सम्पूर्ण सार्माजय 15 सूबों में विभाजित था - (1) बंगाल, (2) बिहार, (3) इलाहाबाद, (4) अवध, (5) आगरा, (6) दिल्ली, (7) मुल्तान, (8) लाहौर, (9) काबुल, (10) अजमेर, (11) मालवा, (12) गुजरात तथा दक्षिण के तीन प्रदेश, (13) अहमद नगर, (14) खानदेश, (15) बरार।
प्रान्तीय अधिकारी-सूबेदार- वह प्रान्त का प्रमुख अधिकारी होता था । प्रान्तीय सनेा उसके अधिकार क्षेत्र में रहती थी । सूबेदार न्याय का भी सर्वोच्च अधिकारी होता था । इसके अतिरिक्त दीवान, बख्शी, सदर, काजी आदि अनेक अधिकारी होते थे, जो प्रान्तों में शान्ति और कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने का कार्य करते थे ।- परगना या तहसील- अकबर ने सरकाराे को परगनों में विभाजित किया था । परगनों में शिकदार, अमिल, फोतदार और काननूगाे आदि अधिकारी हाते थे ।
- ग्राम-प्रशासन- एक परगने में कई गांव शामिल रहते थे, गावं प्रशासन की छोटी इकाई थी । गांव का पूर्ण दायित्व ग्राम पंचायत पर था, मुकदमे भी पंचायतें सुना करती थीं । ग्राम्य सुधार के सारे कामों के लिए ग्राम पंचायतें उत्तरदायी होती थीं । मुकद्दम, पटवारी, चौकीदार, आदि गांव के मनोनीत कर्मचारी होते थे ।
- भू-व्यवस्था-अकबर ने शेरशाह को भू-प्रणाली अपनाई, पर उसमें सुधार लाकर उसे नवीन स्वरूप प्रदान किया । इस भू-व्यवस्था को टोडरमल प्रणाली भी कहते हैं । इस व्यवस्था के अंतर्गत अकबर ने राजा टोडरमल की सहायता से कृषि योग्य भूमि की नाप करवायी कृषि भूमि को चार वर्गो में विभाजित किया गया - (1) पोलज- यह सर्वाधिक उपजाऊ भूिम थी, (2) पड़ौती- यह कम उपजाऊ हातेी थी, (3) चाचर- यह किसान खोदकर कृषि योग्य बना सकते थे, (4) बंजर- यह अनुपजाऊ भूमि थी । इस वर्गीकरण से राज्य को उपजाऊ भूमि का सही ज्ञान प्राप्त हो गया तथा भूमि कर निर्धारण में सुविधा हुई । इस व्यवस्था से राज्य तथा किसानों दोनों को लाभ हुआ ।
- लगान-राजा टोडरमल ने 10 वर्षो की औसत उपज के आधार पर किसानों पर भू-राजस्व निश्चित किया, जिसे दह साला बन्दोबस्त कहा जाता था । यदि बाढ़ अकाल में फसल नष्ट हो जाये तो राजस्व माफ कर दिया जाता था । कृषि उपज तथा फसलों के प्रकार के आधार पर लगान लगाया जाता था । लगान, कृषकों से उनके उत्पादन का एक तिहाई निश्चित किया गया था । उपज कोटे जाने के पूर्व ही ग्राम प्रधान की सहायता से सर्वे द्वारा साम्राज्य को कुल प्राप्त होने वाले भू-राजस्व का अनुमान लगा लिया जाता था । नील, गन्ना, कपास जैसी फसलों पर लगान नगद देने की प्रथा थी, शेष फसलों पर किसानों को छुट थी कि वे अपना लगान नगद दें अथवा खाद्यान्न के रूप में ।
- न्याय व्सवस्था- अकबर ने न्याय व्यवस्था में भी सुधार लाने का प्रबधं किया । न्याय का दायित्व काजियों पर था । कभी-कभी इस पद को मुख्य ‘सद्र’ के साथ मिला दिया जाता था । प्रजा से मिलने या भेंट करने के लिए समय-सारिणी निर्धारित होती थी, जिसमें शहनशाह व अधिकारियों से मिलना होता था । दिन की शुरूआत शहनशाह के झरोखे से दर्शन देने के साथ होता था । जहां से उनके दर्शन के अभिलाषी हजारों की संख्या में प्रजा दर्शन पाती थी, काजियों के निर्णय के विरूद्ध अपील को मुख्य काजी सुनता था । अन्तिम अपील सम्राट सुनता था । मृत्यु दण्ड का अधिकार सम्राट को था, न्याय निष्पक्ष होता था । मुस्लिम, हिन्दू न्याय व्यवस्था परम्परानुसार ही न्याय किया जाता था ।
- सैन्य व्यवस्था- राजकीय सेना का बड़ा भाग जागीरदारों के पास था, इसकी भार जागीरदारों के उपर था । जिससे साम्राज्य के उपर भार कम आता था । कभी-कभी जागीरदार शक्ति अर्जित करके व्रिदोह कर देते है । इसलिए अकबर ने जागीरदारी प्रथा समाप्त कर दी ।
अकबर की धार्मिक नीति का विकास
अकबर के दरबार इबादत खानों में अनेक हिन्दू मुसलमान विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था, धार्मिक चर्चाओं के दौरान विद्वानों में मत विभिन्नता व झगड़ा हो जाता था । सभी विद्वान अपने अपने धर्मो के सर्वश्रेष्ठ कहने लगे । किन्तु सबमें समता का आभाव था । इससे अकबर हतोत्साहित हुआ और एक नये धर्म का अवतरण हुआ । अर्थात् अकबर ने सभी धर्मो के गणों को सामिल किया जो दीन-ए-इलाही कहलाया । सब धर्मो को पूर्ण स्वतंत्रता दे दी है । अकबर की नीतियों से रूढिवादी मुसलमान भयभीत होने लगे और उसने विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई ।- दीन-ए-इलाही-अकबर ने धार्मिक संकीर्णता की सीमाओं को तोड़कर सभी धर्मो की श्रेष्ठ बातों एवं गुणों का समावेश किया । ईश्वर एक है इस संसार में अकबर उसका प्रतिनिधि है । उसका कार्य राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत था । मुसलमानों एवं गैर मुसलमानों के आपसी मतभेदों को दूर अपने साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ किया ।
- अकबर की सांस्कृतिक एकता एवं विकास की उपलब्धियां-अकबर शांति दूत की भांति था व्यक्तिगत जीवन में सुलह-ए-कुल अकबर नीति का उदाहरण थे । जिसने भारत का सर्वप्रथम सम्राट हुआ कि हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास किया । दरबार में हिन्दू पहनावें व तिलक लगाकर आते थे । झरोखा दर्शन, तुलादान की हिन्दु परम्परा का निर्वाह किया । समाज में फैली अंधविश्वास कुरीतियां जैसे सती प्रथा एवं बाल विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया किन्तु इसे आंशिक सफलता ही मिली । मुसलमानों को भारतीय रंग में रंगा और भारतीय को सम्मानपूर्वक जीने का अवसर प्रदान किया ।
अकबर की उदारता एवं सहिष्णु की नीति- अकबर ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की धार्मिक कट्टरता की नीति को त्याग दिया, धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पालन किया ।
- हिन्दुओं से वैवाहिक संबंध स्थापित करना- राजपूतों से पारिवारिक संबधं कायम होने हिन्दू रीति रिवाज संस्कृति का प्रभाव अकबर के उपर पड़ा ।
- बलपूर्वक धर्म परिवर्र्तन की नीति का त्याग- अकबर के पूर्ववर्ती शासकों ने युद्ध में पकड़े गये स्त्री-पुरूषों को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया था । अकबर ने इस नीति का त्याग कर बलपूर्वक धर्म परिवर्तन पर रोक लगा दी ।
- तीर्थ यात्रा कर व जजिया कर की समाप्ति- अकबर के पूवर्व र्ती शासकों द्वारा हिन्दुओं पर तीर्थ यात्रा और जजिया कर लिया जाता था तथा जो इन करों को देने में असमर्थ होते थे, उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया जाता था । अकबर ने 1564 ई. में इन करों को समाप्त कर हिन्दुओं के प्रति समानता का व्यवहार किया । उसके इस कदम से व्यापाक हिन्दू समाज में अकबर के प्रति सम्मान का भाव जागृत हुआ ।
- धार्मिक स्वतंत्रता की नीति- अकबर ने अपने पवू वर्ती शासकों की भांित इस्लाम को राज्य धर्म नहीं बनाया वरन् उसने अपनी प्रजा को धार्मिक स्वतंत्रा प्रदान की । हिन्दुओं को उनके रीति रिवाजों के अनुसार उपासना करने, धार्मिक स्थलों या मंदिरों के निर्माण की स्वतंत्रता प्रदान की । हिन्दुओं से जजिया कर हटाया उन्हें धार्मिक स्वतंत्रा दी, दूसरी ओर इस्लाम के उलेमाओं के राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक एकाधिकार भी समाप्त कर दिया ।
- हिन्दुओं की उच्च पदों पर नियुक्ति-1562 ई. में अकबर ने हिन्दुओं और मुसलमानों सभी लोगों के लिए साम्राज्य में सभी पद योग्यता के आधार पर खोल दिये । इससे उसका राजदरबार बीरबल, टोडरमल, मानसिंह जैसे प्रतिभाशाली लोगों से भर गया । उसकी इस नीति का हिन्दुओं पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा और वे शासन के निकट आने लगे ।
- हिन्दुओं के रीति-रिवाजों के प्रति उदार- अकबर ने हिन्दुओं के रीति-रिवाजों एवं आचार-विचार के प्रति उदार का भाव व्यक्त किया । उसने हिन्दुओं का त्यौहार मनाना प्रारम्भ किया । अकबर कभी-कभी तिलक लगाता था, झरोखा दर्शन देता था और तुलादान करता था। उसने मूंछ रखना प्रारम्भ कर दिया था । उसके पुत्र सलीम का विवाह उसने हिन्दू रीति से करवाया। इतना नहीं जबरदस्ती मुसलमान बनाये गये हिन्दुओं को पुन: हिन्दू धर्म अपनाने की अनुमति प्रदान की । अकबर की इस धार्मिक उदारता का हिन्दू समाज पर अच्छा असर हुआ आम जनता मुस्लिम संस्कृति की ओर आकर्षित हुई। उसी प्रकार आम मुसलमान भी हिन्दू सांस्कृतिक धारा से जुडे़ रहे ।
- इबादतखाना की स्थापना- अकबर ने 1576 ई. में फतेहपुर सीकरी में इबादतखना की स्थापना की । यहां धर्म, कानून, दर्शन और सांसारिक ज्ञान आदि पर चर्चा करने के लिए सभी धर्मो के विद्वान आते थे । प्रति बृहस्पतिवार को यहां वाद-विवाद और धार्मिक गोष्ठियां होती थी। अकबर प्रत्येक धर्म व नियमों को ध्यानपूर्वक सुनता था । सम्राट स्वयं इसमें सम्मिलित होता था। इन धार्मिक व ज्ञान की चर्चाओं से अकबर ने अनुभव किया कि विश्व के सभी धर्म और विश्वास एक ही ईश्वर या सत्य की ओर प्रेरित करते हैं । अत: अन्य धर्मो के प्रति उसके मन में उदारता व श्रद्धा की भावना बढ़ी ।
- दीन-ए-इलाही-अकबर ने धार्मिक संकीणर्ता की सीमाओं को तोडकर सभी धर्मो की श्रेष्ठ बातों को लेकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की स्थापना की । उसका यह कार्य राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत था । अकबर इस नये धर्म के माध्यम से भारत के हिन्दुओं और मुसलमोनों को एक मचं पर खड़ा करना चाहता था । इस प्रकार अकबर की उदारता और सहिष्णुता की नीति समय और मांग और राजनीतिक आवश्यकता थी ।
अकबर तथा दक्षिण विजय अभियान
अकबर के राज्यरोहण के साथ ही अनेक विद्रोही भी पैदा हो गये । इसलिए दक्षिण के राज्यों पर आक्रमण आवश्यक हुआ था ।- दक्षिण भारत के अभियान का उद्द्देश्य- अकबर दक्षिण के विभिन्न राज्यो को अपने अधीन करके सम्पूर्ण भारत को एक प्रशासनिक सूत्र में आबद्ध करना चाहता था । इसके अतिरिक्त वह पूर्तगालियों को भारत से बाहर करना चाहता था, जो भारत की समृद्धि से लाभ उठा रहे थे। अकबर की दृष्टि में पुर्तगाली मुगल साम्राज्य के घोर शत्रु थे, जो देश के आर्थिक साधनों का शोषण कर रहे थे ।
- खानदेश का मुगल साम्राज्य में विलीनीकरण- दक्षिण अभियान के पूर्व अकबर ने खानदेश के शासक को उसकी अधीनता स्वीकार कर लेने की सलाह दी । खानदेश के शासक अली खां ने संदेश पाते ही अधीनता स्वीकार कर ली, किन्तु उसके पुत्र ने विरोध कर दिया और स्वतंत्र शासक की भांति व्यवहार करने लगा । परिणामस्वरूप 1599 ई. में खानदेश पर मुगल सेना ने आक्रमण कर दिया । उसके सुप्रसिद्ध किला असीरगढ़ को घेर लिया गया । असीरगढ़ का किला मुगलों के लिए एक चुनौती सिद्ध हुआ और उसे जीता नहीं जा सका । अन्त में एक बड़ी रकम घूस देकर किले का दरवाजा खुलवाया गया । इस प्रकार 1601 ई. में असीरगढ़ का किला मुगलों के अधिकार में आ गया । खानदेश के शासक मीरन बहादुर शाह को कैद करके ग्वालियर भेज दिया गया । इसके साथ ही खानदेश मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया ।
- बरार पर अकबर का आधिपत्य- 1591 ई. में अकबर ने अहमदनगर के निजाम शाही शासक को अधीनता स्वीकार करने का संदेश दिया । उससे कोई संतोषजनक उत्तर न मिलने पर अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में मुगल सेना को अहमदनगर पर चढ़ाई करने भेजा गया। 1595 ई. में राजकुमार मुराद को खानखाना की सहायता के लिए भेजा गया । मुगल सेना ने अहमदनगर को घेर लिया जिससे घमासान युद्ध हुआ । 1595 ई. में एक सन्धि हुई जिसके अनुसार बरार मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया ।
- अहमदनगर विजय- अकबर ने अहमदनगर को जीतने के लिए सर्वप्रथम अबुल फजल को दक्षिण भेजा । कुछ समय पश्चात उसने स्वयं भी एक विशाल सेना सहित अहमदनगर की ओर कचू किया । मुगल सेना ने 1599 ई. में दौलताबाद को तथा 1600 ई. में अहमदनगर को अपने कब्जे में ले लिया । अमदनगर को अकबर ने ले तो लिया, परनतु उसे वह मुगल साम्राज्य में नहीं मिला सका । युवराज सलीम के विद्रोह के कारण उसे उत्तर की और लौटना पड़ा । अहमदनगर के सरदार एक अन्य निजाम शाही राजकुमार को सुल्तान बनाकर मुगलों के विरूद्ध विद्रोह करते रहे। विजित प्रदेशों (बरार तथा खानदेश) को राजकुमार दानियाल को सौंप दिया गया ।